भारतीय संस्कृति -- एक लाश

जब तक यह तथा-कथित भारतीय संस्कृति जो सिर्फ एक लाश भर है, इसे विदा नहीं करेंगे, भारत की आत्मा मुक्त न होगी. यह विदा हो ही जाती, लेकिन आरएसएस ने इस लाश को भारतीय मनस पर जबरन लाद रखा है. आरएसएस को डर है कि कहीं कोई और लाशें भारत की आत्मा पर सवार न हो जायें. कहीं इस्लाम हावी न हो जाये, कहीं ईसाइयत हावी न हो जाये. सो अपनी लाश को सजाते-संवारते रहो. स्वीकार ही मत करो कि यह लाश है. पंजाब में एक बाबा गुज़र चुके हैं, दिव्य-जाग्रति वाले आशुतोष जी महाराज, लेकिन उनके चेले-चांटे स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वो मर चुके हैं. लाश को डीप-फ्रीज़र में रख रखा है. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे." बाबा जी शीत-निद्रा में हैं. उनकी आत्मा विचरण कर रही है. किसी भी वक्त वापिस शरीर में प्रवेश करेगी और वो उठ खड़े होंगे. वाह! नमन है, ऐसी भक्ति को. मिश्र में लाशों का ममी-करण क्या है? लाशों के प्रति मोह. अब जब कोई न मानने को तैयार हो तो बहुत मुश्किल है उसे कुछ भी मनाना. मुझे याद है, कॉलेज का ज़माना था. मेरा एक दोस्त था. जसविंदर सिंह. जट फॅमिली से था. बड़ा घर था उसका. हमारे लिए एक अलग ही कमरा था, हम लोग वहीं जमते थे. घंटो बैठे रहते थे. सबको फलसफे गढ़ने का शौक था. बहस भी होती थी. वो डंडा लेकर बैठ जाता. कहता, "बोल, मेरी गल्ल मन्नेंगा कि नहीं." हम हंसते हुए कहते, "मन्न लई, बई मन्न लई." जब तक लट्ठ लेकर कोई मनायेगा नहीं, तब तक ये संघी-मुसंघी मानने वाले हैं नहीं. और वो लट्ठ एक ही लोग पकड़ सकते हैं. वो है भारत का Intelligentsia. आज ज़रूरत है, बहुत-बहुत ज़रूरत है कि भारत का Intelligentsia इन सब लाशों के खिलाफ खड़ा हो. आग बन जाये ताकि इन सब लाशों को फूंका जा सके. सबको विदा किया जा सके. और यह काम कोई नेता या खबर-नवीस लोगों ने नहीं करना है. नेता तो जिंदा ही इस संस्कृति की लाश की नोच-खसोट पर है. और खबर-नवीस भी कबर-नवीस है. अगर आपको लगता भी है कि वो सही बात कर रहा है तो भी वो बहुत काम की नहीं है, चूँकि वो गहरी बात नहीं है. जब तक समस्याओं को गहराई तक न समझा जाये, उनके हल जैसे हल न मिलेंगे. दिल्ली में शीला दीक्षित ने बहुत से पुल बना दिए सडकों पर. उससे क्या हुआ? ट्रैफिक का बहाव पहले से बेहतर हो गया क्या? कुछ नहीं हुआ. और गाड़ियाँ आ गईं. आज भी दिल्ली की सड़क पर बीस किलोमीटर कार चलाने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी से हाथा-पाई कर के आ रहे हों. केजरीवाल ने ओड-इवन चलाया. क्या हुआ? सड़कों पर भीड़ कम दिखी, लेकिन मेट्रो में बढ़ गई. ये कोई हल हैं? गहरे में जाये बिना, कुछ हल न होगा और गहरे में आप तभी जा सकते हो, जब संस्कृति नामक लाश को विदा करने की हिम्मत हो. जब तक पुराने को विदा न करेंगे, नया कैसे पैदा करेंगे? कार में एक होता है 'रियर-व्यू मिरर'. पीछे देखना ज़रूरी है लेकिन सिर्फ आगे बढ़ने के लिए. बस. इतिहास का इतना ही मतलब