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Showing posts from May, 2017
आप नाम छोड़ दीजिये.....ये नाम परमात्मा, ईश्वर, भगवान इन्हें छोड़ देते हैं.....नाम सब काम-चलाऊ हैं.....नाम सब हमारे दिए हैं......यूँ समझ लीजिये कि ब्रह्माण्ड को अवचेतन से और ज़्यादा चेतन होने का फितूर पैदा हुआ.......उसने अपने लिए कुछ रूप गढ़ने शुरू किये.....खुद ही कुम्हार, खुद ही मिटटी, खुद ही पानी, खुद ही मूरत......बस जैसे-जैसे वो रूप गढ़े, उनमें रूप के मुताबिक़ चेतना घटित होती गई......यूँ ही इन्सान तक पहुँच हो गई......यूँ ही सब पैदा हुआ...इस सब का सिवा खेल-तमाशे के और क्या मन्तव्य? सो कहते हैं कि जगत जगन्नाथ की लीला है.
"आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ" असरानी का फेमस डायलाग है शोले फिल्म में. मेरी पोस्ट पर आये कमेंट देख याद आता है. शब्दों की भीड़ में मैं जो कहना चाहता हूँ, वो ऊपर-नीचे, दायें-बायें से निकल जाता है कुछ मित्रों के. मैं तो बस यही क्लियर करता रहता हूँ कि किस बात से मेरा मतलब क्या है. बहुत मित्र तो 'सवाल चना और जवाब गंदम' टाइप कमेंट करते हैं. खैर, कोई मित्र बुरा न मानें, मैं कोई अपने लेखन की महानता का किस्सा नहीं गढ़ रहा. अपुन तो वैसे भी हकीर, फ़कीर, बे-औकात, बे-हैसियत के आम, अमरुद, केला, संतरा किस्म के आदमी हैं. बस जो सही लगा लिख दिया.
कोई तीन-चार दिन पहले इंग्लैंड "मानचेस्टर" में बम धमाका हुआ. बाईस लोग तो तभी मारे गए. कई ज़ख़्मी हुए. सुना है कि ज़िम्मेदार लोगों ने बखूबी ज़िम्मेदारी भी ली. कितने मुस्लिम व्यक्तियों ने, समूहों ने इसके खिलाफ कुछ करने का ज़िम्मा लिया? करने का छोड़ो, आवाज़ उठाने का ही ज़िम्मा लिया हो? ये चुप्पे भी ज़िम्मेदार हैं, इनकी चुप्पी भी सहयोगी है. फिर कहेंगे कि चंद लोगों की वजह से कौम बदनाम होती है.

CBSE टॉपर और मिट्ठू तोते

ये जो लोग अपने बच्चों के CBSE एग्जाम 90-95% नम्बरों से पास होने की पोस्ट डाल रहे हैं और जो इनको बधाईयों के अम्बार लगा रहे हैं, उनको ताकीद कर दूं कि टॉपर बच्चे ज़िन्दगी की बड़ी दौड़ में फिसड्डी निकलते हैं. ये लोग अच्छी दाल-रोटी/ मुर्गा-बोटी तो कमा लेते हैं लेकिन दुनिया को आगे बढ़ाने में इनका योगदान लगभग सिफर रहता है चूँकि ये सिर्फ लकीर के फ़कीर होते हैं, रट्टू तोते होते हैं, अक्ल के खोते होते हैं, सिक्के खोटे होते हैं. दिमाग लगाना इनके बस की बात नहीं होती. और इनको जो इंटेलीजेंट समझते हैं, उनकी इंटेलिजेंस पर मुझे घोर शंका है. इडियट लोग. इंटेलिजेंस यह नहीं होती कि आपने कुछ घोट के पी लिया. इंटेलिजेंस होती है कुछ भी पीने से पहले अच्छे से घोटना, छानना और सही लगे तो ही पीना, नहीं तो कूड़े में फेंक देना. एक टेप रिकॉर्डर अच्छी रिकॉर्डिंग कर लेता है, तो क्या कहोगे कि यह बहुत इंटेलीजेंट है, स्मार्ट है? इसे गोल्ड मैडल मिलना चाहिए? इडियट. इससे ज़्यादा स्मार्ट तो तुम्हारा स्मार्ट फ़ोन होगा, वो कितने ही जटिल काम कर लेगा. ज़्यादा कुछ नहीं लिखूंगा. समझदार को इशारा ही काफी है और अक्ल-मंद, अक्ल-बंद को...

