Friday, 14 April 2017

प्राइवेट स्कूलों की ईंट से ईंट बजा दो, वो तुम्हारी ज़मीन पर बने हैं

दिल्ली में हूँ, यहाँ फुटों के हिसाब से ज़मीन बिकती है. उस ज़मीन का टॉयलेट भी खरीदने की भी क्षमता नहीं होती स्कूल के मेनेजर की. अरबों रुपये की ज़मीन होती है स्कूल के पास. है, किसी की औकात की ज़मीन खरीद कर चला ले स्कूल? 

किसकी है वो ज़मीन? पब्लिक की. आपकी. 

यह जो आप शब्द प्रयोग करते हैं न 'सरकारी'. हकीर है यह शब्द. फ़कीर है यह शब्द. 'सरकारी' शब्द से लगता है पब्लिक का तो कोई हक़ ही नहीं इसमें, सब सरकार का है. नहीं. 'पब्लिक' शब्द का प्रयोग कीजिये 'सरकारी' की जगह. 'सरकारी अफसर' नहीं 'पब्लिक सर्वेंट' कहें. 'सरकारी स्कूल' नहीं 'पब्लिक स्कूल' कहें. और यह जो खुद को 'प्राइवेट स्कूल' कहते हैं , ये भी 'पब्लिक स्कूल' हैं, जो पब्लिक की ज़मीन पर चलाए जाते हैं. रवीश कुमार स्कूलों की लूट पर जन-सुनवाई चला रहे हैं पिछले तीन-चार दिन से, लेकिन सरकारी और प्राइवेट और पब्लिक स्कूलों की परिभाषा नहीं समझ पाए, पॉइंट उठाया, लेकिन कौन सरकारी, कौन प्राइवेट, कौन पब्लिक स्कूल, यह नहीं समझ-समझा पाए.

असल में स्कूल का सारा धन्धा दान लेकर चलता है. ज़मीन दान में लेते हैं जिसके लिए अंग्रेज़ी का फैंसी सा शब्द है "ग्रांट". फिर बच्चों के मां-बाप से दान लेते हैं, जिसके लिए दूसरा फैंसी शब्द है, "डोनेशन". और असल में दोनों ही दान नहीं हैं. ग्रांट  'कैश रूपी चैक' और 'पहुँच रूपी जैक' लगा कर ली जाती है. 

और डोनेशन....डोनेशन नहीं है, लूट है...ज़बरन वसूली है....डोनेशन अपनी मर्ज़ी से दी जाती है...स्कूल में कौन अपनी मर्ज़ी से दे रहा है? लोग इसलिए देते हैं कि उनका बच्चा वहां रहेगा, अगर नहीं देंगे तो स्कूल वाले बच्चे की ज़िंदगी खराब कर देंगे.  स्कूल की बिल्डिंग के पैसे बच्चों से वसूले जाते हैं. 

मतलब न ज़मीन इनकी, न बिल्डिंग इनकी. हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा. 

मैं दिल्ली पश्चिम विहार में हूँ, यहाँ तकरीबन सब स्कूल DDA लैंड पर हैं, जो लाखों  तक एडमिशन वसूल रहे हैं......और फीस के अलावा अनेक तरह से पेरेंट्स की सारा साल पुंगी बजाते रहते हैं.

किताबें और स्कूल ड्रेस इस तरह से बनाई जाती हैं कि दुबारा किसी और के काम न आ सकें.  और आप आम टेलर से तो बनवा ही नहीं सकते स्कूल ड्रेस. स्कूल खुद बनवाता है, ड्रेस और किताब. बेचता है, लूटता है. पेमेंट की कोई रसीद नहीं देते. मोबाइल फ़ोन गेट पर ही धरवा लेते हैं ताकि कोई रिकॉर्डिंग न कर पाए. गेट पर चार-पांच पहरेदार खड़े किये रहते हैं. मामला फसादी लगे तो एक से ज़्यादा व्यक्ति को घुसने नहीं देते ताकि अंदर कोई गवाह तक न रहे कि क्या हुआ.  स्वागत के लिए मुंह-फट औरतें बिठा रखते हैं, ज़रा बहस हुई तो विजिटर पर इलज़ाम लगाया जा सकता है कि औरत से बदतमीज़ी की. चाहे बन्दा मार कर फेंक दें और आक्रमण का इलज़ाम भी मरने वाले के सर थोप दें.

व्यापार नहीं लूट है, पब्लिक ज़मीन का शोषण है. हाँ, अपनी ज़मीन खरीद कर चलायें, तो जैसा भी शुल्क वसूलें, वो कुछ समझ में आता है.

