कहा-सुना जाता है कि मनु ने वर्ण-व्यवस्था बनाई. वैसे वर्ण का अर्थ रंग है. तो यह पहला रंग-भेद था शायद. न सिर्फ भेद था, भेद-भाव भी था. ब्राहमण को पूरे समाज के सर पर बिठा दिया. मैं तो हैरान हूँ आज भी मंदिरों में ब्राह्मण खुले-आम कहते हैं कि ब्राह्मण की सेवा की जाए.
और जो जातियां, उपजातियां पनपीं, वो सिर्फ ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए अपने यजमानों की मोहरबंदी की है. जैसे ज़मीन बांटते चले जाएँ किसान के बच्चे और अपना हिस्सा अपने-अपने नाम रजिस्ट्री करवाते जाएँ, जैसे लोग अपनी गाय-भैंस पहचानने के लिए गर्म लोहे से इन जानवरों के शरीर दाग देते हैं, वैसे ही ब्राह्मणों के परिवार जैसे बढ़े तो उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कि कौन किसका ग्राहक, यह पहचान के लिए लोगों कि उपजातियां और फिर उन उपजातियों की भी उपजातियां घड़ लीं. हरिद्वार चले जाएँ, पण्डे लेकर बैठे हैं पोथे. और कौन किसका यजमान, वो हिसाब जाति, उपजाति से होता है.
आज जिसे हिन्दू व्यवस्था कहा जाता है उसमें यह ब्राह्मण व्यवस्था एक धारा रही है न कि एक-मात्र धारा. वाल्मीकि रामायण में जाबालि राम का विरोध करता है तर्कों से, उसे क्या कहेंगे? चार्वाकों के तो ग्रन्थ जला दिए गए, उन्हें क्या कहेंगे? बुद्ध तो नास्तिक कहे जाते हैं, उन्हें क्या कहेंगे? नानक तो जनेऊ को इंकार किये हैं, उन्हें क्या कहेंगे? और अम्बेडकर ने तो मनु-स्मृति की होली जलवाई दी थी तो उनको क्या कहेंगे आप? और आर्य-समाजी तो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, उनको क्या कहेंगे आप? यहाँ रावण को पूजने वाले भी हैं और दुर्योधन को पूजने वाले भी, इन्हें क्या कहेंगे?
यह जो ब्राहमणी व्यवस्था सर चढ़ बैठ गई है और हर मुद्दे पर बस बकवाद करती है, यही भारतीयता के खिलाफ है, वो भारतीयता जहाँ अनेक तरह के विचार पनपे हैं, एक दूजे के धुर विरोधी विचार.
असल भारतीयता ब्राह्मण-पंथी नहीं है, असल भारतीयता विचारवादिता है.
और जो जातियां, उपजातियां पनपीं, वो सिर्फ ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए अपने यजमानों की मोहरबंदी की है. जैसे ज़मीन बांटते चले जाएँ किसान के बच्चे और अपना हिस्सा अपने-अपने नाम रजिस्ट्री करवाते जाएँ, जैसे लोग अपनी गाय-भैंस पहचानने के लिए गर्म लोहे से इन जानवरों के शरीर दाग देते हैं, वैसे ही ब्राह्मणों के परिवार जैसे बढ़े तो उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कि कौन किसका ग्राहक, यह पहचान के लिए लोगों कि उपजातियां और फिर उन उपजातियों की भी उपजातियां घड़ लीं. हरिद्वार चले जाएँ, पण्डे लेकर बैठे हैं पोथे. और कौन किसका यजमान, वो हिसाब जाति, उपजाति से होता है.
आज जिसे हिन्दू व्यवस्था कहा जाता है उसमें यह ब्राह्मण व्यवस्था एक धारा रही है न कि एक-मात्र धारा. वाल्मीकि रामायण में जाबालि राम का विरोध करता है तर्कों से, उसे क्या कहेंगे? चार्वाकों के तो ग्रन्थ जला दिए गए, उन्हें क्या कहेंगे? बुद्ध तो नास्तिक कहे जाते हैं, उन्हें क्या कहेंगे? नानक तो जनेऊ को इंकार किये हैं, उन्हें क्या कहेंगे? और अम्बेडकर ने तो मनु-स्मृति की होली जलवाई दी थी तो उनको क्या कहेंगे आप? और आर्य-समाजी तो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, उनको क्या कहेंगे आप? यहाँ रावण को पूजने वाले भी हैं और दुर्योधन को पूजने वाले भी, इन्हें क्या कहेंगे?
यह जो ब्राहमणी व्यवस्था सर चढ़ बैठ गई है और हर मुद्दे पर बस बकवाद करती है, यही भारतीयता के खिलाफ है, वो भारतीयता जहाँ अनेक तरह के विचार पनपे हैं, एक दूजे के धुर विरोधी विचार.
असल भारतीयता ब्राह्मण-पंथी नहीं है, असल भारतीयता विचारवादिता है.
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