Monday 30 December 2019

चमत्कार

मैं हूँ ज़िंदा चमत्कार. छोटा सा ही सही. लेकिन हूँ चमत्कार. समझाता हूँ. बहुत ठंड है न. शायद रिकॉर्ड टूट गए हैं ठंड के. शायद बहुत लोग तो  लोग नहाते तक न हों इन दिनों. 

क्या आप सर्द पानी से नहाने की सोच सकते हैं इस सर्दी में? 

मैं नहाता हूँ रोज़. 
और
कम  से कम  पंद्रह मिनट लगातार नहाता हूँ. शुरुआत करता हूँ कोसे पानी से. फिर धीरे-धीरे इसमें ठंडा पानी मिलाता जाता हूँ. और फिर यह पानी पूरी तरह से सर्द हो जाता है. बर्फ जैसा. और मेरा नहाना ज़ारी  रहता है. 
फायदा क्या हुआ?

तकरीबन बीस साल से मैं सर्दियों में परेशान रहता था. आधी सर्दियां मेरी बिस्तर में कटती थीं. चूँकि  नाक बहती रहती  थी. खांसता रहता था. छींकता रहता था.आवाज़ तक घर्र-घर्र करती  थी. मैं  खुद पर हँसता हुआ कहता था, "मेरी बॉडी का 'थर्मोस्टेट' सिस्टम खराब है. और सच में ही यह सिस्टम खराब था. मुझे ज़रूरत से ज़्यादा ठंड लगती थी. मैं गर्मियों में भी बिना पंखा चलाये सो जाता था. 

पिछले दो साल से सब  समस्या नब्बे प्रतिशत खतम. ठंडे पानी से नहाना शरीर को राज़ी करना है ठंड बर्दाश्त करने के लिए.

बहुत लोग गर्मी हो, सर्दी हो ठंडे पानी से नहाते हैं. 


वहां रूस में तो एक धार्मिक उत्सव है ईसाइयों का, वो ठंड में बर्फ में खड्ड खोद कर डुबकियां लगाते हैं. 

हमारे यहाँ भी कार्तिक स्नान की रीत है. 

आप देखते हैं, चोट लग जाए तो बहुत पहले गर्म पानी का सेक किया जाता है, आज बर्फ का सेक किया जाता है. 

थ्री इडियट फिल्म याद है आपको? उसमें  आमिर खान ने रेंचो का करैक्टर अदा  किया था. वो सोनम वांगचुक नाम के व्यक्ति पर आधारित था. वो सर्दियों में सिंध नदी में तैरते हैं. उनका वीडियो मिल जाएगा आपको यूट्यूब आप बर्फीली नदी में तैरते हुए. 

इससे एक बात और साबित होती है. अंदर ताकत है हम सब में. उसे Explore  करें. आप पता नहीं क्या-क्या चमत्कार कर जाएँ. 

