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Showing posts from June, 2017

क़ानूनी दांव पेंच-3

कानून का मसला ऐसा है कि हम भारतीय जो अनपढ़ हैं, वो तो अनपढ़ हैं हीं, जो पढ़े-लिखे हैं, वो भी अनपढ़ हैं. सो वकील पर विश्वास, अंध-विश्वास किया जाता है. और इसी का नाजायज़ फायदा उठाते हैं वकील. यह सिर्फ किताबी आदर्श है कि वकील केस जीतने में ही दिलचस्पी लेगा, इसलिए ताकि उसे प्रतिष्ठा मिले और वो और ज़्यादा काम पा सके. असलियत ऐसी बिलकुल नहीं है. लोग केस देते हैं, वकील का ऑफिस देख कर. लम्बी कतारों में रखी किताबें देख कर. और नौसीखिए असिस्टेंट वकीलों की भीड़ देख कर, जो मुफ्त या लगभग मुफ्त मिलते हैं. और घिसे वकील इस बात को भली-भांति समझते हैं. क्या लगता है आपको कि आपके वकील को आपको केस जितवाने में रूचि है? आप केस जीत गए, तो बड़ा फायदा आपका होगा, उसके लिए तो किस्सा खतम. एक वकील का लड़का विदेश से वकालत पढ़ के भारत लौटा था. बाप कहीं बाहर गया था. पीछे से बेटे ने केस हैंडल किये. बाप जैसे ही आया, बेटा ख़ुशी से चहकता हुआ बोला, "पिता जी जिन माता जी का केस आप पिछले दस बरस से हल नहीं कर पाए, वो मैंने मात्र दो डेट में खत्म करवा दिया." पिता ने मत्था पीट लिया. बोला, “जो तूने किया, वो मैं भी कर सक...

हमारी लखनऊ यात्रा

एक ऑफर था विवादित सम्पत्ति का, सो जाना हो गया. जाना अकेले ही था. टिकेट भी अकेले की बुक कर चुका था, लेकिन फिर लगा कि छुट्टियाँ हैं ही बच्चों की, तो साथ ले चलता हूँ. श्रीमति जी विरोध कर रही थीं कि गर्मी है, मात्र दो दिन का स्टे है वहां, इतने के लिए बच्चों को क्या ले जाना. मैंने जिद्द की. कहा कि चलो एक से भले दो. जिस डील के लिए जाना है, वहां उनकी भी राय शामिल हो जाती, फिर सपरिवार गए बंदे को निश्चित ही ज़्यादा क्रेडिबिलिटी मिलती है. खैर, अब उनकी टिकेट भी बुक कर दीं. जाने से मात्र तीन दिन पहले सब तय हुआ तो कोई ढंग की बुकिंग नहीं मिली. सब तरफ लम्बी वेटिंग लिस्ट थी. बुकिंग मिली गोमती एक्सप्रेस की. कैब लेकर नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचे. श्रीमति जी को कहा था कि कम से कम एक घंटा पहले पहुँच जाएं, इस हिसाब से घर से निकला जाए. वहां वेट कर लेंगे, लेकिन ट्रेन मिस नहीं होनी चाहिए. बावज़ूद इसके, मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे और हम पहाड़-गंज तक ही पहुँच पाए थे. मैं लड़ने लगा. श्रीमति घबरा गईं, लेकिन जैसे-तैसे हम नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँच ही गए टाइम से पहले. फटाफट उतरे कैब से. सामान खुद उठाया सबने और भागे...

