Posts

Showing posts from September, 2017

भारत मंदी के कुचक्र में

यशवंत सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है जेटली के खिलाफ. लोग मोदी के सम्मोहन से बाहर आ रहे हैं. सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने भी ऐसा ही कहा था...लेकिन लोग उसे क्रैक भी मानते हैं. लेकिन मामला है सीरियस.  मोदी ने बेडा-गर्क कर दिया है मुल्क का. अर्थ-व्यवस्था खराब कर दी है नोट-बंदी और GST से. उनके खुद के लोग मानते हैं अब तो. भारत मंदी के कुचक्र में है. सरकारी बैंक सब घाटे में हैं. माल्या जैसों को भगा जो दिया. अभी राज ठाकरे ने भी मोदी को खूब बजाया है. उसने कहा कि मोदी ने मीडिया खरीद कर चुनाव जीता है. अब जब जहाज डूबने की तरफ है तो सब निकल रहे हैं. अगला चुनाव ज़रूरी नहीं मोदी जीत पाए....बाकी वक्त बताएगा. असल में उसके पास कोई तैयारी नहीं थी. कोई प्लान नहीं था. और आज भी नहीं है. जब तक समाजिक बदलाव न हों, कैसा भी आर्थिक, राजनीतिक बदलाव बहुत फायदेमंद नहीं होगा. कुछ समय तक जो फायदेमंद लगेगा भी, वो भी लम्बे समय में नुक्सान-दायक साबित होगा. हम जो राजनेता बदलने से सोचते हैं कि देश बदल जाएगा, ऐसा नहीं होगा. बीमार समझ रहा है कि बीमारी कहीं और है. वो सोच के, सम...

मैंने संघ क्यों छोड़ा

संघ मतलब आरएसएस, मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. बात बठिंडा(पंजाब) की है. मुस्लिम या ईसाई को छोड़ शायद ही कोई लड़का हो जो अपने लड़कपन में एक भी बार संघ की शाखा में न गया हो....शायद मैं आठवीं में था.....ऐसे ही मित्रगण जाते होंगे शाखा...सो उनके संग शुरू हो गया जाना.....अब उनके खेल पसंद आने लगे...फिर शुरू का वार्म-अप और बहुत सी व्यायाम, सूर्य नमस्कार, दंड (लट्ठ) संचालन बहुत कुछ सीखा वहां........जल्द ही शाखा का मुख्य शिक्षक हो गया..वहीं थोड़ा दूर कार्यालय था ...वहां बहुत सी किताबें रहती थी.......पढ़ी भी कुछ......संघ की शाखा का सफर जो व्यायाम और खेल से शुरू हुआ वो संघ की विचारधारा को समझने की तरफ मुड़ गया. लेकिन दूसरों में और मुझमें थोड़ा फर्क यह था कि मैं सिर्फ संघ की ही किताबें नही पढ़ता था, उसके साथ ही वहां बठिंडा की दो लाइब्रेरी और रोटरी रीडिंग सेंटर में बंद होने के समय तक पड़ा रहता था.......बहुत दिशायों के विचार मुझ तक आने लगे. बस यहीं आते आते मुझे लगने लगा कि संघ की विचारधारा में खोट है. मैं अक्सर सोचता, यह राष्ट्रवाद, यह अपने राष्ट्र पर गौरव करना, दूसरे राष्ट्रों से बेहतर समझना, विश्व-...

बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

कोर्ट भरे पड़े हैं फॅमिली प्रॉपर्टी डिस्प्यूट केसों से....पार्टीशन सूट. जिस भाई-बहन के पास कब्जा होता है, मज़ाल वो दूजे भाई-बहन को हिस्सा देने को आराम से राज़ी हो जाये. इसमें क्या हिन्दू-क्या मुसलमान? धन का अपना ही मज़हब है....वहां हिन्दू मुस्लिम सब बराबर है. When it's the question of money everybody is of the same religion.

