मेरा लेखन ---- नक्कार-खाने की तूती

शुरू-शुरू में प्रियंका त्रिपाठी ने जब मेरा लिखा पढ़ा तो उनको बिलकुल यकीन नहीं हुआ कि यह सब बकवास मैं खुद लिख रहा हूँ. उन्होंने तमाम ढंग से मेरे लिखे को टैली किया, कहाँ से कॉपी मार रहा हूँ? गूगल, फेसबुक सब खंगाल दिया. बहुत मुश्किल से उन्हें मेरी बक-बक करने की क्षमता पर भरोसा हुआ. ऑनलाइन छोड़ दूं तो घर हो या बाहर, मेरे लिखे को कोई टके सेर नहीं पूछता, कोई पढ़ता नहीं, पढ़ता छोड़ो देखता तक नहीं, देखता छोड़ो कोई थूकता तक नहीं, तो भी अपनी पड़ोसन को ज़बरन सुना रहा था एक बार. सुनने के बाद बोलीं, "अच्छा लिखा है भैया, आपने लिखा है यह सब?" मैं उनका मुंह ताकता रहा. अभी-अभी फेसबुक पर कोई भाई लिख रहा था कि फेसबुक पर लिखने से कुछ नहीं होगा. यहाँ भी मित्र लिखते हैं अक्सर,"लिखिए, लेकिन छोटा लिखिए". बिलकुल असहमत हूँ उनकी इस बात से. मैंने तो कल ही लिखा एक पाठक को, कि यदि आपको मेरा लेखन लम्बा लगता है तो आप मेरे लिखे को पढने के हकदार ही नहीं हैं, विदा लीजिये. आप सेक्स करते हैं तो उसे छोटा रखना चाहते हैं या चाहते हैं कि चलता रहे? जब आप छोटा लिखे की आशा करते हैं तो इसका मतलब है, आप मेरे लिखे को जल्द खत्म हुआ चाहते हैं. आप कोई बड़ा नावेल कैसे पढ़ते हैं? लाख व्यवधान आयें, फिर भी बुकमार्क करते जाते हैं और पढ़ते जाते हैं. आपको पता है, सर आर्थर कानन डोयल ने एक बार शर्लाक होल्म्स को मार दिया? किस्सा खतम. आगे लिखना ही नहीं चाहते थे. लेकिन इतने पत्र आये, इतना विरोध हुआ शर्लाक के खात्मे का, इतनी डिमांड हुए शेर्लोक की वापिसी की कि उनको शर्लाक दुबारा जिंदा करना पड़ा. जिसे आप पसंद करते है, उसका लेखन तो आप चाहेंगे कि पढ़ते ही जाएँ. सो मैं तो छोटा-बड़ा सब लिखता हूँ, जब लिखता हूँ तो. जिसने पढ़ना होगा, पढ़ेगा. ऑन-लाइन लिखने और पढ़ने का एक फायदा यह है कि यह दुनिया लगभग सेंसर-विहीन है, यहाँ वो सब लिखा-पढ़ा जा सकता है जो मेन स्ट्रीम मीडिया शायद हिम्मत ही न करे प्रकाशित करने की. 'पोलिटिकल करेक्टनेस', 'सोशल करेक्टनेस' की ऐसी की तैसी. "नक्कारखाने की तूती ही सही, बजाता जाऊंगा कोई सुने न सुने, फर्ज़ अपना निभाता जाऊंगा" "स्वागत मेरे लेखन में मेरी दुनिया देखन में कोई बिलबिला जाए तो कोई पिलपिला जाए कोई पीला हो तो कोई लाल हो कम ही को खुशी हो ज़्यादा को मलाल हो फिर भी आयें,आयें शुरू है धायं धायं" तुषार कॉस्मिक

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