कृष्ण का झूठा दावा

*****यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***** भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है. अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं. "जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ." पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह स...
पूछा है मित्र ने, "धर्म कहाँ गलत हैं?" मेरा जवाब," उस जागतिक चेतना ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं. मोटे नियम यानि व्यक्ति को अंत में मरना ही है, बूढ़े होना ही है...आदि....ये नियम उसके हैं....अभी तक उसके हैं, आगे बदल जाएँ, इन्सान अपने हाथ में ले ले, तो कहा नहीं जा सकता......बाकी कर्म का फल आदि उसने अपने पास नहीं रखा है. बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि प्रभु कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब प्रभु/स्वयंभू खेल में दखल नहीं देता. आप लाख चाहो, वो पंगा लेता ही नहीं. लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद? तो धर्म तो समझाता है क...
पूछा है मित्र ने,"आत्मा क्या है, आधुनिक ढंग से समझायें?" जवाब था, "शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा. जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी. अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद. पहले तो यह समझ लें कि अगर जागतिक चेतना को आपके मन को, सोच-समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू कर...

----:वकालतनामा:----

कोई वकील hire करते हैं तो सबसे पहला काम वो करता है आपसे वकालतनामा साइन करवाने का. यहीं बहुत कुछ समझने का है. पहले तो यह समझ लें कि आप वकील को hire करते हैं, वो आपको hire नहीं करता है. आप एम्प्लोयी नहीं हैं, एम्प्लायर हैं. चलिए अगर एम्प्लोयी और एम्प्लायर का नाता थोड़ा अट-पटा लगता हो तो समझ लीजिये कि आप दोनों एक अग्रीमेंट के तहत जुड़ने जा रहे हैं. और वो अग्रीमेंट है, वकालतनामा. अब यह क्या बात हुई? वकील तो आपको वकालतनामा थमा देता है, जिसे आप बिना पढ़े साइन कर देते हैं. यहीं गड़बड़ है. वकालतनामा कुछ ऐसा नहीं है कि जिसे आपने बस साइन करना है. वो आपका और वकील के बीच का इकरारनामा है, अग्रीमेंट है. उसे आप उसी तरह से ड्राफ्ट कर-करवा सकते हैं जैसे कोई भी और अग्रीमेंट. उसमें सब लिख सकते हैं कि आप क्या काम सौंप रहे हैं वकील को, कितने पैसे दे रहे हैं उसे और आगे कब-कब कितने-कितने देंगे. उसमें दोनों तरफ से लिखा जा सकता है कि कौन कब उस अग्रीमेंट से बाहर आ सकता है. मतलब आपने अगर तयशुदा पेमेंट वकील को नहीं दी तो उसकी ज़िम्मेदारी खत्म और अगर वकील तयशुदा काम नहीं करता, तो आप उसे आगे पैसे नहीं देंगे...
एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ.