सत्य

जितना बड़ा मुद्दा 'भगवान' इस दुनिया के लिए रहा है और है, उतना ही बड़ा मुद्दा ‘सत्य’ भी रहा है और है. चलिए मेरे संग, थोड़ा सत्य भाई साहेब के विभिन्न पह्लुयों पर थोड़ा गौर करें:----- 1. “सदा सत्य बोलो” क्यों बोलो भाई? अगर भगत सिंह पकड़े जायें अंग्रेज़ों द्वारा और अँगरेज़ पूछे उनके साथियों के बारे में तो बता ही देना चाहिए, नहीं? सदा सत्य बोलो. इडियट वाली बात. जीवन जैसा है, सदा सत्य बोलना ही नहीं चाहिए. सत्य और असत्य का प्रयोग स्थिति के अनुसार होना चाहिए. बहुत बार असत्य सत्य से भी कीमती है. एक चौराहे पर बुड्डा फ़कीर बैठता था. बड़ा नाम था उसका. फक्कड़. बाबा. लोग यकीन करते थे लोग उसके कथन पर. एक रात बैठा था अपनी धुन में धूनी रमाये. अकेला. एक जवान लड़की बदहवास सी भागती निकली उसके सामने से. और दक्षिण को जाती सड़क पर कहीं खो गई. कुछ ही पल बाद इलाके के जाने-माने चार बदमाश पहुंचे वहां. चौक पर ठिठक गए. तय नहीं कर पाए किधर को जाएँ. फिर बाबा नज़र आया. बाबा का सब सम्मान करते थे. बदमाश भी. उन्हें पता था बाबा झूठ नहीं बोलता. बाबा से पूछा, “लड़की किधर गयी?” बाबा ने उनको उल्टी दिशा भेज दिया. लड़क...
अब जैसा समाज है ऐसा नहीं है कि कोई बुद्धू है और कोई चतुर-चालाक उसे बेवकूफ बना जाता है. नहीं. आज सभी चतुर हैं, चालाक है. असल में ज़रूरत से ज्यादा चालाक हैं. ओवर-स्मार्ट. ओवर-कलैवर. आज लड़ाई ओवर-कलैवर और ओवर-कलैवर के बीच है. बस जब अपनी दुक्की पिट जाती है तब दुनिया घटिया-कमीनी-हरामी लगने लगती है.
सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का  एक   लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.
कुरान-अल-अंबिया (Al-'Anbya'):22 - "यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते है." मेरी टिप्पणी,"क्या सबूत है कि अगर अल्लाह के सिवा कोई और इष्ट-पूज्य होता तो आकाश और धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती? और क्या सबूत है कि अल्लाह ही पूज्य है? और अगर यही साबित न हो तो फिर अल्लाह महान है, उच्च है, राजसन का स्वामी है, यह भी कैसे साबित होगा? असल में अल्लाह एक है और वही पूजनीय है या फिर देवी-देवता अनेक हैं और सभी पूजनीय हैं, ये सब इन्सान की कल्पनाएँ है जिन पर पूरी की पूरी सभ्यताएं मतलब तथा-कथित सभ्यताएं खड़ी हुई हैं, खड़ी हैं. सब बकवास. सबूत किसी के पास किसी बात का नहीं. सबूत किसी के पास नहीं कि कोई अल्लाह या कोई देवी-देवता हैं भी कि नहीं और हैं तो फिर उनको इंसान की पूजा-अर्चना से कोई मतलब भी है कि नहीं. बस चल रहे हैं एक दूजे के पीछे. अंधे-अँधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त."