और जो फ्री एडमिशन दिया जाता है कुछ प्रतिशत बच्चों को, अहसान नहीं करते सेठ जी लोगों पर. उसमें भी तमाम कोशिश की जाती हैं कि इस तरह के एडमिशन न दिए जाएँ.

दान में ली ज़मीन और सेठ जी फ्री पढ़ा रहे हैं? नहीं, सेठ जी मुफ्त की ज़मीन और मुफ्त की बिल्डिंग को अपने बाप का माल समझ बैठे हैं.

लोग विरोध में खड़े हो रहे हैं और सही खड़े हो रहे हैं. लेकिन ये जो अभिभावक कोर्ट पहुँच रहे हैं कि उनके बच्चों को एडमिशन नहीं दे रहे स्कूल और फिर कोर्ट आर्डर से एडमिशन करवा रहे हैं, मूर्ख हैं. अबे, ऐसे स्कूलों की मान्यता रद्द करवाने के लिए जाओ कोर्ट. जो स्कूल नहीं देना चाहता एडमिशन उसके खिलाफ कोर्ट में जाने के बाद यदि उसी स्कूल में अपना बच्चा दाखिल करवाते हो तो यह ऐसे ही है जैसे किडनैपर को अपना बच्चा खुद सौपना.

सात अप्रैल, सत्रह की खबर है नवभारत टाइम्स की, एक गिरोह पकड़ा गया है, जो स्कूलों को लूटता था, ख़ास एडमिशन के दौरान. मैं इनके नेक काम के लिए इन्हें दिल से बधाई देना चाहता हूँ. वो जो चोर पकड़े गए, बहुत छोटे चोर हैं. चिंदी-चोर. फूहड़. अनगढ़. ये जो स्कूल हैं, शातिर डकैत हैं.  

"पब्लिक स्कूल कैसे चलने चाहिए फिर ?"

लगता है आपको कि जिस स्कूल में आपका बच्चा पढ़ रहा है, उस पर आपका कोई हक़ है?
नहीं. मुझे पता है नहीं लगता. 
आपको लगता है कि ये स्कूल किसी की मल्कियत हैं. स्कूल चलाने वालों की, उसके परिवार की.

गलत लगता है. वो स्कूल आपका है, मेरा है, हम सब का है.
और जो चला रहे हैं वो मात्र पब्लिक के नौकर हैं.

तो जब वो नौकर हैं तो फिर उनको जो काम दिया गया है उसका पूरा हिसाब किताब पब्लिक को देना चाहिए कि नहीं?

मोदी जी की तरह पूछता हूँ,”बोलो मित्रो, हिसाब किताब देना चाहिए कि नहीं?”

मेरा मानना है कि देना चाहिए. 
कितने टीचर हैं, और स्टाफ कितना है, कितने ड्राईवर हैं, किसको कितनी सैलरी जाती है?कितना पेट्रोल खर्च होता है, कितना बिजली का बिल, कितना पानी का, कितना कोई और खर्च, सब हिसाब सामने होना चाहिए.

अब मानो किसी स्कूल में बारह सौ बच्चे पढ़ रहे हैं......और स्कूल का खर्च ग्यारह लाख महीना है.....तो ठीक है.
हज़ार रुपैया हर बच्चे की फीस हो गई, ग्यारह लाख खर्चे में गए...एक लाख स्कूल का मेनेजर अपनी सैलरी ले ले.
एक बात.

तनख्वाह तक नहीं देते टीचर को महीनों.....और साइन करा लेते हैं, तनख्वाह आधी भी नहीं देते. और न ही अभिभावकों को पेमेंट की रसीद देते हैं. कैसे चेक होगा हिसाब-किताब. उसके लिए. सब स्कूल में CCTV लगे होने चाहियें. और रिकॉर्डिंग स्कूल की वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, पब्लिक वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, और पब्लिक को भी विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की छूट होनी चाहिए. खैर, यह मुद्दा हा हो सकता है.