विषैली सोच भगवत गीता में

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।। ।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है। गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह. समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर..... इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? इडियट. अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking. तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और ...
मुझे ठीक पता नहीं लेकिन जेठमलानी, जो केजरीवाल का केस लड़ रहे हैं, वो कभी अडवाणी के वकील थे. और हरीश साल्वे, जिनने जाधव का केस लड़ा है, उनने याकूब मेनन का केस भी लड़ा था. सही है क्या भक्तो?
एक टीम बनानी है......"टीम अधार्मिक"...'टीम इंडिया' की तर्ज़ पर.....मतलब वो लोगों की टीम जो किसी भी देश, धर्म, जात-बिरादरी को नहीं मानते.....कौन कौन शामिल होगा? ज़रा हाथ खड़ा कीजिये कमेंट बॉक्स में.....
यदि कोई 'प्रदेश विशेष' के लोग किसी एक 'देश विशेष' के साथ नहीं रहना चाहते हों, यानि राजनीतिक तलाक़ चाहते हों, तो इसे राष्ट्र-द्रोह माना जाए या कानूनन वाजिब डिमांड?
पढ़ता हूँ कि हज सब्सिडी के नाम पर सरकार लूटती है. जो यात्रा कहीं सस्ते में होती है, उसके लिए कई गुणा पैसा वसूलती है सरकार. ठीक? तो बिना सब्सिडी हज जाने पर कोई रोक है क्या? ज्ञानवर्धन करें कृप्या.
यदि सच में दिल्ली में बस स्टॉप AC हो गए हैं (चूँकि दिल्ली में हूँ, लेकिन मैंने ऐसा देखा नहीं है अब्बी तक) तो मैं इसका विरोध करता हूँ चूँकि दिल्ली का पैसा अभी और बहुत बेसिक ज़रूरतों पर खर्च होना चाहिए. मतलब जो घर खराब पंखा ठीक न करा पा रहा हो, लेकिन फिर अचानक AC खरीदने पर आमादा हो जाये तो इसे आप क्या कहेंगे?
कपिल मिश्र सही हो भी सकते हैं, लेकिन इंतेज़ार कर रहे थे क्या कि कब पार्टी से बाहर निकाले जाएँ और कब वो केजरी का भन्डा-फोड़ करें?
यदि आपके पास नये टायर न हों तो गाड़ी के खराब टायर न बदलें 'टीम अन्ना' जी.
वैसे बता दूं कि यदि गौ को कोई माता मानता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है और कोई काट खाता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है, गौ से किसी का कोई मतलब नहीं और न गौ को किसी से कोई मतलब है.
सच्चा प्रेम, भूत और रेड-मी नोट-4/ 64GB/4GB-RAM किसी-किसी को ही मिलते हैं.
असल में दुनिया के हर व्यक्ति को कुरान पढ़ना चाहिए......आयतों के अर्थ समझने चाहियें........कई इस्लाम छोड़ देंगे और बाकी सावधान हो जायेंगे.
भला उसकी कमीज़, मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे? भला उसका &#$%यापा, मेरे &#$%यापे से बढ़िया कैसे? भला उसका धर्म, मेरे धर्म से महान कैसे
When it comes to money, everybody is of the same religion--Old saying When it comes to money & sex, everybody is of the same religion---New saying

यदि दिल्ली की सडकों पर आप गाड़ी चलाते हैं तो यकीन जानिये आप कोई भी वीडियो गेम जीत जायेंगे.

जनसंख्या इसलिए भी कम होनी चाहिए इंसानों की चूँकि धरती पर बुद्धुओं की जमात बहुत ज़्यादा है, अक्ल पैदा करने में जितनी मेहनत लगती है, वो हर इंसान पर तभी लगाई जा सकती है, जब संख्या कम हो.

अपने बच्चों को सिखाओ कि आगे बच्चे या तो पैदा न करें या बहुत कम पैदा करें.

पक्षपाती रवीश कुमार

व्यक्ति अपनी ही सोच को आगे बढाता है जो कि अक्सर असंतुलित भी होती है. रवीश कुमार मिसाल हैं. कितने प्रोग्राम किये आज तक रवीश कुमार ने इस्लाम या कहें कि तथा-कथित इस्लामिक लोगों  के खिलाफ? देखा मैंने इक्का-दुक्का प्रोग्राम, जिसमें अपनी ही विचार-धारा को समर्थित करते लोग बुला रखे थे. और  देखा मैंने  इशारों-इशारों में तारेक फ़तेह जैसे लोगों के प्रोग्राम का मज़ाक उड़ाते भी  रवीश को.  दुनिया में एक से एक धमाके होते रहे इस्लामिक या तथा-कथित इस्लामिक लोगों द्वारा. लेकिन फ्रांस में कोई उदारवादी नेता चुना गया तो झट प्रोग्राम कर डाला. इडियट!
Islam is just like a virus, computer or physical anyway, which gets multiplied before you are aware and then alter your whole system and start running at its own will.

