और हम तो उसी (यकता ख़ुदा) के फ़रमाबरदार हैं और जो शख़्स इस्लाम के सिवा किसी और दीन की ख़्वाहिश करे तो उसका वह दीन हरगिज़ कुबूल ही न किया जाएगा और वह आखि़रत में सख़्त घाटे में रहेगा ( कुरआन 3.85)
If anyone desires a religion other than Islam (submission to Allah), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who have lost (All spiritual good). (Quran 3.19)
ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. (कुरआन-66.9)
O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)
(मैं) उस ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है।
अलिफ़ लाम मीम अल्लाह ही वह (ख़ुदा) है जिसके सिवा कोई क़ाबिले परस्तिश नहीं है. वही जि़न्दा (और) सारे जहान का सॅभालने वाला है ((3.1 & 3.2)
Alif, Lam, Meem. Allah - there is no deity except Him, the Ever-Living, the Sustainer of existence. (3.1 & 3.2)
(ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाजि़ल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाजि़ल की (3.3)
He has sent down upon you, [O Muhammad], the Book in truth, confirming what was before it. And He revealed the Torah and the Gospel. (3.3)
और हक़ व बातिल में तमीज़ देने वाली किताब (कु़रान) नाज़िल की बेशक जिन लोगों ने ख़ुदा की आयतों को न माना उनके लिए सख़्त अज़ाब है और ख़ुदा हर चीज़ पर ग़ालिब बदला लेने वाला है (3.4)
Before, as guidance for the people. And He revealed the Qur'an. Indeed, those who disbelieve in the verses of Allah will have a severe punishment, and Allah is exalted in Might, the Owner of Retribution. (3.4)
ये कुछ आयतें काफी है यह समझने को कि इस्लाम की सेक्युलर दुनिया में कोई जगह नहीं है. सो जब अमेरिका में मुस्लिम को डिपोर्ट करने की आवाज़ उठती है या भारत में मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजने की आवाज़ उठती है, तो मैं शत-प्रतिशत सहमत होता हूँ. मुझे तो तब भी यकीन था कि दुनिया बदलने वाली है, जब ट्रम्प को चुटकला समझा जा रहा था.
इस्लाम 'मज़हब' नहीं है सिर्फ. पूजा पद्धति नहीं है मात्र. इस्लाम 'दीन' है, जिसके अपने सामाजिक, आर्थिक और सियासी नियम, कायदे-कानून हैं. पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था. राईट?
तो कौन मना कर रहा है, मुसलमानों को अपने दीन के हिसाब से जीने के लिए?
तमाम मुल्कों से मुसलमानों को निकल जाना चाहिए, जहाँ-जहाँ भी लोग सेक्युलर हिसाब से जीना चाहते हों.
बेहतर है मुसलमान अरबी मुल्कों में बसें, पाकिस्तान में बसें, बांग्ला-देश में बसें. जहाँ भी मुसलमान बहुसंख्या में हों, वहां रहें.
जहाँ मुसलमान होगा, बटवारा होगा ही.
सन सैंतालीस का बटवारा, आपको बताया गया होगा कि जिन्ना ने करवाया, गांधी ने करवाया, अंग्रेजों ने करवाया. नहीं. जहाँ इस्लाम होगा, वो मुल्क बटेगा ही. जहाँ उनकी जनसंख्या जोर मारेगी, वो मुल्क बटेगा ही. दुनिया बटेगी ही.
मैं आरएसएस के विरोध में हूँ. मेरे सैकड़ों लेखों में से एक है, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा". लेकिन एक पॉइंट पर सहमत हूँ उससे. मुस्लिम विरोध. वीर सावरकर ने जो सदी पहले समझा, वो गांधी को समझ नहीं आया. वो "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" गाते रहे. "हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई'' गाते रहे. जबकि अल्लाह खुद कह रहा है कुरआन में कि वो सिर्फ इस्लाम के मानने वालों के साथ है. रवीश कुमार, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई जैसे उथले लोग आज भी नहीं जानते कि इस्लाम चीज़ क्या है और न ही अरविन्द केजरीवाल इस्लाम के खतरों के प्रति सजग दीखते हैं.
इस्लाम में और बाकी धर्मों में बुनियादी फर्क यह है कि बाकी धर्मों में शरिया जैसे किसी सामाजिक, आर्थिक कायदे-कानून की व्यवस्था नहीं है. बाकी धर्मों को मानने वाले बड़ी आसानी से किसी भी मुल्क की पार्लियामेंट में बने कायदे-कानूनों को मान लेते हैं. दूसरे मुल्कों में पहुँच वहाँ के कायदे-कानूनों में बदलाव की मांग नहीं करने लगते. या वहां पहुँच अपनी अलग ही दुनिया नहीं बना लेते.
