आज़ादी की लडाई के वक्त बहुत सी विचारधारा वाले लोग थे.
जैसे आज मान लो AAP और IPP या कोई और
अम्बेडकर, आरएसएस, गांधी, सुभाष बोस आदि ...इनकी बहुत मुद्दों पर नहीं पटती थी.
अम्बेडकरको दलित हित देखने थे और जिन्नाह को मुस्लिम हित देखने थे.
असल में भारत उस दिन आजाद नहीं हुआ और न ही कोई भारत का पार्टीशन हुआ...भारत पैदा हुआ था उस दिन.
उससे पहले कभी भी भारत इतना बड़ा था ही नहीं, जो था वो अंग्रेजों की बदौलत था.
आज हमें लगता है कि जिन्ना, गांधी, अंग्रेजों ने मिल कर हमारे देश के टुकड़े कर दिए.
नहीं.
असल में आज जितना भारत है, इतना बड़ा भारत कभी भी एक झंडे के तले था ही नहीं.
और उस दिन एक अलग तरह के भारत का जन्म हुआ था.
अंग्रेजों को तो भगाना था, लेकिन पीछे कोई तैयारी नहीं थी.
और आज तक नहीं है, आज भी उसी बाद-इन्तेज़ामी का खामियाजा भुगत रहे हैं हम.
गांधी की अम्बेडकर, सुभाष, जिन्नाह किसी से बहुत नहीं बनती थी.
और हालत ऐसे थे कि अंग्रेजों को विश्व-युद्ध की वजह से तथा और वजहों से भारत छोड़ना ही था
धन्धा मुनाफे का नहीं था.
टोटल हालत ये थे कि अंग्रेजों को जाना ही था....पीछे बटवारा होना ही था......अब इन सबने यह सोचा ही नहीं कि जनसंख्या का तबादला शांति से कैसे हो.
हिन्दू मुस्लिम कभी एक हो नहीं सकते, न कल-न आज.
एक गाय खाता है, एक पूजता है.
लाख कहते रहो, "हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई."
और मैं कोई बहुत इज्ज़त नहीं करता गांधी की
और न ही बेईज्ज़ती.
हालात पर शायद और बेहतर काबू पाया जा सकता था.
आरएसएस कभी भी गांधी के पक्ष में नहीं था.
बहुत अलग धाराएं थी.
गांधी को मारने वाला संघी सोच का था.
शायद हिन्दू महा-सभा का था.
यह सब संघ के ही अलग-अलग रूप हैं.
VHP, बीजेपी, ABVP आदि.
आरएसएस ने हर उस सोच का विरोध किया है जो इनकी थ्योरी के खिलाफ थी.....कम्युनिज्म, ओशो, कांग्रेस, केजरीवाल.
हरेक का.
गांधी भी उसमें एक थे.
1947 से पहले कोई भारत नहीं था...कम-से-कम भारतीयों का बिलकुल नहीं, अंग्रेजों के झंडे के नीचे अंग्रेजों का भारत था. और जब था ही नहीं तो गांधी ने कहाँ से दे दिया?
ये जो आज हमें इतना बड़ा भारत का नक्शा दीखता है न.....जो एक झंडे के नीचे.....इतना बड़ा भी कभी भारतीयों के पास भारत नहीं था.
राजा थे छोटे छोटे.
आपस में लड़ते थे.
जो कहते हैं कि हिन्दू ने कभी हमला नहीं किया, शांतिप्रिय हैं, बकवास है बात. अशोक ने कलिंग पर आक्रमण कर, धरती खून से लाल कर दी. कौन था अशोक? रामायण में लिखा है कि रावण मारने के बाद राम ने अपने पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण सिर्फ इसलिए किये, क्योंकि उनको अपना साम्राज्य बढ़ाना था. पृथ्वीराज चौहान भरे दरबार से लड़ते-भिड़ते हुए अपनी भतीजी को उठा लाता है, शादी करता है.
आज यह कहना बिलकुल गलत है कि भारत का विभाजन हुआ, भारत का जनम हुआ था 1947 में, विभाजन नहीं. विभाजन हुआ था अंग्रेजों के हुकूमत वाले भारत का.
यह जो आरएसएस वाले बोलते हैं कि गांधी ने दे दिया पाकिस्तान, बकवास. उनके पास था कहाँ, जो दे देता?
वो कौन थे देने वाले, न देने वाले.
जिन्नाह ने माँगा था.
पाकिस्तान-हिंदुस्तान न जिन्नाह के पास था, न गांधी के पास, वो सारा हिस्सा अंग्रेजों के पास था, वो उनकी हुकूमत थी.
ऐसे तो मुस्लिम भी कह सकते हैं कि जिन्नाह ने उनके मुल्क का टुकड़ा कर दिया और छोटा हिस्सा उनको मिला जबकि मुग़ल-काल में ज्यादा बड़ा हिस्सा होता था उनके पास.
इसी में एक बात जोड़ना चाहता हूँ कि भारत जो कश्मीर को अपने नक्शे में दिखाता आ रहा है, उस में कोई सच्चाई नज़र नहीं आती मुझे. कानून पढ़ता हूँ मैं अक्सर. झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी का धंधा है मेरा इसलिए.