एक वार्तालाप मेरी फेसबुक मित्र चेष्टा देवी के साथ

चेष्टा देवी---मुझे तो वो स्त्रियां सबसे फालतू लगती है, जो तलाक दे चुके पति के लिए "हाय दइया, हाय दइया" करते और करेजा में मुक्का मारते हुए मंत्रियों के कोठी तक पहुंच जाती है! Tushar ---- पति के लिए नहीं 'अलिमोनी' के लिए जाती हैं बहुतेरी. चेष्टा देवी----अलिमोनी मतलब Tushar ----- निर्वाह निधि An allowance paid to a person by that person's spouse or former spouse for maintenance, granted by a court upon a legal separation or a divorce or while action is pending. 2. supply of the means of living; maintenance. Get out your tissues: Quotes about true heartbreak चेष्टा देवी ---हां, परजीवी बनाने का भुगतान तो करना ही पड़ेगा! इस साजिश में न्यायव्यवस्था भी शामिल है। Tushar ----- सामाजिक व्यवस्था ज़िम्मेदार है.........चूँकि न्याय-व्यवस्था भी सामाजिक व्यवस्था से आती है. चेष्टा देवी -----ये बात कान घुमाकर पकड़ने जैसा ही है :-) Tushar ------ नहीं है.........जड़ में सामाजिक मान्यताएं हैं, जहाँ से सब सामाजिक सिस्टम आते हैं.......विवाह, तलाक़, लड़का-लड़की की शिक्षा, उनके र...
जब आप साझे में अपना खर्च खुद वहन करते हैं तो इंग्लिश में इसे कहते हैं, "Pay & Play" और हिंदी में कहते हैं, "यारी-दोस्ती पक्की, खर्चा अपना-अपना" लेकिन पंजाबी में इसे कह सकते हैं, "हमारी जुत्ती, हमारे सिर/ ਸਾਡੀ ਜੁੱਤੀ, ਸਾਡੇ ਸਿਰ".

ओशो मेरे प्यारे ओशो: नानक साहेब पर आपकी गलत टिप्पणियाँ

आज ही ओशो का नानक साहेब की काबा यात्रा के बारे में एक ऑडियो सुन रहा था......दो चीज़ अखरीं.....वो कहते हैं कि नानक हिन्दू थे.....और दूसरा कि उन्होंने सिक्ख धर्म चलाया था...दोनों ही बात मुझे नहीं जमती. नानक साहेब ने बचपने में ही जनेऊ को इंकार कर दिया था, जो हिन्दुओं का एक ख़ास कर्म-काण्ड है, फिर हरिद्वार में लोग सूरज को पानी दे रहे थे, वो उल्टी दिशा पानी देने लगे. जगन्नाथ में होने वाली आरती पर भी उन्होंने कटाक्ष किया. कैसे कहेंगे, उनको हिन्दू? और उन्होंने कब चलाया सिक्ख धर्म? वो तो गोबिंद सिंह जी ने जब खालसा सजाया तब कहीं एक नए धर्म का बीज पड़ा. "सब सिक्खों को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." इसी ऑडियो में ओशो कह जाते हैं कि "कबीर"" गाते थे और मरदाना जो कि मुसलमान था, बजाता था. मुझे तो यह भी उचित नहीं लगता कि नानक साहेब के साथ चलने वाला कोई हिन्दू-मुसलमान रह जाए. नाम चाहे कोई भी ही, बाप-दादा चाहे किसी भी धर्म को मानते हों, वो खुद भी पहले चाहे कुछ भी मानता हो, लेकिन उस समय वो नानक साहेब के अंग-संग था. और उनका ख़ास संगी-साथी था. हो ही नहीं सकता कि ऐसा व्यक...
मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ. न मंदिर, न गुरूद्वारे जाता हूँ, न प्रार्थना करता हूँ, न ही किसी और तरह का धार्मिक कर्म. हाँ, वैसे सब जगह चला जाता हूँ चाहे मन्दिर हो, चाहे गुरुद्वारा, चाहे चर्च.

बुद्धिजीवी

एक मित्र ने लिखा कि मैं, तुषार, मात्र बुद्धिजीवी हूँ. मतलब था कि मैं कोई आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हूँ. और वो मुझे बुद्धि का पर्दा हटाने की भी सलाह दे रहे थे. उन्होंने शायद यह कोई मेरी कमी, बुराई, मेरी सीमा बताई. लेकिन यह सत्य है. मैंने कभी बुद्धिजीवी होने के अलावा कोई क्लेम किया भी नहीं है. लेकिन जिन को बुद्दिजीवी होने से परहेज़ हो, उनके लिए मशवरा है. ऐसे मत सोचिये जैसे बुद्धि से जीना कोई गलत हो. कुदरत ने बुद्धि दी है तो उसे प्रयोग करना ही चाहिए. आपको नहीं करना न करें. अगली बार जब सड़क पर चलेंगे तो बिना बुद्धि के चलिए. दायें..बायें...देखना ही मत.....लाल बत्ती, हरी बत्ती की बिलकुल परवा मत करना. और सामने से आते तेज़ गति वाले ट्रक में जा भिड़ना. बिलकुल ऐसा ही करना. बिना बुद्धि से जीना. अगर जी पाओ तो. और बुद्धिजीवी होने का अर्थ ह्रदयहीन होना नहीं है  सर जी.

संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड

"संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड" पहले तो यह समझ लें कि संविधान हो या विधान हो, सब हमारे लिए हैं. वक्त ज़रूरत पर हम इनमें बदलाव करते हैं. तो मेरा सुझाव है कि संविधान में, विधान में तथा-कथित धर्मों को लेकर बहुत बदलाव की दरकार है. **************************************************** पहले संविधान का अनुच्छेद २५ देखें. Article 25. Indian Constitution Freedom of conscience and free profession, practice and propagation of religion (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion (2) Nothing in this article shall affect the operation of any existing law or prevent the State from making any law (a) regulating or restricting any economic, financial, political or other secular activity which may be associated with religious practice; (b) providing for social welfare and reform or the throwing open...

बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे?

भगवान परशुराम ने इक्कीस बार धरती को क्षत्रिय-विहीन किया. वैरी गुड. अबे, ओये, जब एक बार कर दिए थे तो फिर बीस बार और करने की का ज़रूरत थी? और फिर अब जो बचे हैं ई क्षत्रिय या खत्री, वो का हैं बे ? झूट्टे कहीं के! राम भगवान ने रावण मारा था. अबे, जब मार ही दिए थे एक बार, फिर हर साल काहे मारते हैं, हर साल काहे जलाते हैं? अगर सच में रावण मर गया था तो बार-बार-हर-बार का ज़रूरत यह सब नाटक-नौटंकी करने की? बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे? झूट्टे कहीं के! इस पोस्ट का श्रेय ससम्मान ओशो को.

यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है

इलेक्शन आते हैं, अँधा पैसा खर्च होता है. झंडे, डंडे, सूरज, तारे, नारे, सब घुमा दिए जाते हैं. गली...गली..घर घर. जब तक सूरज चंद रहेगा.....@#$%& तेरा नाम रहेगा. "हर हर महादेव" तब्दील हो कर "हर हर मोदी, घर घर मोदी" बन जाते हैं और कोई हिन्दू मठाधीश ने इस पर ऐतराज़ नहीं उठाता! जिसे सारी उम्र आपने नहीं देखा, जिसकी किसी उपलब्धि को आप नहीं जानते, उसका चेहरा आप अपने चेहरे से ज़्यादा बार देख चुके होते हैं इलेक्शन के चंद दिनों में. जनतंत्र धनतंत्र में बदल गया, सबको पता है. चुनाव काबलियत से कम और पैसे से ज़्यादा जीता जाता है, सबको पता है. घूम-फिर कर संसद में राजे, महाराजे, और अमीर पहुँच जाते हैं, सबको पता है. इसे जनतंत्र कहते हैं? यह जनतंत्र के नाम पर एक बहूदी बे-वस्था है, जिसे जनतंत्र होने का गुमान बहुत है. जब भी सुनता हूँ "भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है" तो समझ नहीं आता कि हंसू कि रोऊँ. कॉर्पोरेट मनी का नंगा नाच है यह तथा-कथित जनतंत्र. कुछ भी कहो इसे यार, लेकिन जनतंत्र मत कहना, मुझे मितली सी आती है. "यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है", ऐसा बोर्ड ल...

