Friday, 20 December 2019

मेरी ऑरोविले-पांडिचेरी-महाबलिपुरम यात्रा

यह एक बिज़नेस ट्रिप था. प्रॉपर्टी दिल्ली की. मालकिन ऑरोविले की. वयोवृद्ध. हुक्म था, "एक ही बार आ सकती हूँ दिल्ली. बयाना देना है तो आप लोगों को ही आना होगा मेरे पास." ठीक. मेरे क्लाइंट ने स्वीकार कर लिया. हम दो प्रॉपर्टी डीलर, हमें क्या एतराज़ होना था? दूजे डीलर ने मेरे क्लाइंट से कहा, "खर्चा आप का होगा." मैंने कहा, "नहीं, यह ठीक नहीं है. ख्वाहमख़ाह पचास हज़ार का वज़न इन पर डालना ठीक नहीं. खर्चा अपना-अपना होगा. " उसने कहा, "ठीक है, लेकिन अभी तो खर्चा इनको ही करना होगा. बाद में ब्रोकरेज में से हम कटवा देंगे." "ठीक है. लेकिन ये सिर्फ टिकट का खर्चा देंगे. बाकी खर्च हमें अपना-अपना करना है. " "ठीक है" तय हो गया. एयर-टिकट बुक कर ली मेरे क्लाइंट ने. फ्लाइट का दिन करीब आया तो ठीक दो दिन पहले मेरी एक उबर कैब वाले से भिड़ंत हो गयी. मॉडल टाउन से मैं और बड़ी बिटिया बैठे थे. उसने जो कान में लीड डाली, तो सारे रास्ते फोन पर किसी और ड्राइवर से बतियाता रहा. रस्ते में मैंने टोका. वो फिर न माना. उतरते हुए मैंने कहा, " यह तुम ठीक नहीं कर रहे थे जो गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात कर रहे थे." "आप बात करो फोन पे तो ठीक है, मैं करूँ तो गलत है? नौ लाख की गाड़ी है मेरी. फिर क्या हो गया जो मैं फोन पे बात कर रहा था तो?" वो ऐंठ कर बोला. "हाँ, गलत कर रहे थे तुम, चूँकि गाड़ी तुम चला रहे थे, मैं नहीं." बात बढ़ती गयी. धक्का-मुक्की तक पहुंच गयी. वो कूदने-फांदने लगा तो मैं पूरी तरह से रौद्र रूप में आ गया. एक-आध हाथ उसे पड़ गया. लगा चीखने चिल्लाने. श्रीमती भी पहुँच चुकीं थी वहां. काफी ड्रामा हो गया. मुझे खींच कर वो बच्चों की नानी के घर ले गईं. सब परेशान हो चुके थे. अभी पांच-दस मिनट ही हुए होंगे. वो ड्राइवर घर के बाहर पुलिस लेकर पहुँच गया. मुझे निकलने से मना किया सबने. साले साहेब ने संभालने की कोशिश की लेकिन मामला नहीं सम्भलना था, न सम्भला. अंत में उन्होनें मुझे कहा कि बाहर आना ही होगा. खैर. मैं निकला. देखा बहुत भीड़ थी बाहर, जैसे कत्ल हो गया हो, या कोई उग्रवादी पकड़ना हो. दो तीन पुलिस वाले थे और उनके साथ खड़ा वो ड्राइवर रोता-चीखता-चिल्लाता जा रहा था, "मुझे बहुत मारा. बहुत कूटा." एक फॅमिली, पता नहीं थी वहां या नहीं, गवाह बनी हुई थी. मेरी तरफ देख कर उनमें से एक औरत बोली, "इसने हमारे सामने ड्राइवर को बहुत मारा." सब झूठ था. वो एक हाथा-पाई थी, जिसमें मैं हावी हो गया था. बस. वो बहुत पिट जाता लेकिन उससे पहले मुझे श्रीमती जी ने तथा और लोगों ने थाम लिया था. एक-एक को तड़-तड़ जवाब दिए मैंने. "झूठ बोले तो सबके पॉलीग्राफ टेस्ट करवाने को लिखूंगा. बार-बार