भारत का एक नाम 'हिन्दुस्तान' है ज़रूर लेकिन हिन्दू भारत की पार्लियामेंट में बने कानून मानते हैं न कि किसी गीता माता से निकले कानून.
सिक्खों में खालिस्तान की डिमांड उठी ज़रूर लेकिन अंदर-खाते न तो सब सिक्ख तब सहमत थे और न ही आज सहमत हैं. सिक्ख बड़े आराम से छह इंच छोटी कृपाण रख लेता है, अड़ नहीं जाता कि एक मीटर लम्बी कृपाण ही रखेगा.
जैन अहिंसा को मानते हैं. पक्षी घायल हो जाए तो इलाज करते हैं लेकिन जगह-जगह मुर्गे कटते हैं तो झंडा-डंडा लेकर नहीं निकल पड़ते.
मुसलमान आज भारत में मल्टी-कल्चरिज्म की बात करता है. 'गंगा जमुनी तहज़ीब' की बात करता है. लेकिन धोखा दे रहा है. दूसरों को या खुद को. या धोखा खा रहा है. उसे कुरान देखनी चाहिए. कुरान के मुताबिक इस्लाम में किसी मल्टी-कल्चरिज्म की, सह-अस्तित्व की सम्भावना ही नहीं है.
अगर मुसलमान ठीक-ठीक कुरआन समझ ले तो उसे ट्रम्प और आरएसएस का धन्य-वाद करना चाहिए जो सेकुलरिज्म को मानने वाले गंदे-गलीज़ मुल्कों से उसे बाहर करना चाहते हैं ताकि वो पाकिस्तान जैसे पाक-साफ़ मुल्कों में जा बसें.
और ट्रम्प ऐसे ही नहीं आ गए. ट्रम्प की भूमिका तो 9/11 के हमले से ही बन गई थी. 9/11 के बाद अमेरिका पर बार-बार जो हमले किये गए वो सब वजह हैं ट्रम्प के आने की. अयान हिरसी, वफ़ा सुलतान, ब्रिजिट गेब्रियल, रोबर्ट स्पेंसर जैसे कितने ही लेखक-लेखिकाओं ने पश्चिमी मुल्कों को बार-बार, लगातार इस्लाम के खतरों से आगाह किया है. किताबें लिखी हैं, लेक्चर दिए हैं, वेबसाइट चलाईं हैं. सामाजिक प्रोग्राम चलाए हैं.
मुझे तो हैरानी है कि ट्रम्प को आते-आते इतनी देर कैसे लग गई! और ट्रम्प को चुटकला समझा गया, घटिया चुटकला और आज उनके जीतने के बाद भी ऐसा ही समझा जा रहा है.
मुसलमान ऐसे दिखा रहे हैं जैसे इस्लामिक आतंकवाद मुसलमान की वजह से नहीं है, मुसलमान के साथ जो ज़्यादती होती है, उसकी वजह है.
'खुदा के वास्ते' नाम की पाकिस्तानी फिल्म देखें, काफी मशहूर है. भारत की Newyork फिल्म देखें. बेचारे इनोसेंट मुसलमान अमेरिका द्वारा परेशान किये जा रहे हैं. शाहरुख़ खान को तो अमेरिका एअरपोर्ट पर नंगे हो कर तलाशी देनी पड़ी. उन्होंने 'My name is Khan' बना दी. जिसका बेसिक फंडा यह बताना था कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता. फिल्म के अंत में वो अमेरिकी प्रेसिडेंट को मिल कर यह कहने में कामयाब हो ही जाते हैं "My name is Khan and I am not a terrorist."
ठीक है कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता लेकिन हर मुसलमान आतंक-वादी होने की सम्भावना से भरपूर है. और वो सम्भावना कुरान से आती है.
मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरेंगे. मरते रहेंगे.
गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया.
गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता.
जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.
कारण मुल्क हैं. और मुल्कों के अस्तित्व के पीछे भी बड़ा कारण पन्थ हैं, मज़हब हैं, धर्म हैं, दीन हैं.
जब तक ये सब किसी एक प्लेटफार्म पर नहीं आते, कॉमन-प्रोग्राम स्थापित नहीं कर लेते या इंसान ही इतना समझदार नहीं हो जाता कि इन सबसे नमस्ते कर ले, तब तक मुल्क भी रहेंगे और मुल्क रहेंगे तो फौजें रहेंगी. कहते सब हैं कि ये फौजें "डिफेन्स फोर्सेज" हैं लेकिन फिर "अटैक" कौन कर जाता है, युद्ध कैसे हो जाते हैं आज तक समझ नहीं आया. तो मैं बता रहा था कि फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरते रहेंगे.
और जब मुल्क रहने ही हैं अभी, तो फिर हमें यह भी सोचना होगा कि क्यूँ न इस तरह से रहें कि वहां के वासी जितना हो सके शांति से रह पाएं?