Friday 20 December 2019

मेरी ऑरोविले-पांडिचेरी-महाबलिपुरम यात्रा

यह एक बिज़नेस ट्रिप था. प्रॉपर्टी दिल्ली की. मालकिन ऑरोविले की. वयोवृद्ध. हुक्म था, "एक ही बार आ सकती हूँ दिल्ली. बयाना देना है तो आप लोगों को ही आना होगा मेरे पास." ठीक. मेरे क्लाइंट ने स्वीकार कर लिया. हम दो प्रॉपर्टी डीलर, हमें क्या एतराज़ होना था? दूजे डीलर ने मेरे क्लाइंट से कहा, "खर्चा आप का होगा." मैंने कहा, "नहीं, यह ठीक नहीं है. ख्वाहमख़ाह पचास हज़ार का वज़न इन पर डालना ठीक नहीं. खर्चा अपना-अपना होगा. " उसने कहा, "ठीक है, लेकिन अभी तो खर्चा इनको ही करना होगा. बाद में ब्रोकरेज में से हम कटवा देंगे." "ठीक है. लेकिन ये सिर्फ टिकट का खर्चा देंगे. बाकी खर्च हमें अपना-अपना करना है. " "ठीक है" तय हो गया. एयर-टिकट बुक कर ली मेरे क्लाइंट ने. फ्लाइट का दिन करीब आया तो ठीक दो दिन पहले मेरी एक उबर कैब वाले से भिड़ंत हो गयी. मॉडल टाउन से मैं और बड़ी बिटिया बैठे थे. उसने जो कान में लीड डाली, तो सारे रास्ते फोन पर किसी और ड्राइवर से बतियाता रहा. रस्ते में मैंने टोका. वो फिर न माना. उतरते हुए मैंने कहा, " यह तुम ठीक नहीं कर रहे थे जो गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात कर रहे थे." "आप बात करो फोन पे तो ठीक है, मैं करूँ तो गलत है? नौ लाख की गाड़ी है मेरी. फिर क्या हो गया जो मैं फोन पे बात कर रहा था तो?" वो ऐंठ कर बोला. "हाँ, गलत कर रहे थे तुम, चूँकि गाड़ी तुम चला रहे थे, मैं नहीं." बात बढ़ती गयी. धक्का-मुक्की तक पहुंच गयी. वो कूदने-फांदने लगा तो मैं पूरी तरह से रौद्र रूप में आ गया. एक-आध हाथ उसे पड़ गया. लगा चीखने चिल्लाने. श्रीमती भी पहुँच चुकीं थी वहां. काफी ड्रामा हो गया. मुझे खींच कर वो बच्चों की नानी के घर ले गईं. सब परेशान हो चुके थे. अभी पांच-दस मिनट ही हुए होंगे. वो ड्राइवर घर के बाहर पुलिस लेकर पहुँच गया. मुझे निकलने से मना किया सबने. साले साहेब ने संभालने की कोशिश की लेकिन मामला नहीं सम्भलना था, न सम्भला. अंत में उन्होनें मुझे कहा कि बाहर आना ही होगा. खैर. मैं निकला. देखा बहुत भीड़ थी बाहर, जैसे कत्ल हो गया हो, या कोई उग्रवादी पकड़ना हो. दो तीन पुलिस वाले थे और उनके साथ खड़ा वो ड्राइवर रोता-चीखता-चिल्लाता जा रहा था, "मुझे बहुत मारा. बहुत कूटा." एक फॅमिली, पता नहीं थी वहां या नहीं, गवाह बनी हुई थी. मेरी तरफ देख कर उनमें से एक औरत बोली, "इसने हमारे सामने ड्राइवर को बहुत मारा." सब झूठ था. वो एक हाथा-पाई थी, जिसमें मैं हावी हो गया था. बस. वो बहुत पिट जाता लेकिन उससे पहले मुझे श्रीमती जी ने तथा और लोगों ने थाम लिया था. एक-एक को तड़-तड़ जवाब दिए मैंने. "झूठ बोले तो सबके पॉलीग्राफ टेस्ट करवाने को लिखूंगा. बार-बार लिखूंगा. तुम्हारा इंकार ही तुम्हारे झूठे होने का इशारा कर देगा और अगर टेस्ट करवाओगे तब तो झूठ बिलकुल पकड़ा जाएगा. उल्टा केस ठोकूंगा तुम पे." IO एक नंबर का बकवास आदमी था. मुझ से कहा उसने, "आपकी तो बॉडी लैंग्वेज और टोन ही ठीक नहीं." "हम्म.. तो आप जज करेंगे मुझे? जज हैं आप?" वो शरलॉक होल्म्स का बाप था... नहीं पड़दादा था... नहीं ट्रेनर था. जो मेरी शक्ल देखते ही समझ गया था कि सब ग़लती मेरी थी. इडियट. इत्ते में एक पड़ोसी ने भी IO को झपड़ दिया. थोड़ा सा ठंडा हुआ वो. बोला, "चलो थाने." "ठीक है चलता हूँ." कुल मिला कर दो घंटे खराब हुए, मामला रफा-दफा हुआ. नतीजा यह कि ड्राइवर तो घटिया था ही IO भी घटिया था. बकवास. मुझे हमेशा लगता है कि वकीलों ने जो पुलिस वालों को कूटा था, सही किया था. एक दिन में बीवी-बच्चे लेकर सड़क पर बैठ गए थे पुलिस वाले. ओवरस्मार्ट इडियट. इनको लगता है जैसे इनकी टेढ़-मेढ़ हमें समझ ही नहीं आती. धेले की अक्ल नहीं होती इनको और थाने में वकील-जज सब बन बैठ जाते हैं. खैर, मुझे भी फॅमिली द्वारा यही समझाया जा रहा था कि फ्लाइट है मेरी दो दिन बाद, सो ज़्यादा पंगा करने का कोई फायदा नहीं है. सो ज़्यादा पंगा नहीं किया. अगले दिन पैकिंग की और फिर अगली रात सो ही नहीं पाया चूँकि सुबह छह बजे की फ्लाइट थी. सब तकरीबन साढ़े तीन बजे मिल गए. शायद अकेला मैं ऐसा था जिसने कभी अंदर से एयर-पोर्ट तक नहीं देखा था. गधा-रेहड़ी पे चलने वाला आदमी. डर तो नहीं, हल्का सा कौतूहल था. जहाज़ अंदर से बड़ी बस जैसा था. इकॉनमी क्लास. टाइट सीट. टेक ऑफ करते हुए हल्का सा कानों में दबाव. एक बार जहाज़ सीधा हुआ तो फिर पता ही नहीं लगा कि उड़ते जहाज़ में हैं या ड्राइंग रूम में. अढ़ाई घंटे का सफर. एयर इंडिया की फ्लाइट. बीच में नाश्ता. जो मैंने सिर्फ खाने को समझने के लिए खाया. बकवास. परांठे आलू के... लेकिन बस आटा ही आटा... फिलिंग नाम-मात्र. सब्ज़ी आलू की, जिसमें आलू नज़र ही नहीं आ रहे थे. खैर, चेन्नई उतर गए. दिल्ली-चेन्नई एयर-पोर्ट अंदर से दोनों खूबसूरत लगे मुझे. बाहर निकलते ही मौसम गर्म. बनियान में आना पड़ा जबकि दिसंबर था. आगे तकरीबन दो सौ किलोमीटर सड़क का सफर था. ऑरोविले के लिए इन्नोवा ली गयी. गाड़ी ठीक थी. सब खुले-खुले बैठ गए. AC बढ़िया. कोई दिक्कत नहीं. चेन्नई दिल्ली जैसा ही लग रहा था. जैसे ही चेन्नई से निकले. एकदम साफ़ आसमान. साफ़ हवा. चावल की खेती ... लम्बी घास....हलके हरे चटक रंग की घास और नारियल के पेड़. सब तरफ खुला खुला क्लाइमेट. "हम दिल्ली में रह ही क्यों रहे हैं?" सब अफ़सोस सा करने लगे. वीडियो कॉल से बीच-बीच में हम दोनों डीलर अपनी फॅमिली को सफर दिखाते रहे. कोई तीन घंटे के आस-पास का सफर. हम ऑरोविले पहुँच गए. मेरी क्लाइंट फॅमिली का होटल बुक था. हम डीलर बंधुओं ने अपने बैग उनके रूम में छोड़े और स्टाम्प पेपर लेने निकल पड़े. पॉण्डीचेरी पहुंचे, जो कि वहां से मात्र तीन-चार किलोमीटर ही है. वहां स्टॉकहोल्डिंग्स के दफ्तर में लंच हो चुका था. सीट पर एक महिला थीं. घरेलू. शादी-शुदा. सुंदर. "अब आपको लंच के बाद आना होगा." वो ठीक हिंदी बोल रही थीं. मैं पीछे हैट गया. बंधुवर ने प्रयास किया, "मैडम, प्लीज् दे दीजिये पेपर, हम दिल्ली से आये हैं." "सिस्टम बंद हो चुका, मैं कुछ कर ही नहीं सकती." मुझे साफ़ लग रहा था कि वो सही कह रही हैं. मैंने बंधु को कहा, "चलिए न, दुबारा आ जाएंगे" "ठीक है." अब हमारे पास तकरीबन एक घंटा था इंतज़ार करने को. वहीं एक रेस्त्रां ढूँढा. वो वाकई बढ़िया निकला. साफ़ सुथरा टॉयलेट. खुला खुला हाल. टेबल एक दूजे से सटे नहीं थे. देसी-विदेसी सब लोग मौजूद. दो थाली आर्डर कीं हमने. कोई दस कटोरी. किसी में दाल, किसी में सब्ज़ी, किसी में दही, किसी में मीठा. मेरे पंसंद की एको सब्ज़ी नहीं थी उसमें. खैर, खा लिया, खाने लायक फिर भी था वो सब. मात्र डेढ़ सौ रुपये प्रति थाली बिल. हम वापिस स्टॉकहोल्डिंग्स दफ्तर पहुंचे. हमने बताया कि ऑरोविले में सेल एग्रीमेंट होना है. मादाम बोलीं, "तब तो आपको तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर चाहिए." "मतलब?" "पांडिचेरी तो अलग स्टेट है. " ओह! मैं जैसे पहाड़ से गिरा. मुझे याद आया कि पोंडीचेरी तो यूनियन टेरिटरी है. हम वहां से निकले. नीचे थोड़ा दूर कुछ टाइपिस्ट बैठे थे. उनसे पूछा कि तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर कहाँ मिलेगा. एक जगह बता दी गयी. हम दोनों वहां पहुंचे. वो कोई दूकानदार था. उसने कहा कि साढ़े तीन बजे के बाद ही मिल पायेगा स्टाम्प पेपर. मेरे बंधु बिदक गए, "इतनी देर कौन रुकेगा यहाँ? मैं तो थक चुका हूँ. मुझे तो नींद आ रही है. मुझे तो टॉयलेट जाना है." "तो?" "मैं तो वापिस होटल जाऊंगा." "ठीक है, चले जाएँ आप," मैंने ठंडा सा जवाब दिया. और वो सच में चले गए, मुझे मँझदार में ही छोड़ कर चले गए. खैर, मैं उस दूकान के बाहर पड़े स्टूल पर बैठ गया. मेरा सेल फोन बंद हो गया.वहां सब लोग हिंदी नहीं समझते. तमिल या फिर टूटी-फूटी अंग्रेजी समझते हैं. दूकान-दार को इशारे से समझाया कि फोन चार्जिंग पर लगाना है. थोड़ी सी किस्मत सही रही. जिसने स्टाम्प-पेपर देना था, वो कोई तीन बजे ही आ गया. पांच मिनट में उसने स्टाम्प पेपर दे दिए. ऑटो करके मैं होटल पहुंचा. एग्रीमेंट के प्रिंट-आउट मैं दिल्ली से ही निकाल ले गया था. ऑटो से सब प्रॉपर्टी मालकिन के घर पहुंचे. वाओ! वैसे घर मैंने अंग्रेजी फिल्मों में ही देखे थे. खुले-बड़े-बड़े घर. जैसे ज़मीन मुफ्त में मिली हो. तकरीबन हज़ार गज में एक घर. फिर दूसरा घर कोई पचास मीटर जगह छोड़ कर.तीसरा घर चालीस मीटर जगह छोड़ कर. बीच में खाली जगह. वनस्पति. पेड़-पौधे. जैसे जंगल के बीच-बीच बने हों घर. बड़े ही आत्मीय ढंग से सबका स्वागत हुआ. चाय-पकौड़ों के बीच मेरे क्लाइंट ने ऑनलाइन धन ट्रांसफर किया और सबने एग्रीमेंट साइन किया. कोई डेढ़ घंटे में ही प्यारा सा माहौल बन गया. उठते हुए सब गले मिले. फोटो लीं. "आप ऐसे रहते हैं, डर नहीं लगता?" मैंने पूछ ही लिया. "नहीं, सबने कुत्ते रखे हुए हैं." लेकिन हम में से कोई भी आश्वस्त न हुआ. मात्र कुत्तों के सहारे ऐसी जगह में कैसे रहा जा सकता है? जगह स्वर्ग जैसी. उनके अपने ही पेड़-पौधे थे, इत्ते कि उनकी कुछ ज़रूरत खुद की खेती पूरी कर दे, लेकिन कोई गॉर्ड नहीं, पुलिस नहीं, चार दीवारी नहीं, ऐसे कैसे रह सकते हैं? यहाँ दिल्ली में तो LIG फ्लैटों को भी लोगों ने चार-दीवारी कर के गॉर्ड रखे होते हैं. काम हमारा हो गया. सब ख़ुशी-ख़ुशी वहां से निकले. अब हम दोनों डीलर बंधुओं को होटल ढूंढना था. "हम तीन-चार होटल देख लेते हैं, आईडिया आ जायेगा." मेरा हमेशा से ख्याल रहा है की होटल ऑनलाइन बुक करने से बेहतर है साइट पर जाकर बुक करना. घंटा आध घंटे की मेहनत से अच्छी डील ढूंढी जा सकती है. वही हमने किया. अंत में हम दोनों ने एक होटल फाइनल कर दिया. वो मेरे क्लाइंट के होटल के ठीक पास ही था. अँधेरा हो चुका था. अगले दिन सुबह घूमना था, सो खा-पी कर सब होटल में ही दुबक गए. मेरे डीलर बंधु ने बताया कि उनका पेट खराब हो गया था और उन्होंने दस्त बंद करने की दवा भी ले ली थी. मैंने उन्हें डांटते हुए कहा कि दस्त लग्न मात्र इस बात की निशानी थी की आपने अपने शरीर में कुछ ज़्यादा या फिर कुछ गड़बड़ दाल दिया है जिसे वो निकाल रहा है. लेकिन आप ठहरे समझदार. अपने शरीर से ज़्यादा समझदार. सो आप वो गंद निकल न पाए इसलिए दवा लेके उस गंद को शरीर में ही रोके हुए हैं. वाह! वाह जनाब!! फिर मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता जी तो हर चार-छह महीने बाद जुलाब लिया करते थे. किसलिए? ताकि शरीर में से गंदगी बाहर निकल सके. खैर उन्हें कुछ समझ आया या नहीं लेकिन उन्होंने कहा यही कि उन्हें यह सब पता है. मैं सोच रहा था, "अब जब पता ही है तो फिर उस ज्ञान का प्रयोग कयों नहीं किया मेरे भाई?" अगली सुबह मैं जल्दी उठ गया. होटल रूम में ही दंड बैठक मारीं. जूते पहने और ऑरोविले की मेन सड़क पर पहुँच गया. आबादी कम ही है वहां. सो सड़क पर कोई ख़ास हल-चल नहीं थी. बस्ती में से होते हुए वापिस ऑरोविले बीच पर आ गया. हर घर के बाहर चाक से रंगोली बनाई हुई थी. ज़मीन की कोई खास मारो-मार महसूस नहीं हो रही थी चूँकि घर एक-डेढ़ मंज़िला ही थे. कई घर तो बस झोंपड़ीनुमा ही थे. जीवन शांत था. लोगों के चेहरों पर बदहवासी नहीं थी.
A House near Auroville Beach
यहाँ समंदर तो साफ़ है लेकिन बीच पर थोड़ी गंदगी है. मैंने कोई दो किलोमीटर रनिंग-वाकिंग की. फिर चट्टानों पर बैठ एक वीडियो भी बनाया.
"समंदर...लहरें....आत्मा... परमात्मा." कुल मतलब यह कि लहर अलग दीखते हुए भी समंदर से अलग नहीं है. जन्म से लेकर विलीन होने तक, वो कभी अलग नहीं है समंदर से. वो समंदर ही है. हवा यदि बर्तन में हो तो क्या वो सर्वत्र मौजूद हवा से कुछ भिन्न होती है? बिजली जो बल्ब को रोशन कर रही है क्या कुछ अलग है जो तारों में बह रही है? लेकिन लहर को वहम हो गया कि वो समंदर से अलग है, बल्ब को वहम हो गया कि उसे रोशन करने वाली बिजली कुछ अलग है? गिलास को वहम हो गया कि उसमें जो हवा है, वो कुछ अलग है. इंसान को वहम हो गया की वो अस्तित्व से कुछ अलग है, उसकी अलग कुछ एंटिटी है, अस्तित्व है. आत्मा है. वहम है. हम सब इस ब्रह्माण्ड से कभी भी अलग नहीं हैं,हम परमात्मा ही हैं. आत्मा न कभी थे, न होंगे. आत्मा सिर्फ भरम है, जैसे लहर का अलग से कोई भी अस्तित्व सिर्फ एक भरम है. अगली सुबह मेरे डीलर बंधु मेरे क्लाइंट फॅमिली के आगे वही गीत गाने लगे, "रात को मेरा पेट खराब हो गया था." मैंने उन्हें फिर टोका, "आप क्यों खुद को याद दिलवा रहे हैं बार-बार? पेट खराब हो गया था. मेरा पेट खराब हो गया था. हो गया था तो हो गया था. रात गयी, बात गयी. आपको पता है कि आपके इस तरह खुद को बार-बार याद दिलवाने का भी आप पर नेगेटिव असर पड़ता है? आपकी मानसिकता का अनुसरण करता है आपका शरीर." कोई बारह बजे सब निकले. तय हुआ कि सबसे पहले मातृ-मंदिर जाएंगे. यह मंदिर "मदर" ने बनवाया था. वो ऑरबिंदो से एसोसिएटेड थीं. असल में तो Auroville नाम भी Aurbindo+Village का जोड़ ही लगता है मुझे. ऑटो लिए गए. वो फारेस्ट एरिया से होते हुए हमें मातृ-मंदिर ले गए. यह बहुत ही बढ़िया जगह है. फ्रेश हवा, वनस्पति की गंध से भरी. "यह हवा मैं अटैची में भर के दिल्ली ले जाऊंगा", मैंने कहा.
Myself in Matri Mandir, Auroville


 कोई चार किलोमीटर पैदल चलते हुए हम मातृ-मंदिर पहुंचे. यह एक गोल्डन गोला है. शायद किसी मैटल का प्रयोग किया गया है ऊपर-ऊपर. अंदर जाने नहीं दिया गया. बस दूर से देखा. बहुत प्यारी जगह है. देखने लायक.
मंजिल से ज़्यादा सफर बढ़िया था. फिर से वनस्पति सूंघते हुए वापिस हो लिए.

