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माहवारी- स्त्री- मंदिर

मेरी समझ है कि मन्दिरों में माहवारी के दिनों औरतों को रोकना महज़ इसलिए रखा गया होगा चूँकि पहले कोई इस तरह के पैड आविष्कृत नहीं हुए थे, जन-जन तक पहुंचे नहीं थे........सो मामला मात्र साफ़ सफाई का रहा होगा. आज इस तरह की रोक की कोई ज़रूरत नही. अब सवाल यह है कि क्या आज इस तरह के मंदिरों की भी ज़रूरत है, जहाँ के पुजारी मात्र गप्पे हांकते हैं, बचकाने किस्से-कहानियाँ पेलते हैं? अब इस मुल्क की औरतों को इन मंदिरों को ही नकार देना चाहिए, जहाँ ज्ञान-विज्ञान नहीं अंध-विश्वास का पोषण होता है. महिलाओं को इन मंदिरों में घुसने की बजाए इन मंदिरों के बहिष्कार की ज़िद्द करनी चाहिए.

Biological Waste (जैविक कचरा)

Biological Waste (जैविक कचरा). शायद ही पढ़ा हो आपने कहीं ये शब्द. जब पढ़े नहीं तो मतलब भी शायद ही समझें. 'ब्लू व्हेल चैलेंज'....यह ज़रूर पढ़ा होगा आपने. इस खेल को खेलने वाले बहुत से लोगों ने आत्म-हत्या कर ली. पकड़े जाने पर जब इस खेल को बनाने वाले से पूछा गया कि क्यों बनाई यह खेल? एक खेल जिसे खेलते खेलते लोग जान से हाथ धो बैठें, क्यों बनाई? जवाब सुन के आप हैरान हो जायेंगे. जवाब था, "जो इस खेल को खेलते हुए मर जाते हैं, वो मरने के ही लायक होते हैं. उनका जीवन निरर्थक है. वो Biological Waste (जैविक कचरा) हैं. और मैं कचरा साफ़ करने वाला हूँ." ह्म्म्म..........क्या लगा आपको? यह ज़रूर कोई फ़िल्मी विलेन है. नहीं. मेरी नज़र में यह व्यक्ति बहुत ही कीमती है. और वो जो कह रहा है, वो बड़ा माने रखता है. अब ये जो लोग मारे गए, अमृतसर में रावण जलता देखते हुए. कौन हैं ये लोग? Biological Waste (जैविक कचरा). इनके जीने-मरने से क्या फर्क पड़ता है? इनका क्या योग दान है इस धरती को? इस कायनात को? बीस-पचास साल इस धरती का उपभोग करते. खाते-पीते-हगते-मूतते और अपने पीछे अपने जैसों की ही फ़ौज छो...

उत्सव-धर्मिता

आपको पता है हम उत्सव क्यों मनाते हैं......? चूँकि हमने जीवन में उत्सवधर्मिता खो दी. चूँकि हमने दुनिया नरक कर दी कभी बच्चे देखें हैं.......उत्सवधर्मिता समझनी है तो बच्चों को देखो.... हर पल नये...हर पल उछलते कूदते.....हर पल उत्सव मनाते क्या लगता है आपको बच्चे होली दिवाली ही खुश होते हैं.......? वो बिलकुल खुश होते हैं....इन दिनों में.......लेकिन क्या बाक़ी दिन बच्चे खुश नही होते? कल ही देख लेना ....यदि बच्चों को छूट देंगे तो आज जितने ही खेलते कूदते नज़र आयेंगे यह है उत्सवधर्मिता जिसे इंसान खो चुका है और उसकी भरपाई करने के लिए उसने इजाद किये उत्सव ...होली...दीवाली...... खुद को भुलावा देने के लिए ये चंद उत्सव इजाद किये हैं........खुद को धोखा देने के लिए...कि नहीं जीवन में बहुत ख़ुशी है ..बहुत पुलक है......बहुत उत्सव है. नहीं, बाहर आयें ..इस भरम से बाहर आयें...समझें कि दुनिया लगभग नरक हो चुकी है......हमने ..इंसानों ने दुनिया की ऐसी तैसी कर रखी है कुछ नया सोचना होगा...कुछ नया करना होगा ताकि हम इन नकली उत्सवों को छोड़ उत्सवधर्मिता की और बढ़ सकें वैसे तो जीवन ही उत्सवमय होना चाहिए, उत्सवधर्म...