उसके लिए मुसलमानों का मुस्लिम मुल्कों में केंद्री-करण एक रास्ता है.
नमन....तुषार कॉस्मिक
If anyone desires a religion other than Islam (submission to Allah), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who have lost (All spiritual good). (Quran 3.19)
ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. (कुरआन-66.9)
O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)
(मैं) उस ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है।
अलिफ़ लाम मीम अल्लाह ही वह (ख़ुदा) है जिसके सिवा कोई क़ाबिले परस्तिश नहीं है. वही जि़न्दा (और) सारे जहान का सॅभालने वाला है ((3.1 & 3.2)
Alif, Lam, Meem. Allah - there is no deity except Him, the Ever-Living, the Sustainer of existence. (3.1 & 3.2)
(ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाजि़ल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाजि़ल की (3.3)
He has sent down upon you, [O Muhammad], the Book in truth, confirming what was before it. And He revealed the Torah and the Gospel. (3.3)
और हक़ व बातिल में तमीज़ देने वाली किताब (कु़रान) नाज़िल की बेशक जिन लोगों ने ख़ुदा की आयतों को न माना उनके लिए सख़्त अज़ाब है और ख़ुदा हर चीज़ पर ग़ालिब बदला लेने वाला है (3.4)
Before, as guidance for the people. And He revealed the Qur'an. Indeed, those who disbelieve in the verses of Allah will have a severe punishment, and Allah is exalted in Might, the Owner of Retribution. (3.4)
ये कुछ आयतें काफी है यह समझने को कि इस्लाम की सेक्युलर दुनिया में कोई जगह नहीं है. सो जब अमेरिका में मुस्लिम को डिपोर्ट करने की आवाज़ उठती है या भारत में मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजने की आवाज़ उठती है, तो मैं शत-प्रतिशत सहमत होता हूँ. मुझे तो तब भी यकीन था कि दुनिया बदलने वाली है, जब ट्रम्प को चुटकला समझा जा रहा था.
इस्लाम 'मज़हब' नहीं है सिर्फ. पूजा पद्धति नहीं है मात्र. इस्लाम 'दीन' है, जिसके अपने सामाजिक, आर्थिक और सियासी नियम, कायदे-कानून हैं. पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था. राईट?
तो कौन मना कर रहा है, मुसलमानों को अपने दीन के हिसाब से जीने के लिए?
तमाम मुल्कों से मुसलमानों को निकल जाना चाहिए, जहाँ-जहाँ भी लोग सेक्युलर हिसाब से जीना चाहते हों.
बेहतर है मुसलमान अरबी मुल्कों में बसें, पाकिस्तान में बसें, बांग्ला-देश में बसें. जहाँ भी मुसलमान बहुसंख्या में हों, वहां रहें.
जहाँ मुसलमान होगा, बटवारा होगा ही.
सन सैंतालीस का बटवारा, आपको बताया गया होगा कि जिन्ना ने करवाया, गांधी ने करवाया, अंग्रेजों ने करवाया. नहीं. जहाँ इस्लाम होगा, वो मुल्क बटेगा ही. जहाँ उनकी जनसंख्या जोर मारेगी, वो मुल्क बटेगा ही. दुनिया बटेगी ही.
मैं आरएसएस के विरोध में हूँ. मेरे सैकड़ों लेखों में से एक है, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा". लेकिन एक पॉइंट पर सहमत हूँ उससे. मुस्लिम विरोध. वीर सावरकर ने जो सदी पहले समझा, वो गांधी को समझ नहीं आया. वो "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" गाते रहे. "हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई'' गाते रहे. जबकि अल्लाह खुद कह रहा है कुरआन में कि वो सिर्फ इस्लाम के मानने वालों के साथ है. रवीश कुमार, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई जैसे उथले लोग आज भी नहीं जानते कि इस्लाम चीज़ क्या है और न ही अरविन्द केजरीवाल इस्लाम के खतरों के प्रति सजग दीखते हैं.
इस्लाम में और बाकी धर्मों में बुनियादी फर्क यह है कि बाकी धर्मों में शरिया जैसे किसी सामाजिक, आर्थिक कायदे-कानून की व्यवस्था नहीं है. बाकी धर्मों को मानने वाले बड़ी आसानी से किसी भी मुल्क की पार्लियामेंट में बने कायदे-कानूनों को मान लेते हैं. दूसरे मुल्कों में पहुँच वहाँ के कायदे-कानूनों में बदलाव की मांग नहीं करने लगते. या वहां पहुँच अपनी अलग ही दुनिया नहीं बना लेते.
भारत का एक नाम 'हिन्दुस्तान' है ज़रूर लेकिन हिन्दू भारत की पार्लियामेंट में बने कानून मानते हैं न कि किसी गीता माता से निकले कानून.