लिखूंगा. तुम्हारा इंकार ही तुम्हारे झूठे होने का इशारा कर देगा और अगर टेस्ट करवाओगे तब तो झूठ बिलकुल पकड़ा जाएगा. उल्टा केस ठोकूंगा तुम पे." IO एक नंबर का बकवास आदमी था. मुझ से कहा उसने, "आपकी तो बॉडी लैंग्वेज और टोन ही ठीक नहीं." "हम्म.. तो आप जज करेंगे मुझे? जज हैं आप?" वो शरलॉक होल्म्स का बाप था... नहीं पड़दादा था... नहीं ट्रेनर था. जो मेरी शक्ल देखते ही समझ गया था कि सब ग़लती मेरी थी. इडियट. इत्ते में एक पड़ोसी ने भी IO को झपड़ दिया. थोड़ा सा ठंडा हुआ वो. बोला, "चलो थाने." "ठीक है चलता हूँ." कुल मिला कर दो घंटे खराब हुए, मामला रफा-दफा हुआ. नतीजा यह कि ड्राइवर तो घटिया था ही IO भी घटिया था. बकवास. मुझे हमेशा लगता है कि वकीलों ने जो पुलिस वालों को कूटा था, सही किया था. एक दिन में बीवी-बच्चे लेकर सड़क पर बैठ गए थे पुलिस वाले. ओवरस्मार्ट इडियट. इनको लगता है जैसे इनकी टेढ़-मेढ़ हमें समझ ही नहीं आती. धेले की अक्ल नहीं होती इनको और थाने में वकील-जज सब बन बैठ जाते हैं. खैर, मुझे भी फॅमिली द्वारा यही समझाया जा रहा था कि फ्लाइट है मेरी दो दिन बाद, सो ज़्यादा पंगा करने का कोई फायदा नहीं है. सो ज़्यादा पंगा नहीं किया. अगले दिन पैकिंग की और फिर अगली रात सो ही नहीं पाया चूँकि सुबह छह बजे की फ्लाइट थी. सब तकरीबन साढ़े तीन बजे मिल गए. शायद अकेला मैं ऐसा था जिसने कभी अंदर से एयर-पोर्ट तक नहीं देखा था. गधा-रेहड़ी पे चलने वाला आदमी. डर तो नहीं, हल्का सा कौतूहल था. जहाज़ अंदर से बड़ी बस जैसा था. इकॉनमी क्लास. टाइट सीट. टेक ऑफ करते हुए हल्का सा कानों में दबाव. एक बार जहाज़ सीधा हुआ तो फिर पता ही नहीं लगा कि उड़ते जहाज़ में हैं या ड्राइंग रूम में. अढ़ाई घंटे का सफर. एयर इंडिया की फ्लाइट. बीच में नाश्ता. जो मैंने सिर्फ खाने को समझने के लिए खाया. बकवास. परांठे आलू के... लेकिन बस आटा ही आटा... फिलिंग नाम-मात्र. सब्ज़ी आलू की, जिसमें आलू नज़र ही नहीं आ रहे थे. खैर, चेन्नई उतर गए. दिल्ली-चेन्नई एयर-पोर्ट अंदर से दोनों खूबसूरत लगे मुझे. बाहर निकलते ही मौसम गर्म. बनियान में आना पड़ा जबकि दिसंबर था. आगे तकरीबन दो सौ किलोमीटर सड़क का सफर था. ऑरोविले के लिए इन्नोवा ली गयी. गाड़ी ठीक थी. सब खुले-खुले बैठ गए. AC बढ़िया. कोई दिक्कत नहीं. चेन्नई दिल्ली जैसा ही लग रहा था. जैसे ही चेन्नई से निकले. एकदम साफ़ आसमान. साफ़ हवा. चावल की खेती ... लम्बी घास....