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Showing posts from 2017

सड़क-नामा

भारत में सड़क सड़क नहीं है...भसड़ है. यह घर है, दुकान है. इसे घेरना बहुत ही आसान है. इसपे सबका हक़ है, बस पैदल चलने वाले को छोड़ के. उसके लिए फुटपाथ जो था, वो अब दुकानें बना कर आबंटित कर दिया गया है. उन दुकानों के आगे कारों की कतार होती है. पदयात्री सड़क के बीचो-बीच जान हथेली पर लेकर चलता जाता है. रोम का ग्लैडिएटर. कहीं पढ़ा था कि एक होता है ‘राईट टू वाक (Right to walk)’, पैदल चलने का हक़, कानूनी हक़. बताओ, पैदल चलने का भी कोई कानूनन हक़ होता है? मतलब अगर कानून आपको यह हक़ न दे तो आप पैदल भी नहीं चल सकते. खैर, एक है पैदल चलने का हक़ ‘राईट टू वाक (Right to walk)’ और दूसरा है ‘राईट टू अर्न (Right to earn)’ यानि कि कमाने का हक़. जब इन दोनों हकों में कानूनी टकराव हुआ तो कोर्ट ने ‘राईट टू अर्न’ को तरजीह देते हुए फुटपाथ पर रेहड़ी-पटड़ी लगाने वालों को टेम्पररी जगहें दे दीं. तह-बज़ारी. अब वो अस्थाई जगह, स्थाई दुकानों को भी मात करती हैं. जिनको दीं थीं, उन में से शायद आधे भी खुद इस्तेमाल नहीं करते. किराए पर दे नहीं सकते कानूनन, भला फुटपाथ भी किराए पर दिया जा सकता है कोई? लेकिन आधे लोग किराया ...

आलोचक

हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना.

सेकुलरिज्म

नहीं, हम एक सेक्युलर स्टेट बिलकुल नहीं है........एक सेक्युलर स्टेट में नास्तिक, आस्तिक, अग्नास्तिक सबकी जगह होनी चाहिए... स्टेट को किसी भी धारणा से कोई मतलब नहीं होता. वो निरपेक्ष है. उसका धर्म संविधान और विधान है. पुराण या कुरान नहीं.....ऐसे में किसी भी तरह की प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है स्कूलों में....लेकिन आपके सब स्कूल चाहे सरकारी हों चाहे पंच-सितारी हों, सुबह-सुबह बच्चों को गैर-सेक्युलर बनाते हैं....उनकी सोच पर आस्तिकता का ठप्पा लगाते हैं. आपके तो अधिकांश स्कूलों के नाम भी संतों, गुरुओं के नाम पर हैं. मैंने नहीं देखा कि किसी स्कूल का नाम किसी वैज्ञानिक, किसी फिलोसोफर. किसी कलाकार के नाम पर हो. आपने देखा कि किसी स्कूल का नाम आइंस्टीन स्कूल हो, नीत्शे स्कूल हो, गलेलियो स्कूल हो, या फिर वैन-गोग स्कूल हो......देखा क्या आपने? नाम होंगे सेंट फ्रोएब्ले, सेंट ज़विओर, गुरु हरी किशन स्कूल या फिर दयानंद स्कूल..... अगर प्रार्थना ही करवानी है तो दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिकों, कलाकारों, समाज-शास्त्रियों, फिलोसोफरों को धन्य-वाद की प्रार्थना गवा दीजिये. उसमें ऑस्कर वाइल्ड भी, शेक्स...

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग बिल...

तीन पॉइंट

1.जिसे आप संस्कृति समझते हैं, वो बस विकृति है. 2.जिसे आप धार्मिकता कहते हैं, उसे मैं मूर्खता कहता हूँ, सामूहिक मूर्खता. 3. जिसे आप सनातन समझते हैं, वो मात्र पुरातन है, जितना पुराना, उतना ही सड़ा हुआ.