रास्ते में एक जगह चाय पी. पीतल की कटोरियों में पीतल के मीडियम टम्बलर. पता नहीं चाय बढ़िया थी या बर्तन बढ़िया थे या दोनों बढ़िया थे..... नतीजा...... मज़ा आ गया.

Tea in Matri Mandir, Auroville
अब हमने अगली मंजिल तय की. "पैराडाइस बीच". ऑटो से सब वहां पहुंचे. समंदर के बीच टापू है. मोटर बोट से पहुंचाए गए. वाकई पैराडाइस जैसी जगह है. साफ़-सुथरा बीच और साफ़-सुथरा समंदर. डीलर बंधु को उसी रोज़ वापिस दिल्ली आना था सो वो तो कोई पंद्रह-बीस मिनट में ही वापसी हो लिए. मैं और मेरी क्लाइंट फॅमिली कोई डेढ़-दो घंटा वहां रहे. पानी के साथ खेलते. बाकी लोगों को देखते हुए. नव-युवा-युवतियां. विवाहित-अविवाहित. सब थे वहां. उत्साहित. समंदर से खेलते हुए. खुश. होना भी चाहिए था. वो जगह ही ऐसी थी. सबको भूख लग आयी थी. कुछ रेस्त्रां बने हुए थे बीच पे. लेकिन उनका मेनू किसी को पसंद नहीं आया. पचास रुपये की एक रोटी. तय हुआ, यहाँ नहीं खाना. वहां से कैब की और ऑरबिंदो आश्रम पहुंचे. यहाँ ऑरबिंदो की समाधि है और उन्हीं की किताबों की लाइब्रेरी और शॉप है. ऑरबिंदो की समाधि के इर्द-गिर्द कुछ लोग आँख बंद कर ध्यान-मग्न बैठे थे. तकरीबन आधे घंटे में वहां से सब निपट गए. तय हुआ वापिस होटल चलें. आराम करके खाना इकट्ठा खाएंगे. मेरे क्लाइंट के होटल में फर्स्ट फ्लोर की छत पर रेस्त्रां था. उनका होटल बिलकुल समंदर किनारे था. उनके कमरे से समंदर सीधा दीखता था. और समंदर की ठंडी हवा और बारिश आती थी कमरे के अंदर तक. आनंद ही आनंद. बरसता हुआ. जैसे-तैसे बारिश से बचते-बचाते फर्स्ट फ्लोर पहुंचे. खाना आर्डर किया. भूख बहुत लगी हुई थी. मैंने नाश्ता तक नहीं किया था. सारा दिन का भूखा था मैं. जितना उस फॅमिली ने खाया होगा उतना मैंने अकेले ने खाया होगा.


वहां होटल वालों के पास बड़ी सी छतरी थी. आम छतरी से दो गुना बड़ी. एक एक कर के उस छतरी में वेटर हमें नीचे छोड़ कर आया. मैंने कहा, "मुझे मेरे होटल तक ही छोड़ दीजिये प्लीज. बारिश रुकने वाली नहीं लगती."
मुझे छोड़ा गया, लेकिन मेरे स्पोर्ट्स शूज फिर भी भीग गए. ज़बरदस्त बारिश थी वह. दस किलोमीटर से ज़्यादा वाकिंग की थी उस दिन मैंने. और दंड-बैठक भी मारी थीं. बिस्तर पर गिरते ही बेहोश हो गया. कोई चार बजे नींद खुली. मैं ऐसे ही सोता हूँ. कभी भी सो जाता हूँ. कभी भी उठ जाता हूँ. नींद मुझे किश्तों में आती है. खैर, सुबह कोई छह बजे के करीब मैं फिर से बीच पर पहुँच गया. पैराडाइस बीच पर हम में से कोई भी समंदर में नहा नहीं पाया था चूँकि अलग से कपड़े हम ले कर ही नहीं गए थे. अब मैं इंतेज़ाम करके गया. अकेला गया. समंदर में डुबकियां मारी. यकीन जानिये समंदर कोई नहाने की जगह नहीं है. पानी नहीं नमक है. और मोटी दर-दरी रेत. गारमेंट्स में घुस जाए तो निकले नहीं .. वापिस होटल पहुंचा .... बाथ-रूम ...बड़ी ही शिद्दत से खुद से रेत अलग की. लम्बा समय लगा. कोई ग्यारह बजे क्लाइंट फॅमिली का मैसेज था कि सब तैयार हैं. निकलें. कैब बुक की हुयी थी. हम वापिस चले. चेन्नई से पहले मामल्लापुरम पड़ा. इसका पुराना नाम महाबलीपुरम है. यहाँ मोदी और चीन के राष्ट्रपति ने फोटो खिंचवाई थी एक गोल चट्टान के नीचे खड़े होकर. यही सब देखना तय हुआ था.
Mamalla Motel & Restaurant
वहां सिर्फ वही चट्टान नहीं थी और भी देखने लायक चट्टाने और चट्टानों को काट कर बनाये गए मंदिर थे. गाइड ने बताया की पल्लव वंश ने ये सब मंदिर तेरह सौ साल पहले बनाये थे. समझने लायक बात यह थी कि कैसे पहाड़ जैसी चट्टानें काट मंदिर बना दिए गए. शिल्प कोई बहुत महीन नहीं था लेकिन फिर भी उस समय के मुताबिक काबिले-तारीफ़ था. एक मंदिर की एंट्री पर पैर धोने की हौदी बनी थी. ठीक वैसी जैसे आज गुरुद्वारों की एंट्री पर बनी होती है. कमाल! उस ज़माने में यह सब सोचना और फिर बनाना!!
महाबलीपुरम पल्लव वंश निर्मित शिल्प और हम 
Feet washing arrangement as in Gurudwaras- Mahabalipuram Temple



Round Boulder Mamalla Puram

Monkey Family
A Temple Mamallapuram

वहीं समंदर किनारे महाबलीपुरम का मंदिर है. शिल्प के हिसाब से यह मंदिर भी कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन यह भी शायद एक ही चट्टान काट के बना है तो उस लिहाज से बढ़िया है.

हमारे पास अभी काफी समय था. फ्लाइट नौ बजे की थी. हम कोई एक जगह और देख सकते थे. लेकिन सब थके हुए थे. एयर-पोर्ट जाना तय हुआ.

फिर अढ़ाई घंटे की फ्लाइट. डिनर कोई ख़ास नहीं था. मैंने तय किया कि जहाँ तक हो सके फ्लाइट में दिया जाने वाला खाना नहीं खाना है आगे से.
फ्लाइट कोई दो घंटे लेट थी. एयर-पोर्ट पर चहल-कदमी करते रहे. मेरे लिए तो एयर-पोर्ट भी दखने की जगह थी. रिक्शा-स्कूटर पर चलंने वाला आदमी.
दिल्ली पहुँचते ही मेरे क्लाइंट का ओला कैब वाले से झगड़ा हो गया. मुझे ताज़ा अनुभव था, बात बिगड़ सकती थी और इतने अच्छे ट्रिप की किरकिरी हो सकती थी. फिर अब उस फॅमिली के साथ मुझे लगाव हो गया था. उनके साथ दो बच्चे भी थे. मुझे ठीक अपनी फॅमिली जैसा ही लगता रहा सारे रास्ते. वैसे भी अपने क्लाइंट को मैं फॅमिली जैसा ही महत्व देता हूँ. भरोसा करके वो प्रॉपर्टी लेते हैं मेरे ज़रिये. उम्र भर की पूंजी लगनी होती है. उनके भरोसे की कद्र करता हूँ.
मैंने बीच-बचाव किया. मामला रफा-दफा. फिर दूसरी कैब ली गयी. हम बात कर रहे थे कि दिल्ली की हवा ही अलग है. लड़ाके लोग हैं. साउथ इंडिया के लोग ज़्यादा शांत हैं, ज़्यादा शिक्षित हैं, ज़्यादा तमीज़दार हैं.
कैब वाला हमारी आपसी बातों में ज़बरन शामिल हो गया. सब चुप हो गए.
ओला उबर के ड्राइवर और उनके कम्यूटर के वैचारिक, समाजिक, आर्थिक लेवल में बहुत फर्क होता है. ट्रेनिंग की ज़रूरत है सब ड्राइवर को. कम्यूटर से न उलझें. सवारी की आपसी बातचीत में शामिल न होवें. गाड़ी चलाते हुए फोन पे बात न करें. सिर्फ और सिर्फ गाड़ी चलाएं. पैसे लें और चलते बनें.
और विमान सेवा देने वाले एक हास्यस्पद खानापूर्ति पूरी करते हैं. महज खानापूर्ति. क्या? फ्लाइट से ठीक पहले क्रू-मेंबर यात्रियों को इशारों से समझाते हैं, रिकार्डेड वॉइस मैसेज के साथ कि इमरजेंसी में लाइफ जैकेट कैसे प्रयोग करनी है, ऑक्सीजन मास्क कैसे प्रयोग करना है आदि-आदि. यकीन जानिये यह एक-दम बकवास तरीका है समझाने का. इमरजेंसी में मुझे नहीं लगता कि बिना क्रू-मेंबर की मदद के लोग यह सब कर पाएंगे. इसका सही तरीका यह हो सकता है कि फ्लाइट के ठीक पहले यात्रियों को प्रक्टिकली सब करवाया जाए. एक-एक यात्री को. महज दस मिनट की एक्सरसाइज बहुत ही मददगार साबित होगी.
वैसे यहीं दिल्ली में ही नहीं चेन्नई, ऑरोविले, पांडिचेरी, सब जगह ड्राइवर लोग गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात करते जा रहे थे. गलत बात है. ये लोग अपने साथ यात्रियों को भी खतरे में डाल रहे हैं.
और दूसरी बड़ी कमी यह पायी मैंने कि जहाज के उतरने के बाद जब बैग कनवेयर बेल्ट पर आते हैं, तो वहां से यात्री खुद ही अपने अपने बैग उठाते हैं और उसके बाद सीधा ही एयरपोर्ट से बाहर निकल जाते हैं. कोई भी व्यक्ति जाने-अनजाने किस दूसरे यात्री का बैग उठा के चलता बन सकता है. कोई पूछने-देखने वाला नहीं है. इसे बड़ी आसानी से सिस्टेमेटिक किया जा सकता है. सिर्फ कुछ स्टाफ लगाना पड़ेगा, जो "बैगेज टिकट" देख-देख बैग की डिलीवरी दे.


