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Thanos आने वाला है

समाज अक्ल का अँधा है.  इसे हर दौर में नए भगवान चाहियें. पीछे माता के जागरण/चौकी के लिए पग्गल थे.  फिर सब साईं बाबा के  भगत हो गए. किसी तुचिए से शंकराचार्य ने बोल दिया कि साईं तो मुस्लिम थे, हटाओ इनकी मूर्तियाँ मन्दिरों से. तो वो ज्वार थोड़ा थमा है.  अब सारे के सारे "गुरु जी" के सत्संग करवाते फिरते हैं. दिल्ली में हर दूसरी गाड़ी पे "गुरु जी" लिखा है.  क्यों है यह सब?  सिम्पल. जीने के लिए कोई तो सहारा चाहिए?  साला जीवन इत्ता ज्यादा uncertain है, इत्ता ज्यादा डिमांड कर रहा है कि टेंशन ही टेंशन है. कोई तो सम्बल चाहिए.  कोई तो खूंटा चाहिए, जिस पे अपने तनाव का कोट टांगा जा सके.  फिर एक सामाजिक फायदा भी है. इसी सहारे जान-पहचान बढ़ती है.  "भैन जी, तुस्सी की कम्म करदे हो?"  "जी असी, कैटरिंग करदे हैं," "ठीक है जी, फेर मेरी बेटी दी शादी ते तुसी ही करना जे कम्म." "ओके जी, ओके. जय गुरु जी. गुरु जी कर रहे हैं. बस मेरा तो जी नाम हो रहा है जी."  इडियट. गदहा  समाज.  इस समाज के लोगों से ज्ञान पैदा होना है? विज...

!!!! सावधान !!!!

सुना है भारत -पाक सीमा पर तनाव बढ़ गया है, दोनों तरफ से मूंछों पर ताव दिया जा रहा है, जवान मारे जा रहे हैं, कोई मित्र कह रहे हैं कि टमाटर के बढे भाव की शिकायत मत करो, मोदी को बस पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लगाने दो.......टमाटर के भाव की शिकायत करने वाली कौमें क्या जवाब देंगी जंगी हमलों का.......... एक दम बकवास निरथर्क तर्क हैं, आपने डिफेन्स मिनिस्ट्री सुनी होंगी, कभी अटैक मिनिस्ट्री सुनी हैं...अब सब यदि डिफेन्स ही करते हैं तो अटैक क्या इनके भूत करते हैं? असल बात यह है कि झगड़ा आम पब्लिक का तो होता ही नही आम पब्लिक तो बेचारी अपने दाल रोटी से ही नहीं निबट पाती, जालंधर में रिक्शा चलाने वाला बेचारा क्यों मारेगा, लाहौर में ठेले वाले को कराची के दिहाड़ी मज़दूर का असल दुश्मन उसकी गरीबी है न कि पंजाब का खेत मजदूर झगड़ा किसका है फिर? झगड़ा तो इन बड़े लोगों का है भाई, बड़ी मूंछ वालों का, बड़े पेट वालों का, बड़ी तिजोरी वालों का... सिर्फ अपने वर्चस्व को बढ़ाने की हवस है......पब्लिक का ध्यान बटाने का टूल है....... जंग इनके लिए......... सावधान!! सियासती चाहता है कि वहां की जनता असल मुद्दे कभी न सुलटे,...
कुरान अल्लाह से नाज़िल हुई...मेरे ख्याल में हर लेखक जब लिखना शुरू करता है तो लेख/कहानी नाजिल होना शुरू हो जाती है.....शुरू वो करता है, खत्म कहानी के पात्र खुद करते हैं