CYBORG

मुझे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में किताबें, फिल्में, ऑडियो आदि सीधा मानव मस्तिष्क में ट्रांसप्लांट किये जा पायेंगे...इससे व्यक्ति के वर्षों बचेंगे. और डाटा को सुपर कंप्यूटर में डाला जायेगा, जिसकी लॉजिकल प्रोसेसिंग के बाद वो रिजल्ट दे देगा कि सही क्या है या यूँ कहें कि सबसे ज़्यादा सम्भावित सही क्या है....और यह डाटा भी इन्सान पलों में ही access कर पायेगा. इससे तर्क-वितर्क और भी साइंटिफिक हो जायेगा. इस तरह से किस उम्र में कितना डाटा डाला जाये, कंप्यूटर प्रोसेसिंग के रिजल्ट भी किस तरह से ट्रांसप्लांट किये जाएँ, यह सब भविष्य तय करेगा. इंसानी जानकारियाँ और उन जानकारियों के आधार पर की गई उसकी गणनाएं/ कंप्यूटिंग/ तार्किकता/Rationality भविष्य में आज जैसी नहीं रहेंगी, यह पक्का है. इंसान कुछ-कुछ CYBORG हो जायेगा. यानि रोबोट और इन्सान का मिक्सचर. तकनीक ही गेम-चेंजर साबित होगी. समाज खुद से तो बदलने से रहा. और नेता तो इसे जड़ ही रखेंगे ताकि उनका हित सधता रहे.

सेक्स और इन्सान

माना जाता है कि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है. लेकिन यह इन्सान ही है, जो सेक्स न करके हस्त-मैथुन कर रहा है. "एक...दो...तीन...चार...हा...हा...हा....हा........." यह इन्सान ही है, जो पब्लिक शौचालय में लिख आता है, "शिवानी रंडी है.....", "भव्या गश्ती है", "मेरा लम्बा है, मोटा है, जिसे मुझ से Xदवाना हो, फ़ोन करे......98..........", आदि अनादि. यह इन्सान ही है, जो हिंसक होता है तो दूसरे की माँ, बहन, बेटी को सड़क पे Xद देता है. "तेरी माँ को xदूं........तेरी बेटी को कुत्ते xदें ........तेरी बहन की xत मारूं". यह इन्सान ही है, जो बलात्कार करता है और सेक्स के लिए न सिर्फ बलात्कृत लड़की का बल्कि अपना भी जीवन दांव पर लगा देता है. यह इन्सान ही है, जो गुब्बारे तक में लिंग घुसेड़ सुष्मा, सीमा, रेखा की कल्पना कर लेता है. यह इन्सान ही है, जो कपड़े पहने है, चूँकि उससे अपना नंग बरदाश्त ही नहीं हुआ. लेकिन फिर ढका अंग बरदाश्त नहीं होता तो वही कपड़े स्किन-टाइट कर लेता है. आज की फिल्में देखो तो हेरोइन अधनंगी है, पुरानी फ़िल्में देखो तो हेरोइन...

राम-राम/रावण-रावण

घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे.  "क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?"  "कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?" "नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?" "अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?" अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.

मूर्खों का देश

जिस देश में धिन्चक पूजा, राधे माँ, निर्मल बाबा, स्वामी ॐ जैसे लोग सलेबिरिटी हों...... जिस देश में बिग-बॉस जैसे टीवी प्रोग्राम खूब देखे जाते हों..... जिस देश में गंगा बहती तो हो लेकिन बुरी तरह से प्रदूषित हो..... हम उस देश के वासी हैं. हम उस देश के वासी हैं जिसके लिए काटजू साहेब ने कहा था कि निन्यानवें प्रतिशत मूर्ख लोगों का देश हैं. आपको अभी भी शक है काटजू साहेब की बात पर?

बेस्ट सेल्स-मैन

सुना  होगा आपने कि बढ़िया सेल्स-मैन वो है जो गंजे को कंघी बेचे.  गलत सुना है.  बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे. नहीं समझ आया.  जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.

नबी का जन्म-दिन

इस बार  नबी का जन्म-दिन ऐसे मनाया गया जैसे कम-से-कम दिल्ली में तो मैंने पहले कभी नहीं देखा. निश्चित ही यह बाहुबल, वोटिंग-बल, संख्या-बल भी दिखाने को था. सडकें सडकें नहीं थी, जुलुस स्थल  थी आज. नारे बुलंद हो रहे थे, "सरकार की आमद...मरहबा...मरहबा." पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. विष्णु गार्डन में बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. आज नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 4-5 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. बंद करो सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दूकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं. क्या है...