धारणायें

मुझे बैटमैन फिल्में कभी ख़ास नहीं लगी, लेकिन "डार्क नाईट" फिल्म में जोकर के डायलाग खूब पसंद आये मुझे. लगा यह जोकर तो जीवन के गहरे सत्य ही तो उगल रहा है. अभी-अभी "मुक्ति भवन" देखी. फिर इसके रिव्यु भी देखे, बहुत सराहा गया है फिल्म को. मुझे फिल्म धेले की नहीं लगी. बस फिल्म जब काशी पहुँचती है तो वहां काशी के सीन ठीक लगे. लेकिन मुक्ति भवन नामक होटल के मेनेजर के डायलाग बहुत जमे. एक जगह वो कहता है, "मोक्ष जानते हैं क्या होता है? मनुष्य को लगता है कि वो लहर है. लेकिन फिर जब उसे अहसास हो जाता है कि वो लहर नहीं समन्दर है, तो वो अहसास ही मोक्ष है." वाह! क्या बात है!! ठीक ऐसे ही जीवन है. कभी कोई व्यक्ति का एक कथन सही लगता है तो कभी दूसरा बकवास. कभी कोई कहीं एक काम बहुत सही कर रहा होता है तो कहीं बहुत गलत. सो मेरी धारणाएं बहुत पॉइंटेड हैं. मैं सिर्फ मुद्दा-दर-मुद्दा धारणाएं बनाता हूँ. चाहे कोई व्यक्ति हो, किताब हो, घटना हो, फिल्म हो, कुछ भी हो. और मेरा मानना यह है कि आपको भी ऐसा ही करना चाहिए. नमन..तुषार कॉस्मिक

सरोजिनी नगर मार्किट

यह मार्किट दिल्ली की चंद उन मार्किट में से है, जहाँ आपको कुछ न खरीदना हो, न खरीदने लायक लगे, फिर भी जाना चाहिए. आज सपरिवार जाना हुआ. मेरी कज़न की दुकानें हैं अपनी वहां. अब उनकी कहानी भी थोड़ा समझने लायक है. दुकानों से इतना ज़्यादा किराया आता रहा है और आज भी आता है हर महीने कि उनके पूरी परिवार को कुछ भी और करने की ज़रूरत ही नहीं रही तकरीबन सारी उम्र. लेकिन उनके दोनों बेटे सही से विकसित नहीं हुए. जब संघर्ष न मिले तो भी विकास नहीं होता. कहते हैं अगर बच्चा खुद अंडा तोड़ कर बाहर निकले तो ही जी पाता है, अगर आप उसे अंडा तोड़ने की ज़हमत से बचा लें, उसे संघर्ष से बचा लें तो बहुत सम्भावना है कि वो मर जाएगा थोड़े समय में ही. अमीरों के बच्चे देखे आपने कभी? थुल-थुल, ढुल-मुल जैसे उन्हें कोई मानसिक रोग हो. खैर, कुछ-कुछ दीदी के बच्चों के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन अब वक्त के थपेड़े खा कर कुछ सम्भल गए हैं. "जो दुःख-तकलीफ मैंने देखीं, मेरे बच्चे न देखें", यह धारणा वालों को मेरे शब्दों पर गौर फरमाना चाहिए. ज़्यादा टेंशन मत लिया करो बच्चों की भैय्ये, पकने दिया करो, तपने दिया करो. खैर, बात ...
जब तक मरे हुए पूर्वजों को बामनों के जरिये खाना-लत्ता पहुंचाने वाले भूतिए भारत में मौजूद हैं, धर्म की ध्वजा फहराती रहेगी. गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.
शेर झुण्ड में हमला करते हैं और वो भी पीछे से. यह है इनकी औकात. शेर-दिली. सो आइन्दा खुद को शेर कहने-कहलाने से पहले जरा सोच लेना.तुम तो इंसान हे बने रहो, वो ही काफी है. इडियट.