पुलवामा-- कारण और निवारण

"#पुलवामा-- कारण और निवारण" मुझे यह दुर्घटना बिलकुल भी खास नहीं लग रही सिवा इसके कि अब हरेक के हाथ में फोन उबाले मार रहा है पहले लोग बामुश्किल अखबार/ मैगज़ीन पर भड़ास निकाल पाते थे एडिटर भी एडिट करता था अब क्या है?...जो मर्ज़ी बकवास पेल दो...सोशल मीडिया..ज़िंदाबाद मुझे लगता है कि बीजेपी के नेता नेपाल सिंह ने बिलकुल सही कहा है, "फौजी मरने के लिए ही होता है. और हरेक मुल्क में, हर समय में फौजी मरते ही हैं. यह उनका जॉब ही है. पहले से ही तय है.इसमें क्या इत्ता हो-हल्ला करना?यह भी युद्ध ही है, गुरिल्ला युद्ध है." हालांकि गुरिल्ला ऐसी मूर्खता-भरी वजहों से युद्ध करता होगा, इस पर गहन शंका है मुझे. वैसे ऐसा ही कुछ ॐ पुरी ने भी कहा था तो उसे माफी मांगनी पड़ी थी बाद में वो मर गया/मारा गया मेरा तो मानना ही यह है कि कोई तुक नहीं कि मारे गये फौजी की बेटी/बीवी/माँ को दिखाया जाये मुल्क को.... वो सब पहले से ही तय है कि कोई विधवा होगी/कोई अनाथ होगा/ कोई बेटा खोएगा अब जब तय है तो फिर काहे का बवाल? बवाल करना ही है तो करो न कि फौजी क्यों है/ फ़ौज क्यों है/ हथियार क्यों हैं? ...

स्वस्थ कैसे रहें? कुछ बकवास टिप्स

पञ्च तत्व....हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि, आकाश... हवा---यदि हवा शुद्ध न हो, पूर्ण न मिले तो इन्सान बीमार... इलाज है....गहरी सांस, ताकि ऑक्सीजन मिले ज्यादा और कार्बन-डाई-ऑक्साइड हो बाहर ज़्यादा... यानि किया जाये शुद्ध हवा में प्राणायाम. पानी--पानी पीयें खूब...लेकिन सिर्फ पानी.... चाय, काफी, कोल्ड-ड्रिंक नहीं.....नीबूं पानी भी चलेगा. मिटटी--मिटटी से मतलब....हम जो अनाज और फल-सब्जी खा रहे हैं वो मिटटी का ही रूप है..... है उसमें जल भी, हवा भी.....लेकिन ज्यादा मिटटी का ही रूप है....अब मिटटी जाये तन में लेकिन शुद्ध रूप में...सो हो सके तो कच्चा खाएं... जो भी हो सके. अग्नि....अग्नि से मतलब रसोई की अग्नि से बचें, जहाँ तक हो सके सूरज की अग्नि का प्रयोग करें...धूप में रहें, कुछ समय ज़रूर-गर्मी हो चाहे सर्दी.....और सूरज की अग्नि से पके फल और सब्जियां खाएं-पीयें. और आकाश.....तो आकाश को निहारें.....पतंग उड़ायें या उड़ती पतंग देखें...रात को तारे देखें...चाँद देखें.....और आकाश को निहारते हुए भीतर के आकाश में उतर जायें....मतलब ध्यान पर ध्यान करते हुए.....आकाश-मय हो जायें...स्वस्थ हो जायें...

गुरिल्ला युद्ध

धर्मों का विरोध मत कीजिये... करेंगे तो सब आपके खिलाफ हो जायेंगे.....आप धर्मों के सदियों के किले को ढहा नहीं पायेंगे...खुद ढह जायेंगे शायद....  आप को ट्रोजन हॉर्स याद है।एक नकली बड़ा सा घोड़ा...जिसके अंदर सैनिक छुपा दिए गए थे ..वो किसी तरह दुश्मन के किले में घुसा दीजिये.....दुश्मन खुद पस्त हो जायेगा।आप बस वैज्ञानिकता पर जोर दीजिये, तर्क पर जोर दीजिये, दलील पर जोर दीजिये, प्रयोगिकता पर जोर दीजिये........धर्म अपने आप गायब हो जायेंगे....यह गुरिल्ला युद्ध है...अँधेरे से मत लड़ें.....बस मशाल जला दें....मशाल तर्क की, मशाल तर्क युद्ध की....... यदि साबित हो भी जाये कि राम कोई भगवान नहीं, मोहम्मद कोई रसूल नहीं...... तो भी उतना समय बच्चों का व्यर्थ न करवाया जाये, बच्चों को रिस्क में न डाला जाये.... मतलब डिटेल में न भी पड़ें वो तो भी वैज्ञानिक सोच रख सकते हैं.। सीधे ही तार्कीक जीवन जी सकते हैं.