किताब -- वरदान या अभिशाप

किताबें ज्ञान का दीपक हैं.....ह्म्म्म.... इतिहास उठा कर देखो,,,,,किताबों के ज़रिये  ही सबसे ज़्यादा बड़ा गर्क किया गया है दुनिया का........किताबें, जो बहुत ही पवित्र मानीं गयीं. आसमानी, नूरानी. इलाही. इन किताबों के  पीछे कत्ल करता रहा इंसान, तबाही बरसाता रहा इंसान. उसके पास पवित्र मंसूबे रहे हर दम....कोई सवाल भी उठाये तो कैसे? उसने दुनिया का हर जुल्म इन किताबों की पीछे रह कर किया.......किताब का क्या कसूर? अब तुम चाकू से किसी का पेट चाक कर दो या फिर नारियल काट, पेट भर दो..........तुम्हारी मर्ज़ी. किताब की ईजाद इंसान को चार कदम आगे ले गई तो शायद आठ कदम  कहीं पीछे ले गई......डार्विन ने कहा ज़रूर कि इंसान बन्दर का सुधरा रूप है लेकिन जैसे ही किताब आई,  इंसान बंदरों के मुकाबले  सदियों पीछे गिर गया, गिरता गया. हर ईजाद खतरनाक हो सकती है और फायदेमंद भी.......कहते हैं बन्दर के हाथ में उस्तरा दो तो ख़ुद को ही लहुलुहान कर लेगा.....उस्तरे से ज़्यादा नुक्सान पूँछ झड़े बन्दर के हाथ में किताब के आने से हुआ है. इंसान चंद किताबों का, ख़ास मानी गई किताबों का गुलाम हो गया और अप...
मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ, और इस्लाम को पोटैशियम साइनाइड. लेकिन अगर मेरे सामने किसी बेगुनाह को मारा जा रहा हो तो वो मुसलमान ही क्यों न हो, अगर बचा सकता होवूँगा तो जी-जान से कोशिश करूंगा बचाने की. और यह लिखते हुए खुद को कोई महान साबित नहीं करना चाह रहा. वो तो मैं पहले ही लिख चुका कई बार कि अपुन हैं घटिया ही. जैसा अपना समाज है, वैसे ही अपुन हैं. और अगर यह कोई थोड़ी सी अच्छाई है भी तो वो भी इसलिए कि अपने समाज में कुछ अच्छाई भी है. बस. मेरा मुझ में किछ नाहीं, जो किछ है, सभ तेरा.

अप्प दीपो भव

मैंने लिखा कि मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ तो एक मित्र का सवाल था कि क्या बौद्ध धर्म को भी? मैंने कहा, "हाँ". एक ने पूछा, "क्या सिक्ख धर्म को भी?" मैंने कहा, "हाँ". वजह पहली तो यह है कि व्यक्ति को अपनी ही रोशनी से जीना चाहिए. कहा भी है बुद्ध ने, "अप्प दीपो भव." लेकिन बौद्ध फिर भी  बुद्ध को पकड़ लेता है. जब अपना दीपक खुद ही बनना है तो फिर बुद्ध को भी छोड़ दीजिये, फिर बौद्ध भी मत बनिये. और भिक्षु बनना और बनाना कोई जीवन का ढंग नहीं है. फिर स्त्रियों को दीक्षा न देना भी समझ से परे है. फिर अहिंसा भी कोई जीवन दर्शन नहीं है. हिंसा अवश्यम्भावी है. उससे बच ही नहीं सकते. जहाँ हिंसा की ज़रूरत हो, वहां हिंसक होना ही चाहिए. अहिंसा आत्म-घाती है. क्यूँ बनना मुसलमान? हो गए मोहम्मद. अगर कुछ सीखने का है तो सीख लीजिये.  काहे कृष्ण-कृष्ण भजे जा रहे हैं, वो हो चुके, आ चुके, जा चुके. अब कुदरत ने, कायनात ने आपको घड़ा है. अब आपका अवसर है.  अब राम-राम कहना बंद कीजिये. राम ने जो धनुष तोड़ना था तोड़ चुके, जो तीर छोड़ने थे छोड़ चुके. जिसे...

मेरी तरफ से कुछ जीवन सूत्र

१. उम्र और अनुभव माने रखता है, लेकिन हमेशा नहीं. एक कम उम्र शख्श भी सही हो सकता है. और एक कम अनुभवी व्यक्ति भी गहन सोच सकता है, कह सकता है. एक बेवकूफ को बेवकूफात्मक अनुभव ही तो होंगे, वो चाहे कितने ही ज़्यादा हों. २. व्यक्ति को न तो बहुत संतोष होना चाहिए और न ही बहुत असंतोष. बहुत संतोषी व्यक्ति कभी आगे नहीं बढ़ पाता जीवन में और बहुत असंतोषी व्यक्ति खुद को पागल कर लेता है, बीमार कर लेता है. एक संतुलन चाहिए संतोष और असंतोष में. यही जीवन का ढंग है. सन्तोषी माता फिल्म मात्र बेवकूफ बनाये रखने के लिए बनाई गई थी. ३. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. और जब नज़र बंध गई तो फिर वो नज़रिया आज़ाद कैसे हुआ? खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमती दिखानी हो वहां सहमति ...

सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं? "सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं. जब पहले से ही किसी ग्रन्थ को गुरु मानना है तो काहे की स्वतन्त्रता? काहे की सोचने की आज़ादी? स्वतंत्र होने अर्थ है अब किसी और तन्त्र से नहीं अपने ही तन्त्र से बंधेंगे. लेकिन यहाँ तो बंधना है किसी ग्रन्थ से तो फिर कैसी स्वतन्त्रता? अब हुक्म हुक्म में फर्क होता है. मैं विद्रोही हूँ लेकिन क्या ट्रैफिक के नियम भी तोड़ने को कहता हूँ. नहीं? नियम नियम में फर्क है. ट्रैफिक के नियम कोई इलाही बाणी नहीं माने जाते. वो कभी भी बदले जा सकते हैं. असल में मैं तो कहता हूँ कि पैदल चलने वालों को हमेशा दायें चलना चा...
जब तक आप नाकामयाबियों के छित्तर पे छित्तर खाने को तैयार न हों, कामयाब होना मुश्किल समझिये.

क्रिकेट में हार शुभ है

एक होता है गर्व. गर्व होता है अपनी उपलब्धियों की ठीक-ठीक मह्त्ता समझना, यह जायज़ बात है.    और एक होता है घमंड.  मतलब हो झन्ड फिर भी रखे हो  घमण्ड. हो गोबर फिर भी रखे हो गौरव. यह नाजायज़ बात है. यह फर्क क्यूँ स्पष्ट किया, आगे देखिये.  भारत कहीं खड़ा नहीं होता वर्ल्ड  लेवल पर खेलों में. इक्का-दुक्का उपलब्धियां. इत्ता विस्तार लिया हुआ मुल्क. इत्ती बड़ी जनसंख्या. लेकिन उपलब्धि लगभग शून्य . ओलंपिक्स की मैडल तालिका देखो तो शर्म आ जाए. और वो शर्म आती भी है. भारतीयों को पता है कि वो फिस्सडी हैं. झन्ड हैं. गोबर हैं.लानती हैं. कैसे सामना करें खुद का? कैसे नज़र मिलाएं खुद से? खुद से नैना मिलाऊँ कैसे? हर खेल में पिट-पिटा के घर जाऊं कैसे? तो चलो क्रिकेट पकड़ते हैं. इसके रिकॉर्ड बनाते हैं. वर्ल्ड रिकॉर्ड. इसके चैंपियन बनते हैं. वर्ल्ड चैंपियन.  वर्ल्ड ने आज तक क्रिकेट खेला नहीं सीरियसली.  चंद मुल्क खेले जा रहे हैं बस. ओलंपिक्स में आज तक शामिल नहीं क्रिकेट.लेकिन हम वर्ल्ड चैंपियन. हमारे खिलाड़ी वर्ल्ड प्लेयर.  यही हाल कबड्डी का है. कबड्डी का ...
तोप से गुलेल का काम न लेना चाहिए. हम तोप हैं, दुनिया की होप हैं ए ज़िंदगी. बाकी मर्ज़ी.
जिस दिन 'छोले भठूरे' और 'पकौड़े समोसे' बेचने को आप Entrepreneurship समझने लगेंगे, समझ लीजियेगा कि बिज़नस समझ आने लगा.
वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'. मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?" "नहीं." "मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है." उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा. ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मि...