खैर, रात के करीब दो बजे सब सही-सलामत घर वापिस.
बड़ी बिटिया और श्रीमती जागती रहीं. मैंने मातृ-मंदिर से अगरबत्तियों के पैकेट लिए थे. महाबलीपुरम मंदिर के बाहर से पत्थर और मोतियों की कोई दस मालाएं लीं थी. एयरपोर्ट से चॉकलेट लीं थी. और समंदर से सीप इकट्ठा कीं थी. देख खुश हो गए सब. कोई दो घंटे मैं सफ़र की बातें सुनाता रहा. चार बजे सुबह सवेरे मैं सो गया.
मेरे ट्रिप से कुछ सीखने लायक मिला हो तो ज़रूर लिखिए.
नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday 19 December 2019

क्या #CAA (citizenship amendment act 2019) संविधान के खिलाफ है?- #NRC/ #CAA-2

मियाँ भाई फरमा रिये हैं :- "ये जो CAA है न यह कंटीटूशन के खिलाफ है. हमारा कंटीटूशन तो सब को बराबर धार्मिक/मज़हबी का हक़ देता है." मेरा मानना है कि CAA बिलकुल भी संविधान के खिलाफ नहीं है. और अपनी इस मान्यता की सपोर्ट में जो मैं आपको बताने वाला हूँ वो आज तक किसी ने भी ने भारत में न कहा है न लिखा है. बात ठीक है कि कंटीटूशन बराबर का हक़ देता है सब मज़हब/ दीन /धरम को लेकिन कुछ शर्त भी हैं संविधान में. देखिये संविधान का अनुच्छेद २५ :-- ये कहता है (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion मतलब सबको धार्मिक आज़ादी है बशर्ते कि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य बना रहे. अब देखिये क़ुरआन क्या कहती है "ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. ( आयत नम्बर -66.9) O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)" अब जो दीन न मानने वालों के खिलाफ भयंकर युद्ध करने की ठाने बैठा हो, क्या उसे हमारा कंस्टीटूशन में बराबरी का दर्जा सकता है? दे रहा है? नहीं दे रहा. संविधान तो कहता है कि आपको धार्मिक आज़ादी है लेकिन तभी जब सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता बनी रहे. लेकिन यदि धर्म/दीन सिर्फ इसलिए युद्ध करता है कि उसे नहीं माना जा रहा तो उससे सार्वजानिक व्यवस्था बनी रहेगी या भंग होगी, उससे सर्वजन का स्वास्थ्य बनेगा या बिगड़ेगा? जब बम फूटेंगे, क़त्ल होंगे, मार-काट होगी तो सार्वजानिक स्वास्थ्य बना रहेगा या भंग होगा? और जब हम किसी ऐसे दीन/ धर्म को अपने आप को फैलाने की आज़ादी देंगे जो खुद को न मानने वालों के खिलाफ जंग करे तो समाज में कैसी नैतिकता को बढ़ावा दे रहे हैं हम? दुबारा से संविधान का आर्टिकल 25 पढ़ें. धार्मिक आज़ादी है लेकिन उसके साथ जो शर्तें जुड़ी हैं वो भी पढ़िए. फिर कहिये कि मौजूदा सरकार के उठाये कदम असंवैधानिक है. इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर करना चाहिए चूँकि यह धर्म के नाम पर छद्म सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक संगठन है. इस्लाम की मुक्कदस किताब कुरान गवाह है, पढ़ सकते हैं. और यह कोई मेरा ओरिजिनल आईडिया नहीं है, अमेरिका और बहुत से अन्य मुल्कों में ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं कि इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर किया जाये. इस्लाम कोई रोज़े, नमाज़, रमजान, ईद, बकरीद का ही नाम नहीं है. इस्लाम में शरिया है जो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अपने कानून हैं. इस्लाम जिहाद है. इस्लाम में इस्लाम के पसारे के लिए हिंसा है. इस्लाम सियासी आइडियोलॉजी है. तो यह कैसे कोई धर्म हो गया? और जब धर्म की परिभाषा में ही इस्लाम फिट नहीं होता तो कैसी धार्मिक बराबरी? तो फिर कैसे CAA संविधान के खिलाफ? ज़ाकिर ना-लायक की बड़ी इज़्ज़त है इस्लामिक दुनिया में. वो श्रीमन कहते हैं कि दीन सिर्फ एक है और वो है इस्लाम. बाकी को करो आखिरी सलाम. गुड बाई. इसलिए तो इस्लामिक मुल्कों में किसी भी और धर्म के इबादतगाह नहीं बनने दिए जाते. सीधी बात. बाकी सब धर्म हैं बकवास.Of Course according to Islam. इस्लाम किसी भी और धर्म को बराबरी का हक़ नहीं देता. बराबरी का हक़ उसे ही मिलना चाहिए जो दूसरों को भी बराबरी का हक़ देने को तैयार हो. तो मित्रवर, मेरे मुताबिक CAA के अंतर्गत जो मुस्लिम को नागरिकता देने से परहेज़ किया जा रहा है, वो बिलकुल सही है. और CAA कतई संविधान के खिलाफ नहीं है. इसका स्वागत होना चाहिए. इसका पालन होना चाहिए. मेरी नज़र में धरती माता भारत माता से बड़ी हैं. मैं वसुधैव कुटुंबकम को मानता हूँ. विश्व बंधुत्व को मानता हूँ. राष्ट्र को मात्र राजनीतिक सीमाएं मानता हूँ, जिन्हें आज नहीं तो कल खत्म होना ही चाहिए. किसी एक संस्कृति-सभ्यता को नहीं मानता हूँ. सारी धरती हमारी है और इस धरती का सारा ज्ञान -विज्ञान हमारा है, चाहे वो धरती के किसी कोने से आया हो. और मेरा मानना है कि दुनिया को Nation- State से World-state में बदलना चाहिए. लेकिन लोकल मान्यताओं का भी जहाँ तक हो सके पालन करते हुए. तो फिर मैं CAA का क्यों स्वागत कर रहा हूँ? वो इसलिए चूँकि अभी इंसानियत वसुधैव कुटुंबकम से बहुत दूर है. दुनिया में फैले भांति-भांति के धर्म/दीन/ मज़हब वसुधैव कुटुंबकम की राह में रोड़ा हैं. इस्लाम सबसे बड़ा रोड़ा है. इस्लाम अवैज्ञानिक है, अतार्किक है, हिंसक है. यदि हम इस्लाम को इस दुनिया से हटाने में कामयाब हो जाते हैं तो बाकी धर्मों का सामना करना, उनमें सामंजस्य बिठाना बड़ा आसान हो जायेगा. ग्लोबल Culture, ग्लोबल आइडियोलॉजी पैदा करना आसान हो जायेगा. राष्ट्रों को महाराष्ट्रों में तब्दील करना और इन महाराष्ट्रों को एक ग्लोबल गवर्नमेंट के झंडे के नीचे लाना आसान हो जायेगा.
इसलिए वक्त ज़रूरत के मुताबिक मैं CAA का स्वागत करता हूँ और पुरज़ोर स्वागत करता हूँ. नमन... तुषार कॉस्मिक

Tuesday 10 December 2019

National Register of Citizens (NRC) & Citizenship Amendment Bill ( #CAB )