अनुष्का शर्मा की NH-10--अच्छी फिल्म

अनुष्का शर्मा ने एक फिल्म में एक्टिंग ही नहीं की, बनाई भी खुद थी. NH-10. मेरे पास शब्द नहीं इस फिल्म की तारीफ के लिए. ज़रूर देखें. और हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना. तो देखिये यह फिल्म तन और मन की नज़रों को प्रयोग करते हुए, मेरे कहने पर.

The world seems to have No Future

Oscar wilde, Osho, Khushwant Singh and people like them, I respect them, I love them. Had the world listened to their words, it would have been far better. But the world has fallen into the hands of the rogues, marching towards collective suicide. There is no future, if everything goes on as it is going on.

मैं और श्रीमति जी.....ट्रेड फेयर दिल्ली में ...कुछ ही दिन पहले

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मैं और धर्म

मैं सिरे का अधार्मिक व्यक्ति हूँ. किशोर-अवस्था से. गुरूद्वारे में ग्रन्थ-साहेब-जी-दी-ग्रेट के सामने किसी के मत्था टेके पैसे उठा लिए एक बार. फिर सोचा मन्दिर में हाथ आज़माया जाए, लेकिन कुछ हासिल न हुआ सिवा चरणामृत के. बंगला साहेब गुरूद्वारे जाना होता है, परिवार की जिद्द की वजह से, मुझे सिर्फ दो चीज़ पसंद हैं.....एक कड़ाह प्रसाद, दूजा लंगर प्रसाद. शनिवार को वो जो बर्तन में सरसों का तेल डाल के मंगते घूमते हैं न, उनमें से एक का तेल से भरा डोलू (बर्तन) ही धरवा लिया था मैंने. मोहल्ले में भागवत कथा हो रही है. मैं बीवी जी को कह रहा था, "मैं भी जा सकता हूँ क्या?" बीवी ने कहा, "नहीं. हमने मोहल्ले भर से लड़ाई नहीं करनी." "पंडित जी से पूछ तो लेता कि शंकर जी ने कौन सी विद्या से हाथी का सर इन्सान के धड़ से जड़ दिया था? पंडित जी की गर्दन काट कर भी ऐसा ही चमत्कार किया जा सकता है क्या? ट्राई करने में क्या हर्ज़ है? फिर सारी दुनिया उनकी भी पूजा करेगी. मॉडर्न गणेश जी. नहीं?" "नहीं....नहीं." "हनुमान जी तो उड़ते थे, जंगल-पहाड़ लाँघ जाते थे. ज़रा पंडी जी ...

नमन शहीदों को?

सीमा पर कोई जवान मरेगा, तो सरकारी अमला सलाम ठोकेगा उसकी लाश को, शायद उसे कोई तगमा भी दे दे मरणोंपरांत, हो सकता है उसके परिवार को कोई पेट्रोल पंप दे दे या फिर कोई और सुविधा दे दे. शहीदों को सलाम. नमन. किसी दिन कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी न आई हो तो झट से कूड़े को ढक दिया जाता है, बहुत अच्छे से, ताकि बदबू का ज़र्रा भी बाहर न आ सके. यह शहीदों का सम्मान-इनाम-इकराम सब वो ढक्कन है जो संस्कृति के नाम पर खड़ी की गई विकृति की बदबू को बाहर नहीं फैलने देता. "ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुरबानी." शहीद! वतन के लिए मर मिटने वाला जवान!! गौरवशाली व्यक्तित्व!!! है न? गलत. कुछ नहीं है ऐसा. जीवन किसे नहीं प्यारा? अगर जीवन जीने लायक हो तो कौन नहीं जीना चाहेगा? जो न जीना चाहे उसका दिमाग खराब होगा. और यही किया जाता है. दिमाग खराब. वतन के लिए शहीद हो जाओ. असल में तुम्हारे सब शहीद बेचारे गरीब हैं, जिनके पास कोई और चारा ही नहीं था जीवन जीने का इसके अलावा कि वो खुद को बलि का बकरा बनने के लिए पेश कर दें. एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी...

यादें बचपन की

तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है." और अपनी पसंद की चीज़ माँ मेरे मुंह में ठूंसती जाती थी. आज काजू लाते हैं तो मैं श्रीमति को कहता हूँ, "मुझ से छुपा के रख दो, बच्चों को पसंद हैं, वो खायेंगे."