~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~

"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते। माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है। कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह ...

धूप-स्वास्थ्य-ज्ञान

ज़ुकाम को मात्र ज़ुकाम न समझें......यह नाक बंद कर सकता है, कान बंद कर सकता है, साँस बंद कर सकता है. पहले वजह समझ लें. थर्मोस्टेट. थर्मोस्टेट सिस्टम खराब होने की वजह से होता है ज़ुकाम. थर्मोस्टेट समझ लीजिये कि क्या होता है. 'थर्मोस्टेट' मतलब हमारा शरीर हमारे वातावरण के बढ़ते-घटते तापमान के प्रति अनुकूलता बनाए रखे. लेकिन जब शरीर की यह क्षमता गड़बड़ाने लगे तो आपको ज़ुकाम हो सकता है और गर्मी में भी ठंडक का अहसास दिला सकता है ज़ुकाम. और सर्दी जितनी न हो उससे कहीं ज्यादा सर्दी महसूस करा सकता है ज़ुकाम. खैर, अंग्रेज़ी की कहावत है, "अगर दवा न लो तो ज़ुकाम सात दिन में चला जाता है और दवा लो तो एक हफ्ते में विदा हो जाता है." दवा हैं बाज़ार में लेकिन कहते हैं कि ज़ुकाम पर लगभग बेअसर रहती हैं. तो ज़ुकाम का इलाज़ क्या है? इलाज बीमारी की वजहों में ही छुपा होता है. इलाज है, खुली हवा और खुली धूप. रोज़ाना पन्द्रह से तीस मिनट नंगे बदन सुबह की धूप ली जाये. मैं पार्क जब भी जाता हूँ तो धूप वाला टुकड़ा अपने लिए तलाश लेता हूँ. और बदन पर मात्र निकर. 'जॉकी' का भाई. ब्रांडेड. और व्या...

रॉबिनहुड है हल

शायद आप के बच्चे होंगे या फिर आप किसी के बच्चे होवोगे.......पेड़ पे तो उगे नहीं होंगें. राईट? क्या ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप अपने बुद्धिशाली-बलशाली बच्चे को ही सब बढ़िया खान-पान दें और जो थोड़े कमजोर हों, ढीले हों उनको बहुत ही घटिया खान-पान दें? हो सकता है क्या ऐसा? नहीं. हम्म...तो अब समझिये कि आप और मैं इस पृथ्वी की सन्तान हैं. पृथ्वी की नहीं बल्कि इस कायनात की औलाद हैं. हो सकता है हम में से कुछ तेज़ हों, कुछ ढीले-ढाले हों. तो क्या ऐसा होना सही है कि सब माल-मत्ता तेज़-तर्रार को ही मिल जाए? क्या यह सही है कि तेज़ तर्रार रहे कोठियों में और बाकी रहें कोठडियों में? सही है क्या कि तेज़ लोग कारों में घूमें और ढीले लोग उनकी कारें साफ़ करते रहें, पंक्चर बनाते रहें, पेट्रोल भरते रहें? दुरुस्त है क्या कि तेज़ लोग मीट खा-खा मुटियाते रहें और ढीले लोग उनकी रसोइयों में खाना बनाते रहें, बर्तन मांजते रहें? क्या कायनात, जो हमारी माँ है, हमारा बाप है, क्या वो ऐसा चाहेगी, वो ऐसा चाहेगा? अब आप अपने इर्द-गिर्द देखिये.....शायद कायनात ऐसा ही चाहती है. यहाँ हर कमजोर जानवर को ताकतवर जानवर खा जाता है....

YOUR TEACHERS ARE CHEATERS

Your Teachers are Cheaters. Hence fuck off this fucked up education. We learn in many ways. How did we learn our mother tongue? Of-course through our mother and father's words, their tongue. How do we learn a foreign language? Now there are two ways, first same as we learn our first language and the second , bookish way, learning, tenses, verbs, nouns and grammar. How did you learn typing? The classic way, the way of typing schools? Which finger on which letter, defined way? Or typing haphazardly, any finger, whichever suited you on any letter and by and by, typing fine, not perfectly still very fine and very fast too. How do a singer learn? Reshma, Sai Zahoor and many other world class singers, either never learnt or learnt very little in a bookish way. So to where I wanna drive you? Simple, learn, learning is good, but don't rely upon bookish style only. Once I had some monetary exchanges with someone. The man was not much literate. I was explaining principal am...