CANNIBALISM

इसका अर्थ है इन्सान का इंसानी मांस खाना. मानवाहार. क्या लगता है आपको कि इंसान सभ्य हो गया, वो कैसे ऐसा काम कर सकता है? कैसे कोई प्यारे-प्यारे बच्चों का मांस खा सकता है? कैसे कोई बेटी जैसी लड़की का मांस खा सकता है? कैसे कोई बाप जैसे वृद्ध का मांस खा सकता है? लेग-पीस. बोटी. पुट्ठा. कैसे? कैसे? गलत हैं आप. कहीं पढ़ा था कि ईदी अमीन नाम का शख्स, किसी अमेरिकी मुल्क का अगुआ, जब पकड़ा गया तो उसके फ्रिज में इंसानी मांस के टुकड़े मिले. अभी कुछ साल पहले नॉएडा में पंधेर नामक आदमी और उसका नौकर मिल कर बच्चों को मार कर खाते पाए गए थे. और आप और हम क्या करते हैं? हम इक दूजे का मांस खाते हैं, बस तरीका थोड़ा सूक्ष्म हो गया है, ऊपरी तौर पर दीखता नहीं है. जब आप किसी गरीब का पचास हजार रूपया मार लेते हैं, जो उसने तीन साल में इकट्ठा किया था तो आपने उसके तीन साल खा लिए. आपने उसके जिस्म-जान का लगभग दस प्रतिशत खा लिया. आप उसके बच्चों का, प्यारे बच्चों के तन का, मन का कुछ हिस्सा खा गए. उसके बूढ़े बाप को खा गए, उसकी बेटी को खा गए. बाबा नानक एक बार सैदपुर पहुंचे.शहर का मुखिया मालिक भागो ज़ुल्म और बेईमानी स...
डॉक्टर भगवान का रूप माना जाता है, मैं तो कहता हूँ वकील भी भगवान है और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी. आपकी जमानत न हो रही हो, तब देखो आपको वकील भगवान लगेगा कि नहीं? आपको इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की प्रेम पाती मिली हो तो आप कहाँ मत्था टेकेंगे? सीधे सी ए के पास. मुसीबत में यही आपको-हमको बचाते हैं. बस मामला वहां गड़बड़ा जाता है, जब भगवान खुद पैसों के पुजारी बनने लगते हैं. अगर पैसों का संतुलन भी बना रहे तो ये वाले पेशे वाकई नोबल हैं, जैसे कि कहे भी जाते हैं. लेकिन संतुलन बना रहे तभी.
"बहुत मारा साब आपने, अपुन बस एक मारा, लेकिन सच्ची बोलो, सॉलिड मारा कि नहीं?" अमिताभ विनोद खन्ना से पिटने के बाद. "बहुत लिखते हैं फेसबुक पे धुरंधर, मठाधीश. अपुन तो बस चिंदी-पिंदी, गैर-मालूम आदमी. लेकिन जित्ता लिखते हैं, करारा लिखते हैं कि नहीं बॉस?" तुषार कॉस्मिक

अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो

उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो. और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह? कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही. तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं.......
ये जो किसान के लिए टसुये बहा रहे हैं कि उसकी फसल की कीमत कम मिलती है, ज़रा तैयार हो जाएँ गोभी सौ रुपये किलो खरीदने को. जब किसान एकड़ों के हिसाब से ज़मीन का मालिक था तब तो गाने गाता था, "पुत्त जट्टां दे बुलाओंदे बकरे......" ज़्यादा पीछे नहीं, मात्र पचीस-तीस साल पुरानी बात है. बच्चों-पे-बच्चे पैदा किये गया, ज़मीन बंटती गई, दिहाड़ी मजदूर रह गया तो अब सड़क पर आ गया है. और करो बच्चे पैदा और फिर कहो कि सरकार की गलती है. सरकार पेट भरे. सरकार काम-धेनु गाय है न. भैये, सरकार के पास पैसा आसमान से नहीं गिरता, टैक्स देने वालों से आता है. सिर्फ सरकार पर ही दोषारोपण मत करो.
किसी के नाम के आगे "जी" न लगाना अपमान नहीं है, सम्मान नहीं देना है. और दोनों एक ही बात नहीं है. अगर मैं किसी को सम्मान नहीं दे रहा तो इसका अर्थ बस इतना ही है कि मैं उसे सम्मान नहीं दे रहा, इसका मतलब अपमान करना नहीं है. अपमान इससे अगला कदम है. है कि नहीं? यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि किसी बन्धु ने बड़ा इशू बना लिया कि मैंनेे उस के नाम के आगे "जी" नहीं लगाया.