यादें

बहुत छोटा था तो कभी-कभार पानी में नमक-मिर्च डाल कर बासी रोटी के साथ भी खिलाई ममी ने.......हमारा परिवार वैसे अच्छा खाता-पीता था लेकिन अब लगता है कि शायद कुछ लोग सब्जी अफ्फोर्ड नहीं कर पाते होंगे तो ऐसे भी खाना खाते होंगे.......वैसे रोटी के घुग्घु में नमक और लाल मिर्च डाल करारा सा बना के भी ममी देतीं थीं कभी-कभी ...शायद तब ज़िन्दगी बेहतर थी....हम आगे जाने की बजाये बहुत मानों में पीछे सरक गए हैं......लेकिन हो सकता है मेरी सोच ही बासी हो, उन बासी रोटियों की तरह......जैसे बच्चे हर त्योहार पर उल्लसित होते हैं लेकिन घिसे लोगों को लगता है, "अब दिवाली पहले जैसे नहीं रही." "अब लोग होली वैसे जोश-खरोश से नहीं मनाते."

सरकता सरकारी अमला

एक बदतमीज़-नाकारा से सरकारी क्लर्क की तनख्वाह पचास हज़ार रूपया महीना हो सकती है. शायद ज़्यादा भी.  आपको नहीं लगता कि सरकार सरकारी नौकरों को जितनी तनख्वाहें, भत्ते, सुविधाएं दे रही है उस पर  'अँधा बांटे रेवड़ी, मुड़-मुड़ अपनों को दे' वाली कहावत चरितार्थ है?  खुली मंडी में इस तरह के लोगों को कोई दस हज़ार रुपये महीने की सैलरी न दे. असल में तो नौकरी ही न दे, ऐसे लोगों को कोई.    कहते हैं  कि गोरे अँगरेज़  चले गए, काले अँगरेज़ आ गए. ये हैं वो काले अँगरेज़. इन सरकारी लोगों का क्या व्यवहार है जनता के प्रति? ये कोई जनता के नौकर हैं? जनता इन की नौकर है.  "साहेब मीटिंग में है. साहेब, सिगरेट फूंक रहे हैं. साहेब, मूतने गए हैं. तुम खड़े रहो. लाइन सीधी होनी चाहिए."  मौज ही मौज. रोज़ ही रोज़. एक बार नौकरी मिल जाए तो व्यक्ति सरकार का जंवाई बन जाता है. निकाल कोई सकता नहीं. जीरो एकाउंटेबिलिटी. कौन नहीं चाहेगा ऐसी नौकरी? बहुत लोग तो घर ही बैठे रहते हैं, बस तनख्वाह लेने जाते हैं. पता नहीं कैसे करते हैं मैनेज? पर करते हैं. बहुत जो पचास-साठ हज़ा...

मोदी का विकल्प

मोदी विदा होना चाहिए लेकिन फिर क्या राहुल आना चाहिए? राहुल गाँधी (?) भारत को दिशा देगा? उसे आँखों पे पट्टी बांध के खेत में खड़ा कर दो और तीन बार गोल घुमा दो, वापिस आँख खोलने पे उसे खुद पता न लगे कि कौन सी दिशा में खड़ा है. पीछे वंश न हो और धन न हो तो पंचायत का चुनाव न जीत पाए. तो मितरो, आपका अगला प्रधान-मंत्री फिर कौन होना चाहिए. जवाब है---मैं यानि तुषार कॉस्मिक. या फिर आप खुद. हमारा मुल्क है. जनतंत्र की परिभाषा के मुताबिक हम में से कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, MP, MLA कुछ भी बन सकता है. तो जब कोई पूछे कि मोदी का, राहुल का विकल्प कौन है तो कहिये, "मैं हूँ".