CONFUSION

Confusion is a very high state of mind. Only intelligent people get confused. Have you seen a buffalo confused ever? More idiotic a being, more steadfast the one is. Clarity comes outta confusion. A wise one is clear over many things and confused over many more things.

नावेल-फिल्म-टी वी नाटक-----कुछ नोंक-झोंक

"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं." कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'. "यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के. और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ." यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे. मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!! उन...
No Muslim be allowed to criticise RSS, unless the one criticises Islam and Christianity because RSS is just a shadow of these Gangs.
तुम तो लगे हो अपने और अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा करने. फिर जब नाली साफ़ न हो, सड़क पर खड्डे हों, पुलिस बदतमीज़ हो, जज बे-ईमान हो तो तुम्हें क्या? तुमने कोई योग-दान दिया था यह सब ठीक करने को? नहीं दिया था. तब तो तुम ने यही सोचा कि मुझे क्या? मैं क्यों समय खराब करूं? कौन पड़े इस सब पच्चड़ मनें? घर-परिवार पाल लूं, यही काफी है. यही सब सोचा न. अब जब सड़क पर तेरी बहन-बेटी के साथ कोई गुंडा-गर्दी करता है तो पुलिस सही केस नहीं लिखती, कोर्ट सही आर्डर नहीं लिखती, तो सिस्टम की नाकामी खलती है. खलती है न? भैये जैसे अपनी, अपने परिवार की बेहतरी के लिए जी-जान लगाते हो, गिरगिटियाते हो, वैसे इस सिस्टम को सुधारने के लिए भी दिमाग लगाओ, जी-जान लगाओ, गाली सहो, छित्तर खाओ, तभी तुम हकदार हो सिस्टम को कोसने को. वरना जहाँ तुमने कुछ दिया ही नहीं, वहां से कुछ भी पाने की उम्मीद मत रखो.
मुसलमान बिंदास मीट खाता है और हिन्दू हील-हुज्ज़त करते हुए. मुसलमान दिन-वार की परवा नहीं करता और हिन्दू मंगल-वीर के चक्कर में पड़ा रहता है. मुसलमान ख़ुशी-ख़ुशी खाता है और हिन्दू खाता भी है और नाक-मुंह भी सिकोड़ता है. बाकी तो जो है, सो हैये है...

संघ की शाखा का प्रति-प्रयोग

देश के कोने-कोने में संघ की तर्ज़ पर शाखा लगाओ मितरो. संघ का 'बौद्धिक' सिर्फ हिंदुत्व सिखलाता है. तुम्हार बौद्धिक तर्क और विज्ञान सिखाये. तुम किसी भी धर्म के पक्ष-विपक्ष में मत सिखलाओ. सिर्फ क्रिटिकल थिंकिंग, वैज्ञानिक ढंग से सोचना, सवाल उठाना, जवाब ढूंढना सिखलाओ. सवाल मत सिखाओ, जवाब मत सिखाओ. सवाल उठाना सिखाओ, जवाब ढूंढना सिखलाओ. संघ की नब्बे साल की ट्रेनिंग है, फिर बिल्ली के भागों छींका टूट गया है. इस देश को, दुनिया को संघ-मुसंघ से छुटकारा दिलवाने का मात्र एक ही रास्ता है और वो है क्रिटिकल थिंकिंग. मुल्क के कोने कोने में शाखाएं लगाओ, सिर्फ संघ की शाखा का अनुसरण कर लो. बस फर्क यही रहे कि वो हिंदुत्व सिखाते हैं तुम विज्ञान सिखाओ. मुझ से सम्पर्क करें, आगे की रण-नीति के लिए.
अभी एक वीडियो देखा. नई कार कोई लाया और पंडी जी पूजन कर रहे हैं. स्वस्तिक थोप रहे हैं. 'हरे कृष्णा, हरे कृष्णा' भज रहे हैं. अभी बेकार हूँ लेकिन जल्द ही मैं भी कार लाऊँगा और पूजा भी करूंगा. लेकिन 'हेनरी फोर्ड' की. मेरा नमन है 'हेनरी फोर्ड' को और भी उन सब को जिनका कार के आविष्कार में योगदान है.

रक्षा-बंधन

"रक्षा बंधन" एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं. एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत. और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए. और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा." वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ. वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं. अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, ...