दूसरी बात. स्कूल किसी की मल्कियत नहीं है. यदि पब्लिक को कोई बेहतर व्यक्ति दीखता है स्कूल चलाने वाला तो उसे मौका देना चाहे. बहुमत के साथ नए व्यक्ति को मौका दिया जाना चाहिए. हाँ, उसका तजुर्बा क्या है, कितना पढ़ा है, क्या पढ़ा है, क्या पढाया है, वो सब देखा जाना चाहिए. मैंने देखा है अक्सर कुछ लोग झुग्गियों में सालों से पढ़ाते हैं, बड़े मन से, बड़े जतन से. ऐसे लोगों को मौका दिया जा सकता है

स्कूल पीढी दर पीढी सौपे नहीं जाने चाहिए, कतई नहीं. जब पब्लिक स्कूल पब्लिक के हैं तो फिर किसी एक पीढी का क्या मतलब? कोई प्राइवेट प्रॉपर्टी थोड़ा है? 
कोई प्राइवेट स्कूल दे दें...आधी फीस और शुल्क वसूल कर चला कर दे देता हूँ...और फिर भी कमाऊँगा.

असल में तो इन मेनेजर को बस साल-दर-साल ही स्कूल मिलने चाहियें..ठेके पर...फिर नए लोग आयें तो आ जाएँ.....बहुत कुछ सुधर जाएगा, अपने आप.

पब्लिक प्रॉपर्टी है......जो सबसे अच्छा पढाये, सबसे सस्ता पढाये, उसे मौका मिले..बात खत्म

इतने से ही आप देखेंगे फीसें आधी भी नहीं रही.......पुरानी किताबें काम में आने लगेंगी......और सैकड़ों तरह के फालतू के खर्चे उड़ जायेंगे .....और स्कूल की खाली जगह को छुटियों में जो सार्वजानिक प्रोग्राम के लिए किराए पर दिया जाएगा उससे फीस में और कमी आ जायेगी

बोलो मितरो, फीस घट जायगी कि नहीं. ऐसा होना चाहिए कि नहीं.

होना चाहिए.

टोन ज़रूर मोदी जी की पकड़ी है. लेकिन मेरी बात से आप समझ सकते हैं कि ये मात्र बात नहीं है, लात है और वो भी जोर की. 

!!! प्राइवेट स्कूलनामा !!! 

एक  मित्र ने फ़ोन पर कुछ बात  की प्राइवेट स्कूलों के बारे में, कुछ शिकायत, बस जैसे  अन्दर कुछ  दबा  था फूट पड़ा, क्या दबा  था?   आईये देखिये,   शायद   आप  के भीतर कुछ   वैसा ही विस्फोटक सामान दबा  हो, स्वागत है---

"भाग- 1"
पब्लिक स्कूल मतलब पब्लिक की ज़मीन पर बना पब्लिक के बच्चों के लिए स्कूल.....कितनी कारगर है यह परिभाषा? यदि नहीं, तो मेरे साथ आइये, छीन लें इन डकैतों सब कुछ

"भाग- 2"
"अरे ओ साम्भा........सुना है ई रामगढ़ के पब्लिक स्कूल वाले पुरानी किताबें फिर से प्रयोग नहीं करते?"
"जी सरदार, यदि पुरानी किताबें प्रयोग करेंगे तो फिर नई किताबों की खरीद से कमीशन कैसे खायेंगे ?"

"भाग- 3"
जज पब्लिक स्कूल के मालिक से, "तुमने ट्रैफिक का नियम तोडा है, सो तुमसे दस हज़ार जुर्माना लिया जाएगा, और अगले साल पन्द्रह हज़ार, और अगले साल बीस हज़ार, इस तरह हर साल पांच हज्जार बढ़ के जुर्माना वसूला जाएगा"

"मी लार्ड, यह तो नाइंसाफी है, एक जुर्म के लिए हर साल ज़ुर्माना, वो भी बढ़ा बढ़ा कर"

"अबे चोप्प, श्याणे, जब तू अपने स्कूल में दाख़िल बच्चों से हर साल दाखिला फीस वसूलता है, तब नहीं तुझे यही तर्क समझ में आता, हरामखोर, अभी तो तुझ से वो सब भी ब्याज समेत वसूलना है "

"भाग- 4"

"पापा पापा, दान तो मर्ज़ी से दिया जाता है और वो भी अपनी गुंजाइश के मुताबिक, नहीं?"

"बिलकुल बिटिया"

"फिर पापा हमारे स्कूल वाले तो डोनेशन हर नए दाखिल होने वाले बच्चे से लेते हैं, हम से भी लिया था और वो भी अपने हिसाब से, आपने कितना मुश्किल दिया था , मुझे आज भी याद है, फिर यह कैसा दान है?"

"बेटा, नियम से वो लोग दाखिले के लिए कोई पैसे ले नहीं सकते, इसीलिए इस वसूली का नाम उन्होंने 'दान' रखा है"

"तो हम कुछ नहीं कर सकते क्या इस नाइंसाफी के खिलाफ?"