हलके हरे चटक रंग की घास और नारियल के पेड़. सब तरफ खुला खुला क्लाइमेट. "हम दिल्ली में रह ही क्यों रहे हैं?" सब अफ़सोस सा करने लगे. वीडियो कॉल से बीच-बीच में हम दोनों डीलर अपनी फॅमिली को सफर दिखाते रहे. कोई तीन घंटे के आस-पास का सफर. हम ऑरोविले पहुँच गए. मेरी क्लाइंट फॅमिली का होटल बुक था. हम डीलर बंधुओं ने अपने बैग उनके रूम में छोड़े और स्टाम्प पेपर लेने निकल पड़े. पॉण्डीचेरी पहुंचे, जो कि वहां से मात्र तीन-चार किलोमीटर ही है. वहां स्टॉकहोल्डिंग्स के दफ्तर में लंच हो चुका था. सीट पर एक महिला थीं. घरेलू. शादी-शुदा. सुंदर. "अब आपको लंच के बाद आना होगा." वो ठीक हिंदी बोल रही थीं. मैं पीछे हैट गया. बंधुवर ने प्रयास किया, "मैडम, प्लीज् दे दीजिये पेपर, हम दिल्ली से आये हैं." "सिस्टम बंद हो चुका, मैं कुछ कर ही नहीं सकती." मुझे साफ़ लग रहा था कि वो सही कह रही हैं. मैंने बंधु को कहा, "चलिए न, दुबारा आ जाएंगे" "ठीक है." अब हमारे पास तकरीबन एक घंटा था इंतज़ार करने को. वहीं एक रेस्त्रां ढूँढा. वो वाकई बढ़िया निकला. साफ़ सुथरा टॉयलेट. खुला खुला हाल. टेबल एक दूजे से सटे नहीं थे. देसी-विदेसी सब लोग मौजूद. दो थाली आर्डर कीं हमने. कोई दस कटोरी. किसी में दाल, किसी में सब्ज़ी, किसी में दही, किसी में मीठा. मेरे पंसंद की एको सब्ज़ी नहीं थी उसमें. खैर, खा लिया, खाने लायक फिर भी था वो सब. मात्र डेढ़ सौ रुपये प्रति थाली बिल. हम वापिस स्टॉकहोल्डिंग्स दफ्तर पहुंचे. हमने बताया कि ऑरोविले में सेल एग्रीमेंट होना है. मादाम बोलीं, "तब तो आपको तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर चाहिए." "मतलब?" "पांडिचेरी तो अलग स्टेट है. " ओह! मैं जैसे पहाड़ से गिरा. मुझे याद आया कि पोंडीचेरी तो यूनियन टेरिटरी है. हम वहां से निकले. नीचे थोड़ा दूर कुछ टाइपिस्ट बैठे थे. उनसे पूछा कि तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर कहाँ मिलेगा. एक जगह बता दी गयी. हम दोनों वहां पहुंचे. वो कोई दूकानदार था. उसने कहा कि साढ़े तीन बजे के बाद ही मिल पायेगा स्टाम्प पेपर. मेरे बंधु बिदक गए, "इतनी देर कौन रुकेगा यहाँ? मैं तो थक चुका हूँ. मुझे तो नींद आ रही है. मुझे तो टॉयलेट जाना है." "तो?" "मैं तो वापिस होटल जाऊंगा." "ठीक है, चले जाएँ आप," मैंने ठंडा सा जवाब दिया. और वो सच में चले गए, मुझे मँझदार में ही छोड़ कर चले गए. खैर, मैं उस दूकान के बाहर पड़े स्टूल पर बैठ गया. मेरा सेल फोन बंद हो गया.वहां सब लोग हिंदी नहीं समझते. तमिल या फिर टूटी-फूटी अंग्रेजी समझते हैं. दूकान-दार को इशारे से समझाया कि फोन चार्जिंग पर लगाना है. थोड़ी सी किस्मत सही रही. जिसने स्टाम्प-पेपर देना था, वो कोई तीन बजे ही आ गया. पांच मिनट में उसने स्टाम्प पेपर दे दिए. ऑटो करके मैं होटल पहुंचा. एग्रीमेंट के प्रिंट-आउट मैं दिल्ली से ही निकाल ले गया था. ऑटो से सब प्रॉपर्टी मालकिन के घर पहुंचे. वाओ! वैसे घर मैंने अंग्रेजी फिल्मों में ही देखे थे. खुले-बड़े-बड़े घर. जैसे ज़मीन मुफ्त में मिली हो. तकरीबन हज़ार गज में एक घर. फिर दूसरा घर कोई पचास मीटर जगह छोड़ कर.