आबादी

आबादी बहुत बढ़ गई है.....मैं इंसानों की नहीं, कुत्तों की आबादी की बात कर रहा हूँ. वैसे तो कुत्तो की आबादी भी इसलिए बढ़ी है क्योंकि बेवकूफ इंसानों की आबादी बढ़ी है। आज शहरों में कुत्ता इन्सान का बेस्ट फ्रेंड नहीं बल्कि एक जबर्दस्त दुश्मन बन चुका है। ये दीगर बात है कि इन्सान भी खुद का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है...तो मैं कुत्तों को कूट रही थी... किसी ज़माने में जब घर बड़े थे और गाँव छोटे तो, जगह थी इन्सान के पास और ज़रूरत भी थी। कुत्ता एक साथी की तरह , चौकीदार की तरह इन्सान की मदद करता था। लेकिन अब जब चौकीदार ही चोर हो....मतलब जब शहर बड़े और घर छोटे हो गए तो अब कुत्ते मात्र सजावट के लिए रखे जाते हैं। भला तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा कुत्ता कैसे? एक और वजह है. खास करके हिन्दू समाज में. हिन्दू औरतों को कोई भी बाबा, पंडित, मौलवी आसानी से बहका सकता है.......घर में बरकत नहीं, पति बीमार है, बच्चा बार-बार फेल होता है तो जाओ काले कुत्ते को रोज़ दूध पिलाओ.....जाओ, पीले कुत्ते को रोज़ खिचड़ी खिलाओ.....बस ये महिलाएं गली-गली कटोरे ले के कुत्ते ढूंढती हैं....बीमार कुत्तों को दवा देती हैं.....पु...

Sajjan Kumar's Sentence-- This is not the Solution--- सज्जन कुमार को फाँसी भी दे देंगे तो भी इस तरह के जुर्मों का कोई हल नहीं. हल क्या है? उसे समझने के लिए विडियो देखें. कमेंट करें और शेयर करें

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मोदी का विकल्प हम हैं

मोदी का विकल्प ही नहीं यार......क्या  करें...............? मोदी को वोट देना तो नहीं चाहते लेकिन उस पप्पू को वोट दें फिर क्या.......? जब आप ऐसा कुछ कहते हैं...सोचते हैं...तो समझ लीजिये कि आप छद्म लोकतंत्र के शिकार हैं.....आप समझते हैं कि लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ मोदी या राहुल गाँधी ही है...या फिर चंद और नकली नेता ही हैं..... न.....मैंने पिछले विडियो में भी कहा था फिर से कहता हूँ........लोकतंत्र का अर्थ है लोगों का तन्त्र......लोगों द्वारा बनाया हुआ ...लोगों के लिए....ठीक? तो फिर अगर यह तन्त्र लोगों द्वारा ही बनाया जाना है तो फिर यह कैसे मोदी बनाम राहुल बन गया? तो फिर कैसे मोदी का विकल्प राहुल ही रह गया? नहीं.....अगर मोदी नकारा साबित हुए हैं तो फिर विकल्प राहुल नहीं है...विकल्प डेढ़ सौ करोड़ भारत की जनसंख्या में से कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति हो सकता है? क्या एक भी व्यक्ति  भारत माता ने पैदा नहीं किया जो मोदी से बेहतर राजनीतिक सामाजिक सोच रखता हो....प्लान रखता हो....सद-इच्छा रखता हो? न ..यह कहना कि मोदी का कोई विकल्प नहीं..क्या डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का अपमान नहीं है? है.....

