Friday, 10 July 2015

हमारा खोखला रहन सहन

जब पीछे मुड़ देखता हूँ कि जीवन कितना बदल गया........बदल गया......आगे बढ़  गया या बिगड़ गया? 

गड्ड मड्डा जाता हूँ

डार्विन के मुताबिक मनुष्य विकास है....... सर्वश्रेष्ठ है ......मानव को देख ऐसा लगता तो नहीं 

मैं पंजाब से हूँ, बठिंडा मझौला शहर .....अब दिल्ली में हूँ

कहते हैं कि पिछले बीस बरस में दुनिया ने लम्बी छलांग मारी है..........मुझे लगता है कि छलांग मारी तो है लेकिन कहीं बीच में रह गई यह कूद, छपाक   कीचड़ में

जो काम हल्दी और बेसन और मुलतानी मिटटी को चेहरे पर लगाने से हो जाता था उसके लिए पता नहीं कितनी ही देसी विदेशी कम्पनी खड़ी कर दी गयी

गर्मियों में माँ मुल्तानी मिट्टी से सारा बदन पोत देती थीं...फिर नहला देती कोई घंटे दो घंटे बाद.....घमौरियां खतम......यहाँ ठंडा ठंडा डर्मी-कूल पाउडर न डालो शरीर पे तो मुक्ति न हो

लगभग सत्रह साल की उम्र तक बठिंडा में रहा हूँ....न तो वहां एक्वागार्ड थे और न ही आर. ओं......नल का पानी  पी कर बड़े हुए...माँ के हाथ की सब्ज़ी रोटी खा कर बड़े हुए.......न वहां पिज़्ज़ा बर्गर थे और न ही डोसा वडा......बाज़ार अभी घर पर हावी नहीं हुआ था......वहां  का खान-पान याद करता हूँ और आज के खान पान  को  देखता हूँ तो साफ़ हो जाता है कि पूँजीपतियों का एक बड़ा घोटाला है.

लगभग सब खाना या तो  पैकेट बंद हो गया है या फिर बड़ी कम्पनी के आउटलेट से आने लगा है.......हम इस मुगालते में रहते हैं कि लोकल व्यापारी, छोटा व्यापारी क्वालिटी का ख्याल नहीं रखता...उसका बनाया सामान हल्की क्वालिटी का होता है सो बड़े ब्रांड का सामान प्रयोग किया जाए...लेकिन तमाम रिपोर्ट आती रहती  हैं कि बड़ी कम्पनी बड़ी चोर हैं......आपको नहीं पता कि वो पैकेट के अंदर जो सामान है उसमें क्या केमिकल मिले हैं और वो कितने खतरनाक हैं......ताज़ा उदहारण मैगी का है.

पता नहीं मैगी  में मिले कैमिकल कितने  खतरनाक है ....लेकिन वो है तो मैदा ही...मैदा    कौन सा विज्ञान कहता है कि खाओ? विज्ञान तो यह कहता है कि चौकर सहित आटा खाओ.....मोटा आटा...उसमें चने मिलाओ...उसमें.....बाजरा, मक्का  सब मिला सकते हो

ये हमारी नयी पीढ़ियों को बर्गर, पिज्जे और मैगी के रूप में मैदे पे मैदा खिलाये जा रहे हैं और ये क्रिकेटर और फिल्म सितारे हमारे घरों में आ समझाते हैं कि बस यही सब खाने से ख़ुशी हासिल होती है......... हमारा खान-पान, हवा पानी सब दूषित कर दिया गया.

विकास है या विकार? 

मैं अक्सर सोचता था बचपने में कि हमारी हर सब्ज़ी का रंग पीला क्यों होता है......बाद में समझ आया कि हल्दी है....दवा है....फिर सुना कि अमेरिका पेटेंट करने वाला था हल्दी पर....कभी  आप  हमारे मसालों पर नज़र घुमाओ, सब दवा हैं......अज़वायन, काला नमक, काली मिर्च, हल्दी, जीरा.....सब दवा हैं...और बाज़ार हमें हमारी रसोई से दूर कर रहा है ...यह विकास है?

पढता हूँ कई बार कि अचार नहीं खाने चाहिए...मेरा मानना है कि अचार भी दवा हैं.......आप नींबू बिना अचार के किस तरह से पूरा का पूरा खा सकते हैं? आप लहसुन, अदरक बिना अचार के किस तरह खूब सारा डकार सकते हैं? 


