Friday, 10 March 2017

इमोशनल इंटेलिजेंस

मैं तर्क का हिमायती हूँ. इतना कि मेरा मानना है कि गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ तर्क युद्ध होना चाहिए. तर्क की अग्नि से गुज़रे बिना मानव मन पर सदियों-सदियों से पड़े अंध-विश्वासों की मैल गलेगी नहीं. लेकिन आज बात इमोशन की, भावनाओं की. क्या तार्किक होना इमोशनल होने के खिलाफ है? और यह 'इमोशनल इंटेलिजेंस' क्या है? आईये देखिये. आपने अक्सर खबरें सुनी होंगी, ज़रा सी बात पर कत्ल हो जाते हैं. मरने वाला तो मर जाता है लेकिन मारने वाला भी मर जाता है. उसके पीछे उसका परिवार भी मारा जाता है. “ज़रा सी बात”. दिल्ली में रोड़ रेज की खबरें लगभग रोज़ सुनते-पढ़ते होंगे आप. ऐसे में हो सकता है कि कोई इंसान किसी की बदतमीज़ी बर्दाश्त कर ले. हो सकता है कि वो बुज़दिल दिखाई दे, लेकिन उसकी यह वक्ती बुजदिली उसे ख्वाह्मखाह की मुसीबतों से बचा भी सकती है. इसे कहते हैं 'भावनात्मक बुद्धिमत्ता'. इमोशनल इंटेलिजेंस. अब अगली बात. मर्द को दर्द नहीं होता. लेकिन मर्द को सेक्स का मज़ा भी नहीं आता क्या? दर्द होता है, मर्द हो चाहे औरत. लेकिन मर्द ज़ाहिर नहीं करता. ज़ाहिर करेगा तो उसकी मर्दानगी पर शक किया जाएगा. लेकिन वो इतना पक्का हो जाता है कि सम्भोग के क्षणों में भी पत्थर बना रहता है. औरत सिसकारती रहती है, वो ऐसे बना रहता है जैसे उसे कुछ हो ही नहीं रहा हो. शब्द ज़रूर 'सम्भोग' है, समान भोग, लेकिन ऐसा है नहीं. औरत ज़्यादा एन्जॉय करती है, गहरे में एन्जॉय करती है. और ऐसा इसलिए कि औरत बच्चा पैदा करने की तकलीफ से गुज़रती है. तो कुदरत ने उसको उस कष्ट की क्षति-पूर्ति करने हेतु एक्स्ट्रा-बेनिफिट दिया है. मेरी थ्योरी है. कितनी सही है, सोच कर देखें. चलिए, औरत से कम ही सही, लेकिन आदमी भी एन्जॉय तो करता ही सेक्स. लेकिन जितना भी करता है, उतना भी ज़ाहिर नहीं करता. अपने आपको रोके रखता है. घसुन्न-वट्टा बना रहता है. उसने सीख रखा है कि इमोशन की मोशन में बहना नहीं है. खुद को रोके रखना है. मर्द को दर्द नहीं होता. बस यही है मेरा पॉइंट. यह जो आपको याद दिलाई रोड़ रेज की घटनाओं की. वो वक्ती इमोशन, नेगेटिव इमोशन का नतीजा होती हैं. इमोशन को नहीं पता कि वो नेगेटिव है या पॉजिटिव. इमोशन तो बस एक एनर्जी है, ऊर्जा, मोशन, गति. लेकिन हालात के हिसाब से वो नेगेटिव साबित होती हैं. तो ऐसी इमोशन पर, नेगेटिव इमोशन पर काबू पाना ज़रूरी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम मुस्कुराएं भी तो नाप कर. हंसे भी तो तोल कर. मानता हूँ समाज ऐसा है कि ऐसा भी करना पड़ता है. लेकिन जहां नहीं मज़बूरी, वहां भी हम नाप-तोल कर, गिन-चुन कर भावनाओं का इज़हार कर रहे हैं, यह कहाँ की समझदारी है? कैसी इमोशनल इंटेलिजेंस? तो इमोशनल इंटेलिजेंस यह है कि जहाँ इमोशन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना, वहां बिलकुल मत होने दें, खुद को याद दिलाते रहें कि बहस नहीं करनी है, लड़ना नहीं है, लोग तो @#$^&*% होते ही हैं आदि आदि. और यदि ध्यान समझते हों तो बेहतर है उस घटना के प्रति, उस नेगेटिव इमोशन के प्रति उदासीन हो जाएं. उदास नहीं, उदासीन. साक्षी हो जाएं, गवाह, विटनेस. लेकिन जहाँ आप बह सकते हैं, वहां शीतल वायु के साथ बह जायें, बच्चे के साथ खिलखिलाएं, अपनी महबूबा की सिसकारियों के साथ अपनी सिसकारियां मिला दें, और फिल्म देखते हुए रोना आये तो खूब रोयें. पता है कि पर्दा है, रोशनी का खेल है, वहां असल में कुछ भी घटित नहीं हो रहा लेकिन ऐसे तो जीवन भी खेल है. लीला. लेकिन खेल को खेल जानते हुए भी जी-जान से खेला जाता है कि नहीं? तो बस खेलें. लीला के रंग में रंग जाएँ. रोकें नहीं, टोके नहीं. बारिश की एक-एक बूँद को महसूस करें. गले में उतरते पानी के एक-एक घूँट का आनदं लें. खाना खाएं तो मशीन की तरह नहीं, इंसान की तरह, आखिरी कौर तक स्वाद का लेते हुए. नर्म बिस्तर, नर्म कम्बल, मखमली कम्बल की छूअन को अपने अंदर उतरने दें. ये अहसास, ये बहाव, ये भाव, ये भावनाएं जीवन को रंगीन बनाती हैं. होली इन्ही अहसासों को, इन्ही रंगीनियों को जगाने का एक ज़रिया है. रंगों के ज़रिये, छूअन के ज़रिये, नृत्य के ज़रिये, गायन के ज़रिये,पागल-पंथी के ज़रिये. तो जब मैं तर्क की बात करता हूँ तो उसका अर्थ जीवन को भावों से, भावनाओं से, अहसासों से विहीन करना नहीं है बल्कि इनमें भी समझदारी लाने से है. इमोशनल इंटेलिजेंस. नमन....तुषार कॉस्मिक

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