तीसरा घर चालीस मीटर जगह छोड़ कर. बीच में खाली जगह. वनस्पति. पेड़-पौधे. जैसे जंगल के बीच-बीच बने हों घर. बड़े ही आत्मीय ढंग से सबका स्वागत हुआ. चाय-पकौड़ों के बीच मेरे क्लाइंट ने ऑनलाइन धन ट्रांसफर किया और सबने एग्रीमेंट साइन किया. कोई डेढ़ घंटे में ही प्यारा सा माहौल बन गया. उठते हुए सब गले मिले. फोटो लीं. "आप ऐसे रहते हैं, डर नहीं लगता?" मैंने पूछ ही लिया. "नहीं, सबने कुत्ते रखे हुए हैं." लेकिन हम में से कोई भी आश्वस्त न हुआ. मात्र कुत्तों के सहारे ऐसी जगह में कैसे रहा जा सकता है? जगह स्वर्ग जैसी. उनके अपने ही पेड़-पौधे थे, इत्ते कि उनकी कुछ ज़रूरत खुद की खेती पूरी कर दे, लेकिन कोई गॉर्ड नहीं, पुलिस नहीं, चार दीवारी नहीं, ऐसे कैसे रह सकते हैं? यहाँ दिल्ली में तो LIG फ्लैटों को भी लोगों ने चार-दीवारी कर के गॉर्ड रखे होते हैं. काम हमारा हो गया. सब ख़ुशी-ख़ुशी वहां से निकले. अब हम दोनों डीलर बंधुओं को होटल ढूंढना था. "हम तीन-चार होटल देख लेते हैं, आईडिया आ जायेगा." मेरा हमेशा से ख्याल रहा है की होटल ऑनलाइन बुक करने से बेहतर है साइट पर जाकर बुक करना. घंटा आध घंटे की मेहनत से अच्छी डील ढूंढी जा सकती है. वही हमने किया. अंत में हम दोनों ने एक होटल फाइनल कर दिया. वो मेरे क्लाइंट के होटल के ठीक पास ही था. अँधेरा हो चुका था. अगले दिन सुबह घूमना था, सो खा-पी कर सब होटल में ही दुबक गए. मेरे डीलर बंधु ने बताया कि उनका पेट खराब हो गया था और उन्होंने दस्त बंद करने की दवा भी ले ली थी. मैंने उन्हें डांटते हुए कहा कि दस्त लग्न मात्र इस बात की निशानी थी की आपने अपने शरीर में कुछ ज़्यादा या फिर कुछ गड़बड़ दाल दिया है जिसे वो निकाल रहा है. लेकिन आप ठहरे समझदार. अपने शरीर से ज़्यादा समझदार. सो आप वो गंद निकल न पाए इसलिए दवा लेके उस गंद को शरीर में ही रोके हुए हैं. वाह! वाह जनाब!! फिर मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता जी तो हर चार-छह महीने बाद जुलाब लिया करते थे. किसलिए? ताकि शरीर में से गंदगी बाहर निकल सके. खैर उन्हें कुछ समझ आया या नहीं लेकिन उन्होंने कहा यही कि उन्हें यह सब पता है. मैं सोच रहा था, "अब जब पता ही है तो फिर उस ज्ञान का प्रयोग कयों नहीं किया मेरे भाई?" अगली सुबह मैं जल्दी उठ गया. होटल रूम में ही दंड बैठक मारीं. जूते पहने और ऑरोविले की मेन सड़क पर पहुँच गया. आबादी कम ही है वहां. सो सड़क पर कोई ख़ास हल-चल नहीं थी. बस्ती में से होते हुए वापिस ऑरोविले बीच पर आ गया. हर घर के बाहर चाक से रंगोली बनाई हुई थी. ज़मीन की कोई खास मारो-मार महसूस नहीं हो रही थी चूँकि घर एक-डेढ़ मंज़िला ही थे. कई घर तो बस झोंपड़ीनुमा ही थे. जीवन शांत था. लोगों के चेहरों पर बदहवासी नहीं थी.
