आप नाम छोड़ दीजिये.....ये नाम परमात्मा, ईश्वर, भगवान इन्हें छोड़ देते हैं.....नाम सब काम-चलाऊ हैं.....नाम सब हमारे दिए हैं......यूँ समझ लीजिये कि ब्रह्माण्ड को अवचेतन से और ज़्यादा चेतन होने का फितूर पैदा हुआ.......उसने अपने लिए कुछ रूप गढ़ने शुरू किये.....खुद ही कुम्हार, खुद ही मिटटी, खुद ही पानी, खुद ही मूरत......बस जैसे-जैसे वो रूप गढ़े, उनमें रूप के मुताबिक़ चेतना घटित होती गई......यूँ ही इन्सान तक पहुँच हो गई......यूँ ही सब पैदा हुआ...इस सब का सिवा खेल-तमाशे के और क्या मन्तव्य? सो कहते हैं कि जगत जगन्नाथ की लीला है.
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"आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ" असरानी का फेमस डायलाग है शोले फिल्म में. मेरी पोस्ट पर आये कमेंट देख याद आता है. शब्दों की भीड़ में मैं जो कहना चाहता हूँ, वो ऊपर-नीचे, दायें-बायें से निकल जाता है कुछ मित्रों के. मैं तो बस यही क्लियर करता रहता हूँ कि किस बात से मेरा मतलब क्या है. बहुत मित्र तो 'सवाल चना और जवाब गंदम' टाइप कमेंट करते हैं. खैर, कोई मित्र बुरा न मानें, मैं कोई अपने लेखन की महानता का किस्सा नहीं गढ़ रहा. अपुन तो वैसे भी हकीर, फ़कीर, बे-औकात, बे-हैसियत के आम, अमरुद, केला, संतरा किस्म के आदमी हैं. बस जो सही लगा लिख दिया.
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कोई तीन-चार दिन पहले इंग्लैंड "मानचेस्टर" में बम धमाका हुआ. बाईस लोग तो तभी मारे गए. कई ज़ख़्मी हुए. सुना है कि ज़िम्मेदार लोगों ने बखूबी ज़िम्मेदारी भी ली. कितने मुस्लिम व्यक्तियों ने, समूहों ने इसके खिलाफ कुछ करने का ज़िम्मा लिया? करने का छोड़ो, आवाज़ उठाने का ही ज़िम्मा लिया हो? ये चुप्पे भी ज़िम्मेदार हैं, इनकी चुप्पी भी सहयोगी है. फिर कहेंगे कि चंद लोगों की वजह से कौम बदनाम होती है.
CBSE टॉपर और मिट्ठू तोते
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ये जो लोग अपने बच्चों के CBSE एग्जाम 90-95% नम्बरों से पास होने की पोस्ट डाल रहे हैं और जो इनको बधाईयों के अम्बार लगा रहे हैं, उनको ताकीद कर दूं कि टॉपर बच्चे ज़िन्दगी की बड़ी दौड़ में फिसड्डी निकलते हैं. ये लोग अच्छी दाल-रोटी/ मुर्गा-बोटी तो कमा लेते हैं लेकिन दुनिया को आगे बढ़ाने में इनका योगदान लगभग सिफर रहता है चूँकि ये सिर्फ लकीर के फ़कीर होते हैं, रट्टू तोते होते हैं, अक्ल के खोते होते हैं, सिक्के खोटे होते हैं. दिमाग लगाना इनके बस की बात नहीं होती. और इनको जो इंटेलीजेंट समझते हैं, उनकी इंटेलिजेंस पर मुझे घोर शंका है. इडियट लोग. इंटेलिजेंस यह नहीं होती कि आपने कुछ घोट के पी लिया. इंटेलिजेंस होती है कुछ भी पीने से पहले अच्छे से घोटना, छानना और सही लगे तो ही पीना, नहीं तो कूड़े में फेंक देना. एक टेप रिकॉर्डर अच्छी रिकॉर्डिंग कर लेता है, तो क्या कहोगे कि यह बहुत इंटेलीजेंट है, स्मार्ट है? इसे गोल्ड मैडल मिलना चाहिए? इडियट. इससे ज़्यादा स्मार्ट तो तुम्हारा स्मार्ट फ़ोन होगा, वो कितने ही जटिल काम कर लेगा. ज़्यादा कुछ नहीं लिखूंगा. समझदार को इशारा ही काफी है और अक्ल-मंद, अक्ल-बंद को...