क्या #CAA संविधान के खिलाफ है?- #NRC/ #CAA-2 अमित शाह ने साफ़ कहा है कि मुस्लिम को छोड़ कर जो भी शरणार्थी भारत में आना चाहें उन्हें सिटीजनशिप दी जायेगी. मुस्लिम चिल्लम-चिल्ली कर रहे हैं कि हमारे खिलाफ है. लेकिन यह उनके खिलाफ कम है, गैर-मुस्लिम के पक्ष में ज़यादा है. जो मुस्लिम घुसपैठिये हैं, उनको ही निकालने की बात हो रही है, हालांकि भारत जैसे मुल्क में, जहाँ बड़ी आसानी से ऐसे लोगों का ड्राइविंग लाइसेंस बन जाता है जो गाडी चलाने तक नहीं जानते, चालीस साल का आदमी साठ साल की उम्र दिखा कर पासपोर्ट बनवा लेता है, लोग नकली इनकम सर्टिफिकेट बनवा कर EWS कोटा में अपने बच्चे स्कूलों में भरती करवा लेते हैं, वहां घुसपैठिये अब तक वोटर कार्ड, आधार कार्ड न बनवा पाए हों, यह अपने आप में एक चमत्कार होगा. खैर. होगा. फिर भी होगा. कुछ तो होगा. मुस्लिम भाई लोग परेशान हैं. परेशान कुछ तो इसलिए हैं कि यह जो चमत्कार होगा, तो कई बेचारे शरीफ ईमानदार लोग दर-बदर, घर-बेघर कर दिए जायेंगे. और ज़्यादा परेशानी इस बात की है कि भारत क्लियर स्टेटमेंट देगा. स्टेटमेंट कि मुस्लिम का स्वागत नहीं है भारत में. और फिर यह डेमोग्राफी बदलने का प्रयास है. मुस्लिम की आबादी का दबाव कम करने का पर्यास होगा. इसे वो साफ़-साफ़ समझते हैं. और यह उनके दीन के खिलाफ है. चूँकि दीन तो दिन दोगुनी-रात चौगुनी रफ्तार से फैलना चाहिए. अब किसी ने बड़ा ही मासूम सवाल पूछा है कि यार, भारत जैसे मध्यम दर्जे के देश में लोग क्यों भागे चले आते हैं जबकि यहाँ से धड़ा-धड़ लोग कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों को भाग रहे हैं? देखिये, इन्सान सिर्फ बेहतर ज़िंदगी का तलबगार है. Better Life. बाकी सब बकवास है. उसे भारत में बेहतर ज़िंदगी अगर दिख रही है तो इसलिए चूँकि जिस मुल्क में वो रहता है, वहां ज़िंदगी बदतर है, बेहतरी की संभावनाएं क्षीण हैं. इसी तरह जो लोग भारत को छोड़ कर जा रहे हैं, उनको आगे कहीं बेहतर ज़िन्दगी दिख रही है. कल अगर लोगों को किसी और प्लेनेट पर बेहतर ज़िन्दगी दिखेगी तो लोग वहां शिफ्ट होना शुरू हो जायेंगे. बस, इत्ती सी बात है. दूसरी बात यह है कि मैं पूरी तरह से भाजपा सरकार के इस कदम पे उसके साथ हूँ. क्यों? चूँकि मेरा साफ़ मानना है कि इस्लाम दुनिया के लिए खतरा है. इस्लामिक समाज बाकी समाजों के साथ घुलता-मिलता नहीं है बल्कि उन्हें लील जाता है. उनकी सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाज़ सब खा जाता है. और इस्लाम सदैव तख़्त-पलट के लिए प्रयासरत रहता है. इस्लाम का मकसद है दीन को तख़्त पे बिठाना. और इस्लामिक समाज की मान्यताएं जड़ हैं जो इस पूरी धरती को ही लील जाने वाली हैं. अँधा-धुंध आबादी पैदा करो और पृथ्वी के सारे स्त्रोत सोख लो, अल्लाह-अल्लाह करते रहो और कुरान से बाहर सोचो ही नहीं. सोचा तो ईश-निंदा और ईश-निंदा तो क़त्ल. ऐसे में क्या ज्ञान-विज्ञान पैदा होगा? इस तरह की सोच सिर्फ अंधे-अंधेरों में ले जा सकती है. सो कुछ भी बुरा नहीं कि अगर कोई मुल्क, कोई समाज इस्लाम से अलग-थलग रहना चाहता है, इस्लामिक लोगों को अलग-थलग करना चाहता है. NRC वही करने का प्रयास है. पूरी तरह से मुस्लिम को आप खदेड़ नहीं सकते तो फिलहाल यह सब ही करें. उनकी आबादी पर कण्ट्रोल करें. डेमोग्राफी को बैलेंस करें. और ऐसा सिर्फ भारत ही नहीं कर रहा. ट्रम्प का दुनिया भर में मजाक उड़ाया गया, आज भी उड़ाया जाता है, लेकिन एजेंडा उनका भी यही था. कम से कम यह चीन जैसा तो नहीं है जहाँ मुस्लिम को नमाज़ तक पढने नहीं दिया जाता. वैसे जो नित्यानानद ने किया वह भी कर सकते हैं. दुनिया भर में अनजान टापू खरीदें और वहां मुस्लिम को छोड़ बाकी लोगों का स्वागत करें. शम्मी कपूर याद है. वो कहते थे, "हम सिर्फ इत्ता ही चाहते हैं कि बारातियों का स्वागत पान-पराग से हो." हम सिर्फ इत्ता ही चाहते हैं कि इस्लामिक लोग अलग रहें. उनके मुल्क अलग हों. उनके टापू अलग हों. या और बेहतर है कि उनके प्लेनेट ही अलग हों. वैसे भी यह हरेक कम्युनिटी की, हरेक इन्सान की आज़ादी होनी चाहिए कि अगर वो किसी जमात के साथ नहीं रहना चाहता तो न रहे. कोई सवाल नहीं होना चाहिए. कोई मुद्दा नहीं होना चाहिए. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday 30 November 2019

दो लहरों की टक्कर...दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ

यह गुरुदत्त जी का उपन्यास है. जहाँ तक याद पड़ता है, पहली बार यह मैंने संघ के कार्यालय में देखा था. 

फिर बाद में   "हिंदी पुस्तक भण्डार"  क्नॉट प्लेस  में यह किताब दिखती थी. न मैंने खरीदी, न पढ़ी. अपने इस लेख का शीर्षक धन्यवाद  सहित गुरुदत्त जी से ले रहा हूँ. 

जिस सामाजिक व्यवस्था में हम हैं. वो मुख्यतः दो रास्तों से आती है. 
और दोनों में कनफ्लिक्ट  है. कुश्ती है. 
दोनों गुत्थम-गुत्था हैं. कुश्ती क्या है MMA फाइट है. 
दो लहरों की टक्कर है.

इस व्यवस्था का एक हिस्सा आता है तथा-कथित धर्मों से.

ईसाईयत में पहले चर्च और कोर्ट एक ही होते थे. "जोन ऑफ़ आर्क" को जिंदा जला दिया जाने का कानूनी फैसला चर्च से ही दिया गया था. कानून कोई धर्म से अलग नहीं था. 

मुस्लिम समाज की व्यवस्था कहाँ से आती है. कुरान से. 
मुस्लिम समाज का कानून कहाँ से आता है? कुरान से. 
शरियत क्या है? कुरान से निकला कायदा-कानून.  

सिक्खी में भी "रहत मर्यादा" का कांसेप्ट है, जो गुरुओं की शिक्षाओं  से आता है. 

क्या है मेरा पॉइंट? 
पॉइंट यह है  कि तथाकथित धर्मों से समाज में एक व्यवस्था निकलती है. कानून निकलता है. राजनीति निकलती है. यह एक लहर है.

एक दूसरी लहर  है. इस लहर से भी एक सामाजिक व्यवस्था निकलती है.  

इस लहर में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे फलसफी शामिल हैं.  इसमें शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड,  दोस्तोवस्की, प्रेम चंद मुंशी, खुशवंत सिंह जैसे  साहित्यकार हैं. इसमें अर्थ-शास्त्री शामिल हैं. इसमें समाज-शास्त्री शामिल हैं.  इसमें डार्विन जैसे  वैज्ञानिक हैं. इसमें फ्रायड जैसे मनो-वैज्ञानिक हैं.  यह व्यवस्था जड़ नहीं है. यह चलायमान है. यह बदलाव का स्वागत करती है. यह बदलाव लाती है.  बदलाव के साथ बदलती है. Change is the only Constant. 

जो लहर धर्मों से आती है, वो जड़ है और इन्सान को जड़ ही बनाये रखना चाहती है. वो हर तरह के बदलाव का विरोध करती है. 

सबसे ज्यादा जड़ इस्लाम है.  "कुरान आसमान से उतरी  इलाही किताब है. उससे इतर कुछ नहीं हो सकता. आखिरी पैगम्बर हो चुके."

बाकी समाजों ने फिर भी  थोड़ी-बहुत जड़ता छोड़ दी है. जैसे ईसाईयत ने बाकायदा "जोन ऑफ़ आर्क" को जलाने के लिए माफी माँगी. गलीलियो को चर्च में  बेईज्ज़त करने के लिए माफी माँगी. 

सिक्खी में कृपाण रखना शामिल है लेकिन फिर छोटी सी प्रतीक रुपी कृपाण  रखने पे रज़ामंदी दिखा दी.  

लेकिन आपको फिर भी मुस्लिम औरतें बुरका और सिक्ख पगड़ी न उतारने की जिद्द करते दीखते हैं.   

तो यह है टक्कर. 

एक लहर विश्वास पर टिकी है 
तो
दूजी विचार पर. 

एक लहर किसी किताब को ग्रन्थ मान कर वहीं रुक चुकी है 
तो 
दूजी हर किताब पर चैलेंज स्वीकार करती है. 

एक लहर महान शख्सियतों पर टीका-टिपण्णी पर क़त्ल तक करने पर उतारू है 
तो
दूजी हर आलोचना का स्वागत करती है.  

यह है, "दो लहरों की टक्कर". 

एक लहर  को दक्षिण मार्ग 
और
दूजी को  वाम मार्ग
कहा जाता है. 

समाज पर हावी विचारधारा ने खुद को दक्षिण पंथी कहा 
और
विपरीत विचार वालों को वामपंथी कहा है हमेशा.

Right is right 
and
left is wrong.

यह है, "दो लहरों की टक्कर".

धर्मों से सामाजिक व्यवस्था में जो आता है, वो गतिरोध पैदा करता है. सारी दिक्कत ही यही है. 

हम अपने साहित्यकार की नहीं सुनते, 
समाज शास्त्री की नहीं गुणते, 

वैज्ञानिक की नहीं मानते, 
मनो-वैज्ञानिक की बात नहीं जानते.  

हम इनको बहुत कम  सम्मान  देते हैं. 
हम इन पर बहुत कम ध्यान देते हैं.

यह है, "दो लहरों की टक्कर".

सुरेन्द्र मोहन पाठक साहेब की आत्म-कथा पढ़ रहा था. 
उसमें एक किस्सा कुछ-कुछ यूँ है. 

एक नौजवान रोज़गार दफ्तर नौकरी मांगने का आवेदन करने जाता है. 
उससे पूछा जाता है, "क्या  करते हो?" 

तो उसका जवाब है, 
"कहानी लिखता हूँ, 
कविता कहता हूँ, 
नाटक खेलता हूँ."

"उसके अलावा क्या करते हो?"

"कुछ नहीं."

"कहानी, कविता और नाटक  मात्र के लिए कोई नौकरी नहीं है, कोई सैलरी नहीं है." 

"तो फिर प्रेम चंद को क्यों पढ़ाते हो?
 निराला को क्यों गाते हो? 
 भगवती चरण वर्मा को क्यों समझाते हो? 
 पढ़ाते हो तो पढाने से क्यों कमाते हो? 

अगर साहित्य लिखना कोई काम नहीं तो साहित्य पढ़ाना काम कैसे हो गया?"

मुझे याद है. मैं बठिंडा के 'महावीर सनातन धर्म' पब्लिक स्कूल में था.  दसवीं में स्कूल में टॉप किया. लेकिन तब तक मुझे साहित्य, फिलोसोफी, समाज विज्ञान जैसी चीज़ों को पढ़ने-समझने का कीड़ा काट चुका था. 
कीड़ा नहीं सांप था. 
सांप नहीं सांप का बाप था. 

सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. क्यों? चूँकि मुझे साहित्य पढना था. नतीजा ? मेरी आर्ट्स की पढाई से, साहित्य की पढ़ाई से मुझे आज तक चवन्नी की कमाई नहीं हुई. जबकि मेरे से कहीं फिस्सडी छात्र बढ़िया से फिट हो गए.

हम धर्म की बकवास-बाज़ी करने वालों को राजा जैसा जीवन देते हैं. 
उन्हें महंगी कारें गिफ्ट कर देते हैं.
पञ्च तारा होटलों में शिफ्ट कर देते हैं.

धार्मिक स्थलों को सोने-चांदी से मढ़ देते हैं, लेकिन अपने कलाकारों, लेखकों को, फ़लसफ़ी को खड्डे-लैंड लगा के रहते हैं. 

मिर्ज़ा गालिब उधार ले के गुज़र-बसर करते थे. 
"कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हांं
रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन"

विन्सेंट वैनगोग ज़िन्दा थे तो अपनी एक पेंटिंग नहीं बेच पाए. पागल हो गए, आत्म-हत्या कर ली पागलपन में ही. 

खैर, Godfather-१ में डॉन कोर्लेओन अपने बेटे को समझाता है, "जो भी तेरे साथ विरोधी गैंग के बॉस से  मीटिंग फिक्स करवाएगा, वो गद्दार होगा." आप समझ लीजिये, जो भी धार्मिक मान्यताओं को सामाजिक व्यवस्था पर आरोपित करना चाहते है,  गद्दार है. समाज में वैज्ञानिकता लाने के रास्ते में रोड़ा है.

ये जो दो लहरों की टक्कर है, MMA फाइट है, इसमें आपने किसे जितवाना है? सोच लीजिये. 

कमेंट में बताईये 
और 
अगर इस लेख में से कुछ ले जाने लायक है तो उसे अपने साथ घर ले जाईये. 

नमन....तुषार कॉस्मिक

इसी लेख को अगर सुनना हो तो लिंक मौजूद है:--

https://soundcloud.com/user-363372047/25-nov-939-pm2

Sunday 24 November 2019

Holidays

Why holidays are called holidays?


Simple.
Because
working days are

so ugly,
so boring,
so monotonous,
so robotic,
so UNHOLY.

Wednesday 13 November 2019

"करतारपुर कॉरिडोर"

करतारपुर कॉरिडोर खुलने से बहुत खुश हैं भारतीय, ख़ास कर के पंजाबी, ख़ास करके सिक्ख. अच्छी बात है. लेकिन कुछ शंकाएं हैं. ये जो पाकिस्तानी प्यार उमड़ रहा है, ये जो इमरान और सिद्धू की गल-बहियाँ दिख रही हैं......ये जो मेहमान-नवाजी दिखाई जा रही है पाकिस्तान की तरफ से......कुछ शंकाएं हैं, गहन शंकाएं हैं. पहली बात तो यह है कि पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क है, इस्लाम की बुनियाद पर खड़ा किया गया मुल्क है. नाम ही है पाकिस्तान. मतलब जो मुस्लिम है वो ही पाक है, बाकी सब नापाक, अपवित्र, गंदे, काफ़िर, वाज़िबुल-क़त्ल. इस्लाम में तो किसी भी और धर्म, दीन, मज़हब की गुंजाईश ही नहीं है. इस्लाम क्या है "ला इल्लाह-लिल्ल्हा, मुहम्मदुरूसूल अल्लाह". एक ही अल्लाह है, और बस मोहम्मद उसके रसूल हैं. कहानी खत्म. दी एंड. इसमें कहाँ किसी गुरु, किसी वाहेगुरु, किसी "एक ओंकार सतनाम" की गुंजाईश है? यहाँ यह भी ध्यान रखिये कि एकेश्वर की परिकल्पना जो सिक्खी में है, भारत में है, वो इस्लाम में नहीं है. इस्लाम का अल्लाह बड़ा खतरनाक है. कुरान कहती ज़रूर है कि अल्लाह बड़ा दयालु है, लेकिन है नहीं. वो गैर-मुस्लिम के प्रति बहुत ही हिंसक है. सो "ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम", गलत आख्यान है. ईश्वर से अल्लाह बिलकुल भिन्न है. इस सब में सिवा मस्ज़िद के कहाँ किसी गुरूद्वारे की गुंजाईश है? मैं सुनता हूँ अक्सर लोग कहते हैं कि थ्योरी कुछ अलग होती है और प्रैक्टिकल कुछ अलग होता है. मुझे हमेशा इस कांसेप्ट पर शंका रही है. मुझे लगता है कि थ्योरी ही अंततः प्रैक्टिकल होता है. विचार ही कर्म में बदलते हैं. नक्शा ही बिल्डिंग बनाता है. और इस्लाम का नक्शा क्या है? "सिर्फ इस्लाम ही असल दीन है, बाकी सब काफिर हैं, हीन हैं." फिर ये जो आपको करतारपुर में दिख रहा है, वो सब क्या है? "वक्ती है नाज़रीन. सियासत है हाज़रीन. पैसे-धेले की तंगी है जनाब. या शायद कश्मीर का कोई जवाब .... ये जो कुछ भी है लेकिन बहुत खुश होने की वजह नहीं है." हमेशा याद रखें, इस्माल सिर्फ इस्लाम है और मुसलमान सिर्फ मुसलमान है. और सिक्खों को यह सीखने कहीं और नहीं जाना है, अपना ही इतिहास देखना है. वो तो अपनी अरदास में बोलते हैं, "आरों से कटवाए गए, गर्म तवों पर बिठाए गए, खोपड़ियाँ उतरवा दी गईं.......लेकिन सिंहों ने धरम नहीं हारेया" और यह सब सच है. खालसा का जन्म ही ज़बर के खिलाफ हुआ था, वो कोई हिन्दू के पक्ष में नहीं था, वो ज़ुल्म के खिलाफ़ था. खालसा का अर्थ है, ख़ालिस व्यक्ति. शुद्ध-बुद्ध. संत सिपाही. वो किसी भी जबर के खिलाफ खड़ा होता है. और सिक्खों का इतिहास भी यही रहा है (सिर्फ चौरासी के आगे-पीछे का कुछ दौर-ए-दौरा छोड़ कर). यह याद रखना चाहिए कि "पंज प्यारे" कौन थे? वो थे दया राम, धर्म दास, मोहकम चंद, हिम्मत राय, साहिब चंद. ये वो लोग थे जिन्होंने गुरु गोबिंद की आवाज़ पर अपनी जान कुर्बान करने की तैयारी दिखा दी थी. ये पहले पांच खालसे थे. ये कोई भी थे लेकिन मुस्लिम कदाचित नहीं थे. यह याद रखना चाहिए कि जब खालसा पैदा हुआ तब ज़बर किस की तरफ से हो रहा था. ज़ालिम कौन था और ज़ुल्म किस पर हो रहा था? किसने गुरुओं को, उनके परिवारों को शहीद किया? गुरु गोबिंद के बच्चे दीवार में ईंट-गारे की जगह प्रयोग किये गए. जिंदा बच्चे. जरा सोच कर देखिये. कल्पना करना भी मुश्किल. जिगर फट जाए. रूह काँप जाएगी.उनके दो और बेटे जंग में शहीद हो गए. उनके पिता को पहले ही शहीद कर दिया गया था. और वो खुद, शायद टेंट में सो रहे थे, तब अटैक किया गया था, मुस्लिम द्वारा ही मारे गए. कहते हैं कि बन्दा बहादुर के बच्चों के टुकड़े उनके मुंह में ठूंसे गए थे. बाबा दीप सिंह के बारे में कहा जाता है कि उनकी गर्दन कट गयी थी, वो फिर भी लड़ रहे थे. सिंह न हो किसी के खिलाफ लेकिन कौन था सिंह के खिलाफ, हिन्दू के खिलाफ? मुसलमान. मुख्यतः मुसलमान जनाब. मैं फिर से कहता हूँ, हमेशा थ्योरी समझनी चाहिए, प्रैक्टिकल अपने आप समझ आ जायेगा. मूर्ख हैं वो लोग जो कहते हैं कि थ्योरी सिर्फ थ्योरी हैं. न. इस्लाम की थ्योरी समझें. इस्लाम की थ्योरी यह है कि सिर्फ इस्लाम ही पाक-साफ़ है, बाकी सब बकवास है. वो थ्योरी कल भी वही थी और वो आज भी वही है और आगे भी वही रहेगी, चूँकि इस्लाम में किसी भी फेर-बदल की कोई गुंजाईश ही नहीं है. और इस्लामिक लोग सिंहों के उद्भव से पहले भी गैर-मुल्सिम पर आक्रमण कर रहे थे, और आज भी कर रहे हैं और पूरी दुनिया में कर रहे हैं. मुसलमान का भारत में हिन्दू से दंगा है, बर्मा में बौद्ध से अडंगा है, फलस्तीन में यहूदियों से पंगा है, यज़ीदी लड़कियों को कर दिया नंगा है. यूरोप का कानून बदलना है इनको, चूँकि शरिया ही चंगा है. वैसे बाकी सब लड़ाके हैं, बस इस्लाम अमन-पसंद है, इस्लाम बहुत ही भला है, बहुत चंगा है. और मोहम्मद आखिरी पैगम्बर हो चुके. बात खत्म. अब आपके गुरु कहाँ टिकेंगे? कुरान...इलाही किताब. उतर चुकी आसमान से. बस. आप कहते रहो कि गुरुबानी धुर की बाणी है. मुसलमान कैसे मानेंगे? न. थ्योरी को समझें. सब समझ आ जायेगा. वहां पाकिस्तान में तो सूफी संतों की मजारों पर बम फोड़े जाते हैं. मालूम क्यों? चूँकि सूफियों को इस्लाम से बाहर माना जाता है, इस्लाम के खिलाफ माना जाता है. आप मानते रहो कि सूफी मुस्लिम थे, मुस्लिम नहीं मानते और सही भी है. सूफी इस्लाम के खिलाफ ही थे, इस्लाम में से निकले विद्रोही थे. करतार-पुर कॉरिडोर खुलने की बधाइयां दे तो रहे हैं आप पाकिस्तान को, यह भी समझिये कि सत्तर सालों तक यह बंद ही क्यों था? यह बंद इसलिए था चूँकि पाकिस्तान पाकिस्तान है और आप नापाकिस्तान हैं. मुझे बहुत उम्मीद नहीं कि ये खुशियाँ बहुत लम्बे दौर तक टिकने वाली हैं. ख़ुशी होगी मुझे अगर मैं गलत साबित हुआ तो. नोट:- कृपया समझ लीजिये, इस पोस्ट में मैंने कहीं यह सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया है कि सिक्ख हिन्दू हैं या फिर हिन्दू या हिन्दुस्तान के लिए बनाये गए. नमन....तुषार कॉस्मिक

Friday 8 November 2019

प्रभात-फेरी

सुबह-सवेरे प्रभात-फेरी निकलनी है. गुरु पर्व है कोई. कोई चार बजे दरवाज़े पर भजन कीर्तन.

