मेरा इस्लाम का जो विरोध है उस के कई कारण हैं. एक यह है कि जहाँ-जहाँ इस्लाम पहुँचता है, यह वहां की लोकल कल्चर को खा जाता है. वहां के उत्सव, वहां का खाना-पीना, वहाँ का कपड़े पहनने का ढंग, सब कुछ खा जाता है. औरतें तरह-तरह के रंगीन कपड़ों की बजाए काले लबादों में लिपट जाती हैं. आदमी लोग ऊंचे-पायजामे, लम्बे-कुर्ते पहनने लगते हैं. अजीब दाढ़ी रखने लगते हैं. गीत संगीत का बहिष्कार होने लगता है. उत्सव के नाम पर ईद-बकरीद बचती है. जिस में बकरीद पर रस्से से बंधे बेचारे जानवर की गर्दन पर छुरी चलाई जाती है. बाकी सब उत्सव खत्म. और तो और, इस्लाम से पहले के इतिहास से भी समाज को तोड़ा जाता है. एक बड़ा ही आदिम समाज, अवैज्ञानिक किस्म का समाज खड़ा हो जाता है. न. ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें. सो मैं इस्लाम के खिलाफ हूँ-खिलाफ रहूँगा. इन्शा-अल्लाह!~ तुषार कॉस्मिक
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