स्कूटर के पीछे लिखा था, "बड़ी हो कर कार बनूंगी."  मैंने उसे कहा, "रहने दे, बड़ा होने में कोई बड़प्पन नहीं है. दुनिया के ट्रैफिक में फंस के रह जाएगी."  
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नशा
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     "नशा शराब में होता तो नाचती बोतल" सुना ही होगा आपने, अमिताभ पर फिल्माया गया गाना. बकवास गणित है यह. आग तिल्ली में नहीं, माचिस की डिब्बी में भी नहीं, लेकिन घिस दो तिल्ली माचिस के पतले पटल पर, आग पैदा हो जायेगी. बच्चा न लड़की में है और न लड़के में, लेकिन सम्भोग-रत हो जायेंगे दोनों तो बच्चा पैदा हो जायेगा. सिम्पल.          खैर, मैंने अपनी ज़िन्दगी में कोई नशा शरीर में नहीं डाला है. और मेरी कभी इच्छा भी नहीं हुई.      पिता जी, शराब पीते थे, लेकिन बहुत सम्भल कर. मीट के भी शौक़ीन थे. खुद बनाते थे और बनाते-बनाते चौथाई मीट खा जाते. जिस रात उनकी मृत्यु हुई, उस रात भी उन्होंने दारू पी थी. अस्सी के करीब थे वो तब. लाल. सीधी कमर. मुझे बस इतना ही कहते थे कि बेटा मैं तो दिहाड़ी करता था, कम उम्र था, समझाने वाला कोई था नहीं, पता नहीं कब पीने लगा लेकिन हो सके तो तू मत पीना.     और मुझे शायद उनका कहा जम गया. जो कहते हैं कि गुड़ छोड़ने की शिक्षा से पहले खुद गुड़ खाना छोड़ो, वो बकवास करते हैं. पिता जी पीते  थे, मुझे मना कर गए और मुझे उनकी मनाही पकड़ गई.      फिर मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थ...
कुहू कॉस्मिक
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   कुहू (मेरी छोटी बेटी) 5.5 साल की है. सारा दिन घर में मोहल्ले की हम-उम्र लड़कियों का जमघट रहता है.   परसों कुहू ममी के साथ कहीं गई थी. माही (कुहू की फ्रेंड) मुझे कहने आई, "अंकल, कुहू को कहना कि माही छः बजे खेलने आयेगी." मतलब एडवांस बुकिंग.    कितनी निराली है इन बच्चों की दुनिया! बार्बियाँ. ढेरों खिलौने. इनकी माँएँ कभी झल्लाती हैं, "इनका खेल ही नहीं खत्म होता." "पेट नहीं भरता इनका खेल-खेल."  अभी-अभी गिन्नी (कुहू की एक और फ्रेंड) की ममी आईं, "गिन्नी...तुझे अगर ममी न बुलाये तो तू तो कभी घर ही नहीं आयेगी. "  कोई माँ बन जाएगी, कोई बच्चा, कोई टीचर, कोई स्टूडेंट. सारा दिन कुछ-न-कुछ करती रहती हैं.   मैंने कुहू को बोल रखा है, "बेटा, थोड़ी-थोड़ी देर में ममी, पापा और सूफी (कुहू की बड़ी बहन) को हग्गी और किस्सी ज़रूर करना है, उससे हमारी एनर्जी बनी रहती है." वो करती भी है.  मेरे पास अगर कमाने का झंझट न हो तो मैं कुहू की दुनिया का हिस्सा बना रहूँ. इन सब बच्चों को खेलते हुए देख-देख निहाल होता रहूँ.   थोड़ा तो सौभग्यशाली हूँ. जो समझता हूँ कुछ चीज़ें. वरना तो...
लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं
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   अमिताभ बच्चन ने बोला है यह  dialogue.  फेमस है.  कीमती शब्द हैं, किन्ही अर्थों में.   कैसे?   लाइन वहीं से शुरू होनी चाहिए, जहाँ आप खड़े हों.  मैं सिनेमा या रेल की टिकट लेने को खड़े लोगों की लाइन की बात ही नहीं कर रहा. न.   हर इन्सान कुदरत की नई कृति है. वो किसी और की बनाई लाइन पे क्यों चले? किसी और के पीछे क्यों चले? क्यों खड़ा हो किसी के पीछे?  ये बड़े ही सिम्पल से शब्द हैं मेरे. लेकिन और आगे लिखूंगा तो निन्यानवे प्रतिशत इंसानी आबादी की समझ से बाहर हो जाएगी मेरी बात.  क्यों खड़े हैं आप किसी अरब के रेगिस्तानों में 1400 साल पहले पैदा हुए आदमी के पीछे?  क्यों अंधे हैं आप किसी कृष्ण, किसी राम के नाम के पीछे? जो शायद हजारों साल पहले हुए.   क्यों आपने  दो हज़ार साल पहले पैदा हुए किसी व्यक्ति को ईश्वर का बेटा मान रखा है? आप क्या किसी और ईश्वर के बेटे हैं?  ये लोग सही थे या  गलत थे? यह सेकेंडरी सवाल है. प्राइमरी सवाल यह है कि इनके जीवन, इनके कथनों को काहे अंधे हो कर मानना?  तुम इनसे एक कतरा भी, एक ज़र्रा भी कमतर नहीं हो.   तुम किसी पैगम्बर, किसी अवतार, किसी भगवान से जरा भी कमतर नहीं हो.   लाइन व...
बे-ईमान
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   जानते हैं मुसलमान  'बे-ईमान' किसे समझता है?  जो 'बिना ईमान वाला' हो.   और कौन है 'बिना ईमान वाला'?  जो 'मुस्लिम' नहीं है. क्योंकि ईमान तो दुनिया में एक ही है और वो है इस्लाम.   मतलब जो मुस्लिम नहीं है, वो तो वैसे ही चोर, उचक्का, डकैत, हरामी है. आपने पढ़ा होगा, "हलाल मीट शॉप". ये इस्लामी ढंग से जिबह किये गए जानवर का मांस बेचती दुकानें हैं.  लेकिन सब तो उस ढंग से नहीं काटते जानवर. तो जो बाकी ढंग हैं, वो है झटका. लेकिन जो हलाल नहीं, वो तो "हराम" ही हुआ न, चाहे वो झटका, चाहे फटका. इसलिए मुसलमान सिर्फ हलाल मीट खाते हैं.     खैर, अब जो दुनिया यह समझ रही है, वो अपना अस्तित्व बचाए रखने का संघर्ष कर रही है. चाहे उस संघर्ष में वो भी इस्लाम जैसे ही होती जा रही है.   जिससे आप लडेंगे, कुछ कुछ उस जैसे हो ही जायेंगे. आपको लड़ने वाले के स्तर पर आना ही होगा. एक विद्वान भी अगर किसी रिक्शे वाले से सड़क पर भिड़ेगा तो उसे एक बार तो रिक्शे वाले के स्तर पे आना ही होगा. सब किताब-कलम मतलब लैपटॉप-गूगल धरा रह जायेगा. माँ-बहन याद की जाएगी एक-दूजे की.    क़ुरान से ...
हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही
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   एक मित्र ने कमेंट किया है कि मैं इस्लाम के खिलाफ लिखता हूँ तो क्या मुसलमानों के कत्ल पर सहमत हूँ.   नहीं हूँ? बिलकुल नहीं हूँ. मेरे दोस्त हैं, मुस्लिम. यहाँ भी हैं. मैंने घंटों बिताएं हैं मुस्लिम मित्रों के साथ.   प्रॉपर्टी डीलिंग में भी मेरे दोस्त हैं नाज़िम भाई. आज कल सबसे ज्यादा इन्ही के साथ बात-चीत होती है.   Anikul Rahman दिल्ली में रहते हैं, मेरे छोटे साले साहेब के घर के बिलकुल साथ वाली सोसाइटी में द्वारका में. मैं ख़ास मिलने गया था इनसे. गपशप हुई. मुझे उनकी बातों  से लगा कि वो चिंतित हैं, सेफ्टी के लिए अपने और अपने परिवार के लिए. होना भी चाहिए.  एक हैं Mo Zeeshan Shafayye. ये मुझे मिले बाराबंकी में. इनकी कोई प्रॉपर्टी फंसी है कोर्ट केस में. कोई साल भर पुराना नाता है और यकीन जानिये बहुत ही प्यारा नाता है.   और भी लोग हैं. जिनसे सम्पर्क रहा है घंटों, सालों.  तो मेरी समझ यह है कि ये सब लोग भी एक अच्छी, सेहतमंद, सेफ ज़िन्दगी ही चाहते हैं. ये सब भी अपने परिवारों के लिए जान लड़ाते हैं. ये सब लोग भी वैसे ही हैं जैसे और तबके के लोग हैं. बुनियादी ज़रूरते, बुनियादी उम्मीदें, बुनियादी तकलीफे...
मेरा समाज--एक झलक
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   मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. मेरे बगल में ही एक इलाका है मादी पुर. यह एक पुनर्वास कॉलोनी है. इस कॉलोनी के लगभग हर चौक पर मैं अक्सर टोन-टोटके करे हुए देखता हूँ. निश्चित ही यहाँ के परेशान निवासियों की समस्याओं का हल बामन, मौलवी या बाबा ने इनको यह सब करने में बताया होगा.   मादीपुर के एक तरफ पश्चिम विहार और दूसरी तरफ पंजाबी बाग. आपको गलियों या सड़कों के बीचों-बीच इन दोनों इलाकों में इस तरह की बेहूदगी नहीं मिलेगी.   पंजाबी बाग तो वेस्ट दिल्ली के सबसे अमीर इलाका है. जिन्न-भूत-प्रेत लगता है अमीरों से दूर भागते हैं.   असल में सब कहानी अनपढ़ता की है. और जब मैं अनपढ़ लिखता हूँ तो उसका मतलब यह नहीं कि कोई पढ़ना लिखना जानता है तो वो अनपढ़ नहीं हो सकता. नहीं, वो निपट अनपढ़ से ज्यादा अनपढ़ हो सकता है चूँकि उसकों वहम हो जाता है कि वो पढ़ा-लिखा है अब उसको आगे पढ़ने, खुद को गढ़ने की ज़रूरत नहीं है. वो खुद के लिए एवं समाज के लिए अनपढ़ों से भी ज्यादा खतरनाक है.   लोग अनपढ़ हैं, अनगढ़ हैं. जिधर मर्ज़ी हंक जाते हैं. कुछ समय पहले यहाँ दिल्ली के हर मोड़ पर साईं बाबा की विशाल चौकी के लिए पैसे इकट्ठे करने की दूका...
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  सबसे ज्यादा छित्तर इन्सान खुद को मारता रहता है.   ज़रा गलती हो जाये, खुद को कचोटता रहता है.   अच्छे काम पर खुद को शाबाशी भी देनी चाहिए.     हाँ, लेकिन न्यूट्रल नज़र बहुत ज़रूरी है, खुद के प्रति भी और यहीं सब नाप-तोल गड़बड़ा जाता है.     तकड़ी का काँटा कहीं भी एक्सट्रीम पकड़ लेता है.   या तो खुद को हम आसमान पर चढ़ा लेते हैं या फिर खड्ड में गिरा लेते हैं.     बैलेंस बना ही नहीं पाते चूँकि हमारी नजरों पर हज़ार-हज़ार पर्दे हैं बेवकूफियों के.     खैर, अल्लाह-ताला नाम का ताला खुल जाए सबसे ज़रूरी तो यही है.     हो नहीं पाता अक्सर. अधिकांश इन्सान इत्ते खुश-किस्मत नहीं होते. अंधेरों में पैदा होना, अंधेरों में जीना और अंधेरों में ही मरना, यही नियति है अधिकांश जन की.   