नींद हराम करेंगे. मेरी अधार्मिक भावनाओं पर चोट करेंगे.

साला कब समझोगे, तुम्हारा धर्म और लिंग कितना ही बढ़िया हो,
इसे सड़क पर नहीं फैलाना है,
इसका डंका पार्क में नहीं बजाना है,
फुटपाथ पर इसका लंगर नहीं चलाना है,
इसकी झांकियां नहीं निकालनी हैं?

इडियट.

"इस्लाम को अंतिम सलाम कैसे पहुंचे?"

मैं मोदी को एक स्टेज एक्टर से ज्यादा कुछ नहीं मानता. लेकिन सवाल यह है कि कोई भी सरकार आये, यह भरपूर कोशिश होनी चाहिए कि इस्लाम हारना चाहिए.....और ऐसा पूरे दुनिया में होना चाहिए. बाकी साथ-साथ हर धर्म को झन्ड करते रहें. सब माफिया हैं. इस्लाम सबसे बड़ा. सब एक दूजे को परोक्ष रूप से सपोर्ट करते हैं. इनका आपसी विरोध भी परोक्ष रूप से दूजे की सपोर्ट बन जाता है. हिन्दू कट्टर बन जाता है, इस्लाम जैसा ही बन जाता है चूँकि उसे इस्लाम का खतरा महसूस होता है. और इस्लाम तो है ही छद्म-सेना. मोहम्मद की सेना. यह कोई धर्म नहीं है. यह धरम का भरम है. यह बस सब तरह की सोच-विचार को निगल कर इस्लामिक सोच को आच्छादित करने का सिस्टम है. और इस सिस्टम में काफिर की हत्या, बलात्कार, लूट-पाट सब जायज़ है. पूरी दुनिया से इसे उखाड़ फ़ेंकना ज़रूरी है. दुनिया ने बहुत से खतरे देखे हैं. इस्लाम भी बड़ा खतरा है. पिछले चौदह सौ सालों से दुनिया को इसने खूब जंगें दी हैं. बस. अब इसे विदा कीजिये. कुरान की एक-एक आयत को तर्क की कसौटी पर कसें. ऐसा नहीं कि मुसलमान कोई समझ जायेगा. न. वो बहुत मुश्किल है. लगभग असम्भव. बाकी दुनिया समझ जाए, सावधान हो जाए तो बहुत मसला हल हो सकता है. जैसे आज बहुत मुल्क मुस्लिम को एंट्री देने में हिचक रहें हैं. क्यों? चूँकि वो इस्लाम का खतरा समझ रहे हैं. यह खतरा हरेक को समझना चाहिए. यह समझ ऐसे हालात पैदा करेगी कि इस्लाम को विदा होना पड़ेगा. नमन.....तुषार कॉस्मिक

वर्दी वाला गुंडा

"पुलिस की ठुकाई" वैसे तो मुझे पुलिस और वकील दोनों से ही कोई हमदर्दी नहीं है लेकिन इसमें पुलिस से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा चिढ है. वकील पैसा ऐंठते हैं. जायज़-नाजायज़ हर तरीके से. और कोर्ट परिसर में गुंडा-गर्दी भी करते हैं. लेकिन पुलिस नाजायज़ पैसा वसूलती है और हर जगह गुंडागर्दी करती है. पुलिस माफिया है.थाणे इनकी बदमाशी के अड्डे हैं, जहाँ पुलिस किसी को भी अँधा-धुंध कूट सकती है, अपंग कर सकती है, क़त्ल कर सकती है. डंडा इनको समाज ने दिया अपनी रक्षा के लिए लेकिन वही डंडा ये चलाते हैं समाज को धमकाने के लिए, रिश्वत वसूलने के लिए. यकीन जानो अधिकांश अपराध होते ही इसलिए हैं कि पुलिस हरामखोर है. ये पब्लिक के सेवक हैं? रक्षक हैं? नहीं. ये भक्षक हैं. दो-चार सौ में बिक जाते हैं, सरे-राह. यह औकात हैं इनकी. "अगर जनता गलत करती है तो तुम करो न कानूनी कार्रवाई. रिश्वत ले लेते हो तो फिर पब्लिक का वही गलत काम सही हो जाता है क्या? जब तक रिश्वत नहीं गयी जेब में, आंखे तरेरते हो. जेब गर्म होते ही नर्म हो जाते हो." तीस हजारी बवाल के बाद अब ये मानवाधिकार की दुहाई देते फिर रहे हैं. आज बीवी बच्चे सड़क पर उतार लाये हैं. एक फिल्म देखी थी जिसमें विलेन सारी व्यवस्था पर कब्जा कर लेता है. पुलिस कमीश्नर को उल्टा लटका देता है. न्यायधीश पर मुकदमा चलाता है और सारी (कु)व्यव्य्स्था की ऐसी-तैसे कर देता है. अब मैं सोचता हूँ कि वो विलेन था कि हीरो? सब गड्ड-मड्ड हो गया. आपको पता है "बैटमैन" जितना मशहूर है, उससे ज़्यादा उसका विलेन "जोकर " मशहूर है? उसके डायलाग लोग ढूंढ-ढूंढ पढ़ते हैं. अब वेस्ट की बहुत सी फिल्मों के विलेन भी अपना एक फलसफा लिए होते हैं और यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि वो विलन हैं या हीरो. हीरो विलेन लगता है और विलेन हीरो. ऐसी ही व्यवस्था तुम्हारी है. पुलिस वाले रक्षक नहीं, भक्षक हैं. तुमने उसे वर्दी दी. हाथ में डंडा दिया. कमर पे गन लटकाई. किसलिए? अपनी रक्षा के लिए. पर वो तुम्हें ही धमकाता रहता है. मिस-गाइड करता है. तुमसे रिश्वत लेता है. ऐसी की तैसी इसकी. समझ लो अच्छे से, उसकी ताकत तुम्हारी दी हुयी है. छीन लो उससे यह ताकत जो वो तुम्हारे ही खिलाफ इस्तेमाल करता है. अभी तो तीस हजारी में कुछ खास हुआ भी नहीं है. दो-चार पुलिस वाले पिटे हैं तो वकील भी पिटे हैं. वकीलों पर तो गोलियां भी चली हैं. और पुलिस वाले चले मानवाधिकार चमकाने. साला तुम मानव कहाँ हो? तुम तो पुलिस वाले हो. तुमने आज तक समाज को सिर्फ पीटा है. अभी तो तुम्हारी पिटाई ठीक से शुरू भी नहीं हुई. और लगे बिलबिलाने. कितने ही लोगों को तुमने जेल पहुंचा दिया, नाजायज़ केस बना कर. कितने ही लोगों को ठाणे में ले जाकर पीट-पीट कर अपंग कर दिया. कितनों को क़त्ल कर दिया थाणे में. कितनों की रोज़ तुम बिन वजह बे-इज्ज़ती करते हो. कितनों ही से रिश्वत लेते हो. तुम मानव हो? न. न. तुम पुलिस वाले हो. वर्दी-धारी. अभेद वर्दी-धारी. वर्दी-धारी गुंडे. वर्दी वाले गुंडे.

हमें ख़ुशी हैं कि तुम पिटने लगे हो. मैं बस खुल्ले में कह रहा हूँ. एक सर्वे करवा लो. चाहो तो एक गुप्त वोटिंग करवा लो. लगभग हर वोट तुम्हारे खिलाफ़ जायेगा.पुलिस की पिटाई से समाज खुश है लेकिन यह कोई हल नहीं है. हम तुम्हारी वर्दी पर कैमरे लगवाना चाहते हैं. हम पुलिस स्टेशन पर कमरे लगवाना चाहते हैं. हम हर उस जगह कैमरे चाहते हैं जहाँ तुम मौजूद होवो. फिर देखते हैं तुम जनता से 'ओये' भी कैसे कहते हो. जरा बदतमीजी की तो तुम्हारी वर्दी छीन ली जाएगी और तुम्हें लाखों जुर्माना ठोका जायेगा. अबे ओये, समाज विज्ञान के ठेकेदारों, अक्ल के अन्धो, अगर किसी को ताकत देते हो तो उस पर कण्ट्रोल कैसे रखोगे यह भी सोचो. तुमने पुलिस को ताकत दी. असीमित. लेकिन कण्ट्रोल तुम्हारा है नहीं तो वो तो करेगा ही मनमानी. मैं हैरान हो जाता हूँ कि एक थर्ड-रेटेड इन्सान कैसे रौब मार रहा होता है अच्छे खासे लोगों पर! दिल्ली में तो पुलिस बात ही तू-तडांग से करती है. बदतमीज़ी अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझती है. यह मनमानी दिनों में रोक सकते हो तुम चूँकि पुलिस के पास अपने आप में कोई ताकत है ही नहीं. सो थोडा पिटने दो पुलिस को, यह शुभ है समाज के लिए. थोडा और पिटने दो पुलिस को, यह और शुभ है समाज के लिए. लेकिन साथ में इनकी वर्दी पर, थानों पर, ठिकानों, पाखानों पर सब जगह कैमरे फिट करो. तब अक्ल ठिकाने आ जाएगी, है तो पिद्दी भर, वो भी भ्रष्ट, लेकिन ठिकाने आ जाएगी. कण्ट्रोल समाज के हाथ आ जायेगा. और समाज को सही अर्थों में रक्षक मिल जायेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक

Tuesday 29 October 2019

बग-दादी

तुम लादेन मारो, बग-दादी मारो
या इनका दादा-दादी,
फर्क नहीं पड़ेगा.....
कोई और ले लेगा इनकी जगह.
वो सदियों से होता आया है.
पत्ते काटने से कुछ नहीं होगा.
जड़ काटो. जड़ कुरान है. कुरान पर हमला करो.
गाली-गलौच से नहीं. तर्क से. फैक्ट से.
और अब तो तुम्हारे पास हथियार है.
तुम्हारा मोबाइल फोन. यह तुम्हारा यार है.