कृष्ण का झूठा दावा
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*****यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***** भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है. अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं. "जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ." पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह स...
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पूछा है मित्र ने, "धर्म कहाँ गलत हैं?" मेरा जवाब," उस जागतिक चेतना ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं. मोटे नियम यानि व्यक्ति को अंत में मरना ही है, बूढ़े होना ही है...आदि....ये नियम उसके हैं....अभी तक उसके हैं, आगे बदल जाएँ, इन्सान अपने हाथ में ले ले, तो कहा नहीं जा सकता......बाकी कर्म का फल आदि उसने अपने पास नहीं रखा है. बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि प्रभु कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब प्रभु/स्वयंभू खेल में दखल नहीं देता. आप लाख चाहो, वो पंगा लेता ही नहीं. लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद? तो धर्म तो समझाता है क...
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पूछा है मित्र ने,"आत्मा क्या है, आधुनिक ढंग से समझायें?" जवाब था, "शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा. जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी. अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद. पहले तो यह समझ लें कि अगर जागतिक चेतना को आपके मन को, सोच-समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू कर...
----:वकालतनामा:----
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कोई वकील hire करते हैं तो सबसे पहला काम वो करता है आपसे वकालतनामा साइन करवाने का. यहीं बहुत कुछ समझने का है. पहले तो यह समझ लें कि आप वकील को hire करते हैं, वो आपको hire नहीं करता है. आप एम्प्लोयी नहीं हैं, एम्प्लायर हैं. चलिए अगर एम्प्लोयी और एम्प्लायर का नाता थोड़ा अट-पटा लगता हो तो समझ लीजिये कि आप दोनों एक अग्रीमेंट के तहत जुड़ने जा रहे हैं. और वो अग्रीमेंट है, वकालतनामा. अब यह क्या बात हुई? वकील तो आपको वकालतनामा थमा देता है, जिसे आप बिना पढ़े साइन कर देते हैं. यहीं गड़बड़ है. वकालतनामा कुछ ऐसा नहीं है कि जिसे आपने बस साइन करना है. वो आपका और वकील के बीच का इकरारनामा है, अग्रीमेंट है. उसे आप उसी तरह से ड्राफ्ट कर-करवा सकते हैं जैसे कोई भी और अग्रीमेंट. उसमें सब लिख सकते हैं कि आप क्या काम सौंप रहे हैं वकील को, कितने पैसे दे रहे हैं उसे और आगे कब-कब कितने-कितने देंगे. उसमें दोनों तरफ से लिखा जा सकता है कि कौन कब उस अग्रीमेंट से बाहर आ सकता है. मतलब आपने अगर तयशुदा पेमेंट वकील को नहीं दी तो उसकी ज़िम्मेदारी खत्म और अगर वकील तयशुदा काम नहीं करता, तो आप उसे आगे पैसे नहीं देंगे...
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एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ.
विषैली सोच भगवत गीता में
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।। ।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है। गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह. समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर..... इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? इडियट. अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking. तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और ...
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यदि सच में दिल्ली में बस स्टॉप AC हो गए हैं (चूँकि दिल्ली में हूँ, लेकिन मैंने ऐसा देखा नहीं है अब्बी तक) तो मैं इसका विरोध करता हूँ चूँकि दिल्ली का पैसा अभी और बहुत बेसिक ज़रूरतों पर खर्च होना चाहिए. मतलब जो घर खराब पंखा ठीक न करा पा रहा हो, लेकिन फिर अचानक AC खरीदने पर आमादा हो जाये तो इसे आप क्या कहेंगे?