A House near Auroville Beach
यहाँ समंदर तो साफ़ है लेकिन बीच पर थोड़ी गंदगी है. मैंने कोई दो किलोमीटर रनिंग-वाकिंग की. फिर चट्टानों पर बैठ एक वीडियो भी बनाया.
"समंदर...लहरें....आत्मा... परमात्मा." कुल मतलब यह कि लहर अलग दीखते हुए भी समंदर से अलग नहीं है. जन्म से लेकर विलीन होने तक, वो कभी अलग नहीं है समंदर से. वो समंदर ही है. हवा यदि बर्तन में हो तो क्या वो सर्वत्र मौजूद हवा से कुछ भिन्न होती है? बिजली जो बल्ब को रोशन कर रही है क्या कुछ अलग है जो तारों में बह रही है? लेकिन लहर को वहम हो गया कि वो समंदर से अलग है, बल्ब को वहम हो गया कि उसे रोशन करने वाली बिजली कुछ अलग है? गिलास को वहम हो गया कि उसमें जो हवा है, वो कुछ अलग है. इंसान को वहम हो गया की वो अस्तित्व से कुछ अलग है, उसकी अलग कुछ एंटिटी है, अस्तित्व है. आत्मा है. वहम है. हम सब इस ब्रह्माण्ड से कभी भी अलग नहीं हैं,हम परमात्मा ही हैं. आत्मा न कभी थे, न होंगे. आत्मा सिर्फ भरम है, जैसे लहर का अलग से कोई भी अस्तित्व सिर्फ एक भरम है. अगली सुबह मेरे डीलर बंधु मेरे क्लाइंट फॅमिली के आगे वही गीत गाने लगे, "रात को मेरा पेट खराब हो गया था." मैंने उन्हें फिर टोका, "आप क्यों खुद को याद दिलवा रहे हैं बार-बार? पेट खराब हो गया था. मेरा पेट खराब हो गया था. हो गया था तो हो गया था. रात गयी, बात गयी. आपको पता है कि आपके इस तरह खुद को बार-बार याद दिलवाने का भी आप पर नेगेटिव असर पड़ता है? आपकी मानसिकता का अनुसरण करता है आपका शरीर." कोई बारह बजे सब निकले. तय हुआ कि सबसे पहले मातृ-मंदिर जाएंगे. यह मंदिर "मदर" ने बनवाया था. वो ऑरबिंदो से एसोसिएटेड थीं. असल में तो Auroville नाम भी Aurbindo+Village का जोड़ ही लगता है मुझे. ऑटो लिए गए. वो फारेस्ट एरिया से होते हुए हमें मातृ-मंदिर ले गए. यह बहुत ही बढ़िया जगह है. फ्रेश हवा, वनस्पति की गंध से भरी. "यह हवा मैं अटैची में भर के दिल्ली ले जाऊंगा", मैंने कहा.
