Posts

GST

तालियाँ बजा बजा कर एक्टिंग हम इनसे बेहतर कर सकते हैं. सिर्फ भूखी नंगी जनता का पेट भरना है तो जिनके पास कुछ धन है उनसे छीनने के प्रयास हैं. क्या GST का विरोध नहीं किया था भाजपा ने? आज क्या हो गया?  मात्र विरोध के लिए ही विरोध करना था क्या जब विपक्ष में थे तो? आज ताली पीट-पीट खुश हो-हो कर GST की गीत सुनाये जा रहे हैं. जिसके पल्ले है कुछ, छीन लो उससे चूँकि जो जनता सिर्फ बच्चे पैदा करती है उसका पेट जो भरना है. और फिर उसी ने तो वोट देना है. इस कुचक्र से ऐसे बकवास लोग नहीं निकाल पायेंगे. कुछ नहीं है इनके पल्ले, सिवा बकवास के. जिस दिन कोई कहेगा कि नहीं, इस तरह से अनाप-शनाप बच्चे पैदा नहीं करने देंगे, उस दिन न नोट-बंदी की ज़रूरत होगी और न ही इए तरह की GST की. 

क़ानूनी दांव पेंच-3

कानून का मसला ऐसा है कि हम भारतीय जो अनपढ़ हैं, वो तो अनपढ़ हैं हीं, जो पढ़े-लिखे हैं, वो भी अनपढ़ हैं. सो वकील पर विश्वास, अंध-विश्वास किया जाता है. और इसी का नाजायज़ फायदा उठाते हैं वकील. यह सिर्फ किताबी आदर्श है कि वकील केस जीतने में ही दिलचस्पी लेगा, इसलिए ताकि उसे प्रतिष्ठा मिले और वो और ज़्यादा काम पा सके. असलियत ऐसी बिलकुल नहीं है. लोग केस देते हैं, वकील का ऑफिस देख कर. लम्बी कतारों में रखी किताबें देख कर. और नौसीखिए असिस्टेंट वकीलों की भीड़ देख कर, जो मुफ्त या लगभग मुफ्त मिलते हैं. और घिसे वकील इस बात को भली-भांति समझते हैं. क्या लगता है आपको कि आपके वकील को आपको केस जितवाने में रूचि है? आप केस जीत गए, तो बड़ा फायदा आपका होगा, उसके लिए तो किस्सा खतम. एक वकील का लड़का विदेश से वकालत पढ़ के भारत लौटा था. बाप कहीं बाहर गया था. पीछे से बेटे ने केस हैंडल किये. बाप जैसे ही आया, बेटा ख़ुशी से चहकता हुआ बोला, "पिता जी जिन माता जी का केस आप पिछले दस बरस से हल नहीं कर पाए, वो मैंने मात्र दो डेट में खत्म करवा दिया." पिता ने मत्था पीट लिया. बोला, “जो तूने किया, वो मैं भी कर सक...

हमारी लखनऊ यात्रा

एक ऑफर था विवादित सम्पत्ति का, सो जाना हो गया. जाना अकेले ही था. टिकेट भी अकेले की बुक कर चुका था, लेकिन फिर लगा कि छुट्टियाँ हैं ही बच्चों की, तो साथ ले चलता हूँ. श्रीमति जी विरोध कर रही थीं कि गर्मी है, मात्र दो दिन का स्टे है वहां, इतने के लिए बच्चों को क्या ले जाना. मैंने जिद्द की. कहा कि चलो एक से भले दो. जिस डील के लिए जाना है, वहां उनकी भी राय शामिल हो जाती, फिर सपरिवार गए बंदे को निश्चित ही ज़्यादा क्रेडिबिलिटी मिलती है. खैर, अब उनकी टिकेट भी बुक कर दीं. जाने से मात्र तीन दिन पहले सब तय हुआ तो कोई ढंग की बुकिंग नहीं मिली. सब तरफ लम्बी वेटिंग लिस्ट थी. बुकिंग मिली गोमती एक्सप्रेस की. कैब लेकर नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचे. श्रीमति जी को कहा था कि कम से कम एक घंटा पहले पहुँच जाएं, इस हिसाब से घर से निकला जाए. वहां वेट कर लेंगे, लेकिन ट्रेन मिस नहीं होनी चाहिए. बावज़ूद इसके, मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे और हम पहाड़-गंज तक ही पहुँच पाए थे. मैं लड़ने लगा. श्रीमति घबरा गईं, लेकिन जैसे-तैसे हम नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँच ही गए टाइम से पहले. फटाफट उतरे कैब से. सामान खुद उठाया सबने और भागे...

