"नोट-बंदी/ गन्दी-बंदी"

प्रजातंत्र में सरकार नौकर है और जनता मालिक.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक बढवाने की जिद्द नहीं कर सकता जब तक कि पहले सी दी जा रही तनख्वाह का हक़ ठीक से अदा न कर रहा हो.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक नहीं बढवा सकता, जब तक मालिक राज़ी न हो. नौकर कौन होता है जबरदस्ती करने वाला?
जनता की मर्ज़ी भई, अगर उसे कम तनख्वाह वाला नौकर पसंद हो तो वो वही रखेगी.
जनता को विकास चाहिए लेकिन इस शर्त पर नहीं कि उसकी जेब में पड़े एक रुपये की चवन्नी रह जाए.
नहीं यकीन तो पूछ के देख लो.
और बेहतर था यह सब गंदी-बंदी करने से पहले पूछते. और गाँव, गाँव, कस्बे-कस्बे पूछते.
यह क्या ड्रामा है? जो करना था, वो कर दिया. बाद में पूछते हो, वो भी मोबाइल app बना कर. जहाँ पचास प्रतिशत लोगों को वो app की abcd ही नहीं पता होगी. और अगर पता भी होगी तो कौन दुश्मन बनाए सरकार को अपनी असल राय ज़ाहिर करके .
सो साहेबान, ज़्यादा सयाने मत बनिए. अक्सर ज़्यादा सयाने लोग बेवकूफ ही बनते हैं, सयाना कव्वा गू पर गिरता है.

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