हमारे बुड्ढे
'पश्चिम विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क' में होता हूँ सुबह-सवेरे. बुज़ुर्ग महानुभावों की सोच को समझने का मौका मिला है मुझे कुछ. कुछ सिरे के ठरकी हैं. "वो मरद नहीं, जिसे ठरक नहीं." जवानी कब की चली गयी लेकिन इन को आज भी औरत में सिवा सेक्स के कुछ नहीं दिखता. कुछ का दिमाग घूम-फिर के मीट-मुर्गा और दारु में घुस जाता है. एक सज्जन को डॉक्टर ने दारू मना की है, सो पीते नहीं लेकिन ज़िक्र दारू का हर रोज़ करेंगे. कुछ तालियाँ पीटते हुए, भजन कीर्तन करते हैं. कुछ प्रॉपर्टी का, व्योपार का रौब गांठते दीखते हैं. शायद आप को यह सब नार्मल दिखे. लेकिन मेरा मत्था भन्नाता है. इन सब ने जीवन देख लिया है. लेकिन इन के जीवन में वैज्ञानिकता कहाँ है, कलात्मकता कहाँ है, रचनात्मकता कहाँ है, तार्किकता कहाँ है, धार्मिकता कहाँ है, ध्यान कहाँ है, जिज्ञासा कहाँ है? ये सब बस घिसे-पिटे जवाब ले के बैठे हैं. चबाया हुआ चबेना. इन में जिज्ञासा कहाँ है? समाज को क्या दे कर जायेंगे ये? अधिकांश तो आज भी हवस पाले बैठे हैं कि किसी तरह जीवन को और भोग लें. सेक्स और कर लें, मुर्गे और फाड़ लें, दारू और सटक लें. इस से इतर ...