किताब -- वरदान या अभिशाप

किताबें ज्ञान का दीपक हैं.....ह्म्म्म.... इतिहास उठा कर देखो,,,,,किताबों के ज़रिये  ही सबसे ज़्यादा बड़ा गर्क किया गया है दुनिया का........किताबें, जो बहुत ही पवित्र मानीं गयीं. आसमानी, नूरानी. इलाही. इन किताबों के  पीछे कत्ल करता रहा इंसान, तबाही बरसाता रहा इंसान. उसके पास पवित्र मंसूबे रहे हर दम....कोई सवाल भी उठाये तो कैसे? उसने दुनिया का हर जुल्म इन किताबों की पीछे रह कर किया.......किताब का क्या कसूर? अब तुम चाकू से किसी का पेट चाक कर दो या फिर नारियल काट, पेट भर दो..........तुम्हारी मर्ज़ी. किताब की ईजाद इंसान को चार कदम आगे ले गई तो शायद आठ कदम  कहीं पीछे ले गई......डार्विन ने कहा ज़रूर कि इंसान बन्दर का सुधरा रूप है लेकिन जैसे ही किताब आई,  इंसान बंदरों के मुकाबले  सदियों पीछे गिर गया, गिरता गया. हर ईजाद खतरनाक हो सकती है और फायदेमंद भी.......कहते हैं बन्दर के हाथ में उस्तरा दो तो ख़ुद को ही लहुलुहान कर लेगा.....उस्तरे से ज़्यादा नुक्सान पूँछ झड़े बन्दर के हाथ में किताब के आने से हुआ है. इंसान चंद किताबों का, ख़ास मानी गई किताबों का गुलाम हो गया और अप...
मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ, और इस्लाम को पोटैशियम साइनाइड. लेकिन अगर मेरे सामने किसी बेगुनाह को मारा जा रहा हो तो वो मुसलमान ही क्यों न हो, अगर बचा सकता होवूँगा तो जी-जान से कोशिश करूंगा बचाने की. और यह लिखते हुए खुद को कोई महान साबित नहीं करना चाह रहा. वो तो मैं पहले ही लिख चुका कई बार कि अपुन हैं घटिया ही. जैसा अपना समाज है, वैसे ही अपुन हैं. और अगर यह कोई थोड़ी सी अच्छाई है भी तो वो भी इसलिए कि अपने समाज में कुछ अच्छाई भी है. बस. मेरा मुझ में किछ नाहीं, जो किछ है, सभ तेरा.