Myself in Matri Mandir, Auroville


 कोई चार किलोमीटर पैदल चलते हुए हम मातृ-मंदिर पहुंचे. यह एक गोल्डन गोला है. शायद किसी मैटल का प्रयोग किया गया है ऊपर-ऊपर. अंदर जाने नहीं दिया गया. बस दूर से देखा. बहुत प्यारी जगह है. देखने लायक.
मंजिल से ज़्यादा सफर बढ़िया था. फिर से वनस्पति सूंघते हुए वापिस हो लिए.

रास्ते में एक जगह चाय पी. पीतल की कटोरियों में पीतल के मीडियम टम्बलर. पता नहीं चाय बढ़िया थी या बर्तन बढ़िया थे या दोनों बढ़िया थे..... नतीजा...... मज़ा आ गया.

Tea in Matri Mandir, Auroville
अब हमने अगली मंजिल तय की. "पैराडाइस बीच". ऑटो से सब वहां पहुंचे. समंदर के बीच टापू है. मोटर बोट से पहुंचाए गए. वाकई पैराडाइस जैसी जगह है. साफ़-सुथरा बीच और साफ़-सुथरा समंदर. डीलर बंधु को उसी रोज़ वापिस दिल्ली आना था सो वो तो कोई पंद्रह-बीस मिनट में ही वापसी हो लिए. मैं और मेरी क्लाइंट फॅमिली कोई डेढ़-दो घंटा वहां रहे. पानी के साथ खेलते. बाकी लोगों को देखते हुए. नव-युवा-युवतियां. विवाहित-अविवाहित. सब थे वहां. उत्साहित. समंदर से खेलते हुए. खुश. होना भी चाहिए था. वो जगह ही ऐसी थी. सबको भूख लग आयी थी. कुछ रेस्त्रां बने हुए थे बीच पे. लेकिन उनका मेनू किसी को पसंद नहीं आया. पचास रुपये की एक रोटी. तय हुआ, यहाँ नहीं खाना. वहां से कैब की और ऑरबिंदो आश्रम पहुंचे. यहाँ ऑरबिंदो की समाधि है और उन्हीं की किताबों की लाइब्रेरी और शॉप है. ऑरबिंदो की समाधि के इर्द-गिर्द कुछ लोग आँख बंद कर ध्यान-मग्न बैठे थे. तकरीबन आधे घंटे में वहां से सब निपट गए. तय हुआ वापिस होटल चलें. आराम करके खाना इकट्ठा खाएंगे. मेरे क्लाइंट के होटल में फर्स्ट फ्लोर की छत पर रेस्त्रां था. उनका होटल बिलकुल समंदर किनारे था. उनके कमरे से समंदर सीधा दीखता था. और समंदर की ठंडी हवा और बारिश आती थी कमरे के अंदर तक. आनंद ही आनंद. बरसता हुआ. जैसे-तैसे बारिश से बचते-बचाते फर्स्ट फ्लोर पहुंचे. खाना आर्डर किया. भूख बहुत लगी हुई थी. मैंने नाश्ता तक नहीं किया था. सारा दिन का भूखा था मैं. जितना उस फॅमिली ने खाया होगा उतना मैंने अकेले ने खाया होगा.


वहां होटल वालों के पास बड़ी सी छतरी थी. आम छतरी से दो गुना बड़ी. एक एक कर के उस छतरी में वेटर हमें नीचे छोड़ कर आया. मैंने कहा, "मुझे मेरे होटल तक ही छोड़ दीजिये प्लीज. बारिश रुकने वाली नहीं लगती."
