Friday, 3 July 2015

!!!गणपति बप्पा मोरिया ----अब तो बस कर, फिर मत आ!!!

कुछ चीज़ें समझने जैसी हैं, जब तक इस तरह की नासमझियों से आगे नहीं बढेगा देश, तरक्की नहीं होगी. 

राजनीति, शिक्षा, मैनेजमेंट, व्यापार सब कहाँ से आता है? सब आता है समाज से, समाज की सोच से...

आप त्रस्त हैं कि बलात्कार क्यों होतें है, भ्रष्ट आचार क्यों होते हैं, रुपया क्यों गिर रहा है, महंगाई क्यों बढ़ रही है, हिन्दू मुस्लिम दंगा क्यों है........?

सब के लिए आप खुद ज़िम्मेदार हैं..बिलकुल आप खुद, कोई भी और नहीं....आपकी सोच, वो सब तरह की जंग के लिए ज़िम्मेदार है, आपकी सोच जंग खाई हुई है, आपकी सोच असल में कोई सोच है ही नहीं, वो कुछ अंध-विश्वासों का पुलिंदा भर है.

कोई अगर झकझोरे तो आपकी सामाजिक, धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं.

अगर दम हो तो सामना क्यों नहीं करते चैलेंज करने वालों का? दम हो तो मरने मारने पर क्यों उतारू हो जाते हैं?

दम हो तो शब्द से लडें न कि शस्त्र से.

दम है ही नहीं, चिपके रहना है अंधविश्वास के पुतलों से, चिपके रहना है अपनी बेड़ियों से, चिपके रहना है अपनी हथकड़ियों से, चिपके रहना है बचकाने किस्से कहानियों से, चिपके रहना है खेल खिलोनों से.

बच्चों के खिलोने हैं, बड़ो के भी खिलोने हैं, बच्चे गुड्डे गुड्डियों की शादियाँ करते हैं, बड़े भी शिव पारबती की शादी रचाते हैं. बच्चे खिलौना हाथी बंदरों से खेलते हैं, बड़े होते होते इनकी जगह गणेश और हनुमान ले लेते हैं.

खेल ख़ूब खेलो लेकिन जानो कि ये धरम नहीं, धरम का भरम है.

डार्विन का सिधांत कि इंसान बन्दर से विकसित हुआ है शायद सब इंसानों पे लागू नहीं होता. यदि ऐसा होता तो शायद बन्दर इंसानों की पूजा करते दीखते. लेकिन यहाँ उलटा है, इन्सान बंदरों की, हाथियों की पूजा करते दीखते हैं, शायद इंसान इनसे भी नीचे कुछ है.

सच है इंसान को आज़ादी है, वो प्रक्रति से संस्कृति और विकृति दोनों पैदा कर सकता है, ग़लती ये है कि इन्सान विकृति को संस्कृति समझे बैठा है.

मुझ से अक्सर कहा जाता है कि मैं समाज की बुराई ही क्यों देखता हूँ. जैसे आपको न दिखती हो.दिखती है लेकिन बहुत मोटा चश्मा लगा है तथा-कथित धर्म का....इसलिए दृश्य के रंग अलग हो जाते हैं ....धार्मिक हो जाते हैं...तथा-कथित- धार्मिक

और इस सब का कारण ...... कारण हम सब हैं, हमारी सोच है. और यही बात बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है. हमें लगता है, बुराई के लिए ज़िम्मेदार कोई और है, दंगो के लिए ज़िम्मेददार कोई और है, घटिया राजनीती के लिए ज़िम्मेदार कोई और है, नहीं....हम ज़िम्मेदार हैं.......हम जो बचपन से बच्चों को हिन्दू मुस्लिम में बांटते हैं, हम जो धार्मिक कार्यक्रम (क्रियाक्रम कहें तो ज्यादा अच्छा) के नाम पर मात्र अंधविश्वास को फैलाते हैं, एक बेवकूफ़ समाज की हर चीज़ बेवकूफी से भरी होगी.

हमारा रुपया गिरना कोई आर्थिक कारणों से है?
भ्रम है.

एक मुल्क की इकॉनमी उसके पूरे सामाजिक विकास को दर्शाती है, जनसंख्या कम नहीं करेंगे, सोच में वैज्ञानिकता नहीं आने देंगे, विचार की जगह विश्वास, अंधे विश्वासों को पोषित करेंगे और जो कोई हिम्मत करेगा उसे सड़क पर गोली मार देंगे, इकॉनमी औंधे मुंह न गिरेगी तो और क्या होगा?


भारतीय समाज की कमियां कोई कानून से ही हल न होंगी, हिम्मत हो तो समाज के ताने बाने से टक्कर लें, अभी अभी कुमार विस्वास की एक पोस्ट देखी , गणेश चतुर्थी की बधाईयाँ थीं. ये लोग समाज सुधारेंगे, कोई बहुत उम्मीद नहीं मुझे. 

माना यह जाता है कि पार्वती जी के शरीर की मैल से गणेश जी बन गए. पहले तो  शरीर की मैल से बच्चा बन ही नहीं सकता. फिर यह माना जाता है कि इस बच्चे का सर धड़ से शिवजी ने अलग कर दिया और बाद में हाथी के बच्चे का सर इस बच्चे  के सर पे फिट कर दिया गया, बन गए गणेश जी. कैसे सम्भव है? हाथी हॉरिजॉन्टल शरीर का प्राणी है, इन्सान वर्टीकल शरीर का प्राणी है. किसी तरह यदि हाथी का सर इन्सान के सर पे फिट कर भी दिया जाये तो आँखें और मुँह आसमान की तरफ होगा न कि  सामने की तरफ जैसे इन्सान का होता है वैसे. फिर हाथी की गर्दन इन्सान की गर्दन से कतई मोटी है. यह मोटाई ही मैच नहीं कर सकती. सिर्फ़ बचकानी कहानियों में ही यह सब सम्भव है. 


समाज सुधेरेगा समाज की सोच सुधरने से, और सोच जो बचकानी है, सोच जो सड़ी-गली है, सोच जो ज़हरीली है, सोच जो लकवाग्रस्त है, सोच जो सोच है ही नहीं....

और इलाज है सोच, ऐसी सोच जो इस पुरानी सोच का दाह संस्कार करने की हिम्मत रखती हो, सोच जो असल में सोच हो.

कॉपी राईट मैटर

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