रोहिंग्या मुसलमान गो बैक

जब आप आसमानी किताब को मानते हैं, जिस में लिखा है कि जो न माने उसे मारो तो फिर आपको कोई नहीं मारेगा, यह कल्पना करना भी मूर्खता है. और यही मुसलमान को समझना है. उसे समझना है कि वो एक फसादी किताब का पैरोकार का है. उसे समझना है कि जब वो मारेगा तो उसके बच्चे भी मारे जायेंगे. जब वो बलात्कार करेगा, उसकी औरतों के साथ भी यही होगा. जब उसकी नज़र में इस्लाम को न मानने वाला काफिर है, थर्ड क्लास है, वाजिबुल-क़त्ल है तो बाकी दुनिया की नज़र में वो भी ऐसा अस्तित्व है जो मिटा देने लायक है. जब मुसलमान किसी को बम से उड़ाता है, ट्रक चढ़ा के मारता है, गोलियों से भूनता है तो यह जेहाद है लेकिन जब मुसलमान को कोई "विराधू" ( मयाँमार का मियाँ-मार बौद्ध नेता) भगा दे, मार दे तो यह उस पर ज़ुल्म है! यह नहीं चलेगा. रोहिंग्या मुसलमान के दर्द में खड़े लोगों को यह समझना ही होगा. बहुत दर्दे-दिल उमड़ रहा मेरे मुस्लिम भाईयों को..इनके मुस्लिम भाई, बहिन काटे जा रहे हैं म्यांमार (बर्मा) में....च.च.च......वैरी सैड! यही दर्दे-दिल कब्बी तब न उमड़ा जब "अल्लाहू-अकबर" के नारे के साथ बम बन के दुनिया के किसी भी को...

फोटो....फिल्म...ज़िन्दगी

फोटो देखता हूँ तो उसके इर्द-गिर्द क्या है, बैक-ग्राउंड क्या है, इस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देता हूँ. मैं फोटो को पूरा देखता हूँ. पीछे तार पर टंगा कच्छा, दीवार पर पान की पीक, उखड़ा हुआ प्लास्टर, सफेदी की पपड़ियाँ या फिर उगता सूरज, बहती पहाड़ी नदी, दूर तक फैला समन्दर. सब. बहुत बार फोटो जिसकी है वो शायद खुद को ही दिखाना चाहता है, बैक-ग्राउंड पर उसका ध्यान ही नहीं जाता. कई बार वो सिर्फ बैक-ग्राउंड ही दिखाना चाहता है लेकिन मैं फोटो उसकी चाहत के अनुसार कभी भी नहीं देखता. मैं पूरी फोटो देखता हूँ, अपने हिसाब से देखता हूँ. फिल्म भी ऐसे ही देखता हूँ. फिल्म की कहानी, करैक्टर तो देखता ही हूँ, फिल्म की कहानी कहाँ बिठाई गई है, वो बहुत ही दिलचस्पी से देखता हूँ. जैसे 'मसान' फिल्म काशी के पंडों की ज़िंदगी के कुछ पहलु दिखाती थी, मिल्खा सिंह भारतीय एथलीटों के जीवन के कुछ रंग, जॉली एल.एल. बी. वकीलों-जजों की ज़िन्दगी. तो फिल्म कहाँ घूम रही है, मतलब जंगल, पहाड़, महानगर या कोई झुग्गी-बस्ती, कहाँ? मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, यह भी तय करता है कि मुझे फिल्म पसंद आयेगी या नहीं. ज़िंदगी देखता हूँ तो...

