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Showing posts from June, 2018

Intelligentsia

गर कहीं बेहतरी की गुंजाईश है लेकिन हो नहीं रही तो उसके लिए मैं सरकारों को नहीं, वहां के intelligentsia (बुद्धिजीवी वर्ग) को ज़िम्मेदार मानता हूँ. चूँकि सरकारें तो प्राय: बकवास ही होती हैं लेकिन उनके ज़रिये बेहतरी करवाता है intelligentsia. Intelligentsia, जो मुल्क में, दुनिया में विचार की हवा बनाता है और उस हवा से बनी आंधी के दबाव में सियासत को रुख बदलना पड़ता है, बात माननी पडती है.

मौत

हम सब ऐसे जीते हैं जैसे मौत हो ही न. लेकिन आप किसी के मृत्यु-क्रिया में जाओ, पंडत-पुजारी-भाई जी कान खा जायेंगे उस एक घंटे में, आपका जीना मुहाल कर देंगे, आपको यह याद दिला-दिला कि 'मौत का एक दिन मुअययन है'. ठीक है मौत आनी है, इक दिन आनी है या शायद किसी ख़ास रात की दवानी है तो क्या करें? जीना छोड़ दें? वो हमें यह याद दिलाते हैं कि यह जीवन शाश्वत नहीं है सो हम स्वार्थी न हो जाये. सही है, लेकिन जब तक जीवन है तब तक जीवन की ज़रूरतें हैं और जब तक ज़रूरतें हैं तब तक स्वार्थ भी हैं. हाँ, स्वार्थ असीमित न हों, बेतुका न हों. जैसे जयललिता के घर छापे में इत्ते जोड़ी जूतियाँ मिलीं, जो शायद वो सारी उम्र न पहन पाई हो. लोग इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं जितना वो उपयोग ही नहीं कर सकते. धन का दूसरा मतलब है ज़िन्दगी. धन आपको ज़िदगी जीने की सुविधा देता है, ज़िन्दगी फैलाने की सुविधा देता है. धन आपको ज़िन्दगी देता है. लेकिन जब जितनी ज़िंदगी जीने की आपकी सम्भावना है उससे कई गुना धन कमाने की अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो आप असल में पागल हो चुके होते हैं. आपको इस पागलपन का अहसास इसलिए नहीं होता, चूँ...

लंगर

शब्द सुनते ही श्रधा जग जाती होगी. नहीं? शब्द सुनते ही एक पवित्रता का अहसास होता होगा कि कुछ तो अच्छा कर रहे हैं. दान. पुण्य. धर्म. शब्द सुनते ही भाव जगता होगा कि लंगर बहुत ही स्वादिष्ट होता है, चाहे कद्दू की सब्ज़ी ही क्यों न बनी हो. आपके सब अहसास, सब भाव बकवास है. सड़कों पर गन्दगी फैलती है. प्लास्टिक के जिन्न का कद और बड़ा हो जाता है. पैसे वालों के अहंकार का जिन्न फल-फूल जाता है. उनको ख़ुशी मिलती है कि उनके पास इतना पैसा है जिसे वो बहा सकते हैं और उस पैसे से बने लंगर के लिए लोग लाइन लगा कर खड़े हो सकते हैं. उन्हें तृप्ति मिलती है कि अगर उनसे कोई पाप हुआ है, कुछ गलत हुआ है तो अब उनका पाप पाप न रहेगा. उनका गलत गलत नहीं रहेगा. पूंजीपति के संरक्षण का साधन है 'लंगर'. अमीर को लगे कि वो कुछ तो भला कर रहा है समाज का. और गरीब को भी लगे कि हाँ, अमीर कुछ तो भला कर रहा है उसका. लेकिन बस लगे. हल कुछ नहीं होता. क्या हल होता है लंगर से? क्या हल हुआ है लंगर से? क्या मुल्क की गरीबी मिट गई? भूख मिट गई? क्या हुआ? ये लंगर किसी भी समस्या का समाधान नहीं हैं. चाहे गुरूद्वारे में चल...

सरकारी नौकरियां- पुराने व्यवधान--नए समाधान

१. हर सरकारी नौकर wearable वीडियो कैमरा पहने हो और CCTV तले भी हो. २. कम से कम सैलरी का जो टेंडर भरे, नौकरी उसे मिलनी चाहिए. ३. जो काम उससे करवाया जाना है, बस उसमें महारत हो उसे, जैसे बैंक केशियर बनने के लिए फिनांस की दुनिया की महारत नहीं, बस अपना काउंटर सम्भालने जितनी क्षमता हो. ४. साफ़-सफाई, सीवर हैंडलिंग जैसे काम में सैलरी आम कामों से दोगुनी हो. ५. शिकायत का वीडियो या ऑडियो सही साबित होते ही बर्खास्तगी और सज़ा का प्रावधान भी. ६. जो काम प्राइवेट ठेके पर हो सकते हैं, उनमें सरकारी टांग खत्म हो, जैसे सफाई का काम प्राइवेट कम्पनियों को दिया जा सकता है. ७. अब अगर कोई रिजर्वेशन मांगता भी है तो दे दो. हमें क्या है? ८. नमन...तुषार कॉस्मिक