भारतीय संस्कृति -- एक लाश

जब तक यह तथा-कथित भारतीय संस्कृति जो सिर्फ एक लाश भर है, इसे विदा नहीं करेंगे, भारत की आत्मा मुक्त न होगी. यह विदा हो ही जाती, लेकिन आरएसएस ने इस लाश को भारतीय मनस पर जबरन लाद रखा है. आरएसएस को डर है कि कहीं कोई और लाशें भारत की आत्मा पर सवार न हो जायें. कहीं इस्लाम हावी न हो जाये, कहीं ईसाइयत हावी न हो जाये. सो अपनी लाश को सजाते-संवारते रहो. स्वीकार ही मत करो कि यह लाश है. पंजाब में एक बाबा गुज़र चुके हैं, दिव्य-जाग्रति वाले आशुतोष जी महाराज, लेकिन उनके चेले-चांटे स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वो मर चुके हैं. लाश को डीप-फ्रीज़र में रख रखा है. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे." बाबा जी शीत-निद्रा में हैं. उनकी आत्मा विचरण कर रही है. किसी भी वक्त वापिस शरीर में प्रवेश करेगी और वो उठ खड़े होंगे. वाह! नमन है, ऐसी भक्ति को. मिश्र में लाशों का ममी-करण क्या है? लाशों के प्रति मोह. अब जब कोई न मानने को तैयार हो तो बहुत मुश्किल है उसे कुछ भी मनाना. मुझे याद है, कॉलेज का ज़माना था. मेरा एक दोस्त था. जसविंदर सिंह. जट फॅमिली से था. बड़ा घर था उसका. हमारे लिए एक अलग ही कमरा था, हम लोग वहीं जमते ...

पद्मावती फिल्म का विरोध

मैं तो नहीं, लेकिन मेरे इर्द-गिर्द घर-परिवार-समाज हिन्दू है और सब कह रहे हैं कि यह पद्मावती फिल्म का विरोध करने वाले बावले हैं. हमारी बला से. वो कथा है या इतिहास यह भी नहीं पता...और अगर इतिहास है भी, तो उसमें कितना इतिहास है, यह भी नहीं पता.....और इतिहास से भंसाली की कहानी कितनी अलग है, यह भी नहीं पता....कव्वा कान ले गया वाली मसल है यह.....असल मुद्दों से... असल समस्या गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बेकार न्याय-व्यवस्था, सरक-सरक कर चलती हर सरकारी बे-वस्था से ध्यान हटा कर बकवास मुद्दों में उलझाने की साज़िश. कौन जाने सात सौ साल पहले क्या हुआ था? यहाँ कल का पता नहीं लगता, जितना मुंह, उतनी बातें होती हैं. अगर कत्ल हो जाये तो कोर्ट को बीस साल लग जायेंगे फैसला देने में कि कातिल कौन था और फिर अगले बीस साल बाद हो सकता है कि कोई साबित कर दे कि कोर्ट का फैसला गलत था. None killed Jessica. None killed Arushi. और ये चले हैं सदियों पहले के मुद्दों पर लड़ाई करने. इतिहास-मिथिहास के लिए वर्तमान खराब करने वाले पागल होते हैं. भूतकाल की लड़ाई भूत लड़ते हैं. मुर्दा लोग. जिंदा लाशें. भूतकाल की लड़ाई वो ही लड़ते हैं, ज...

