"इस्लाम की विदाई क्यों और कैसे?"
एक समय था चर्च ही कोर्ट था और राजा न होते हुए भी चर्च ही राजा था. चूँकि राजा पर, राज्य पर चर्च का प्रभाव ही इतना ज़्यादा था. और यह लगभग दुनिया में सब जगह था और दुनिया के सब धर्मों में था. लेकिन फिर पीछे चर्च की पकड़-जकड़ काफी कुछ कम हो चुकी थी, तभी पश्चिमी देशों ने एक-दम विज्ञान में जम्प किया. भारत में भी तथाकथित हिन्दू लोग धर्म को जीने-मरने का सवाल नहीं मानते थे. बल्कि अपने ही धर्म पर सवाल उठाते रहते थे. राम ने गर्भवती सीता को वनवास क्यों दिया? इस तरह की चर्चा/बहस निरंतर चलती रहती थी.
लेकिन आज मैं देखता हूँ, एक बड़ा तबका फिर से तथाकथित धर्म पर जोर देने लगा है. ऐसा क्यों? क्या है वजह?
इस्लाम! इस्लाम है वजह.
इस्लाम टस से मस नहीं हुआ. न हो रहा है. वो सातवीं सदी में घसीट दुनिया को पीछे ले जाना चाहता है. उस की वजह से जन-मानस जो अपने धर्मों से ऊपर उठता जा रहा था, उसे फिर से इस उलझन में फँसना पड़ रहा है. उस के दौड़ते हुए पांव, रुक गए हैं. उस की उड़ान थम गई है.
और
इस्लाम के पास बस एक ही चीज़ है जिस से वो दुनिया को हैरान, परेशान कर रहा है, वो है तादाद. गिनती. जनसंख्या. इस के अलावा इस्लाम के पल्ले कुछ नहीं है. कोई ज्ञान-कोई विज्ञान नहीं, कुछ नहीं.
मैं देखता हूँ तमाम लोग लगे हैं रोज़ाना राजनितिक बहसों में. अखबार, यूट्यूब, फेसबुक भरा है. किस राजनेता ने क्या कहा? क्या करा? कोई फायदा नहीं. वो सब शाखाओं पर ध्यान केंद्रित करना है. जड़ पर नहीं.
सारी राजनीति, समाज-नीति इस्लाम में उलझी हुई है. भारत की अधिकाँश राजनीति, अधिकाँश ऊर्जा मुसलमान को मैनेज करने में ही लगी रहती है. और अब तो यूरोप और कई और मुल्कों में भी काफी कुछ यही हाल है.
इसलिए
सारा ज़ोर इस्लाम को विदा करने पर होना चाहिए. और इस का एक इलाज़ हैं एक्स-मुस्लिम. उन से ज़्यादा इस्लाम को कौन समझता है?
एक होता है "Explosion" और एक होता "Implosion". यह "Implosion" बड़ा कीमती शब्द है इस संदर्भ में. किसी चीज़ का फट जाना, बम की तरह से. किसी बाहरी बम्ब-बन्दूक से नहीं, खुद ही फट जाना अंदर से ही. ये एक्स-मुस्लिम Implosion पैदा कर रहे हैं इस्लाम में. अभी शुरुआत है.
इलाज है, एक तो गैर-मुस्लिम को एक्स-मुस्लिम को ताकतवर बनाना चाहिए और दूसरा खुद भी इस्लाम को पढ़ना चाहिए, समझना चाहिए. इस के लिए तमाम वीडियो हैं , बहुत से लेख हैं इंटरनेट पर. हिंदी-अंग्रेज़ी और बहुत सी भाषाओँ में. इस्लामिक ग्रंथों के रिफरेन्स के साथ इस्लाम के हिंसक, अतार्किक, अवैज्ञानिक चेहरे को बेनक़ाब कर देना चाहिए.
गली-गली. नुक्क्ड़-नुक्क्ड़. हर ऑफलाइन-ऑनलाइन प्लेटफार्म पर.
और ताकत मुस्लिम पर लगाने की ज़रूरत नहीं है. यह ताकत गैर-मुस्लिम को गैर-मुस्लिम पर ही लगानी है. अगर गैर-मुस्लिम ठीक-ठीक इस्लाम के खतरे को समझ ले तो मुस्लिम का सर्वाइव करना वैसे ही मुश्किल हो जायेगा.
