हम सब ऐसे जीते हैं जैसे मौत हो ही न. लेकिन आप किसी के मृत्यु-क्रिया में जाओ, पंडत-पुजारी-भाई जी कान खा जायेंगे उस एक घंटे में, आपका जीना मुहाल कर देंगे, आपको यह याद दिला-दिला कि 'मौत का एक दिन मुअययन है'. ठीक है मौत आनी है, इक दिन आनी है या शायद किसी ख़ास रात की दवानी है तो क्या करें? जीना छोड़ दें? वो हमें यह याद दिलाते हैं कि यह जीवन शाश्वत नहीं है सो हम स्वार्थी न हो जाये. सही है, लेकिन जब तक जीवन है तब तक जीवन की ज़रूरतें हैं और जब तक ज़रूरतें हैं तब तक स्वार्थ भी हैं. हाँ, स्वार्थ असीमित न हों, बेतुका न हों. जैसे जयललिता के घर छापे में इत्ते जोड़ी जूतियाँ मिलीं, जो शायद वो सारी उम्र न पहन पाई हो. लोग इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं जितना वो उपयोग ही नहीं कर सकते. धन का दूसरा मतलब है ज़िन्दगी. धन आपको ज़िदगी जीने की सुविधा देता है, ज़िन्दगी फैलाने की सुविधा देता है. धन आपको ज़िन्दगी देता है. लेकिन जब जितनी ज़िंदगी जीने की आपकी सम्भावना है उससे कई गुना धन कमाने की अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो आप असल में पागल हो चुके होते हैं. आपको इस पागलपन का अहसास इसलिए नहीं होता, चूँ...