मुझे छोड़ा गया, लेकिन मेरे स्पोर्ट्स शूज फिर भी भीग गए. ज़बरदस्त बारिश थी वह. दस किलोमीटर से ज़्यादा वाकिंग की थी उस दिन मैंने. और दंड-बैठक भी मारी थीं. बिस्तर पर गिरते ही बेहोश हो गया. कोई चार बजे नींद खुली. मैं ऐसे ही सोता हूँ. कभी भी सो जाता हूँ. कभी भी उठ जाता हूँ. नींद मुझे किश्तों में आती है. खैर, सुबह कोई छह बजे के करीब मैं फिर से बीच पर पहुँच गया. पैराडाइस बीच पर हम में से कोई भी समंदर में नहा नहीं पाया था चूँकि अलग से कपड़े हम ले कर ही नहीं गए थे. अब मैं इंतेज़ाम करके गया. अकेला गया. समंदर में डुबकियां मारी. यकीन जानिये समंदर कोई नहाने की जगह नहीं है. पानी नहीं नमक है. और मोटी दर-दरी रेत. गारमेंट्स में घुस जाए तो निकले नहीं .. वापिस होटल पहुंचा .... बाथ-रूम ...बड़ी ही शिद्दत से खुद से रेत अलग की. लम्बा समय लगा. कोई ग्यारह बजे क्लाइंट फॅमिली का मैसेज था कि सब तैयार हैं. निकलें. कैब बुक की हुयी थी. हम वापिस चले. चेन्नई से पहले मामल्लापुरम पड़ा. इसका पुराना नाम महाबलीपुरम है. यहाँ मोदी और चीन के राष्ट्रपति ने फोटो खिंचवाई थी एक गोल चट्टान के नीचे खड़े होकर. यही सब देखना तय हुआ था.
Mamalla Motel & Restaurant
वहां सिर्फ वही चट्टान नहीं थी और भी देखने लायक चट्टाने और चट्टानों को काट कर बनाये गए मंदिर थे. गाइड ने बताया की पल्लव वंश ने ये सब मंदिर तेरह सौ साल पहले बनाये थे. समझने लायक बात यह थी कि कैसे पहाड़ जैसी चट्टानें काट मंदिर बना दिए गए. शिल्प कोई बहुत महीन नहीं था लेकिन फिर भी उस समय के मुताबिक काबिले-तारीफ़ था. एक मंदिर की एंट्री पर पैर धोने की हौदी बनी थी. ठीक वैसी जैसे आज गुरुद्वारों की एंट्री पर बनी होती है. कमाल! उस ज़माने में यह सब सोचना और फिर बनाना!!
महाबलीपुरम पल्लव वंश निर्मित शिल्प और हम 
Feet washing arrangement as in Gurudwaras- Mahabalipuram Temple



Round Boulder Mamalla Puram

Monkey Family
A Temple Mamallapuram

वहीं समंदर किनारे महाबलीपुरम का मंदिर है. शिल्प के हिसाब से यह मंदिर भी कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन यह भी शायद एक ही चट्टान काट के बना है तो उस लिहाज से बढ़िया है.

हमारे पास अभी काफी समय था. फ्लाइट नौ बजे की थी. हम कोई एक जगह और देख सकते थे. लेकिन सब थके हुए थे. एयर-पोर्ट जाना तय हुआ.

फिर अढ़ाई घंटे की फ्लाइट. डिनर कोई ख़ास नहीं था. मैंने तय किया कि जहाँ तक हो सके फ्लाइट में दिया जाने वाला खाना नहीं खाना है आगे से.
फ्लाइट कोई दो घंटे लेट थी. एयर-पोर्ट पर चहल-कदमी करते रहे. मेरे लिए तो एयर-पोर्ट भी दखने की जगह थी. रिक्शा-स्कूटर पर चलंने वाला आदमी.
दिल्ली पहुँचते ही मेरे क्लाइंट का ओला कैब वाले से झगड़ा हो गया. मुझे ताज़ा अनुभव था, बात बिगड़ सकती थी और इतने अच्छे ट्रिप की किरकिरी हो सकती थी. फिर अब उस फॅमिली के साथ मुझे लगाव हो गया था. उनके साथ दो बच्चे भी थे. मुझे ठीक अपनी फॅमिली जैसा ही लगता रहा सारे रास्ते. वैसे भी अपने क्लाइंट को मैं फॅमिली जैसा ही महत्व देता हूँ. भरोसा करके वो प्रॉपर्टी लेते हैं मेरे ज़रिये. उम्र भर की पूंजी लगनी होती है. उनके भरोसे की कद्र करता हूँ.