"कौन लड़ाई करे बेटा इन मगरमच्छों से"

"नहीं पापा, यह गलत है, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी"

"भाग- 5"

संता," यार बंता, अपना सोहन सिंह पिछले दस साल से पुल के नीचे झुग्गी बस्ती के बच्चों को पढ़ा रहा है, सुना है कुछ बच्चे तो बहुत आगे तक निकल गए उसके पढाये......."

बंता,"हाँ, यार, सोहन तो वाकई सोहन है, सोहना मेरा वीर"
संता," यार, अपने ये जो पब्लिक स्कूल हैं, ये अगर सोहन जैसे वीर चलायें तो?"

बंता," ओये, पागल हो गया, सोहन जैसे लोगों को तो ऐसे स्कूल वाले पास भी न फटकने दें"

संता," फेर यार, नाले कहंदे ने, पब्लिक स्कूल, पब्लिक वास्ते, पब्लिक की ज़मीन पर?"

बंता," छड्ड यार, वड्डे लोकां दे खेड ने प्यारियो"

संता," यार , मेरी अक्ल मोटी है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है..........."

"भाग- 6"

पब्लिक स्कूल मालिक," देखो जी, बिल्डिंग फण्ड तो देना ही पड़ेगा, आखिर आपका बच्चा इसी बिल्डिंग में तो पढ़ेगा न जी"

बच्चे की माँ," वो तो ठीक है सर, पर जब बच्चा स्कूल छोड़ेगा तब बिल्डिंग तो यहीं रह जायेगी, आप कोई तो वापिसी भी करो न जी उस फण्ड की?"

"देखो जी, साथ तो कुछ भी नहीं जाता, हम मरते हैं साथ कुछ ले जाते हैं, सब यहीं रह जाता है जी"

"भूतनी दिया, खड़ा हो सीट से, स्कूल तेरे बाप का है, ज़मीन पब्लिक की, बिल्डिंग का पैसा पब्लिक का, तू मामा लगता है इस स्कूल का? तेरे से बेहतर और कम फीस लेकर चलाने वाले मिल जायेंगे हमें अभी के अभी .....ऐसी की तैसी तेरी......निकल खाली हाथ, वैसे भी साथ थोड़ा किसी ने कुछ ले जाना होता है, निकल "

"भाग- 7"

"माँ, वो आज पानीपत का दूसरा युद्ध पढाया गया हमें, यह सब आपने भी पढ़ा था क्या?"

"हाँ, बेटा"

"कुछ याद है मां जो पढ़ा था"
"न, बेटा वो तो परीक्षा कक्ष से बाहर आते ही लगभग साफ़ हो गया था"

"माँ, यह सब पढ़ा कहीं काम आया आपके"

"नहीं बेटा, फिर कभी ज़िक्र तक न हुआ, आज कर रही है तू बस"

"माँ, ये तो शायद मेरे भी कोई काम न आएगा, नहीं?"

"मोइआ दा सर, स्वाह ते मिट्टी, यह सब का कोई मतलब ही नहीं होता ज़िंदगी में"

"माँ, फिर मैं क्यों पढूं?"

"पढ़ ले बेटा, नहीं पढेगी, डिग्री नहीं मिलेगी , वो भी तो ज़रूरी है"

अब बेटी पढ़ तो रही है, पर सोच रही है अपनी तीन साल की छोटी बहन को देख, "मैं कुछ करूंगी, मेरी बहन को यह सब बकवास न पढनी पढ़े"

"भाग- 8"

सेठ दौलत हराम," भाई जी, कोई ऐसा तरीका बताओ न कि अपने पैसे खप जाएँ, पूंजी बढ़ती भी रहे और मासिक आमदनी भी चोखी हो"

हरामखोर प्रॉपर्टीज,"सेठ जी, ऐसा है, आपको एक चलता हुआ पब्लिक स्कूल दिलवा देता हूँ"

"पर सुना है, उसकी कोई रजिस्ट्री नहीं होती"

"वो तो ठीक है सेठ जी, माल तो पब्लिक का होता है न, किसी का मालिकाना हक़ तो होता नहीं, सो रजिस्ट्री तो नहीं होती लेकिन फिर भी कोई रिस्क नहीं"

"कैसे भाया?"

"सेठ जी, खरीद बेच सब होगी, इधर आप तय रकम अदा करोगे और उधर स्कूल की मैनेजमेंट इस्तीफ़ा देगी, नई मैनेजमेंट आप अपने परिवार को बना सकते हैं"

"और मासिक आमदनी?"