खुशवंत सिंह.....संघी सोच....मेरी सोच

एक मित्र:---जिस खुशवंत सिंह को आप भारतीय इतिहास और समाज के लिए ज़रूरी बता रहे है यह वही खुशवंत सिंह है न जिसका बाप शोभा सिंह है और यह वही सोभा सिंह है न जिसकी विधिक गवाही पर अंग्रेजो ने शहीद भगत सिंह को फ़ासी दी थी और इनाम में शोभा सिंह को दिल्ली में बहुत बड़ी जमीन दी थी जिस पर प्लाटिंग करके सोभा सिंह अमीर बना था मैं--- अगर आप के पिता जी ने कोई बेगुनाह का खून किया हो तो आपको फांसी चढ़ा दें क्या? जुकरबर्ग कल बलात्कार में दोषी पाया जाये तो फेसबुक छोड़ देंगे क्या आप? खुशवंत सिंह को पढ़ना चाहिए यह उनके लेखन को आधार मान कर लिखा है मैंने. ज़मीन ली या नहीं ली यह अलग मुद्दा है. अगर ले भी ली हो तो भी उनका लेखन अगर दमदार है, भारत के फायदे में हैं तो उसे पढ़ना चाहिए. मिसाल के लिए एक वैज्ञानिक अगर कुछ खोज दे जिससे कैंसर खत्म होता, लेकिन फिर उससे कत्ल हो जाये तो क्या उसकी खोज को इसलिए नकार दें कि उससे कत्ल हो गया? किसी भी व्यक्ति के जीवन के अलग-अलग पहलु होते हैं, सो समर्थन या विरोध होना चाहिए पॉइंट-दर-पॉइंट, पहलु-दर-पहलु. संघी सोच है, "खुशवंत सिंह गद्दार है, उसका बाप गद्दार था." खुद ज...

शाकाहार Versus मांसाहार

अगर पौधों में जान है तो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? बिलकुल सही तर्क है. इसी तर्क को उलटा घुमाते हैं....शीर्षासन कराते हैं. अगर पौधों में जान है सो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? फिर इन्सान इंसान को ही क्यों न काट खाए....इक दूजे के बच्चों को क्यों न काट खाए? सवाल जीवन में चैतन्य की सीक्वेंस का है.... सवाल भोजन की मजबूरी का है..  सवाल चॉइस का है..... अगर चॉइस हो तो फल-सब्जी खा लें, चूँकि उसके नीचे आप जा नहीं सकते...मिटटी-पत्थर आप खा नही सकते.. "जीवम जीवस्य भोजनम"...लेकिन क्या आप अपने बच्चे खा जायेंगे? नहीं न. तो फिर यह भी देखें कि कौन सा जीवन खाना है......जीवन के क्रम में वनस्पति ही सबसे निचले स्तर पर खड़ी है, जो भोजनीय है. क्या मैंने सही लिखा?

मेरी असलियत

हम कभी खुद के बारे में सोचते हैं-बताते हैं तो खुद को ही ढंग से फेस नहीं कर पाते. अगर कहीं पिटे हों, गिरे हों, असफल हुए हों तो वो सब स्किप कर जाते हैं. लेकिन अपुन तो हैं ही क्रिटिक. भ्रष्ट बुद्धि. नेगैटिविटी से भरे हुए. सो अपने बारे में भी वही रवैया है, जो सारी दुनिया के बारे में है. असलियत यह है कि मैंने जीवन में गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं. ढंग का काम शायद ही मुझ से कोई हुआ हो. माँ-बाप ने मुझे गोद लिया था, और बहुत ही बढ़िया परवरिश दी, अनपढ़ होते हुए मुझे पढ़ने का खूब मौका दिया,  भरपूर प्यार दया, काम-धंधा करने के लिए खूब धन भी दिया, जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूँ, और रहूंगा. बदले में उनकी ठीक से देख-भाल नहीं कर पाया मैं. और तो और मैं अपनी दोनों बच्चियों को भी अभी तक वैसी परवरिश भी नहीं दे पाया, जैसी मुझे मिली. यह है मेरी असलियत. अगर अब तक का अपना जीवन एक शब्द में लिखना हो तो वो शब्द होगा-- बेकार. मैं जितनी भी अक्ल घोटता हूँ यहाँ, वो इसलिए नहीं कि मैं खुद को कोई बहुत सयाना समझता हूँ, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मुझे अपनी अक्ल की सीमाएं पता हैं. मुझे तो कोई भी मूर्ख बना जाता है. मैं य...