अफगानिस्तान.... गुरुद्वारे पर अटैक..कौन ज़िम्मेदार?

अफगानिस्तान.... गुरुद्वारे पर अटैक... कोइ तीस  सिख मार दिए गए..     

कौन है ज़िम्मेदार.    कोई इस्लामिक संग़ठन ? 

मैं आपको बिना किसी लाग-लपेट के कहना चाहता हूँ कोई इस्लामिक संगठन ज़िम्मेदार नहीं है.  सीधा-सीधा इस्लाम ज़िम्मेदार है .     

ये जो अटैक हुआ गुरूद्वारे पर, ये कोई पहला  है? ऐसे कई अटैक पहले किये जा चुके हैं. फिर भी बहुत कम लोगों की हिम्मत होती है  कि  साफ़-साफ़ इस्लाम को ज़िम्मेदार ठहरा सकें। इस्लाम में बाकी किसी भी तरह की आइडियोलॉजी के लिए कोई जगह ही नहीं है. अल्लाह-हू-अकबर. अल्लाह सबसे ऊपर है. और वो अल्लाह वही नहीं है, जिसे आप भगवान या इश्वर कहते हैं. वो अल्लाह बिलकुल अलग है. उस अल्लाह के पैगम्बर हैं, श्रीमान मोहम्मद. और उनके ज़रिये अल्लाह ने अपना पैगाम भेजा है, जिसे क़ुरआन कहा जाता है. जो यह सब मानता है, वो मुसलमान है, जो नहीं मानता, वो काफिर है और काफिर के खिलाफ है क़ुरआन. एक से ज़्यादा आयते हैं क़ुरआन में काफिर के खिलाफ. इसीलिए दुनिया भर में मुस्लिम अटैक करते फिरते हैं. 

इनको सारी दुनिया में इस्लाम फैलाना है, चाहे जैसे मर्ज़ी फैले. सीधी-सीधी बात है. 

एक्शन बाद में होता है, पहले विचार आता है.  फल-फूल बाद में आते हैं, पहले ज़मीन में बीज पड़ते हैं. बिल्डिंग  बाद में बनती है, पहले नक्शा तैयार होता है. ये विचार, ये बीज, ये नक्शा क़ुरआन से आता है. आपको समझना है, गूगल कीजिये सब मिल जायेगा. मिनटों का काम है. 

अगर इस दुनिया को इस तरह के अटैक से आज़ाद करना है तो क़ुरआन को पढ़ें, क़ुरआन के एक शब्द को वैचारिक स्तर पर चैलेंज करें.  गाली-गलौच न करें. तर्क दें. फैक्ट्स दें. आंकड़े दें. 

यह सब भी करना  इस्लामिक मुल्कों में संभव नहीं है. पाकिस्तान में ही ब्लासफेमी कानून है. आप इस्लाम के खिलाफ, क़ुरान के खिलाफ,  श्रीमान मोहम्मद के खिलाफ बोल तक नहीं सकते. 

भारत जैसे मुल्क में यह सब फिर संभव है. लेकिन यहाँ भी ग्रुप बन गए हैं. कुछ लोग दिन-रात मुस्लिम के खिलाफ लिखते-बोलते हैं, कुछ सिर्फ हिन्दू के खिलाफ. Marvel  Vs  DC. 

मेरा संदेश यह है कि यदि आपको दुनिया को बेहतर बनाना है तो आपको क़ुरआन को तर्क पे लाना होगा लेकिन पुराण को भी तर्क पे लाना होगा और गुरूद्वारे के केंद्र बिंदु पर रखे  ग्रंथ को भी। 

क़ुरआन को, इस्लाम को चैलेंज करने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत इसलिये है चूँकि इस्लाम आक्रामक है. अग्रेसिव है. इस्लाम में वैचारिक आज़ादी की कोई गुंजाइश नहीं है.  बाकी समाजों में फिर क्रिटिकल थिंकिंग पैदा हो सकती है. लेकिन इस्लाम क्रिटिकल थिंकिंग की कत्लगाह है. बाकी समाज में फिर खिड़की, रोशन दान हैं, इस्लाम एक बंद घुटा हुआ सा अँधेरा  कमरा है. बाकी समाजों में सामजिक व्यवस्था के लिए कोई बहुत जिद्द नहीं है कि  किसी ख़ास धर्म-ग्रंथ से ही बंधी होनी चाहिए, लेकिन इस्लाम में ऐसा ही है, इसलिए मुस्लिम अपने हिसाब से कानून तक बनवा लेते हैं. भारत में ही मुस्लिम पर्सनल लॉ अलग हैं.  मुस्लिम जहाँ संख्या में थोड़े ज़्यादा होते हैं तो उस मुल्क के कायदा-कानून बदलने के लिए जलसे जुलुस करने लगते हैं. 

इस्लाम को चैलेंज करने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत इसलिए है चूँकि इस्लाम की वजह से ही रोज़ दुनिया के अलग-अलग कोने में गैर-मुस्लिम पर इस तरह के अटैक होते रहते हैं, जैसा ये पीछे गुरूद्वारे पर हुआ.   

मेरा संदेश सीधा-सीधा यह है कि सब तथाकथित धर्म ज़हर हैं, लेकिन इस्लाम पोटासियम साइनाइड है. 

तो हल क्या है? हल सीधा है.  क्रिटिकल थिंकिंग का प्रसार. क्रिटिकल  थिंकिंग एंटी-डॉट  है. एंटी-डॉट फैलाएं. 


शुक्रिया  ...   धन्यवाद..   थैंक्यू

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