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते. मैं चीज़ ही ऐसी हूँ. अगर मैंने राम के खिलाफ लिखा तो आरक्षण-भोगी खुश हुआ, मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैंने आरक्षण के खिलाफ लिखा और इस्लाम के खिलाफ लिखा, तो इनने सोचा यह क्या बीमारी है. जब मैंने सब तथा-कथित धर्मों के खिलाफ लिखा तो नास्तिक खुश हुआ लेकिन जब मैंने कहा कि मैं नास्तिक नहीं हूँ तो उनने सोचा कि यह क्या गड़बड़झाला है. जब मैंने आरएसएस के खिलाफ लिखा, मोदी के खिलाफ लिखा तो मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैं कुरान की विध्वंसक आयतें ला सामने रखी तो त्राहि-त्राहि मच गई. जब मैंने भिंडरावाले के खिलाफ लिखा तो उन्हें लगा कि मैं संघी हूँ, फिर साबित करना पड़ा कि मैं तो लम्बा आर्टिकल लिख चुका, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा". केजरीवाल के खिलाफ लिखा तो संघी खुश हुआ, लेकिन उससे ज़्यादा तो संघ के खिलाफ लिख चुका. बहुत कम चांस हैं कि आप मेरे लेख पसंद कर सकें. लेकिन फिर भी पढ़ें मेरा लिखा. इसलिए नहीं कि आपको पसंद आएगा. इसलिए कि आपको जीवन के अलग-अलग पहलूओं पर मेरा नज़रिया नज़र आएगा. और उससे हो सकता है आपकी नज़र तेज़ हो जाए या फिर नज़रिये पर लगा चश्मा उतर जाए. और मेरे ...
मैं तो आज ही कह रहा था वी.....तीस हजारी कोर्ट अपने वकील मित्रों के चैम्बर में बैठा था तो, "मेरा बस चला कभी तो बठिंडा वापिस जा बसूँगा..... बच्चे जाएँ, जहाँ जाना हो, जापान, कनाडा....मैं तो दिल्ली से ही आजिज़ आ चुका, आगे कहाँ जाऊँगा? वापिस जाऊँगा बठिंडा...और हो सका तो वहां भी शहर नहीं, किसी साथ लगती बस्ती में." मुझे पता है दुनिया आगे बढ़ती है....पीछे लौट ही नहीं सकती...और मैं भी नहीं लौट पाऊँगा. जानता हूँ कि कभी हो नहीं पायेगा...... लेकिन क्या करूं? मुझे तो नहीं भाता महानगर. कुछ यही बात मेरी भाषा पर भी लागू होती....मेरी अधिवक्ता कहती हैं कि मेरी हिंदी भाषा बहुत अच्छी है, अंग्रेज़ी भी ठीक ही है....लेकिन मुझ पर तो पंजाबी हावी है आज तक...वो भी मालवा वाली.....पेंडू टाइप.....गंवारू ....मुझे Iqbal Singh Shahi ने फोन किया था कुछ दिन पहले और दोनों ठेठ पंजाबी बोल रहे थे.........वारिस शाह न आदता जान्दियाँ ने, भावें कटटीए पोरियाँ पोरियाँ जी.....वादडीयां सज्जादडीयां निभन सिरा दे नाल. अपुन ठहरे बैकवर्ड लोग. थोड़ा झेल लीजिये बस.
सीखना हो तो आप कैसे भी सीख सकते हैं. कैलकुलेटर में एक होता है "री-चेक बटन". कमाल की चीज़ है. यह आपको हर शाम अपने दिमाग में प्रयोग करना चाहिए, गलतियाँ सही करने में मदद मिलेगी. फेसबुक का "ब्लाक बटन" बहुत काम की चीज़ है. इसे ज़िन्दगी में भी प्रयोग करें. जिससे नहीं ताल-मेल बैठता दफा करें. सबकी सबके साथ थोड़ा न ट्यूनिंग बैठती है.
"सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है । लेकिन मंडी में इससे कम में बिचोलिये खरीदते है। इसपर शक्ति से रोक लगनी चाइए। गरीबो के नाम पर भाव नहीं बढ़ाते ।गरीबो को पालने का बोझ किसान पर नहीं डाल कर सरकार को उठाना चाइये" Gopal Chawda ji. "आपकी बात सही है कि गरीबों को पालने के लिए यह सब दिक्कत है......असल बात ही यह है कि जनसंख्या वृद्धि अनियंत्रित है.....गरीब बच्चा पैदा करता जाता है...उसका पैदईशी हक है पैदा करना.....लेकिन उसके लिए पूरे समाज को भुगतना पड़ता है...सो कहीं न कहीं, किसी न किसी को उसके और उसके परिवार का भरण-पोषण का खर्च वहन करना पड़ता है. अगर यह बोझ किसान के सर से हटा भी लेंगे तो कहीं और पड़ेगा...तो हल यह नही है कि बोझ सरकार उठाये...वो टैक्स भरने वालों पर ही पड़ेगा...लेकिन पड़े ही क्यूँ? यह है असल मुद्दा. तो जन्म वृद्धि पर नए नियम, नए नियंत्रण करे बिना समस्या हल नहीं होगी." तुषार कॉस्मिक
मैंने केजरीवाल की नियत पर कभी शक नहीं किया है लेकिन उनकी अक्ल पर मुझे हमेशा शंका रही है. बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था "मूर्ख केजरीवाल". एक मिसाल देता हूँ अपनी मान्यता के पक्ष में. जरनैल सिंह राजौरी गार्डन दिल्ली सीट के सिटींग MLA थे. उन्हें उखाड़ कर पंजाब में चुनाव लड़वा दिया. नतीजा जानते हैं क्या हुआ? दोनों सीट गवा दीं. यह केजरीवाल की महान मूर्खता का जिंदा नमूना है. पंजाब के चुनाव में पंजाब का व्यक्ति न लड़वा कर दिल्ली का व्यक्ति लड़वाना यह कहाँ की समझदारी थी? पंजाब के लोग टिकट लेने को मरे जा रहे थे, लेकिन टिकट दी दिल्ली के आदमी को. वाह भाई वाह! और दिल्ली की जीती सीट को छोड़ना, यह कहाँ की समझदारी थी? क्या सोचा कि सरदार खुस होगा? साबासी देगा? सरदार ने धो दिया. बम्पर वोट से भाजपा के मनजिंदर सिंह सिरसा जीते. कल्लो बात. बड़े आये. केजरीवाल के रूप में एक उम्मीद तो भारत में जगी थी, लेकिन उनकी अक्ल की कमी ने वो धुल-धूसरित कर रखी है. हां, हम और आप होते तो बात कुछ और होती. नहीं?