मैंने बीच-बचाव किया. मामला रफा-दफा. फिर दूसरी कैब ली गयी. हम बात कर रहे थे कि दिल्ली की हवा ही अलग है. लड़ाके लोग हैं. साउथ इंडिया के लोग ज़्यादा शांत हैं, ज़्यादा शिक्षित हैं, ज़्यादा तमीज़दार हैं.
कैब वाला हमारी आपसी बातों में ज़बरन शामिल हो गया. सब चुप हो गए.
ओला उबर के ड्राइवर और उनके कम्यूटर के वैचारिक, समाजिक, आर्थिक लेवल में बहुत फर्क होता है. ट्रेनिंग की ज़रूरत है सब ड्राइवर को. कम्यूटर से न उलझें. सवारी की आपसी बातचीत में शामिल न होवें. गाड़ी चलाते हुए फोन पे बात न करें. सिर्फ और सिर्फ गाड़ी चलाएं. पैसे लें और चलते बनें.
और विमान सेवा देने वाले एक हास्यस्पद खानापूर्ति पूरी करते हैं. महज खानापूर्ति. क्या? फ्लाइट से ठीक पहले क्रू-मेंबर यात्रियों को इशारों से समझाते हैं, रिकार्डेड वॉइस मैसेज के साथ कि इमरजेंसी में लाइफ जैकेट कैसे प्रयोग करनी है, ऑक्सीजन मास्क कैसे प्रयोग करना है आदि-आदि. यकीन जानिये यह एक-दम बकवास तरीका है समझाने का. इमरजेंसी में मुझे नहीं लगता कि बिना क्रू-मेंबर की मदद के लोग यह सब कर पाएंगे. इसका सही तरीका यह हो सकता है कि फ्लाइट के ठीक पहले यात्रियों को प्रक्टिकली सब करवाया जाए. एक-एक यात्री को. महज दस मिनट की एक्सरसाइज बहुत ही मददगार साबित होगी.
वैसे यहीं दिल्ली में ही नहीं चेन्नई, ऑरोविले, पांडिचेरी, सब जगह ड्राइवर लोग गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात करते जा रहे थे. गलत बात है. ये लोग अपने साथ यात्रियों को भी खतरे में डाल रहे हैं.
और दूसरी बड़ी कमी यह पायी मैंने कि जहाज के उतरने के बाद जब बैग कनवेयर बेल्ट पर आते हैं, तो वहां से यात्री खुद ही अपने अपने बैग उठाते हैं और उसके बाद सीधा ही एयरपोर्ट से बाहर निकल जाते हैं. कोई भी व्यक्ति जाने-अनजाने किस दूसरे यात्री का बैग उठा के चलता बन सकता है. कोई पूछने-देखने वाला नहीं है. इसे बड़ी आसानी से सिस्टेमेटिक किया जा सकता है. सिर्फ कुछ स्टाफ लगाना पड़ेगा, जो "बैगेज टिकट" देख-देख बैग की डिलीवरी दे.


खैर, रात के करीब दो बजे सब सही-सलामत घर वापिस.
बड़ी बिटिया और श्रीमती जागती रहीं. मैंने मातृ-मंदिर से अगरबत्तियों के पैकेट लिए थे. महाबलीपुरम मंदिर के बाहर से पत्थर और मोतियों की कोई दस मालाएं लीं थी. एयरपोर्ट से चॉकलेट लीं थी. और समंदर से सीप इकट्ठा कीं थी. देख खुश हो गए सब. कोई दो घंटे मैं सफ़र की बातें सुनाता रहा. चार बजे सुबह सवेरे मैं सो गया.
मेरे ट्रिप से कुछ सीखने लायक मिला हो तो ज़रूर लिखिए.
नमन...तुषार कॉस्मिक

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