भाई कन्हैया

देखिये, मैं इस्लाम के खिलाफ हूँ..लेकिन ऐसे तो फिर मैं हिंदुत्व के भी खिलाफ हूँ और दुनिया के हर दीन-धर्म-मज़हब के खिलाफ हूँ जो माँ के दूध के साथ पिला दिया जाता है तो इसका मतलब क्या यह है कि मैं दुनिया के हर शख्स के खिलाफ हूँ चूँकि अधिकांश तो किसी न किसी दीन-धर्म को मानने वाले ही हैं. नहीं. मैं एक मुसलमान  के हित लिए भी उतना ही भिड़ जाऊँगा, जितना कि किसी हिन्दू के लिए. असल में मैं हिन्दू-मुस्लिम देखूँगा ही नहीं. आपको भाई कन्हैया याद दिलाता हूँ. गुरु गोबिंद सिंह को शिकायत की कुछ लोगों ने कि भाई कन्हैया युद्ध में घायल सिपाहियों को पानी पिलाता है तो दुश्मन के घायल सिपाहियों को भी पिलाता है. सही शिकायत थी. एक तरफ़ सिक्ख योद्धा जी-जान से लड़ रहे थी, दूजी तरफ भाई कन्हैया दुश्मनों को पानी पिला रहा था. गुरु साहेब ने क्या कहा? गुरु साहेब ने कहा कि भाई कन्हैया सही कर रहा है. मुझे ठीक-ठीक शब्द पता नहीं है. लेकिन मतलब शायद यही था कि सब में एक ही नूर है. हम सब एक ही हैं. मारना गुरु साहेब के लिए कोई शौक नहीं था. मज़बूरी थी, अन्यथा तो वो दुश्मन में भी वही "नूर" देख रहे थे और वही नूर...
कहते हैं कि शिक्षार्थी तो सीखता ही है, सिखाते हुए शिक्षक भी सीखता है. यह मैंने सोशल मीडिया पर लिखते हुए बहुत महसूस किया. मैंने अपने विचार, अपनी ओपिनियन, अपने जीवन की घटनाएं लिखी हैं. बहुत कुछ ज़ेहन में था तो सही, लेकिन वो उतना क्लियर नहीं था जितना लिखते-लिखते हो गया और फिर आप मित्रों के कमेंट ने उस सोच को और निखार दिया. धन्यवाद सोशल मीडिया का और आप सब मित्रों का जो पढ़ते हैं और अपने विचार भी लिखते हैं.
बड़ा ही प्यारा जानवर था, मालिक भी उसे बहुत प्यार करता था, उसे भी मालिक पर पूरा विश्वास था. मालिक कभी उसे चोट नहीं पहुँचने देता था. खूब खिलाता-पिलाता था. फिर कुलदेवता का उत्सव दिवस आया. मालिक ने उसे बलि चढ़ा दिया और उसका मांस मालिक के परिवार ने चाव से खाया. असल में जानवर 'जनता' है, कुलदेवता का उत्सव दिवस 'वोटिंग दिवस' है और मालिक 'नेता' है.
दिल्ली वालों को समझ ही नहीं आया कि उन्हें केजरीवाल को चुनने की सजा दी जा रही है. मूर्खों ने फिर से MCD में भाजपा को चुन लिया. पहले ही कूड़ेदान थी दिल्ली अब कूड़ाघर बना गई और ऊपर से गैस चैम्बर भी....वैसे भी संघ हिटलर में यकीन रखता है. न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिंदुस्तान वालो, तुम्हारी बरबादियों के चर्चे हैं हवाओं में. धुयें से भरी हवाओं में.
जब आप धिन्चक पूजा, राधे माँ, स्वामी ॐ का कोई एपिसोड देखते हैं तो एक किताब आत्म-हत्या कर लेती है और जब भी आप बिग-बॉस का एक एपिसोड देखते हैं तो एक लाइब्रेरी आत्म-हत्या कर लेती है.
नाना पाटेकर अग्निसाक्षी फिल्म में जैकी श्राफ को, "आप बड़े हैं, बहुत बड़े हैं साहेब. लेकिन आपके बड़े होने से हम छोटे नहीं हो जाते." "आप बहुत बड़े वकील हैं सर , बहुत सीनियर आप की चालीस साल की प्रैक्टिस है...लेकिन आपके सीनियर से हम जूनियर नहीं हो जाते...हम हम हैं." एक नया वकील

Use Your REASON, Not your RELIGION

शब्द

"अरे भाई, एक सेल्फी खींचना मेरी." "समय चार बजे, तिथी बीस, नवम्बर दो हज़ार सत्रह को हमारे यहाँ मुख्य अतिथि होंगे श्रीमान महादेव प्रसाद."   "हमारे इलाके की MCD चेयरमैन चुनी गईं श्रीमति बिमला देवी."  "प्रतिभा पाटिल हमारी राष्ट्रपति थीं."  सेल्फी सेल्फ यानि खुद की खुद ही लेना है. लेना मतलब फोटो. मैं कोई हस्त-मैथुन की बात नहीं कर रहा. तो कोई और कैसे ले सकता है? कोई और लेगा तो फिर यह सेल्फी कैसे होगी? है कि नहीं? "एक सेल्फी खींचना मेरी." इडियट!  तिथी छोड़ो, समय तक निश्चित है, फिर भी 'अतिथि'!  स्त्री हैं फिर भी "चेयरमैन"! और स्त्री हैं फिर भी पति! 'चेयर-वुमन' कहने में शर्म आती है तो शब्द प्रयोग होता है चेयर-पर्सन. लेकिन 'राष्ट्र-पत्नी' तो अभी कोई शब्द घड़ा ही नहीं गया. क्या करें? हाय-हाय ये मज़बूरी. राष्ट्र का पति कोई हो जाये, यह तो बरदाश्त है, लेकिन पत्नी! यह तो शोचनीय, शौचनीय है.   कैसे शब्दों का उल्ट-पुलट प्रयोग करते हैं हम, ये कुछ मिसाल हैं.   बहुत पहले एक नाटक देखा था बॉबी ...