यात्रा:-- नकली लोक-तन्त्र से असली लोक-तन्त्र की ओर

“हमारा लोक-तन्त्र नकली है” चुनावी माहौल है. भारत में चुनाव किसी बड़े उत्सव से कम नहीं है. गलियां, कूचे, चौक-चौबारे नेताओं के चौखटों से सज जायेंगे. मीटिंगें शुरू हो जायेंगी. भीड़ की कीमत बढ़ जाएगी. हर जगह उसकी मौजूदगी जो चाहिये. खाना-पीना मुफ्त, साथ में दिहाड़ी भी मिलती है. और सम्मान भी. चाहे नकली ही. लाउड स्पीकर का शोर सुनेगा जगह जगह. “जीतेगा भाई जीतेगा....” मैं सोचता हूँ जब सब जीतेंगे ही तो हारेगा फिर कौन?  खैर, लोक-तन्त्र है. कहते हैं भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तन्त्र है. लेकिन गलत कहते हैं. नहीं है. लोक-तन्त्र के नाम पर पाखंड है. मज़ाक है लोक-तन्त्र का. चौखटा लोक-तन्त्र का है लेकिन असल में है राज-तन्त्र, धन-तन्त्र. ये जो नेता बने हैं, इनमें कितने ही ऐसे हैं जिनका किसी न किसी राज-परिवार से सम्बन्ध है. कितने ही ऐसे हैं जिनका बड़े कॉर्पोरेट से सम्बन्ध है.  लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. Democracy is the Government of the people, by the people, for the people. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता, अपने लि...

BE SELECTIVE

मुझ से बहुतेरों को शिकायत है कि मैं उनसे बहस क्यों नहीं करता? उनसे भिड़ता क्यों नहीं? उनको मुझ से भिड़ने का मौका देता क्यों नहीं? वाज़िब शिकायत लगती है. मेरा जवाब है, "भय्ये, मेरा समय मेरा है. मैं नहीं लगाना चाहता आपके साथ. मेरी मर्ज़ी." फिर सवाल उठता है कि क्या मैं सिर्फ 'हाँ'-'हाँ' करने वाले ही अपने गिर्द रखना चाहता हूँ? जवाब यह है कि मैं सिर्फ 'न'-'न'-'न', करने वालों से दूर रहना चाहता हूँ, उनको दूर रखना चाहता हूँ. और बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो बीच में कहीं होते हैं. जिनकी 'हाँ' या 'न' पहले से तय नहीं है, जिनका कोई फिक्स एजेंडा नहीं है. इन लोगों के लिए होता है मेरे जैसे लोगों का प्रयास. इनको मेरे शब्दों से कोई मदद मिल सकती है. जो पहले से ज्ञानी है, वो तो महान हैं ही. और जो पहले से ही किसी विचार-धारा विशेष को खाए-पीये हैं, हज़म किये बैठे हैं, वो महानुभाव हैं. वो सोशल मीडिया पर बस हगने आये हैं, उनके भी मैं किस काम का? सो ऐसे लोगों के साथ मैं समय नहीं लगाता. किसान भी बीज डालने से पहले देखता है कि ज़मीन उपजा...

माहवारी- स्त्री- मंदिर

मेरी समझ है कि मन्दिरों में माहवारी के दिनों औरतों को रोकना महज़ इसलिए रखा गया होगा चूँकि पहले कोई इस तरह के पैड आविष्कृत नहीं हुए थे, जन-जन तक पहुंचे नहीं थे........सो मामला मात्र साफ़ सफाई का रहा होगा. आज इस तरह की रोक की कोई ज़रूरत नही. अब सवाल यह है कि क्या आज इस तरह के मंदिरों की भी ज़रूरत है, जहाँ के पुजारी मात्र गप्पे हांकते हैं, बचकाने किस्से-कहानियाँ पेलते हैं? अब इस मुल्क की औरतों को इन मंदिरों को ही नकार देना चाहिए, जहाँ ज्ञान-विज्ञान नहीं अंध-विश्वास का पोषण होता है. महिलाओं को इन मंदिरों में घुसने की बजाए इन मंदिरों के बहिष्कार की ज़िद्द करनी चाहिए.