औकात

भिखारी अपनी औकात के हिसाब से भीख नहीं मांगता, सामने वाले की औकात के अनुसार मांगता है. जैसे साइकिल वाला होगा तो उससे दस-बीस रूपया नहीं, एक दो रूपया ही मांगेगा. और ऑडी या मरसडीज़ कार वाला होगा तो पचास-सौ रूपया मांगेगा. तो साहेबान-कद्रदान, यह मसल सिर्फ भीख मांगने में ही फिट नहीं होती, हर व्यापार में फिट होती है. डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील से लेकर इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, नाई, हलवाई तक आपको अपनी हैसियत, अपनी लियाकत के अनुसार चार्ज नहीं करते, आपकी हैसियत के हिसाब से 'काटते' हैं. यह 'काटना' शब्द बिलकुल सही है. इंसान इंसान को 'काटता' है. शारीरिक रूप से न सही, आर्थिक रूप से सही. और अर्थ शरीर का ही हिस्सा है, जैसे किसी ने ऑटो चला के दस लाख रुपये जोड़े दस साल में तो यह उसके शरीर, उसकी उम्र के दस साल को काटना हुआ कि नहीं अगर उसके साथ धोखा हो गया दस लाख का तो? अब अक्सर सही लगता है कि जो पिछली पीढी के लोग रूपया जेब में होते हुए भी चवन्नी ही दिखाते थे.

बिजी-बिजी

सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन से आप बात कर रहे हैं, उसका कनेक्शन जोड़ दूं?” आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है. बहुत दिखाते हैं कुछ लोग अपनी व्यस्तता. दोगुनी, तिगुनी करके. जैसे व्यस्त अगर हैं तो कोई अहसान है हम पर. जैसे कद्दू में तीर मार लिया हो व्यस्त ह...

