Tuesday, 14 July 2015

नौकरियां, कुछ पहलु

1) बैंकों में कार्य करने वालों को क्या ज़रुरत है कि वो कॉमर्स समझते हों?.......वो मात्र लेबर हैं......मतलब एक आदमी को कैश बॉक्स में बिठाया गया है....इसे सारा दिन नोट गिन कर देने और लेने हैं....और वो काम भी मशीन से ही करना है........कितनी अक्ल चाहिए इस काम के लिए?

शायद एक दिन की ट्रेनिंग से कोई भी आम व्यक्ति इस काम को अंजाम दे देगा.......चलो एक दिन न सही एक हफ्ता....चलो एक हफ्ता नहीं एक महीना.

कुछ साल पहले की बात है मैंने एक चेक दिया कोई आठ हज़ार आठ सौ का किसी को...बैंक ने अस्सी हज़ार आठ सौ मेरे खाते से कम कर दिए.....मैंने पकड़ लिया...केशियर रोने लगा.......कहे कि मैंने तो अस्सी हज़ार आठ सौ  ही दिए हैं........जिसको चेक दिया था उसे बुलाया गया, वो कहे मैंने आठ हज़ार आठ सौ  ही लिए हैं.......खैर, केशियर को भुगतने पड़े वो पैसे

अभी एक बैंक  में  मैंने  फ़ोन  नंबर   बदलने   की अर्ज़ी  दी.......पट्ठों   ने  हफ्तों लगा दिए  उसी काम में.....खैर,  मैंने    किसी   दूसरे  बैंक   से अपना काम  निकाल लिया.....कोई ऑनलाइन  पेमेंट करनी   थी......कर दी......और साथ  में  उस बैंक   में  से खाता  भी बंद कर दिया

क्लर्क टाइप की नौकरी करने वाले लोगों का काम देखिये गौर से...इन लोगों ने एक ही तरह का काम करना होता रोज़....बार बार...कितनी अक्ल की ज़रुरत है ऐसे कामों के लिए? साधारण सी पढ़ाई लिखाई और कुछ दिनों की ट्रेनिंग के बाद कोई भी व्यक्ति इस तरह के काम कर लेगा

आप किसी सरकारी नौकर से बात कर देखिये, शायद ही कोई प्रतिभा, कोई बुद्धि उसमें आपको दिखाई दे...प्रतिभा मात्र इस बात की कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा फायदे सिस्टम से लिए जाएँ..कैसे ज़्यादा छुट्टियाँ निचोड़ी जाएँ....कैसे भत्ते बढवाए जाएँ.........कैसे मज़ा मारा जाए ...मौज मारी जाए

एक जिंदा मिसाल देता हूँ, अपने अपने घर के वोटर कार्ड याद करें, शायद ही कोई ऐसे दिए गए हों जो बिना किसी गलती के थे.......कहीं तो मेल को फीमेल बना दिया गया था, कहीं फीमेल   को मेल ........मेरे पिता उत्तम चंद को उत्तम सिंह कर दिया गया था.....आज तक वोटर कार्ड दफ्तरों में लोग गलतियाँ सुधरवाते फिरते हैं....कभी सोचा अपने कि ऐसा क्यों हुआ...चूँकि सरकारी कर्मचारी बहुत ज़्यादा प्रतिभावान हैं न....मेल को फीमेल करने का चमत्कार कोई ऐसे ही थोड़ा न हो जाता है

पुलिस में भर्ती के वक्त शारीरिक टेस्ट भी होता है, दौड़ लगवाई जाती है, लम्बी कूद, ऊंची कूद आदि भी कराई जाती है....फिर कुछ ही सालों बाद आपको पुलिसिये तोंद बढाए दीखते हैं.....जैसे व्यवसायिक वाहन हर साल फिटनेस टेस्ट होता है ऐसा ही इनका क्यों नहीं होता, आज तक मुझे समझ नहीं आया....

गली में झाडू लगाने वाले लोगों को आज कल सुना है चालीस पचास हज़ार तनख्वाह मिलती है लेकिन ये लोग तो कभी शक्ल भी नहीं दिखाते...इन्होने आगे बंदे रखे हैं जिनको ये पांच दस हज़ार प्रति माह देते हैं

एक तरफ महा बेरोजगारी है.......दूसरी तरफ इंसान ने रोज़गार को दुलत्ती मारी है.

सुबह दुकानदार भगवान को पूजता है कि हे भगवान ग्राहक दे.....ग्राहक को ही भगवान का दर्जा भी देता है और उसी ग्राहक की छाल-खाल उतारने में कोई कसर भी नहीं छोड़ता

जो बेरोजगार है वो मन्नते मांगते हैं कहीं ढंग की नौकरी लग जाए...और नौकरी लग जाए तो तमाम प्रयास करते हैं कि काम से कैसे बचा जाए..

इंसानी फितरत है....इन्सान को नौकरी नहीं चाहिए, उसे तनख्वाह चाहिए, तनख्वाह फिक्स हो गई, नौकरी पक्की हो गई, अब वो क्यों काम करेगा? अब वो काम से बचेगा......अब उसे मात्र शरीर उपस्थित करना है...दिमाग वो लगाएगा ऊपर की कमाई कैसे की जाए, नौकरी से मिलने वाली सुविधायें कैसे नोची खसोटी जाएँ, हरामखोरी कैसे की जाए, रिश्वतखोरी कैसे की जाए

इस क्षेत्र में बहुत कुछ तब्दील करने की ज़रुरत है......जो काम कराया जाना है, मात्र उसकी करने की कार्यक्षमता यदि हो किसी में तो उसे वो काम दे दिया जाना चाहिए...इस के लिए सालों बर्बाद कर किये गए कोर्स का कोई मतलब नहीं है

एक लोकल बैंक में काम करने वाले क्लर्क को मैक्रो और माइक्रो इकोनोमिक्स की बारीकियां पता हों न हों, उससे जो काम लिया जाना है उसमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला

और नौकरी देने के बाद कहीं ऐसा न हो जैसे मैंने मिसाल दी सफाई कर्मचारियों की......या पुलिस वालों की.......नौकरी देने के बाद भी देखना ज़रूरी है कि उनमें वो कार्य क्षमता बची  भी है भी जो उनकी भर्ती के वक्त थी.......या वो काम कर भी रहे हैं या नहीं

हमारे जैसे मुल्क में जहाँ आज सीधे सीधे कामों के लिए पचास हज़ार, सत्तर हज़ार तनख्वाह बांटी जा रही है......वहीं   बिना कोई कोर्से में से निकले व्यक्तियों को काम   की ज़रुरत के मुताबिक ट्रेनिंग दे कर.....बीस पचीस हज़ार की तनख्वाह पर भर्ती किया जा सकता है...काम बेहतर होगा और बेरोजगारी घटेगी

कहीं पढ़ा था कि दफ्तरों में आँख के चित्र लगाने मात्र से कर्मचारियों की कर्मशीलता बेहतर हो जाती है.....कितना सही है कह नहीं सकता...लेकिन हाँ, इलेक्ट्रॉनिक आँख यानि CCTV लगाने से निश्चित ही कर्मचारियों क्षमता बधाई जा सकती है..अन्यथा लोग लाइन में लगे रहते हैं और सीट पर बैठी बहिन जी कंप्यूटर पर ताश खेल रही होती हैं

2)  "सरकारी नौकर"

यह निज़ाम पब्लिक के पैसे से चलता है, जिसका बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरों को जाता है…सरकारी नौकर जितनी सैलरी पाते हैं, जितनी सुविधाएं पाते हैं, जितनी छुट्टिया पाते है … क्या वो उसके हकदार हैं?.... मेरे ख्याल से तो नहीं … …

सरकारी नौकर रिश्वतखोर हैं, हरामखोर हैं, कामचोर हैं ....

ये जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा सरकारी नौकरी पाने को मरा जाता है, वो इसलिए नहीं कि उसे कोई पब्लिक की सेवा करने का कीड़ा काट गया है, वो मात्र इसलिए कि उसे पता है कि सरकारी नौकरी कोई नौकरी नहीं होती बल्कि सरकार का जवाई बनना होता है, जिसकी पब्लिक ने सारी उम्र नौकरी करनी होती है ....

सरकारी नौकर कभी भी पब्लिक का नौकर नहीं होता, बल्कि पब्लिक उसकी नौकर होती है....

सरकारी नौकर को पता होता है, वो काम करे न करे, तनख्वाह उसे मिलनी ही है और बहुत जगह तो सरकारी नौकर को शक्ल तक दिखाने की ज़रुरत नहीं होती, तनख्वाह उसे फिर भी मिलती रहती है

सरकारी नौकर को पता होता है, उसके खिलाफ अव्वल तो पब्लिक में से कोई शिकायत कर ही नहीं पायेगा और करेगा भी तो उसका कुछ बिगड़ना नही है

सीट मिलते ही सरकारी नौकर के तेवर बदल जाते हैं, आवाज़ में रौब आ जाता है ……आम आदमी उसे कीडा मकौड़ा नज़र आने लगता है .…

अपनी सीट का बेताज बादशाह होता है सरकारी नौकर…

सरकार नौकरी असल में सरकारी मल्कियत होती है, सरकारी बादशाहत होती है.... इसे नौकरी कहा भर जाता है, लेकिन इसमें नौकरी वाली कोई बात होती नहीं … .. इसलिए अक्सर लोग कहते हैं की नौकरी सरकारी मिलेगी तो ही करेंगे

लगभग सबके सब सरकारी उपक्रम कंगाली के करीब पहुँच चुके हैं .... वजह है ये सरकारी नौकर, जिन्हें काम न करने की हर तकनीक मालूम है.…

सरकारी अमला सर्विस के मामले में पीछे है...क्योंकि सरकारी है...सरक सरक कर चलता है....सरकारी अमला बकवास है.....रिश्वतखोर है, हराम खोर है...

बिलकुल व्यवस्था की कहानी है बस......यदि कर्मचारी पक्का होगा.....साल में आधे दिन छुटी पायेगा और सैलरी मोटी पायेगा तो यही सब होगा, जो हर सरकारी उपक्रम में होता है, बेडा गर्क

लानत है, जब मैं पढता हूँ कि सरकारी नौकरों की तनख्वाह,, भत्ते, छुट्टियां बढ़ाई जाने वाली हैं, मुझे मुल्क के बेरोज़गार नौजवानों की फ़ौज नज़र आती हैं .... जो इनसे आधी तनख्वाह, आधी छुट्टियों, आधी सुविधाओं में इनसे दोगुना काम खुशी खुशी करने को तैयार हो जाएगी. .....लेकिन मुल्क को टैक्स का पैसा बर्बाद करना है, सो कर रहा है....लानत है

3) IAS/IPS का ज़िक्र था कहीं तो हमऊ ने थोड़ा जोगदान दई दिया........
"एक ख़ास तरह की मूर्खता दरकार होती है इस तरह के इम्तिहान पास करन के वास्ते.......मतबल एक अच्छा टेप रेकार्डर जैसी.........कभू सुने हो भैया कि इस तरह के आफिसर लोगों ने कुछ साहित वाहित रचा हो......कौनो बढ़िया.......कोई ईजाद विजाद किये हों....कच्छु नाहीं...बस रट्टू तोते हैं कतई ....चलो जी, चलन दो ..अभी तो चलन है."
कहो भई, ठीक लिखे थे हमऊ कि नाहीं ?

4) अगर किसी के साथ भी समाज में अन्याय होता है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ.....वो पूरे समाज के ताने बाने को अव्यवस्थित करना है.....अन्याय की भरपाई सम्मान से की जा सकती है....आपसी सौहार्द से की जा सकती है......मुफ्त शिक्षा से की जा सकती है.....मुफ्त स्वस्थ्य सहायता से की जा सकती है......आर्थिक सहायता से की जा सकती है....लेकिन आरक्षण किसी भी हालात  में नहीं दिया जाना  चाहिए.....

आज ही पढ़ रहा था कि कोई हरियाणा की महिला शूटर को सरकार ने नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं किया तो वो शिकायत कर रही थीं...अब यह क्या मजाक है....कोई अगर अच्छी शूटर है तो वो कैसे किसी सरकारी नौकरी की हकदार हो गयी....उसे और बहुत तरह से प्रोत्साहन देना चाहिए..लेकिन सरकारी नौकरी देना...क्या बकवास है.....एक शूटिंग मैडल जीतना कैसे उनको उस नौकरी के लिए सर्वश्रेष्ठ कैंडिडेट बनाता है..? एक नौकरी के अलग तरह की शैक्षणिक योग्यता चाहिए होती है.....अलग तरह की कार्यकुशलता चाहिए होती है......और एक अच्छा खिलाड़ी होना...यह अलग तरह की योग्यता है...क्या मेल है दोनों में?

लेकिन कौन समझाये, यहाँ तो सरकारी नौकरी को बस रेवड़ी बांटने जैसा काम मान लिया गया है, बस जिसे मर्ज़ी दे दो......

कोई दंगा पीड़ित है , सरकारी नौकरी दे दो
कोई किसी खेल में मैडल जीत गया, नौकरी दे दो
कोई शुद्र कहा गया सरकारी नौकरी दे दो

जैसे दंगा पीड़ित होना, दलित होना, खेल में मैडल जीतना किसी सरकारी नौकरी विशेष के लिए उचित eligibility हो

यह सब तुरत बंद होना चाहिए, हाँ बड़े पूंजीपति की व्यक्तिगत पूंजी का पीढी दर पीढी ट्रान्सफर  खत्म होना चाहिए......

समाजवाद और पूंजीवाद का सम्मिश्रण

कॉपी  राईट मैटर......शेयर  कीजिये, वो भी खूब सा....सादर नमन........

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