इससे करो मुकाबला
"मंदिर-मसीत में चोरी हो जाए,
पुलिस वाला पिट जाए,
जज की बीवी किसी के साथ भाग जाए,"
तो समझो समाज सही दिशा में जा रहा है.
सादी रोटी, अदरक-हरी मिर्च की चटनी और कच्चा प्याज़ खाया करो गधो. लिख लो पञ्च-तारा होटल बेचेगा इसे बहुत महंगा. और डॉक्टर लिखेगा इसे दवा की जगह. तब सीखोगे. मेरी थोड़ा न मानोगे

ORIGINALITY

Originality is never 100% original, yet it is ORIGINAL.

How? Lemme explain.

A computer is what?

It is somewhat typewriter, somewhat calculator, somewhat TV, somewhat this, somewhat that.......

Right?

Can you say that there is nothing original in the computer because it is TV, Calculator, typewriter, everything Old, everything stale?

No dear. Though old things are there, yet it is NEW. Fresh. A never before thing. ORIGINAL.

That is what Originality is.

Tuesday 22 October 2019

जब तक सीनिमा है, तब तक लोग चूतिया बनते रहेंगे

"जब तक सीनिमा है, तब तक लोग चूतिया बनते रहेंगे", यह महाज्ञान हमें सीनिमा से ही मिलता है (गैंग्स ऑफ़ वासेपुर).

"आप को टीवी देखना ही नहीं चाहिए" यह ज्ञान भी टीवी पर रवीश कुमार से मिलता है.

"और सोशल मीडिया से क्रांति नहीं आ सकती" यह जबर्दस्त ज्ञान भी हमें सोशल मीडिया पर महा-एक्टिव मित्रगण से मिलता है.

MORAL:-- पोस्ट करते रहें. 

बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई

न कोई  गौरी मां  है, न काली
न झाड़ों वाली, न पहाड़ों वाली
न  डंडे वाली, न झंडे वाली, 

न अवतार, न कोई पीर, न पैगम्बर,
खाली है  अम्बर, खाली है  अम्बर

न जहनुम,   न जन्नत 
न पूरी होगी कोई मन्नत

सब व्यर्थ है
अनर्थ है, अनर्थ है

बस कोरी कथा  है
तुम्हारी  व्यथा है
 

न अल्लाह है, न भगवान है
पागल इन्सान है
कायनात हैरान है

न कोई देवता है, न  देवी कोई
बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई

न कोई चुड़ैल, न परी
बात खरी है,  खरी-खरी

न कोई प्रेत, न है जिन्न कोई
बस अक्ल है तुम्हारी सोई-सोई
बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई

नमन......तुषार कॉस्मिक

Tuesday 10 September 2019

क़ुतुब मीनार की सच्चाई

मुसलमान बहुत दुखी हैं कि बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गई. और ओवेसी बंधु अकसर एक्शन के रिएक्शन की बात करते हैं. क्या कोई मुसलमान यह देखने को राज़ी है कि कितने ही मंदिर तोड़-तोड़ कर मस्जिदें बनाई गईं.

क़ुतुब मीनार असल में क्या है?


सपरिवार क़ुतुब मीनार जाना हुआ. बहुत पहले पी. एन. ओक. साहेब की किताब पढ़ी थी, "भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें", जिसमें वो ज़िक्र करते हैं कि बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें जो मुगलों की बनाई कही जाती हैं, वो असल में हिन्दू राजाओं ने बनवाई थी. इन्हीं इमारतों में वो क़ुतुब मीनार का ज़िक्र भी करते हैं. मुझे उनके दिए कोई भी तर्क याद नहीं. लेकिन आज जब वहां जाना हुआ तो उनकी बहुत याद आई.


"लौह स्तम्भ" के प्रांगण में घुसने से पहले ही जो 'परिचय पत्थर' पर लिखा है उसी ने दिमाग में उथल-पुथल मचा दी.

लिखा है, “कुवुतल इस्लाम ( इस्लाम की शक्ति) नाम से प्रसिद्ध यह इमारत भारत में प्राचीनतम मस्ज़िद है. इसके दालान में प्रयुक्त खम्बे और दूसरी सामग्री सताईस हिन्दू और जैन मंदिर ध्वस्त करके प्राप्त की गई. मुख्य इमारत के सामने पांच मेहराबों की पंक्ति बाद में लगाई गई. ताकि इसमें इस्लामिक वास्तुकला की विशेषता दृष्टिगोचर हो. इन मेहराबों पर अंकित धार्मिक लेख अरबी ढंग का अलंकरण है पर इनके गठन में हिन्दू शिल्प की छाप स्पष्ट है.”

यानि कि इतिहासकार मानते हैं कि मंदिर ध्वस्त करके मस्ज़िद बनाई गई. सबसे पहली मस्ज़िद ही भारत में मंदिर ध्वस्त करके बनाई गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.

और हिन्दू शिल्प को अरबी वास्तुकला दर्शाने की बदमाशी की गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.

और वो मस्ज़िद कहाँ से हो गई, उसके बीचों-बीच तो दो कब्रें हैं, कौन सी मस्ज़िद में ऐसा होता है? और अगर वो मस्ज़िद थी तो उसके बीचो- बीच "लौह स्तम्भ" का क्या काम? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?

और कौन सी मस्ज़िद ऐसे खम्बों पर बनाई जाती है जिन पर मंदिर की घंटियाँ उकेरी गई हों? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?

जब कभी आपका जाना हो वहां, तो सेल्फी लेने और फोटो निकालने से थोड़ा ज़्यादा दिमाग लगाइयेगा. ध्यान दीजियेगा, वहां क़ुतुब मीनार के इर्द- गिर्द जो प्रांगण खड़ा है, वो क़ुतुब मीनार से सदियों पुराना दिख रहा है, उसकी शिल्प कला बिलकुल भिन्न है. और 'लौह स्तम्भ' पर कोई भारतीय लिपि लिखी है, शायद ब्राह्मी और 'लौह स्तम्भ' के इर्द-गिर्द प्रांगण है वो भी क़ुतुब मीनार के समय से बहुत पुराना लगता है. और ध्यान से देखना, अर्ध- निर्मित या अर्ध- ध्वस्त मेहराबों के ऊपर-ऊपर जो पत्थर लगे हैं, सामने की तरफ, जिन पर अरबी/ उर्दू की इबारत लिखी हैं, वो साफ़ ऐसा प्रतीत होते हैं कि बाद में लगे हैं और उनके पीछे के पत्थर कहीं पुराने हैं. और शायद यही इतिहासकार ऊपर कह रहे हैं.

अगर कभी अजमेर जाएँ तो देखें , वहां "अढाई दिन का झोंपड़ा" नाम से एक ऐसी ही आधी अधूरी सी इमारत है. यह एक मंदिर था जिसे तोड़ कर अढाई दिन में मस्ज़िद जैसा रूप देने का प्रयास किया गया. जो न मंदिर रहा न मस्ज़िद. इसके प्रांगण में तो मंदिर के भग्न- अवशेष भी रखे हैं. और लिखा है वहां के परिचय पत्थर पर कि यह निर्माण मंदिर तोड़ कर किया गया.

क्यूँ ज़िक्र कर रहा हूँ "अढाई दिन का झोंपड़ा" का? वजह है. क़ुतुबमीनार के साथ खड़े लौह स्तम्भ के गिर्द निर्माण को देखिये और "अढाई दिन का झोंपड़ा" को भी. 


आपको Dejavu जैसा कुछ अहसास होगा. ऐसा लगेगा कि आप ने जो देखा है, वैसा ही कुछ आप फिर से देख रहे हैं. और इन निर्माण के पीछे की कहानी? वो तो इतिहासकार मान रहे हैं कि काफी कुछ एक जैसी है.

सवाल यह है कि लौह-स्तम्भ हिन्दू निर्माण, उसके इर्द गिर्द प्रांगण हिन्दू निर्माण, क़ुतुब मीनार के इर्द गिर्द का प्रांगण हिन्दू निर्माण तो फिर क़ुतुब मीनार कैसे इस्लामिक निर्माण हो सकता है? सोच के देखिये. मुझे यहीं P.N. Oak साहेब की ज़रूरत महसूस हो रही है. मुझे पूरी-पूरी शंका है कि क़ुतुब मीनार भी कहीं बहुत पहले भारतीय राजाओं ने बनवाया हो सकता है और बाद में इसे इस्लामिक दिखाने के लिए ऊपर से अरबी/ उर्दू लिखे पत्थर जड़ दिए गए. यहाँ ध्यान रहे, क़ुतुब के सामने खड़े बड़े-बड़े मेहराबों के साथ ऐसा ही किया गया, इतिहासकार मान चुके हैं कि ऐसा किया गया था और इंट्रोडक्टरी पत्थर पर लिख चुके हैं.

तो क्या किया जाए? मेरे ख्याल में विज्ञान की मदद ली जाए, P.N. Oak साहेब क्या कहते हैं, वो पढ़ा जाए. पत्थरों के कार्बन टेस्ट या फिर कोई भी टेस्ट जो उनकी उम्र बता सकें, वो किये जाएं, कुछ नया निकल सकता है. याद रखियेगा मेरी बात.

अगर हिन्दू मांग रहे हैं कोई दो-चार मस्जिदें कि यह हमारे राम, कृष्ण, शिव से जुड़ी हैं, तो दे क्यूँ नहीं दी सहर्ष मुसलमान ने? नहीं, इनको तो विरोध करना है. फिर कहते हैं कि गुजरात क्यूँ हुआ? वो तीन मस्जिद दे दोगे तो बड़ा कोई तोप चल जायेगी, इस्लाम खतरे में आ जाएगा? उल्टा इस्लाम की शान बढ़ती. हिन्दू मुस्लिम में प्रेम बढ़ता. हिन्दू खुद तुम्हें कितनी ही मस्ज़िद बना के अपने हाथ से देता. 


नहीं, मुसलमान को मिला ओवेसी जैसा कचरा. जो पन्द्रह मिनट में हिन्दूओं को खत्म करने की बात करता है.

कभी मुसलमानों ने थाणे जलाए, कि ओवेसी ने गलत कहा है? बस कमलेश तिवारी ने कुफ्र तौल दिया है.

"बाबरी गिरने पर खूब परेशान हैं मुसलमान
कभी बोलते तो जब तोडा गया था बामियान"

नमन......तुषार कॉस्मिक