एक संवैधानिक सलाह

जनसंख्या वृद्धि पर संविधान में एक अनुच्छेद जुड़ना चाहिए. कोई भी धर्म-विशेष के लोग एक सीमा के बाद जनसंख्या वृद्धि नहीं कर पाएं. इस पर सख्त रोक लगनी चाहिए. बल्कि अगर मुल्क जनसंख्या घटाने का निर्णय लेता है तो हर धर्म के लोग उसमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में अनिवार्य-रूपेण कमी लाएं. हर जन्म, हर मृत्यु कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड पर हो. यह इसलिए ज़रूरी है कि युद्ध सिर्फ तीर-तलवार से ही नहीं, इंसानी पैदावार से भी जीते जाते हैं. अगर किसी मुल्क पर हमला करना हो तो वहां घुस जाओ और फिर बच्चे ही बच्चे पैदा कर दो. जब आपकी जनसंख्या बढ़ेगी तो, वोटिंग पॉवर बढ़ेगी और इसके साथ ही आप वहां की सरकार में पैठ बनाते हुए धीरे-धीरे पूरी तरह से हावी हो जायेंगे. यूरोप में इस्लाम का दखल इसी तरह से हुआ है और नतीजा भुगत रहा है. अमेरिका इससे आगाह हो चुका है. भारत को अधिकारिक रूप से आगाह अभी होना है.

क्या हम सभ्य हैं?

आपने ग्लैडिएटर फिल्म देखी होगी. गुलामों को एक बड़े मैदान में छोड़ दिया जाता था, एक दूजे के ऊपर मरने-मारने को. भद्र-जन देखते थे इनका लड़ना-मरना और ताली बजाते थे, खुश होते थे इनको लहू-लुहान होते हुए, मरते हुए. कितनी असभ्य थी रोमन सभ्यता! नहीं? क्या लगता है आपको कि आज बड़े सभ्य हो गए हैं हम? नहीं हुए. बस अपनी असभ्यता थोड़ी और गहरे में छुपा ली हमने. बॉक्सिंग क्या है? एक-दूजे को मुक्कों से मारते हुए लोग. कई मौतें हो चुकी हैं रिंग में. इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है. सभ्यता शब्द सभा से आता है. मतलब इन्सान स...
जब तक सर पे छत, पेट में दाना और तन पर कपड़ा है.......हम अमीर हैं....."अजीबो-अमीर". नहीं सुना होगा शब्द. "अजीबो-गरीब" सुना होगा. मल्लब अज़ीब हो गए तो गरीब, लेकिन हम उलटे हैं, अज़ीब भी हैं और अमीर भी.

किसान की समस्याएं और हल

भारत कृषि प्रधान मुल्क है. ज़रा शहर से बाहर निकलो, खेत ही खेत.फिर किसान बेहाल क्यूँ हैं और समाधान क्या है? मैं कोई कृषि विशेषज्ञ नहीं हूँ, फिर भी कुछ सुझाव हैं, शायद काम के हों:-- 1. ज़मींदार तो राजा था. लेकिन मजदूर बेहाल था. तो ज़मीदारी प्रथा खत्म करने के लिए ज़मींदारी अबोलिश्मेंट एक्ट लाया गया. इससे खेतीहर को लगभग मालिकाना हक़ मिल गए ज़मीन के. अच्छा कदम था. लेकिन फिर किसान ने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि वो ज़मीन किसी का पेट भरने को नाकामयाब हो गयी. तो एक तो हल यह है कि अब आगे किसान बच्चे कम पैदा करे. लेकिन क्या सिर्फ किसान ही ऐसा करे? तो जवाब है नहीं.सबको ही जनसंख्या घटानी चाहिए. चूँकि गरीब जनता को फिर से कम कीमत पर अनाज देना सरकार की मज़बूरी बन जाती है और जिसमें किसान पिसता है. 2. किसानों को आधुनिकतम ट्रेनिंग दी जाये. और फसल वो उगायें जिसको निर्यात भी किया जा सके. मिसाल के लिए आयुर्वेदिक दवा उगा सकते हैं. 3. घरेलू खपत में किसान को उसकी फसल का ज़्यादा से ज़्यादा फायदा मिल सके इसके लिए हो सके तो आढ़ती सिस्टम खत्म किया जाए. बिचौलिए ही सब खा जायेंगे तो किसान को क्या मिलेगा? हो सके तो ...