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  जितना व्यक्ति जानदार होगा उतना ही दीन-दुनिया उससे परेशान होगी. जानदार से मतलब डौले-शोले वड्डे होना नहीं है. रीढ़ मज़बूत होना है. और वो रीढ़ मजबूत योग या जिमनास्टिक करने से नहीं गहन सोच से होती है, जो कि अधिकांश जन की होती नहीं. दुनिया में आये हैं तो बस खाओ, पीओ, बच्चे पैदा करो और मर जाओ. बस इससे ज्यादा सोच ही नहीं है. पागल थे वो लोग जिन्होंने आविष्कार करने में जिंदगियां गला दीं, जिन्होंने समाज को दिशा देने में हाथ-पैर कटवा दिए, जिन्होंने दुनिया को रोशनी मिल सके इसलिए ज़हर पी लिया. बस तुम ठीक हो, जो सिर्फ अपनी औलादों और अपने लिए पैसे का ढेर खड़ा करने में ही मोक्ष पा लेते हो. उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं पीछे, इस धरती पर गंद डालने को. जरा योगदान नहीं कि दुनिया कि बेहतरी हो सके. लंगर लगा देंगे सड़क पर, हो गया काम. सड़क पर गंद डालेंगे, ट्रैफिक जाम कर देंगे, प्लास्टिक का ज़हर फैला देंगे और इतने में निहाल हो जायेंगे.   इडियट हो, मर जाओ   
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  अधिकांश लोग अपनी नाक से आगे नहीं सोच पाते.     दूर के बड़े फायदे को नहीं देख पाते. दूर तक होते हुए फायदे नहीं देख पाते. नहीं देख पाते कि सामने वाला सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हो सकता है.     वो बस नजदीक का फायदा देखते हैं. तुरत होने वाला फायदा देखते हैं. मुर्गी को तुरत हलाल या हराम करने में यकीन करते हैं.     इडियट हैं. होना तो यह चाहिए कि कई बार दूर के बड़े फायदे के लिए निकट का छोटा फायदा भी कुर्बान कर देना चाहिए. ऐसा मेरा मानना है.     मैं लम्बे रिश्ते बनाने में यकीन रखता हूँ. लेकिन रख नहीं पाता हूँ चूँकि आप लम्बे रिश्ते तभी रख सकते हैं जब सामने वाला भी ऐसा ही सोचता हो. अन्यथा आप मुर्दा किस्म के रिश्ते ढोते रहेंगे.   
इडियट केजरीवाल
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    तभी कहता हूँ कि केजरीवाल नहीं है भविष्य भारत का. भारत का भविष्य मैं हूँ. ये जनाब तो हिन्दुओं को मुफ्त तीर्थयात्रा करवा रहे हैं और मुस्लिमों को हज की बधाइयां देते फिर रहे हैं.     स्टेट सेक्युलर है. और स्टेट्समैन को भी सेक्युलर होना मांगता. मांगता कि नहीं?     न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.     संविधान सेक्युलर है. संविधान तो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात भी करता है.     अब मैं जैसे नहीं मानता किसी भी धर्म को तो मेरे जैसे लोगों के साथ तो ना-इन्साफी है न कि मेरे पैसे से हज या तीर्थ करवाए जाएँ या कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दिया जाए.     इडियट हैं ये नेता. दफा करो इनको. सिर्फ मेरे जैसों को बढ़ाओ, जो तुम्हारे समाज की बकवास मान्यताओं को तार-तार कर के रख देंगे.