डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट... प्रोफेशनल कहे जाते हैं....मतलब 'धंधे-वाले'.'प्रोफेशनल'. अब मत कहना किसी महिला को कि वो 'धंधे वाली' है चूँकि अधिकारिक तौर पर सिर्फ डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट ही 'धंधे वाले' हैं, 'प्रोफेशनल' हैं.
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टके दी बूढी ते आना सिर मुनाई
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अभी केजरीवाल से जुड़ा एक मुद्दा हवा में है. मुद्दा है कि उन्होंने कोई नब्बे करोड़ से ज़्यादा रुपये राजनीतिक मशहूरी में खर्च कर दिए, जो उनसे वसूले जाने चाहियें. उनका कहना है कि ऐसा सभी राज्य करते हैं और उन्होंने तो बाकी राज्यों से बहुत कम खर्च किये हैं. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि किसने कितने खर्च किये. कम किये, ज़्यादा किये. वसूली होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए. न. मेरा पॉइंट यह है ही नहीं. मेरा पॉइंट है कि किये ही क्यूँ? पब्लिक का पैसा पब्लिक के कामों पर खर्च होना चाहिए न कि किये गए कामों को बताने पर. आपको अलग से क्यूँ बताना पब्लिक को? आपका काम खुद नहीं बोलता क्या? देवी शकीरा तो बोलती हैं कि हिप्स भी बोलते हैं और झूठ नहीं बोलते, सच बोलते हैं और आपको लगता है कि आपके काम जिनसे करोड़ों-अरबों रुपये का पब्लिक को फायदा पहुंचा हो, वो भी नहीं बोलते. आपको लगता है कि उसके लिए अलग से करोड़ों-अरबों रूपये खर्च करने की ज़रूरत है, यह बताने को कि पब्लिक को कोई फायदा पहुंचा है. वैरी गुड. पंजाबी की कहावत है एक. टके दी बूढी ते आना सिर मुनाई. एक और कहावत है. दाढ़ी नालों मुच्छां वध गईयाँ. मतलब खुद ...
सच-झूठ/ झूठ-सच
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आप झूठ कभी सौ प्रतिशत बोल ही नहीं सकते. उसमें भी आपको सच तो मिलाना ही पड़ता है. सबसे सफ़ल झूठा वो होता है, जो सच बोलता है. मतलब सच ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग करते हुए झूठ बोलता है. शातिर आदमी सच-झूठ का घाल-मेल इस तरह से करता है कि जो वो चाहे, वो ही नज़र आये और यही मिलावट अनाड़ी इस तरह से करता है कि जो वो नहीं दिखाना चाहता, वो दिख जाता है. मैं अक्सर कहता हूँ कि ढोल अपनी पोल खुद खोल देता है. बजता घना है. थोथा चना बाजे घना. लेकिन उस बजने में ही अपना राज़-फ़ाश कर जाता है. समझ-दार व्यक्ति वो है जो सच और झूठ के इस घाल-मेल में से हंस की तरह मोती चुगता है, बाकी छोड़ देता है. हंसा तो मोती चुगे.....
धनतंत्र से जनतंत्र के सफर का सूत्र
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डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट... प्रोफेशनल कहे जाते हैं....मतलब 'धंधे-बाज़'.'प्रोफेशनल'. अब मत कहना किसी महिला को कि वो 'धंधे वाली' चूँकि अधिकारिक तौर पर सिर्फ डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट ही 'धंधे वाले' हैं, 'प्रोफेशनल' हैं. खैर, मेरा पॉइंट यह है कि इनको अपने धंधे की मशहूरी करना कानूनन मना है. किसलिए? इसलिए कि काबलियत न होते हुए भी पैसे के दम पर इनमें से कोई मशहूरी कर-करा के लोगों को बेवकूफ न बना पाए. इसलिए कि ये लोग आम-जन के बहुत ही सेंसिटिव मामलों को डील करते हैं. इसलिए कि इनमें से अगर कोई आगे बढ़े तो मात्र "माउथ टू माउथ" रेफरेंस की वजह से और यह रेफरेंस तभी मिलता है जब किसी में काबलियत हो और उस काबलियत का फायदा रेफरेंस देने वाले को मिला हो. अभी केजरीवाल से जुड़ा एक मुद्दा हवा में है. मुद्दा है कि उन्होंने को नब्बे करोड़ से ज़्यादा रुपये राजनीतिक मशहूरी में खर्च कर दिए, जो उनसे वसूले जाने चाहियें. उनका कहना है कि ऐसा सभी राज्य करते हैं और उन्होंने तो बाकी राज्यों से बहुत कम खर्च किये हैं. मेरा पॉइंट यह नहीं है...