अप्प दीपो भव

मैंने लिखा कि मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ तो एक मित्र का सवाल था कि क्या बौद्ध धर्म को भी? मैंने कहा, "हाँ". एक ने पूछा, "क्या सिक्ख धर्म को भी?" मैंने कहा, "हाँ". वजह पहली तो यह है कि व्यक्ति को अपनी ही रोशनी से जीना चाहिए. कहा भी है बुद्ध ने, "अप्प दीपो भव." लेकिन बौद्ध फिर भी  बुद्ध को पकड़ लेता है. जब अपना दीपक खुद ही बनना है तो फिर बुद्ध को भी छोड़ दीजिये, फिर बौद्ध भी मत बनिये. और भिक्षु बनना और बनाना कोई जीवन का ढंग नहीं है. फिर स्त्रियों को दीक्षा न देना भी समझ से परे है. फिर अहिंसा भी कोई जीवन दर्शन नहीं है. हिंसा अवश्यम्भावी है. उससे बच ही नहीं सकते. जहाँ हिंसा की ज़रूरत हो, वहां हिंसक होना ही चाहिए. अहिंसा आत्म-घाती है. क्यूँ बनना मुसलमान? हो गए मोहम्मद. अगर कुछ सीखने का है तो सीख लीजिये.  काहे कृष्ण-कृष्ण भजे जा रहे हैं, वो हो चुके, आ चुके, जा चुके. अब कुदरत ने, कायनात ने आपको घड़ा है. अब आपका अवसर है.  अब राम-राम कहना बंद कीजिये. राम ने जो धनुष तोड़ना था तोड़ चुके, जो तीर छोड़ने थे छोड़ चुके. जिसे...

मेरी तरफ से कुछ जीवन सूत्र

१. उम्र और अनुभव माने रखता है, लेकिन हमेशा नहीं. एक कम उम्र शख्श भी सही हो सकता है. और एक कम अनुभवी व्यक्ति भी गहन सोच सकता है, कह सकता है. एक बेवकूफ को बेवकूफात्मक अनुभव ही तो होंगे, वो चाहे कितने ही ज़्यादा हों. २. व्यक्ति को न तो बहुत संतोष होना चाहिए और न ही बहुत असंतोष. बहुत संतोषी व्यक्ति कभी आगे नहीं बढ़ पाता जीवन में और बहुत असंतोषी व्यक्ति खुद को पागल कर लेता है, बीमार कर लेता है. एक संतुलन चाहिए संतोष और असंतोष में. यही जीवन का ढंग है. सन्तोषी माता फिल्म मात्र बेवकूफ बनाये रखने के लिए बनाई गई थी. ३. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. और जब नज़र बंध गई तो फिर वो नज़रिया आज़ाद कैसे हुआ? खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमती दिखानी हो वहां सहमति ...

सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं? "सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं. जब पहले से ही किसी ग्रन्थ को गुरु मानना है तो काहे की स्वतन्त्रता? काहे की सोचने की आज़ादी? स्वतंत्र होने अर्थ है अब किसी और तन्त्र से नहीं अपने ही तन्त्र से बंधेंगे. लेकिन यहाँ तो बंधना है किसी ग्रन्थ से तो फिर कैसी स्वतन्त्रता? अब हुक्म हुक्म में फर्क होता है. मैं विद्रोही हूँ लेकिन क्या ट्रैफिक के नियम भी तोड़ने को कहता हूँ. नहीं? नियम नियम में फर्क है. ट्रैफिक के नियम कोई इलाही बाणी नहीं माने जाते. वो कभी भी बदले जा सकते हैं. असल में मैं तो कहता हूँ कि पैदल चलने वालों को हमेशा दायें चलना चा...
जब तक आप नाकामयाबियों के छित्तर पे छित्तर खाने को तैयार न हों, कामयाब होना मुश्किल समझिये.