जितना मैंने पढ़ा, भारत के सब एक्ट की शुरुआत में ही लिखा रहता है कि वो भारत के सब राज्यों पर लागू है, सिवा जम्मू और कश्मीर के. यह सबूत है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग नहीं है. जिस मुल्क का कायदा-कानून ही किसी इलाके पर लागू नहीं तो फिर कैसे वो इलाका उस मुल्क का राज्य हो गया? कैसे स्कूली बच्चों को पढ़ा रहो हो कि वो तुम्हारे मुल्क का ही एक राज्य है? यह बे-ईमानी है. क्या किसी को पता है सैंतालीस के बरसों बाद तक कश्मीर का अपना प्रधान-मंत्री होता था? जिसे आज आप कश्मीर का मुख्य-मंत्री कहते हैं, वो पहले वहां का प्रधान-मंत्री कहलाता था. और अरुंधती रॉय और प्रशांत भूषण ने जो कहा था, वो शायद ग़लत नहीं था. इनको भी गलत ढंग से पेश किया है संघी सोच ने. अगर हिम्मत है तो फिर अब हटा लें धारा 370 वगैहरा.
मुझे लगता है कि हमारा मुल्क-समाज जिसके काबिल था, वो ही मिला.
आज भी जहालत भरी है लेकिन फेसबुक आदि से थोड़ी चेतना फ़ैल रही है.
आजादी माँगी गयी....
मिली.
अंग्रेजों ने ठेका नहीं लिया था पीछे.
नेता लोग अनाड़ी थे..... भविष्य का कोई नक्शा था नहीं.
लोग भी अनपढ़.
लोग कांग्रेस को वोट इसलिए करते रहे क्योंकि वो पीढी-दर-पीढी कांग्रेस को वोट करते आये थे.
और एक बात, भगत सिंह की फांसी के लिए भी गांधी को दोषी माना जाता है.
सवाल यह है कि गांधी ने कहा था क्या उन्हें बम आदि फेंकने को?
नहीं न.
वो भगत की समझ थी.
अब उसका जो भी नतीजा आया, उसके लिए गांधी कैसे दोषी?
क्या ज़रूरी है कि गांधी भगत से या भगत गांधी से सहमत हों?
नहीं....नर्म दल-गर्म दल अलग-अलग थे..... बिल्कुल.
उन्हें फांसी होनी थी तो उसमें गांधी का क्या दोष?
गांधी के हाथ में क्या था?
वो कोई अँगरेज़ सरकार थे ?
गांधी कभी गर्म दल से सहमत नहीं थे, किसी से भी नहीं.
जिसने जो किया, सोच-समझ कर किया.
जिसकी जैसी समझ थी.
मुझे जो लगता है कि गांधी तथा-कथित विभाजन के लिए या भगत की फांसी के लिए ज़िम्मेदार नहीं. अगर गाँधी नहीं मानते इस Two-Nation-Theory को, तो भी क्या ज़रूरी कि जिन्नाह मान जाता?
हाँ, अहिंसा गांधी की एक ट्रिक थी.
चूँकि शायद उन्हें लगता था शायद कि हिंसा कामयाब हो ही नहीं सकती थी.
दुश्मन बहुत ताकतवर था और समाज ऐसा नहीं था जो एक दम बगावत कर देता.
या खुद में हिम्मत ही नहीं थी लड़ने-मरने की.
बटवारा हुआ, हिन्दू मुस्लिम दोनों मारे गए थे.
दोनों तरफ.
पिता जी पाकिस्तान से आये थे. उन्होंने बताया था कि
ट्रेन लाशों से पटी होती थी.
जो निकल आये, निकल आये.
रह गए, रह गए.
मुझे लगता है कि गाँधी का भारतीय इतिहास में कोई इतना बड़ा रोल है ही नहीं, जितना बड़ा उनका नाम है. हर नोट पे छाप दिया. देश का बाप बना दिया. #महात्मा बना दिया. जैसे भगत, सूर्यसेन, चन्द्र-शेखर, सी वी रमण, रामानुजन, ओशो जैसे लोगों में कोई छोटी, कोई क्षुद्र आत्मा हो. उनके बाद नेहरु परिवार ने दशकों 'गाँधी' शब्द का फायदा उठाया, भुनाया.
गाँधी के किये से कुछ भी नहीं हुआ. अँगरेज़ कोई उनके कुछ किये से नहीं गए थे. जब उनको जाना था, वो तब गए थे. आपको पता है KFC, WIMPY आदि आये थे भारत कोई नब्बे के दशक में. चले नहीं थे. फिर नज़र नहीं आये सालों तक. फिर नज़र आने लगे. कल फिर वापिस जा सकते हैं. सब मामला व्यापार का है. फायदे-नुक्सान का है. और गाँधी से अँगरेज़ कोई नुक्सान था, मुझे नहीं लगता, वरना कब का निपटा चुके होते.
गाँधी तो इस्लाम को भी नहीं समझे. गाते रहे, "ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम", लेकिन समझे ही नहीं कि अल्लाह को मानने वाले नहीं मानते कि अल्लाह और ईश्वर एक ही बात है. अगर ऐसा होता तो जिन्नाह Two-Nation-Theory को समर्थन कैसे देता? पाकिस्तान कैसे बनता?
जो गांधी नहीं समझे, वो आज भी भारत के बहुत से विचारक नहीं समझते. लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी को भी मार देना चाहिए. हाँ, वैचारिक विरोध करना चाहिए, जबरस्त ढंग से करना चाहिए.
और गांधी से लेकर गौरी लंकेश तक, सब विचारकों को यह भी समझना चाहिए कि सिलेक्टिव नज़रिया रखेंगे तो अपने खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देंगे लेकिन अगर वृहद नज़रिया रखेंगे तो भी हिंसा नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है. जर्ज़र समाज की नींव हिलायेंगे तो यह आपका दुश्मन हो जाएगा और जान लेने पर उतारू हो जायेगा. यह इश्क नहीं आसां, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.
Cosmic Tushar ©®
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