--- मुहर्रम --

मुसलमानों का मुहर्रम पर खुद को लहू लुहान करना बेतुका है, इंसानी अक्ल के खिलाफ है.

मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता, उनकी जिंदगियों से, उनकी मौतों से सीखा जाता है.....

इतिहास से सीखा जाता है बस.......इतिहास को कन्धों पे सवार नहीं किया जाता वरना ज़िंदगी इतनी भारी हो जायेगी कि आगे नहीं बढ़ेगी, आगे बढ़ती लग सकती है लेकिन असल में बस रेंगेगी....

जिस तरह से आत्म-हत्या ज़ुर्म माना जाता है, वैसे ही आत्म -हिंसा भी ज़ुर्म माना जाना चाहिए...आप दुसरे को मारो या खुद को मारो है तो हिंसा ही

और सडकों पर रफ्तार को ताजिये वगैहरा निकाल रोकना भी ज़ुर्म होना चाहिए, आप अपनी सोच की रफ्तार को तो रोक ही रहे हैं, जो लोग आपके तथा-कथित दीन में शामिल नहीं उनकी ज़िंदगी की रफ्तार में भी खलल डाल रहे हैं

नहीं, यह सब कोई धर्म आदि नहीं है, धर्म/ दीन/ मज़हब के नाम चले आ रहे अंध-विश्वास हैं

और मुस्लिम नेता, सियासी हो या मजहबी, कभी नहीं चाहेगा कि उसके लोग इन बेवकूफियों से बाहर आयें

वो नहीं चाहेगा कि सोच में खुलापन आये, क्योंकि सोच यदि खुली तो .....तो.....तो.....तो....

फिर तो ये लोग उसकी पकड़ से बाहर हो जायेंगे
फिर तो वो किसी के काबू नहीं आयेंगे,
फिर तो उनको धोखा न दिया जा पायेगा,
फिर तो वो असल में रोबोट से इंसान बन जायेंगे ,
फिर तो मज़हब नाम के रिमोट से कण्ट्रोल न किया जा सकेगा

इसलिए धर्म के नाम पर साल दर साल इस तरह की बेवकूफियां चलती आयी हैं और शायद अभी आगे भी चलती रहेंगे

उम्मीद रखें, कहते हैं न उम्मीद पर ज़माना कायम है

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