Sunday 27 February 2022

हमारे बुड्ढे

'पश्चिम विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क' में होता हूँ सुबह-सवेरे. बुज़ुर्ग महानुभावों की सोच को समझने का मौका मिला है मुझे कुछ. कुछ सिरे के ठरकी हैं. "वो मरद नहीं, जिसे ठरक नहीं." जवानी कब की चली गयी लेकिन इन को आज भी औरत में सिवा सेक्स के कुछ नहीं दिखता. कुछ का दिमाग घूम-फिर के मीट-मुर्गा और दारु में घुस जाता है. एक सज्जन को डॉक्टर ने दारू मना की है, सो पीते नहीं लेकिन ज़िक्र दारू का हर रोज़ करेंगे. कुछ तालियाँ पीटते हुए, भजन कीर्तन करते हैं. कुछ प्रॉपर्टी का, व्योपार का रौब गांठते दीखते हैं. शायद आप को यह सब नार्मल दिखे. लेकिन मेरा मत्था भन्नाता है. इन सब ने जीवन देख लिया है. लेकिन इन के जीवन में वैज्ञानिकता कहाँ है, कलात्मकता कहाँ है, रचनात्मकता कहाँ है, तार्किकता कहाँ है, धार्मिकता कहाँ है, ध्यान कहाँ है, जिज्ञासा कहाँ है? ये सब बस घिसे-पिटे जवाब ले के बैठे हैं. चबाया हुआ चबेना. इन में जिज्ञासा कहाँ है? समाज को क्या दे कर जायेंगे ये? अधिकांश तो आज भी हवस पाले बैठे हैं कि किसी तरह जीवन को और भोग लें. सेक्स और कर लें, मुर्गे और फाड़ लें, दारू और सटक लें. इस से इतर तो इन की सोच ही नहीं है. धरती माता का लहू चूस रहे हैं एक लंबे समय से और अभी और लहू चूसने की तमन्ना पाले बैठे हैं. बुड्ढों को हमारे समाज ने "सयाने" कहा है लेकिन फिर "सठियाये" हुए लोग भी कहा है. पंजाबी में कहते हैं ,"सत्तरिया-बहतरिया". मतलब सत्तर-बहत्तर साल का बुड्ढा पगगल हो जाता है. अंग्रेज़ी में कहते हैं,"Dirty Old man". मतलब "गन्दा बुड्ढा". बुड्ढों से गंदगी झलकती है. इन की सोच में गंदगी झलकती है. इन के कृत्य गन्दे हैं. लेकिन बुड्ढा सयाना भी हो सकता है और पग्गल भी. मेरे अनुभव में पग्गल ज़्यादा हैं. मुझे कोई बुड्ढा शायद ही कभी सयाना दिखा हो. लगभग हरेक बच्चा जीनियस पैदा होता है और लगभग हरेक बुड्ढा पग्गल हो कर मरता है. हमारे समाज का बड़ा हिस्सा हैं ये लोग. इन के पास इतना कुछ है करने के लिए लेकिन ये पत्ते पीट रहे हैं, ठरक पेल रहे हैं, गप्पे हांक रहे हैं, घमंड झाड़ रहे हैं. ये साहित्य पढ़ सकते हैं, रच सकते हैं, वैज्ञानिक प्रयोग कर सकते हैं, नृत्य सीख सकते हैं, गा सकते हैं, पेंटिंग कर सकते हैं. और भी बहुत कुछ. चूँकि समय के टोकरे भरे हैं इन के पास. उसे रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं. समाज को सही दिशा दे सकते हैं. लेकिन समाज को सही दिशा तो तभी देंगे न, जब ये खुद सही दिशा में होंगे. तो पहले खुद सही दिशा पकडें. 'सठियाये' हुए न हो कर 'सयाने' बनें, फिर समाज को सही दिशा दें.नहीं? सोच के देखिएगा. नमन...तुषार कॉस्मिक

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