क्रिकेट में हार शुभ है

एक होता है गर्व. गर्व होता है अपनी उपलब्धियों की ठीक-ठीक मह्त्ता समझना, यह जायज़ बात है.    और एक होता है घमंड.  मतलब हो झन्ड फिर भी रखे हो  घमण्ड. हो गोबर फिर भी रखे हो गौरव. यह नाजायज़ बात है. यह फर्क क्यूँ स्पष्ट किया, आगे देखिये.  भारत कहीं खड़ा नहीं होता वर्ल्ड  लेवल पर खेलों में. इक्का-दुक्का उपलब्धियां. इत्ता विस्तार लिया हुआ मुल्क. इत्ती बड़ी जनसंख्या. लेकिन उपलब्धि लगभग शून्य . ओलंपिक्स की मैडल तालिका देखो तो शर्म आ जाए. और वो शर्म आती भी है. भारतीयों को पता है कि वो फिस्सडी हैं. झन्ड हैं. गोबर हैं.लानती हैं. कैसे सामना करें खुद का? कैसे नज़र मिलाएं खुद से? खुद से नैना मिलाऊँ कैसे? हर खेल में पिट-पिटा के घर जाऊं कैसे? तो चलो क्रिकेट पकड़ते हैं. इसके रिकॉर्ड बनाते हैं. वर्ल्ड रिकॉर्ड. इसके चैंपियन बनते हैं. वर्ल्ड चैंपियन.  वर्ल्ड ने आज तक क्रिकेट खेला नहीं सीरियसली.  चंद मुल्क खेले जा रहे हैं बस. ओलंपिक्स में आज तक शामिल नहीं क्रिकेट.लेकिन हम वर्ल्ड चैंपियन. हमारे खिलाड़ी वर्ल्ड प्लेयर.  यही हाल कबड्डी का है. कबड्डी का ...
तोप से गुलेल का काम न लेना चाहिए. हम तोप हैं, दुनिया की होप हैं ए ज़िंदगी. बाकी मर्ज़ी.
जिस दिन 'छोले भठूरे' और 'पकौड़े समोसे' बेचने को आप Entrepreneurship समझने लगेंगे, समझ लीजियेगा कि बिज़नस समझ आने लगा.
वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'. मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?" "नहीं." "मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है." उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा. ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मि...

CANNIBALISM

इसका अर्थ है इन्सान का इंसानी मांस खाना. मानवाहार. क्या लगता है आपको कि इंसान सभ्य हो गया, वो कैसे ऐसा काम कर सकता है? कैसे कोई प्यारे-प्यारे बच्चों का मांस खा सकता है? कैसे कोई बेटी जैसी लड़की का मांस खा सकता है? कैसे कोई बाप जैसे वृद्ध का मांस खा सकता है? लेग-पीस. बोटी. पुट्ठा. कैसे? कैसे? गलत हैं आप. कहीं पढ़ा था कि ईदी अमीन नाम का शख्स, किसी अमेरिकी मुल्क का अगुआ, जब पकड़ा गया तो उसके फ्रिज में इंसानी मांस के टुकड़े मिले. अभी कुछ साल पहले नॉएडा में पंधेर नामक आदमी और उसका नौकर मिल कर बच्चों को मार कर खाते पाए गए थे. और आप और हम क्या करते हैं? हम इक दूजे का मांस खाते हैं, बस तरीका थोड़ा सूक्ष्म हो गया है, ऊपरी तौर पर दीखता नहीं है. जब आप किसी गरीब का पचास हजार रूपया मार लेते हैं, जो उसने तीन साल में इकट्ठा किया था तो आपने उसके तीन साल खा लिए. आपने उसके जिस्म-जान का लगभग दस प्रतिशत खा लिया. आप उसके बच्चों का, प्यारे बच्चों के तन का, मन का कुछ हिस्सा खा गए. उसके बूढ़े बाप को खा गए, उसकी बेटी को खा गए. बाबा नानक एक बार सैदपुर पहुंचे.शहर का मुखिया मालिक भागो ज़ुल्म और बेईमानी स...
डॉक्टर भगवान का रूप माना जाता है, मैं तो कहता हूँ वकील भी भगवान है और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी. आपकी जमानत न हो रही हो, तब देखो आपको वकील भगवान लगेगा कि नहीं? आपको इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की प्रेम पाती मिली हो तो आप कहाँ मत्था टेकेंगे? सीधे सी ए के पास. मुसीबत में यही आपको-हमको बचाते हैं. बस मामला वहां गड़बड़ा जाता है, जब भगवान खुद पैसों के पुजारी बनने लगते हैं. अगर पैसों का संतुलन भी बना रहे तो ये वाले पेशे वाकई नोबल हैं, जैसे कि कहे भी जाते हैं. लेकिन संतुलन बना रहे तभी.