"कुछ मान्यताओं में रद्दो-बदल"
1) हमारे यहाँ आज तक पढ़ाया जाता है कि सिकंदर जीता और पोरस हारा...लेकिन लगता नहीं मुझे कि ऐसा हुआ होगा........मेरी बुद्धि मानती ही नहीं........लगता यही है कि वो यहाँ हार चुका था.......उसका प्यारा घोड़ा मारा जा चुका था....उसके सैनिक हताश निराश हो चुके थे......उसे मजबूरन वापिस होना पड़ा...वापिसी में फिर से उसे युद्ध झेलने पड़े.......जल्द ही मृत्यु हो गयी उसकी.
हॉलीवुड की फिल्म तक में उसे पोरस से जीतता नहीं दिखाया गया...और हम हैं कि मानते नहीं
2) आज तक हमें यही समझाया गया है कि द्रोणाचार्य ने अंगूठा माँगा और एकलव्य ने दे दिया...गुरु दक्षिणा...................लेकिन लगता नहीं कि ऐसा हुआ होगा........द्रोण एकलव्य को शिक्षित करने से मना कर चुके थे..........एकलव्य ने अपने प्रयासों से, अपनी एक-निष्ठता से धनुर्विद्या हासिल की होगी........और जब द्रोण को पता लगा होगा....एकलव्य को पकड़ उसका अंगूठा काट लिया होगा...........ठीक वैसे ही जैसे शम्बूक को विद्या हासिल करते उसकी गर्दन काट दी गयी थी
जो एकलव्य अपनी प्रयासों से धुरंधर धनुर्धारी बन सकता था...ऐसा कि अर्जुन को भी मात दे दे...वो इतना निर्बुधि हो कि अपना अंगूठा काट कर दे दे ...गुरु दक्षिणा के तौर पर.....उस व्यक्ति को जो उसका कभी गुरु था ही नहीं, जिसने उसका गुरु बनने से साफ़ इनकार कर दिया था......ऐसा लगता तो नहीं
3) आज तक हमें यही समझाया गया है कि सीता को जंगल भेज देने के बाद राम जब उसे वापिस बुलाते हैं और अपनी पवित्रता फिर से सबके सामने साबित करने को कहते हैं तो सीता पृथ्वी माता में समा जाती हैं......
बात तो साफ़ है लेकिन ठीक से इसे समझाया नहीं गया......असल बात यह है कि सीता को समझ आ चुका था कि वो राम और समाज को कभी अपनी शुचिता समझा नहीं पायेगी, वो जैसी मर्ज़ी परीक्षा दे ले......वो कभी सम्मानित नहीं हो पायेगी.....राम के साथ रहने, वैसे समाज के साथ रहने के बजाए उसे आत्म-हत्या करना उचित जान पड़ा.......किसी खाई, खंदक में कूद गयीं होंगीं......बस
4) !!!!पत्थर भी जीवित है !!!!
इस अस्तित्व में सब कुछ चेतन है...... जर्रा जर्रा.
कल तक यह साबित नही था कि पेड़ पौधे जीवित हैं, लेकिन आज मानना पड़ता है, साइंस ने साबित कर दिया है.
आज आपको कोई कहे कि पत्थर भी जीवित है तो शायद आप अचम्भा करें, लेकिन सब्र रखें...साइंस साबित करने ही वाली है कि इस दुनिया में सिवा इंसान की खोटी अक्ल के कुछ भी मुर्दा नही, सब जिंदा है
5) !!चूतिया!!
अक्सर बहुत से मित्रवर "चूतिया, चूतिया" करते हैं, "फुद्दू फुद्दू" गाते हैं....गाली भई.....
लेकिन तनिक विचार करें असल में हम सब "चूतिया" हैं और "फुद्दू" है, सब योनि के रास्ते से ही इस पृथ्वी पर आये हैं, तो हुए न सब चूतिया, सब के सब फुद्दू.....
और हमारे यहाँ तो योनि को बहुत सम्मान दिया गया है, पूजा गया है.....जो आप शिवलिंग देखते हैं न, वो शिव लिंग तो मात्र पुरुष प्रधान नज़रिए का उत्पादन है, असल में तो वह पार्वती की योनि भी है, और पूजा मात्र शिवलिंग की नहीं है, "पार्वती योनि" की भी है
हमारे यहीं असम में कामाख्या माता का मंदिर है, जानते हैं किस का दर्शन कराया जाता है, माँ की योनि का, दिखा कर नहीं छूया कर...
और हमारे यान तो प्राणियों की अलग अलग प्रजातियों को योनियाँ माना गया है, चौरासी लाख योनियाँ, इनमें सबसे उत्तम मनुष्य योनि मानी गयी है.....योनि मित्रवर, योनि
और यहाँ मित्र चूतिया चूतिया करते रहते हैं
6) !!! पुरानी कहावत, नया अर्थ!!!
"आपकी कथनी और करनी में फर्क हैं, इसलिए बेदम है आपकी कथनी
और करनी"
सुना होगा आपने इस तरह का जुमला अक्सर
अब बात यह है कि हम अक्सर सुनी सुनायी बातों पर बहुत जल्द यकीन
कर लेते हैं.
यह उसी तरह की एक बात है
क्या व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीना चाहता है, जिस तरह के जीवन
मूल्य जीना चाहता है, वैसा जी पाता है, आसानी से जी पाता है, जी सकता
है?
क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति सुकरात हो जाए?
और जो सुकरात नहीं होते या नहीं होना चाहते क्या उनको विचार का,
विमर्श का कोई हक़ नहीं?
तो हज़रात मेरा मानना यह है कि जिस तरह का सामाजिक ताना बाना
हमने बनाया है,
उसमें यह कतई ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति की सोचनी और कथनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि कथनी और करनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि सोचनी और कथनी और करनी एक हो.
असल में तो समाज का भला करने के लिए भी व्यक्ति वही कामयाब हो
पायेगा,
जिसकी सोचनी कुछ और हो,
कथनी कुछ और हो
और करनी कुछ और
समाज से चार रत्ती ज़्यादा चालबाज़ होना होगा
आमीन!!! COPY RIGHT
"आपकी कथनी और करनी में फर्क हैं, इसलिए बेदम है आपकी कथनी
और करनी"
सुना होगा आपने इस तरह का जुमला अक्सर
अब बात यह है कि हम अक्सर सुनी सुनायी बातों पर बहुत जल्द यकीन
कर लेते हैं.
यह उसी तरह की एक बात है
क्या व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीना चाहता है, जिस तरह के जीवन
मूल्य जीना चाहता है, वैसा जी पाता है, आसानी से जी पाता है, जी सकता
है?
क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति सुकरात हो जाए?
और जो सुकरात नहीं होते या नहीं होना चाहते क्या उनको विचार का,
विमर्श का कोई हक़ नहीं?
तो हज़रात मेरा मानना यह है कि जिस तरह का सामाजिक ताना बाना
हमने बनाया है,
उसमें यह कतई ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति की सोचनी और कथनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि कथनी और करनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि सोचनी और कथनी और करनी एक हो.
असल में तो समाज का भला करने के लिए भी व्यक्ति वही कामयाब हो
पायेगा,
जिसकी सोचनी कुछ और हो,
कथनी कुछ और हो
और करनी कुछ और
समाज से चार रत्ती ज़्यादा चालबाज़ होना होगा
आमीन!!! COPY RIGHT
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