आज थोड़ा गीत-संगीत

੧. किशोर दा की सिंगिंग में मुझे रफी साहेब के मुकाबले ज़्यादा रेंज लगती है. आवाज़ में ज़्यादा खुलापन. २. लता बहुत ज्यादा परफेक्ट गाती थीं, ऐसे लगता था जैसे उनकी आवाज़ किसी परफेक्ट मशीन में से आ रही हो. मुझे आशा उनसे बेहतर लगीं. आवाज़ में थोड़ा नमकीन-पन. लता बहुत ज्यादा मीठीं. डायबिटीज हो जाये. ३. जगजीत सिंह कभी खास नहीं लगे. उनके जैसा गाना मुझे लगा थोड़े प्रयास से कोई भी गा दे. ४. नुसरत फ़तेह अली साहेब. वाह. लेकिन उनके गानों में दोहराव महसूस होता था. और उनके आखिरी दिनों में उनकी आवाज़ ज़्यादा गाने की वजह से या शायद किसी और वजह से फटने लगी थी. ५. उषा उत्थूप ने साबित किया है कि मीठी और सुरीली आवाज़ ही ज़रूरी है गाने के लिए, यह सरासर गलत है. उनकी आवाज़ मरदाना किस्म की है. लेकिन पसंद किया जाता है उनको. ७. और आज के गानों के न बोल अच्छे हैं न संगीत. और उसकी वजह यह है कि लोग सब तुचिए हो गए हैं. न उनमें गाने की समझ है, न संगीत की. मतलब समझना तो उनके बस की बात ही नहीं. बस कूदना है. उसके लिए बिना बोल के संगीत प्रयोग किया करो बे, ये भद्दे-भद्दे बोल वाले गाने क्यों? ७. बाकी मैंने एक लेख लिखा था, अंग्...

बाबरी मस्ज़िद का गिरना और मेरी ख़ुशी

मुझे ख़ुशी है कि बाबरी मस्जिद गिरी. हर मस्जिद गिरनी चाहिए. साथ ही मन्दिर भी.साथ ही गुरुद्वारे भी. गिरजा भी. ये मन्दिर, मसीत, गुरूद्वारे जो इन्सान को हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख में बांटे ये धर्म नहीं अधर्म के अड्डे हैं. यहाँ का प्रसाद अमृत नहीं, ज़हर है. यहाँ के शब्द बुद्धि-हरण वटी हैं. धर्म-स्थल होने चाहियें, जहाँ व्यक्ति शांत हो बैठना चाहे बैठ सके. सोना चाहे सो सके. नाचना चाहे नाच सके. सम्भोग करना चाहे, कर सके. लेकिन ऐसे स्थल कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख के न हों. कोई अलग पहचान न छोडें, जिससे इंसानियत टुकड़ों में बंटे. बोलिए समझ में आई मेरी बात? तुषार कॉस्मिक

आलोचना जज साहेब की

कोर्ट जाना होता है बहुत. वकील नहीं हूँ. अपने केस लेकिन खुद लड़ लेता हूँ और प्रॉपर्टी के विषय में कई वकीलों से ज्यादा जानकारी रखता हूँ. तो मित्रवर, आज बात जजों पर. कहते हैं कि आप जजमेंट की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जज की नहीं. बकवास बात है. इस हिसाब से तो आप क़त्ल की आलोचना करो, कातिल को किस लिए सज़ा देना? आलोचना हर विषय की-हर व्यक्ति की होनी चाहिए. आलोचना से परे तो खुदा भी नहीं होना चाहिए तो जज क्या चीज़ हैं? पीछे एक इंटरव्यू देख रहा था. प्रसिद्ध वकील हैं 'हरीश साल्वे'. जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में भारत का पक्ष रखा था कुलभूषण जाधव के केस में. यह वही जाधव है जिसे पाकिस्तान ने जासूसी के आरोप में पकड़ा हुआ है. खैर, ये वकील साहेब बड़ी मजबूती से विरोध कर रहे थे उन लोगों का जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ़ महा-अभियोग लाया था. इनका कहना था कि ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए चूँकि इस तरह तो जजों की कोई इज्ज़त ही नहीं रहेगी. कोई भी कभी भी किसी भी जज पर ऊँगली उठा देगा. हरीश साल्वे जैसे लोग लोकतंत्र का सही मायना समझते ही नहीं. यहाँ भैये, सब सरकारी ...
आज शायद कोई गुर-पर्व था. सिक्ख बन्धु भी वही बेअक्ली कर रहे थे जो अक्सर हिन्दू करते हैं. जबरन कारें रोक पानी पिला रहे थे. ट्रैफिक जैम. लानत! सड़कों पर जूठे गिलास, पत्तल आदि का गंद ही गंद. लक्ख लानत!! और गंद भी प्लास्टिक का. लानत ही लानत!!! अबे तुम कोई पुण्य नहीं, पाप कर रहे हो मूर्खो. इसीलिए कहता हूँ कि धर्म ही अधर्म है. अच्छे-भले इन्सान की बुद्धि घास चरने चल देती है. मूर्खता के महा-अभियोजन हैं धर्म. बचो. और बचाओ.
आरक्षण एक गलत सुझाव है...बुनियादी रूप से मानो सौ मीटर की दौड़ होनी है और कोई दौड़ाक को जान बूझ कर घटिया डाइट दी गयी हो सालों और वो हारता ही आया हो. तो अब इस समस्या का इलाज क्या है? क्या यह इलाज है कि उसे जबरन जितवा दिया जाये? यह तो पूरे खेल को ही खराब करना हुआ. इसका इलाज यह है कि उसे डाइट बेहतर दी जाये. बेहतर से भी बेहतरीन. लेकिन दौड़ तो दौड़ है. इसमें कैसा आरक्षण? आशा है समझा सका होवूँगा.