अभी देखा न, योगी जी का आर्डर था दुकानों पर नाम प्लेट लगाने का कांवड़ मार्ग पर, तो कैसे मुस्लिम और मुस्लिम समर्थक शोर मचाने लगे, कोर्ट पहुँच गए. क्यों? चूँकि मुस्लिम को गैर-मुस्लिम से धंधा न मिलने का खतरा था.
ज़रा सा गैर-मुस्लिम का समर्थन हटा, इस्लाम चरमराने लगेगा.
एक और बात, पूरी दुनिया के सेक्युलर मुल्कों को (भारत समेत) एक्स-मुस्लिम को शरण देनी चाहिए, सेफ्टी-सिक्योरिटी देनी चाहिए. अलग ज़ोन ही बना दें चाहे एक्स-मुस्लिम के लिए. सेफ जोन. एक्स-मुस्लिम का सैलाब आ जायेगा.
इस तरह से मामला हल होगा. एक तरफ से Implosion एक्स-मुस्लिम द्वारा और दूसरी तरफ से Explosion गैर-मुस्लिम द्वारा. और यह Implosion और Explosion वैसा नहीं है जैसा मुस्लिम "अल्लाह-हू-अकबर" का नारा लगा कर करते हैं, फट जाते हैं कहीं भी. या बम्ब/गोला बारूद फाड़ देते हैं कहीं भी. न, कतई नहीं. यह विचारात्मक जँग होगी.
इस जँग को लड़ो वरना तमाम तरक्की पर जँग लगती जा रही है.
अब जब इतना कुछ मैंने कहा है तो इस का अर्थ यह कतई नहीं है कि बाकी धर्मों के कचरे का, अंध-विश्वासों का समर्थन किया जाये, नहीं, बखिया सब धर्मों की उधेड़ो, इन का धरती पर कोई काम नहीं. इन की किताबों को अलमारी में बंद कर के रख देना चाहिए. कभी-कभार रिफरेन्स के लिए खोल लो बस. बाकी इन का कोई काम नहीं.
"हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई."
भाई भाई, मतलब सब बराबरी, सब में प्यार. इस से बड़ा झूठ, इस से ज़्यादा बकवास बात कोई क्या ही होगी. इंसान सब बराबर तभी तक होते हैं, जब तक उन में समाज द्वारा सॉफ्टवेयर अपलोड नहीं होते।
एक बार सॉफ्टवेयर डल गए तो सब की "डिफ़ॉल्ट सेटिंग" गड़बड़ा जाती है. अब सब का बाजा अलग ही बजता है. सब का आचार-वयवहार अलग हो जाता है. सब की सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक समझ अलग हो जाती है. सब रोबोट हो जाते हैं. रोबोट की तरह जीते हैं, रोबोट की तरह मरते हैं. रोबोट की तरह ही वोट देते हैं, रोबोट की तरह ही बच्चे पैदा किये जाते हैं.
सब खुद को तीस मार खान समझने लगते हैं और दूसरे को तुच्छ. आज की दुनिया में इस में सब से ज़्यादा खतरनाक सॉफ्टवेयर "इस्लाम" है. बाकी सब सॉफ्टवेयर डायरेक्ट मार-काट पर कम ही जाते हैं.
असल लड़ाई सामाजिक सॉफ्टवेयर की है, सामाजिक वायरस की है, सामाजिक संस्कारों की है. इसे गहना समझा जाता है, कीमती गहना. असल में यही तुम्हारी बेड़ियाँ हैं, यही तुम्हारी हथकड़ियाँ हैं, यही इंसान से मशीन बना कर रखे हुए हैं तुम्हें, रोबोट. और इस रोबॉटिकरण के हेड-क्वार्टर्स हैं मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च.
जिस दिन दुनिया को यह समझ आ जायेगा, दुनिया में अधिकांश फसाद खत्म हो जाएंगे और जन्नते ढूंढने कहीं और जाना ही नहीं पड़ेगा. जन्नत यहीं होगी. असल में जन्नत तो यहाँ है ही. बस जहन्नुम बनाया जाना बंद हो जाये.
नमन!
तुषार कॉस्मिक
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