ट्रैफिक मैनेजमेंट

जहाँ-जहाँ सम्भव हो, सरकारी तन्त्र के हाथों से शक्ति छीन लेनी चाहिए.....मिसाल के लिए ट्रैफिक चालान बड़ी आसानी से वीडियो रिकॉर्डिंग करवा कर, प्राइवेट मैनेजमेंट से करवाए जा सकते हैं, पुलिस का कोई रोल ही नहीं होना चाहिए इसमें.....चालान के साथ वीडियो CD भी भेजी जानी चाहिए...अगले को केस फाइट करना हो कर ले अन्यथा जुर्माना भरे.....रोजाना लाखों चालान किये जाने चाहियें....अक्ल ठिकाने आ जायेगी लोगों की...और जो पैसा इक्कठा हो उससे ट्रैफिक ट्रेनिंग की CD बनवा कर जिसका चालान हो उसे फ्री दी जाए, ताकि इनको थोड़ी अक्ल आये. ...अक्ल आ जायेगी कि सड़क का प्रयोग कैसे करना है...अक्ल आ जायेगी कि सड़क-सड़क है उनका ड्राइंग रूम नहीं....सडकों पर होने वाले झगड़े-कत्ल घट जायेंगे....एक्सीडेंट घट जायेंगे...सड़क पर मरने वालों की संख्या घट जायेगी....और पुलिस के हाथों एक शक्ति निकल जायेगी....अभी वैसे भी वो ट्रैफिक इसलिए बाधित करती है कि उसे दिहाड़ी बनानी होती है और अगर सच में ही चालान करते भी हैं तो लोग उनसे जिद्द बहस कर रहे होते हैं, कानून झाड़ रहे होते हैं, उनसे अपनी जान-पहचान, रिश्तेदारी निकाल रहे होते हैं, या अपनी पहुँच का ...
संघ और मुसंघ.....यह टर्मिनोलॉजी सही नहीं है. इससे लगता है कि संघ क्रिया है और मुसंघ प्रतिक्रिया. लेकिन है उल्टा. इस्लाम क्रिया है और संघ प्रतिक्रिया. सो बेहतर है कहें "इस्लाम" और "संघीस्लाम" और दोनों को विदा होना चाहिए....दोनों एक दूजे के परिपूरक हैं.....नूरा कुश्ती करते रहेंगे......मोदी और ओवेसी लड़ते दिखेंगे.....लेकिन गंगाधर ही शक्तिमान है......क्लार्क ही सुपरमैन है.

दाग अच्छे हैं, टैग सच्चे हैं.

कभी सुना है कि टैग करने को भी कोई पसंद कर रहा हो? नहीं सुना होगा. मुझ से सुनें. असल में टैगिंग बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन भूतिया लोग अच्छी-से-अच्छी चीज़ को बकवास कर देते हैं. टैगिंग करेंगे, जैसे दुनिया इनके घूमने-फिरने-खाने-पीने-नहाने-धोने-हगने-मूतने को देखने को ही बैठी हो. मैं भी टैग करता हूँ. लेकिन सॉफ्ट टैग. यह मुझे Hans Deep Singh जी ने सिखाया था. इसमें बस एक नोटिफिकेशन जाता है अगले को, कि मैंने याद किया है. कोई ज़बरदस्ती नहीं, अपनी किसी पोस्ट को अगले की टाइम लाइन पर भेजने की. बस एक आमन्त्रण है, अपनी पोस्ट देखने का. यकीन करिये कोई एतराज़ नहीं करता. बल्कि मित्र-गण पसंद ही करते हैं. और करे कोई एतराज़, तो मित्र सूची से बाहर, चूँकि अपना तो क्राइटेरिया ही यही है कि आप और "हम साथ-साथ हैं" तो मात्र इसलिए कि एक-दूजे की पोस्ट देखना-पढ़ना चाहते हैं और अगर नहीं है ऐसा, तो फिर "हम आपके हैं कौन"?