Biological Waste (जैविक कचरा)

Biological Waste (जैविक कचरा). शायद ही पढ़ा हो आपने कहीं ये शब्द. जब पढ़े नहीं तो मतलब भी शायद ही समझें. 'ब्लू व्हेल चैलेंज'....यह ज़रूर पढ़ा होगा आपने. इस खेल को खेलने वाले बहुत से लोगों ने आत्म-हत्या कर ली. पकड़े जाने पर जब इस खेल को बनाने वाले से पूछा गया कि क्यों बनाई यह खेल? एक खेल जिसे खेलते खेलते लोग जान से हाथ धो बैठें, क्यों बनाई? जवाब सुन के आप हैरान हो जायेंगे. जवाब था, "जो इस खेल को खेलते हुए मर जाते हैं, वो मरने के ही लायक होते हैं. उनका जीवन निरर्थक है. वो Biological Waste (जैविक कचरा) हैं. और मैं कचरा साफ़ करने वाला हूँ." ह्म्म्म..........क्या लगा आपको? यह ज़रूर कोई फ़िल्मी विलेन है. नहीं. मेरी नज़र में यह व्यक्ति बहुत ही कीमती है. और वो जो कह रहा है, वो बड़ा माने रखता है. अब ये जो लोग मारे गए, अमृतसर में रावण जलता देखते हुए. कौन हैं ये लोग? Biological Waste (जैविक कचरा). इनके जीने-मरने से क्या फर्क पड़ता है? इनका क्या योग दान है इस धरती को? इस कायनात को? बीस-पचास साल इस धरती का उपभोग करते. खाते-पीते-हगते-मूतते और अपने पीछे अपने जैसों की ही फ़ौज छो...

उत्सव-धर्मिता

आपको पता है हम उत्सव क्यों मनाते हैं......? चूँकि हमने जीवन में उत्सवधर्मिता खो दी. चूँकि हमने दुनिया नरक कर दी कभी बच्चे देखें हैं.......उत्सवधर्मिता समझनी है तो बच्चों को देखो.... हर पल नये...हर पल उछलते कूदते.....हर पल उत्सव मनाते क्या लगता है आपको बच्चे होली दिवाली ही खुश होते हैं.......? वो बिलकुल खुश होते हैं....इन दिनों में.......लेकिन क्या बाक़ी दिन बच्चे खुश नही होते? कल ही देख लेना ....यदि बच्चों को छूट देंगे तो आज जितने ही खेलते कूदते नज़र आयेंगे यह है उत्सवधर्मिता जिसे इंसान खो चुका है और उसकी भरपाई करने के लिए उसने इजाद किये उत्सव ...होली...दीवाली...... खुद को भुलावा देने के लिए ये चंद उत्सव इजाद किये हैं........खुद को धोखा देने के लिए...कि नहीं जीवन में बहुत ख़ुशी है ..बहुत पुलक है......बहुत उत्सव है. नहीं, बाहर आयें ..इस भरम से बाहर आयें...समझें कि दुनिया लगभग नरक हो चुकी है......हमने ..इंसानों ने दुनिया की ऐसी तैसी कर रखी है कुछ नया सोचना होगा...कुछ नया करना होगा ताकि हम इन नकली उत्सवों को छोड़ उत्सवधर्मिता की और बढ़ सकें वैसे तो जीवन ही उत्सवमय होना चाहिए, उत्सवधर्म...

~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~

"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते। माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है। कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह ...