Monday, 6 July 2015

आदिवासी और हम

मुझे लगता है कि आदिवासी  जीवन ही असल  जीवन है,  जीवन   से  भरपूर  जीवन  है
मानव तन मन बना ही नहीं इस तरह के जीवन के लिए जैसा हम शहरों में हम  जीते हैं

न  तन काम करता है, न मन   शांत होता है 
तन मन सब ज़हरीला है
उसमें कोई सौम्यता नहीं है

गुरबाणी में कहते है ''नचणा टपणा मन का चाव" 
हमारे जीवन में नाचना टापना बस  सिंबॉलिक रह गया, हम  सिनेमा टीवी पर दूसरों को नाचते गाते हँसते देख जी रहे हैं

मैं पश्चिम विहार दिल्ली में रहता हूँ..यहाँ पहले बहुत झुग्गियां थी......हमारे  घरों  के पास भी   थी......वो लोग सर्द रातों में अलाव जला उसके इर्द गाते नाचते थे...मैं अक्सर सोचता.....ये कोठियों  में रहने वाले लोग......अमीर लोग....ये बस टीवी पर दूसरों को नाचते देख  खुश हो लेंगे...इन्हें कभी पता ही नहीं लगेगा कि  खुले  आसमान के तले   कैसे नाचा जाता है...ये एक मरे मराये जीवन   को बस जीए जायेंगे  

ऐसी  ही  एक कहानी  पढ़ी  थी, बर्नार्ड शॉ  के  बारे में....वो  एक बार शहरी जीवन छोड़   कहीं   आदिवासियों के बीच पहुँच गए....रात घिरते  सब आदिवासी अपने ढोल नगाड़े ले इकट्ठा  हो गए एक जगह ...और लगे नाचने और गाने.....चांदनी रात.......बर्नार्ड शॉ  ने लिखा  अपनी डायरी में आँखों  में आंसूं लिए   कि मेरे हम शहरी  लन्दन वासी  तो कभी जान  भी नहीं पायेंगे  कि वो क्या खो रहे हैं   

संख्या बढ़ा ली हमने और उसके साथ सर्वाइवल के लिए इंडस्ट्री
और उसके साथ प्रदूषण

वहां बठिंडा  में हम लोग  जो कारपोरेशन का पानी टूटी में आता था वो पी पी कर बड़े हुए, यहाँ दिल्ली में कहते हैं कि नल का पानी  पीने लायक नहीं है .....एक्वा-गार्ड लगाओ....वैरी गुड

उद्योग लगाओ, हवा पानी ज़हरीला करो फिर उन्हें शुद्ध करने को और उद्योग लगाओ

तरक्की ने नाम  पर बकवास

आप अपने घरों में धुंआ उगलती  फैक्ट्रियों  की तस्वीरे क्यों नहीं लगाते? आप अपने कंप्यूटर स्क्रीन सेवर के रूप में   कील कांटे, कल पुर्ज़े, ग्रीस, मोबिल आयल के डब्बे यह सब क्यूँ नहीं लगाते? क्यूँ पेड़, पहाड़, कल कल करती नदियाँ, झर झर करते झरने और चहचहाती चिड़ियाँ लगाते हो?

मानव अंतर्मन   जानता है कि वो क्या खो रहा है तभी मौका मिलते ही पहाड़ों, नदियों और जंगलों और समुद्रों के पास पहुँच जाता है

सब माता के मंदिर पहाड़ों में ही क्यों हैं?
चूँकि कुदरत ही माँ है
मौका मिलते ही इन्सान माँ के पास पहुँच जाता है

मानव अंतर्मन को पता है कि नगरीय जीवन नरकीय जीवन है
बहुत   पहले   बचपन  में एक  फिल्म देखी   थी...हादसा..........उसमें गाना  था....ये मुंबई  शहर  है....हादसों का शहर है...हा...हा...हा.....हादसा...हादसा
हमारे   शहर   बस  हादसा   हैं

हमारा तन मन, हमारा सिस्टम है ही नहीं इस तरह के जीवन के लिए
कमरों में बंद जीवन.....सबको पता है कि इसमें बहुत कम जीवन है

इन्सान  ने  खुद   को  तो कैद किया, पशु पक्षी और कैद  रखता  है अपने साथ

सो आदिवासी जीवन  को हम सब अंदर से मिस करते हैं

कैंसर, ऊंचा  नीचा ब्लड प्रेशर, शुगर, ह्रदय रोग   इस तरह की बीमारियाँ  सिर्फ शहरों में मिलेंगे, गाँव में और कम  मिलेंगी और  आदिवासियों में तो बिलकुल नहीं

मुझे लगता है कि मानव को आबादी घटा कर नई तकनीक का प्रयोग कर एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो आदिवासी भी हो और मॉडर्न भी

यानि कुदरत के करीबी  जीवन और मॉडर्न  भी ...कम आबादी वाला....जहाँ नई तकनीक का  प्रयोग हो रहा हो......जितना ज़रूरी हो

आबादी घटने से बहुत कुछ फालतू तो वैसे ही उड़ जाएगा
हवा पानी कुदरत ने शुद्ध दिया है, एक्वा गार्ड जैसे इंडस्ट्री उड़ जायेगी
बीमारी घटेंगी, मेडिकल उद्योग घट जाएगा
जो ईंट कंक्रीट  के जंगल पर जंगल खड़े करे जाने का उद्योग  उड़ जाएगा
और भी बहुत कुछ 
  

और तथा कथित मॉडर्न मानव को समझना होगा  कि आदिमानव  उसका बाप है
और बाप के पास भी बहुत कुछ सिखाने को है

यहाँ हो उल्टा रहा है विकास के नाम पर आदिमानव का सब छीना जा रहा है
अबे तुम्हें इंडस्ट्री चाहिए ही क्यों ...क्योंकि  तुम ने आबादी बढ़ा ली.....पृथ्वी ने ठेका लिया तुम्हारी आबादी को झेलने का
सब तहस नहस करोगे अपने इल्ले पिल्लों के लिए
उल्लू मर जाते हैं औलाद छोड़ जाते हैं
इंडस्ट्री बढाने की जगह आबादी घटानी चाहिए

आज   कुदरत पर आक्रमण करके  यदि उद्योग  लगाया  जाएगा तो नतीजा बुरा होगा
यह कुदरत का बलात्कार है
और कुदरत बदला लेती है
छोडती नहीं है

वो खुद को बचाने के लिए इन्सान की ऐसी-तैसी करेगी
बढ़िया यही है कि उद्योग  कम हों और आबादी कम हो और कुदरती जीवन की और लौटा जाए

जो तसवीरें हम अपने ड्राइंग रूम में लगाते हैं झरनों की, पेड़ों की, जंगलों  की  उस और लौटा जाए
और आदिवासी जीवन को गले मिला जाए

मैं और श्रीमती जी अक्सर   कल्पना  करते   हैं......जब   खूब पैसे    आ जायेंगे    हमारे  पास   तो हम   पहाड़ी पर,  झरने   के  करीब   घर   बनायेंगे.....वहां   टीवी,   इन्टरनेट, मोबाइल फ़ोन  सब होगा...लेकिन हम अपनी  फल सब्ज़ी जितना हो पायेगा  खुद उगायेंगे.....भैस , गाय   सब  हम   खुद  सम्भाल लेंगे ........मेरे लिए  एक लाइब्रेरी होगी .... खरगोश,  छोटे कुत्ते भी होंगे हमारे साथ ......हम वहां   आस पास  के बच्चों   को मुफ्त पढ़ायेंगे.......और उन लोगों  के जीवन  के   सूत्र सीख   इन्टरनेट से दुनिया   को पढ़ायेंगे आदि आदि  ....शायद  आप   भी  इससे   मिलता  जुलता    सोचते  हों...मुझे पता   है  सोचते   हैं

सप्रेम  नमन...कॉपी राईट....चुराएं  न शेयर  करें

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