मैं

मैं नहीं कहता कि मेरा लिखा अंतिम है किसी भी विषय पर. मैं कोई 'मैसेंजर ऑफ़ गॉड' नहीं हूँ, जिसका कहा अंतिम हो. दिल्ली मेट्रो में सफर करने वाला आम बन्दा हूँ जो छुटपन में घर के बाहर गली में भरने वाले नालियों के पानी में मिक्स बारिश के पानी में नहाता था, जो नालियों में गिरे अपने कंचे निकाल लेता था, जो आज भी सोफ़ा पर ही सोता है या ज़मीन पर, जो रेहड़ियों पर बिकने वाला खाना खाता है. बचपने में मेरा एक नाम रखा हुआ था "नली चोचो", चूँकि मेरी नली मतलब नाक हर दम चूती मतलब बहती रहती थी. तो मेरे जीवन में कुछ भी खास जैसा ख़ास है नहीं. तो मैं तो शायद 'डॉग ओफ मैसेंजर' होऊँ. सो मुझे छोड़िये लेकिन मेरी कही बात पकड़िये, वो भी अगर सही लगे तो. विभिन्न विषयों पर विभिन्न राय रखता हूँ मैं, वो सही-गलत कुछ भी हो सकती हैं. मेरी राय से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आप अपनी राय बनाने लगें, राय जो तर्क पर, वैज्ञानिकता पर, फैक्ट पर, प्रयोगों पर आधारित हों. बस, मेरी चिंता इतनी ही है. नमन..तुषार कॉस्मिक

जिगर मुरादाबादी के शब्द और फैशन

जिगर मुरादाबादी के शब्द हैं जो राज कुमार के होठों पर आ कर अमर हो गए. "ज़माना हम से है, हम जमाने से नहीं." जब आप फैशन की दुनिया में कदम रखते हैं तो यहाँ आप बस जमाने के कदम-ताल से कदम मिलाने को ही प्रयास-रत रहते हैं. हम ज़माने से हैं, ज़माना हम से नहीं. जिस्म पर क्या जमेगा, इसकी परवा नहीं करते, 'इन' 'आउट' की परवा करते हैं बस. कहाँ 'इन' है, क्या 'इन' है, किसके 'इन' है, और अगर कुछ 'इन' है भी तो आप भी उसे 'इन' करें, यह मुझे आज तक समझ नहीं आया. अभी कपूरथला में इंगेजमेंट का आयोजन था. किसी से बात कर रह था, "ब्याह शादी पर ये जो अचकन, चूड़ी-दार पायजामे पहनते हो, क्यूँ?" कारण उसे नहीं पता था. मैंने कहा, "शायद सब पहनते हैं, इसलिए तुम भी पहनते हो." उसने कहा, "नहीं, मुझे यह सब पहनना अच्छा लगता है." मैंने कहा कि उसे अच्छा क्या इसलिए नहीं लगता कि सबको अच्छा लगता है. अब वो कुछ गोता खा गया. ईमानदार लड़का था, वरना साफ़ मुकर जाता कि नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मुझ से कोई पूछ रहा था कि वकील गर्मी मे...

बाहुबली और संघी सोच

बाहुबली...संघी सोच को हवा देती है. भारतीय योद्धाओं का महिमा-मंडली-करण. भारतीय योद्धा लड़े थे लेकिन अधिकांश हारे हैं. युद्ध "बाहुबल" से कम और युद्ध-विद्या और अस्त्र-शस्त्रों की आधुनिकता से अधिक जीते जाते हैं, "बुद्धिबल" से अधिक जीते जाते हैं. देर-सबेर हार ही पल्ले पड़नी थी चूँकि हम आविष्कारक नहीं थे. पोरस मुझे लगता है कि अगर जीता नहीं तो हारा भी नहीं था. युद्ध में उसका बेटा, जिसका नाम भी पोरस था, वो मारा गया था, लेकिन इन्होने मिल कर सिकन्दर को आगे बढ़ने से रोक दिया था, तो इसे हार नहीं कह सकते. शिवाजी, गुरु गोबिंद, बन्दा बहादुर, हरी सिंह नलुआ, रणजीत सिंह जैसे योद्धाओं ने सख्त टक्कर दी. जहाँ तक मैंने पढ़ा, पृथ्वीराज के सत्रह बार गौरी को हराने की बात विवादित है. हाँ, एक बार ज़रूर गौरी उससे हारा था. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि एक बार हारा या कितनी बार हारा. एक बार भी हारा तो भी हारा तो था. मेरा पॉइंट यह है कि एक बार भी हारने पर उसे क्यूँ छोड़ा? युद्ध युद्ध होता है, इसमें कोई गहरी फिलोसोफी ढूँढना बकवास है. पृथ्वीराज ने बेवकूफी की जिसे गौरी ने नहीं दोहराया. गौरी ने ...