बदलिए कोर्ट का माहौल

कभी कोर्ट का सामना किया हो तो आप मेरी बात समझ जायेंगे. जज एक ऊंचे चबूतरे पर कुर्सी पर बैठते हैं. वकील, वादी, प्रतिवादी उनके सामने खड़े होते हैं. बीच में एक बड़ा सा टेबल टॉप होता है. वकील आज भी 'मी लार्ड' कहते दिख जाते हैं. क्या है ये सब? आपको-मुझे, जो आम-अमरुद-आलू-गोभी लोग हैं, उन्हें यह अहसास कराने का ताम-झाम है कि वो 'झाऊँ-माऊं' हैं. जज कौन है? जज जज है. ठीक है. लेकिन है तो जनता के पैसे से रखा गया जनता का सेवक. तो फिर वो कैसे किसी का 'लार्ड' हो गया? तो फिर काहे उसे इत्ता ज्यादा सर पे चढ़ा रखा है. उसे ऊंचाई पर क्यों, हमें निचाई पर क्यों रखा गया है? उसे बैठा क्यों रखा है, हमें खड़ा क्यों कर रखा है? सोचिये. समझिये. आप जनता नहीं हैं. आप ही मालिक हैं. जज और हम लोग आमने-सामने होने चाहियें...एक ही लेवल पर. बैठे हुए. खतरा है तो गैप रख लीजिये.....बुलेट प्रूफ गिलास लगा लीजिये बीच में . फिर दोनों तरफ की आवाज़ साफ़ सुने उसके लिए माइक का इन्तेजाम कर लीजिये. कार्रवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग कीजिये. हो सके तो youtube पर भी डालिए. माहौल बदल जायेगा जनाब. नमन........तुषार...

भारत----एक खोज--आज-कल-और कल

मोदी काल एक विशेषता के लिए याद किया जाता रहेगा. इत्ते लोग पलायन कर गए भारत से, जित्ते शायद कभी नहीं किये. इत्ते कि भाई साहेब को आयोग गठित करना पड़ गया यह पता करने के लिए कि इस पलायन की वजह क्या है. क्या वजह है? इसके लिए क्या कोई आयोग चाहिए था? चार लोगों से पूछ लेते गर अपनी अक्ल नहीं चलती तो. भारत में आरक्षण जड़ जमाए है. जो अभी तो विदा होने से रहा. कितना ही तर्क दो, कुछ होने वाला है नहीं. लोग सार्वजनिक सीट पर रूमाल रख चले जाते हैं तो सीट रिज़र्व मानी जाती है, लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं उस सीट के लिए. यहाँ तो नौकरियों की बात है. और ये नौकरियां कोई नौकरियां नहीं हैं, उम्र भर का गिफ्ट हैं. मोटी तनख्वाह. भत्ते. साहिबी. पक्की नौकरी. ऐसे गिफ्ट को कोई कैसे छोड़ देगा? न, यह होने वाला नहीं. तो जनरल श्रेणी की नई पौध में जिनके भी माँ-बाप सक्षम हैं, स्टडी वीज़ा पर उन्हें बाहर भेजे जा रहे हैं. ज्यादातर बच्चे कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड का रुख कर चुके हैं. कुछ को बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों ने बाहर भेज रखा है. एक और श्रेणी है. जिनके पास भी यहाँ दो-चार-पांच करोड़ रुपये हो चुके, वो भारत छो...