देवी शकीरा जी के शर्करा शब्द
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देवी शकीरा पहले ही कह चुकी हैं. हिप्स झूठ नहीं बोलते. हिप्स क्या शरीर का कोई भी अंग-प्रत्यंग झूठ नहीं बोलता. तभी तो स्किन टाइट कपड़े पहने जाते हैं. कपड़ों में भी शरीर दिखाने की चाह. नग्न होने की चाह. हिप्स झूठ नहीं बोलते, चाहे शकीरा के हों, चाहे किसी के भी हों. अमेरिकी कैदी अपने पायजामे नीचे सरका देते थे, ताकि बिन बोले ही देखने वाले समझ जाएँ कि उनकी सहमति है सेक्स सहभागिता में. अब आज के नौजवान और नौजवानियाँ जॉकी का कच्छा दिखाते हुए नीचे सरकी अपनी पतलून से क्या मेसेज देना चाहते हैं, वो ही जानें, बस गुज़ारिश इतनी सी है कि शकीरा जी के शर्करा शब्द याद रखें. नारी शक्ति ऐलान करती है कि उनका हक़ है जैसे मर्ज़ी कपडे पहनें. बिलकुल पहनें भई. यह तो वैसे भी महावीर का मुल्क है, जिनके वस्त्र आसमान ही था. दिगम्बर. यह तो नागा बाबाओं का मुल्क है. यह तो कश्मीर की लल्ला का मुल्क है. नग्न संत. यह तो सदियों से काम-क्रीडा में लिप्त नग्न मूर्तियों से पटे खजुराहो के मन्दिरों का मुल्क है. यह तो काम के सूत्र लिखने वाले वात्स्यायन का मुल्क है. ठीक मर्ज़ी है आपकी, जैसे मर्ज़ी कपड़े पहनें, या न भी पहनें. मेरा तो प...
भावना मैडम को आहत करें
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कुछ भी कहो, लिखो, बको, भौंको कोई परवा नहीं लेकिन इनकी पवित्र सी, सौम्य सी भावना मैडम आहत नहीं होनी चाहिए. इनके धर्म, मज़हब, पन्थ, दीन पर अटैक नहीं होना चाहिए और इनके गुरु महाराज, पैगम्बर, अवतार तो इंसानी आलोचना से परे की चीज़ हैं. आपको उनके हर कथन, हर करम पर मुंडी 'हाँ' में ही हिलानी है. अगर आपने ज़र्रा भी इनकी आलोचना की तो इनकी वो जो हैं न, सौम्य सी भावना जी, उनको चोट लग जाती है. लेकिन मैं कहता हूँ कि अगर आप इनकी भावना जी को आहत करने की हिम्मत नहीं करते तो आपका लेखन, सोचन सब कूड़ा है, करकट है, कायरता है, बुजदिली है, चूँकि यही भावना मैडम पूरी दुनिया में गंद फैलाएं हैं. कुछ भी कहो, लिखो, बको, भौंको कोई परवा नहीं लेकिन इनकी पवित्र सी, सौम्य सी भावना मैडम आहत ज़रूर होनी चाहिए.
गज़ब ढंग बिज़नैस के
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कार बनाने वाली कम्पनियों को लगता है कि पिछली सीट पर बैठने वालों की टांगों की लम्बाई बैठते ही स्वयमेव छोटी हो जाती हैं. गोलगप्पे वाले भैया को लगता है कि उसके देते ही गोलगप्पा आप हज़म कर लेते हैं सो वो दूसरा गोलगप्पा पहले वाले के साथ ही तैयार रखता है. और नेता जी को लगता है कि वो कुछ भी करें, लेकिन चुनावी बाज़ी पोस्टरबाजी, नारेबाज़ी, भाषण-बाज़ी से जीती जा सकती है. बिज़नैस करने का अपना-अपना ढंग है.
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This is a misconception that all Chinese look alike, another misconception is this that they produce inferior quality products. First point, all Sikhs look alike to the foreign people, all black people look alike to the white people. So nothing special about Chinese. Second point, Chinese produce all kinda product, what if your importers import inferior products only?
राजनीति में पदार्पण का विचार
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कांटे को निकालने के लिए काँटा प्रयोग करना होता है कहते हैं कि कीचड़ में पत्थर मारोगे तो छींट खुद पर भी पडेंगी. लेकिन कीचड़ को साफ़ करने के लिए कीचड़ में उतरना पड़ता है दीवार को साफ़ रखने के लिए "यहाँ न थूकें" जितना लिख कर खराब करना ही पड़ता है. करना पड़ता है. इसे विज्ञान की भाषा में 'नेसेसरी ईविल' कहते हैं बुराई है लेकिन ज़रूरी बुराई है. नेसेसरी ईविल. जैसे फ्रिक्शन. यानि घर्षण. इससे गति में बाधा पड़ती है. जितनी ज़्यादा होगी फ्रिक्शन, उतनी गति घटती जायेगी लेकिन अगर फ्रिक्शन जीरो होगी तो गति बिलकुल नहीं होगी. जैसे मानो फर्श पर तेल गिरा हो, ऐसे चिकने तल पर आगे बढ़ना लगभग असम्भव हो जाता है. लेकिन अगर किसी सरफेस पर बहुत पत्थर हों, खड्डे हों तो भी चलना मुश्किल हो जाता है.नेसेसरी ईविल. सोचता हूँ राजनीति, जिसमें कोई नीति नहीं, उसमें चला ही जाऊं. नहीं?
MCD
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मेरी गली में जो सफाई कर्मचारी है, उसने आगे लड़के रखे हैं, कम सैलरी पर, वो उठाते हैं, कूड़ा, जितना भी उठाते हैं. MCD के काम देखते हुए इनके वेतन बढ़ाने नहीं घटाने चाहियें...वैसे तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों के वेतन बहुत ज़्यादा हो चुके हैं, छुट्टियाँ बहुत ज़्यादा हैं, भत्ते बहुत ज़्यादा हैं और इनके कामों पर कोई अंकुश है नहीं, तभी तो हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जाता है.