है. इतिहास का बस प्रयोग करना है, इतिहास से बस सीखना है. इतिहास को पकड़-जकड़-धकड़ के नहीं बैठना है. वैसे भी इतिहास में कितना इतिहास है, यह कभी पता नही लगता, सो इतिहास के प्रति ज़्यादा सीरियस न ही हुआ जाये तो ही बेहतर है. फिर हर पल नया इतिहास बन रहा है. कहाँ तक पुरातनता को लादे रखेंगे? History should be used and there-after must be thrown away. Use & Throw. तो मित्रगण, इतिहास की ज़ंजीरों से जकड़े पाँव मैडल नहीं ला सकते. जो पुरखों और चरखों को अपनी और अपने बच्चों की छातियों पर लादे बैठे हैं, वो भविष्य के कल-कारखानों की कल्पना भी कैसे करेंगे? आँखें पीछे नहीं दीं कुदरत ने, आगे ही दीं हैं. हाँ, इन्हीं आँखों से कभी-कभार पीछे भी मुड़ के देखा जा सकता है लेकिन उल्टा कोई नहीं चलता, पीछे को कोई नहीं चलता. सुना होगा आपने कि भूतों के पैर पीछे को होते हैं. बहुत गहरी बात है. भूत का अर्थ ही है, जो बीत गया, जिसका वर्तमान या भविष्य से कोई सम्बन्ध ही न हो, तो निश्चित ही उसके पैर पीछे को ही होंगे. उसे आगे थोड़ा न चलना है. वो तो है ही भूत. वो तो अग्रगामी हो ही नहीं सकता. आपको देखना है कि कहीं आपके पैर पीछे को तो नहीं, कहीं आप भूत तो नहीं. इतिहास और अंडर-वियर बदलते रहना चाहिए और जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए वरना बीमार करना शुरू कर देंगे. जिस इतिहास की एक्सपायरी डेट न हो, वो घातक है. कितना ही शानदार खाना बना हो, चाहे फ्रिज में ही क्यों न रखा हो, लेकिन एक समय बाद बेकार हो जायेगा. कार में एक हेड-लाइट है और एक टेल-लाइट. अब आप टेल-लाइट से हेड-लाइट का काम लेंगे, तो एक्सीडेंट ही करेंगे. बाबरी मस्ज़िद ही नहीं, राम मन्दिर को भी गिराए जाने की ज़रूरत है. कुरआन ही नहीं, पुराण भी विदा करने हैं. सब कचरा है. लाशें हैं. संस्कृति के नाम पर विकृति. जीरो से सब शुरू करने से मतलब नहीं है, आग और पहिये को पुन: आविष्कृत करने से मतलब नहीं है लेकिन बचाना सिर्फ वो चाहिए, जो विज्ञान-सम्मत हो, जो कला-सम्मत हो. जो वैज्ञानिक हो, जो कलात्मक हो. जो ध्यान-सम्मत हो. जो शांति-सम्मत हो. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ. लेकिन आज कबीर को हाथ में लट्ठ नहीं मशाल लेनी है, जो इस संस्कृति नाम की लाश को फूंक सके. यह लाश सड़ रही है, बदबू मार रही है. समाज को बीमार कर रही है. ज़रा कल्पना करें कि किसी टापू पर कुछ बच्चे छूट गए हों और फिर वो वहीं पल-बढ़ चुके हों, ऐसा टापू जहाँ खाने-पीने रहने की सब सुविधा हो, जहाँ सब आज का विज्ञान भी मौजूद हो. बस किसी धर्म, किसी संस्कृति, किन्हीं पुरखों-चरखों का बोझ नहीं हो. ऐसे बच्चे क्या वापिस हमारी दुनिया में आना चाहेंगे? उन्हें हमारी दुनिया में लाना क्या वाज़िब भी होगा? क्या हमारी ही दुनिया उस टापू जैसी नहीं बन जानी चाहिए? अगर आपका जवाब "हाँ" है तो आपको एक्शन लेने की ज़रूरत है, वो भी तुरत. नमन..तुषार कॉस्मिक

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