विचार-योद्धा

मैं कहीं भी अकेला जाऊं, पीछे से घर वाले फ़ोन करते हैं, हर घंटे. क्यूँ? इसलिए कि कहीं मैं किसी से भिड़ तो नहीं गया?

बड़ी बिटिया के स्कूल मात्र दो बार गया और दोनों बार लड़ आया, बाद में फैसला दिया गया कि मुझे कभी भी वहां नहीं जाने दिया जायेगा, चूँकि बच्ची वहीं पढ़ानी है.

आप मेरा लिखा पढ़ते हैं, निरी लड़ाई है. 

भारत इतने मुद्दों से जकड़ा है कि लड़ाई-भिड़ाई तो होगी ही.

जब आप व्यवस्था बदलने की कोशिश करेंगे तो पुरानी व्यवस्था आपको सुस्वागतम नहीं कहने वाली. वो तमाम कोशिश करेगी अपने आप को जमाए रखने के लिए. 

मेरा ख्याल है कि भिड़ना शुभ संकेत है. भारत को और बहुत लोग चाहियें जो भिड़ सकें.

जो भारत की वैचारिक बोझिलता को, अवैज्ञानिकता से भरी बे-वस्था को छिन्न-भिन्न कर सकें.

योद्धाओं का सम्मान होता था पहले. आज भी होना चाहिए. आज युद्ध तीर तलवार से नहीं, विचार से होने हैं. 

"मैं भी ठीक, तू भी ठीक", किस्म के लोग मात्र मिटटी लौंदे हैं, जिधर मोड़ो, मुड़ने को तैयार.  ये क्या लड़ेंगे? न...न....भारत को लड़ाकों की सख्त ज़रूरत है. योद्धाओं की, विचार-योद्धाओं की, जो अवैज्ञानिकता की ईंट से ईंट बजा कर रख दें. ईंट का जवाब पत्थर नहीं पहाड़ से दें. विचार-योद्धा.

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