सिक्खों में खालिस्तान की डिमांड उठी ज़रूर लेकिन अंदर-खाते न तो सब सिक्ख तब सहमत थे और न ही आज सहमत हैं. सिक्ख बड़े आराम से छह इंच छोटी कृपाण रख लेता है, अड़ नहीं जाता कि एक मीटर लम्बी कृपाण ही रखेगा.
जैन अहिंसा को मानते हैं. पक्षी घायल हो जाए तो इलाज करते हैं लेकिन जगह-जगह मुर्गे कटते हैं तो झंडा-डंडा लेकर नहीं निकल पड़ते.
मुसलमान आज भारत में मल्टी-कल्चरिज्म की बात करता है. 'गंगा जमुनी तहज़ीब' की बात करता है. लेकिन धोखा दे रहा है. दूसरों को या खुद को. या धोखा खा रहा है. उसे कुरान देखनी चाहिए. कुरान के मुताबिक इस्लाम में किसी मल्टी-कल्चरिज्म की, सह-अस्तित्व की सम्भावना ही नहीं है.
अगर मुसलमान ठीक-ठीक कुरआन समझ ले तो उसे ट्रम्प और आरएसएस का धन्य-वाद करना चाहिए जो सेकुलरिज्म को मानने वाले गंदे-गलीज़ मुल्कों से उसे बाहर करना चाहते हैं ताकि वो पाकिस्तान जैसे पाक-साफ़ मुल्कों में जा बसें.
और ट्रम्प ऐसे ही नहीं आ गए. ट्रम्प की भूमिका तो 9/11 के हमले से ही बन गई थी. 9/11 के बाद अमेरिका पर बार-बार जो हमले किये गए वो सब वजह हैं ट्रम्प के आने की. अयान हिरसी, वफ़ा सुलतान, ब्रिजिट गेब्रियल, रोबर्ट स्पेंसर जैसे कितने ही लेखक-लेखिकाओं ने पश्चिमी मुल्कों को बार-बार, लगातार इस्लाम के खतरों से आगाह किया है. किताबें लिखी हैं, लेक्चर दिए हैं, वेबसाइट चलाईं हैं. सामाजिक प्रोग्राम चलाए हैं.
मुझे तो हैरानी है कि ट्रम्प को आते-आते इतनी देर कैसे लग गई! और ट्रम्प को चुटकला समझा गया, घटिया चुटकला और आज उनके जीतने के बाद भी ऐसा ही समझा जा रहा है.
मुसलमान ऐसे दिखा रहे हैं जैसे इस्लामिक आतंकवाद मुसलमान की वजह से नहीं है, मुसलमान के साथ जो ज़्यादती होती है, उसकी वजह है.
'खुदा के वास्ते' नाम की पाकिस्तानी फिल्म देखें, काफी मशहूर है. भारत की Newyork फिल्म देखें. बेचारे इनोसेंट मुसलमान अमेरिका द्वारा परेशान किये जा रहे हैं. शाहरुख़ खान को तो अमेरिका एअरपोर्ट पर नंगे हो कर तलाशी देनी पड़ी. उन्होंने 'My name is Khan' बना दी. जिसका बेसिक फंडा यह बताना था कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता. फिल्म के अंत में वो अमेरिकी प्रेसिडेंट को मिल कर यह कहने में कामयाब हो ही जाते हैं "My name is Khan and I am not a terrorist."
ठीक है कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता लेकिन हर मुसलमान आतंक-वादी होने की सम्भावना से भरपूर है. और वो सम्भावना कुरान से आती है.
मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरेंगे. मरते रहेंगे.
गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया.
गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता.
जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.
कारण मुल्क हैं. और मुल्कों के अस्तित्व के पीछे भी बड़ा कारण पन्थ हैं, मज़हब हैं, धर्म हैं, दीन हैं.
जब तक ये सब किसी एक प्लेटफार्म पर नहीं आते, कॉमन-प्रोग्राम स्थापित नहीं कर लेते या इंसान ही इतना समझदार नहीं हो जाता कि इन सबसे नमस्ते कर ले, तब तक मुल्क भी रहेंगे और मुल्क रहेंगे तो फौजें रहेंगी. कहते सब हैं कि ये फौजें "डिफेन्स फोर्सेज" हैं लेकिन फिर "अटैक" कौन कर जाता है, युद्ध कैसे हो जाते हैं आज तक समझ नहीं आया. तो मैं बता रहा था कि फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरते रहेंगे.
और जब मुल्क रहने ही हैं अभी, तो फिर हमें यह भी सोचना होगा कि क्यूँ न इस तरह से रहें कि वहां के वासी जितना हो सके शांति से रह पाएं?
उसके लिए मुसलमानों का मुस्लिम मुल्कों में केंद्री-करण एक रास्ता है.
नमन....तुषार कॉस्मिक
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