"वो तो बल्ले बल्ले, सेठ जी, हर जगह कमाई....देखिये, हर साल एडमिशन फीस, बिल्डिंग फण्ड, डोनेशन, मासिक फीस तथा और भी बहुत कुछ"

"और बहुत कुछ क्या?"

"सेठ जी, जब मर्ज़ी यूनिफार्म बदल दो उसमें कमीशन, हर साल नई किताबें उसमें कमीशन, सालाना फंक्शन उसमें कमाई, बच्चों को लाने ले जाने वाली बसों में कमाई, सेठ जी कमाई ही कमाई....इसके अलावा सेठ जी एक सबसे बड़ा फायदा तो मैं बताना ही भूल गया"

"वो क्या?"

"सेठ जी, आपको सारा पैसा नकद देना है, किसी को कानों कान खबर नहीं कि कोई डील हुई भी, है न बढ़िया......सेठ जी इससे बढ़िया क्या ढंग होगा कि आप अपना पैसा खपा दो, क्या ज़रुरत स्विस बैंक की, जब हमारे पास यहीं भारत में ही उससे बढ़िया स्विस बैंक मौजूद हैं?"

"हम्म....बात तो ठीक है, ठीक है फिर दिखाओ कोई डील"

"बस सेठ जी, कल तक सारी डील कन्फर्म करके वापिस आता हूँ"

"बिलकुल,लेकिन कल क्यों, आज ही चलो"

"ठीक सेठ जी, फिर आज ही "

"बिलकुल "

"भाग- 9"

माँ , "अजी सुनते हो, आज बिटिया के स्कूल वालों ने फिर से पर्चियां सी दी हैं, चंदा इकट्ठा करके लाने को, कोई 'फेट' नाम से प्रोग्राम करना है"

बाप "सब कमाई के धंधे इनके......बच्चों से भीख मंगवाते हैं....."

माँ "सो तो है जी, कोई भी पर्ची कटवाता नहीं है, किसे पड़ी है ऐसे प्रोग्राम देखने की, वो तो माँ बाप को मजबूरी में देखना पड़ता है"

बाप "छोड़ भागवाने, हम खुद ही दे देंगे जितने पैसे चाहिए इन कमीनों को.....एक रुपैया खर्च होगा तो दस रुपये वसूलते हैं, दे देंगे....बच्चे पढ़ाने जो हैं ...लेकिन यह है ग़लत.....बहुत ग़लत"

"भाग- 10"

मैं खुद हैरान हूँ, मैं "पब्लिक स्कूल" लिखता लिखता "प्राइवेट स्कूल" क्यों लिख गया......असल में इन स्कूल वालों ने हम सब को समझा रखा है कि ये स्कूल इनके हैं,निजी हैं, प्राइवेट हैं, इनकी सम्पत्ति हैं ...."पब्लिक स्कूल" माने पब्लिक को लूटने के यंत्र

"भाग- 11"

शादी में चार यार बकिया मतलब बतिया रहे हैं

एक --"यार, आज कल ये प्राइवेट स्कूल वाले बहुत लूटन लाग रहे हैं......अब बच्चा दसवीं तक पढ़ रहा है, ग्याहरवी में फिर से दाखिला फीस मांग रहे हैं'

दूसरा," छोड़ यार, काहे नशा उतार रहा है? अबे, अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, तुझे क्या लगता है, हमें नहीं पता यह सब, साले रोज़ किसी न किसी बहाने से जेब काटते हैं, पर अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, उनके पास होते हैं आधा दिन, हम कुछ कदम उठायेंगे तो हमारे बच्चों को नुक्सान पहुंचा सकते हैं, सो ज़्यादा दिमाग लगाने का कोई फायदा नहीं, मूड खराब मत कर, कोई और बात कर"

तीसरा,"यार, बात तो दोनों ठीक कह रहे हो, कुछ हो नहीं सकता क्या, इन चोरों की ऐसी तैसी नहीं की जा सकती?

चौथा,"आईडिया! हम खुद सामने आकर कुछ नहीं कर सकते, क्यों न हम एक दूसरे के बच्चों के स्कूलों पर हमला करें?"

"हाँ, यह सोचा जा सकता है" सबके स्वर और सर सहमति में मिलने और हिलने लगे और वो सब अगले दिन वकील से मिलने का पक्का कर लिए

सादर नमन......कॉपी राईट मैटर है ओये चोट्टे लोगो.......दफा जाओ यदि चोरी करते हो या चोरी करना सही मानते हो

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