मैं दिल्ली के लगभग सब पांच सितारा होटलों में गया हूँ........मौर्या शेरेटन, हयात, अशोक, मेरीडियन......और भी कितने ही.....और मैंने सड़क से लेकर पञ्च सितारा होटलों तक का खाना कई कई बार खाया है......मेरा तज़ुर्बा है कि   घर में सर्वोतम खाना बनाया जा सकता है .....हाँ, विषय की  जानकारी और खोपड़ी में  अक्ल आपको होनी चाहिए 

वक्त के साथ खाने की अपनी ही शैली विकसित की है मैंने.....खूब सारा लहसुन, अदरक, नीबूं का अचार.....कच्चा प्याज़, हरी मिर्च, टमाटर, खीरा आदि.......दो पतली रोटी और ढेर सारी सब्ज़ी दाल....मैं सब्ज़ी के साथ रोटी खाता हूँ न कि रोटी के साथ सब्ज़ी और कई बार तो मात्र दाल सब्ज़ी ही .....रोटी छोड़ सकता हूँ दाल सब्ज़ी नहीं......स्प्राऊट, सोयाबीन का हलवा, भाप से पकाई सब्जियां, तंदूरी सब्जियां....वो सब भी चलता रहता है 

लोग दारू की बोतलें खाली करते हैं हमारे घर में सब पानी की बोतलें खाली करते हैं, टम्बलर से पानी कोई नहीं पीता.

मुझे भारतीय  खाने के अलावा सब खाना बकवास लगता है...लगता है अभी शैशव काल में हैं....अभी सीख रहे हाँ लेकिन अपने बाजारवाद के दम पर दुनिया पर ज़बरदस्ती थोप रहे हैं....पिज़्ज़ा क्या है? हमारे ढंग से बने आलू, गोभी, पनीर के परांठे का क्या मुकाबला? वो मैदे का बनता है, हम आटे का बनाते हैं...वो सब्ज़ी दिखाने मात्र को ऊपर डालते हैं हम दबा के अंदर भर सकते हैं......और स्वाद? स्वाद तो बस हर लिया गया है...जब अमिताभ आपके घर आ आ बतायेंगे कि मैगी स्वाद है तो आपका दिमाग कहाँ काम करेगा? आपको बेस्वाद मैगी भी दुनिया की बेहतरीन डिश लगेगी

हमारा शर्बत, शिकंजवी, ठंडाई, छाछ और  लस्सी की जगह निर्माता कम्पनीयों की सेहत बनाने के लिए कोला ड्रिंक का ज़हर हमारे बाजारों में भर दिया जाता है...और  तथाकथित हीरो लोग करोड़ों रुपैये के लालच में हमारे समाज को इन्हें पीने के लिए ललचा देते हैं   

मैक-डोनाल्ड का बर्गर मुझे लगता है कि कुत्ता भी न खाए, इतना बेस्वाद और बासा सा ..निरा मैदा...लेकिन बाज़ारवाद....दिमाग खराब. हमारे यहाँ जो वडा पाँव बिकता है......ताज़ा बनाया जाता है आपके सामने, वो उससे लाख गुणा बेहतर है

मैं अक्सर 'कॉफ़ी कैफ़े' में बैठता हूँ....वजह वहां की कॉफ़ी  बिलकुल नहीं है......वजह वहां बैठने की जगह को काम में लाना होता है.....शुरुआती मीटींग, नए लोगों के साथ.....जो  कॉफ़ी वो डेढ़ सौ रुपैये की देते हैं उससे बेहतर ज्वालाहेडी में 'अपना स्टोर' के साथ वाला देता है....एस्प्रेसो....आपके सामने....मात्र दस बीस रुपैये में.....अगर कॉफ़ी  का ही मामला हो तो

आज तक यही समझाया जाता रहा कि नमक कम खाना चाहिए...इससे रक्त चाप की बीमारी हो जाती है.....खाने में अपना नमक होता है.......मैं अक्सर हैरान होता नमक जैसी चीज़ कोई ज़्यादा खा ही कैसे सकता है? कुछ चीज़ें आप कभी ज़्यादा कर ही नहीं सकते...... एक अवधारणा है  'सेक्स ओबसेशन'...बकवास! कोई भी व्यक्ति ज़्यादा सेक्स कर ही नहीं सकता........हाँ, कम ज़रूर कर सकता है.और मेरे ख्याल से तो दुनिया कम सेक्स की शिकार है..मानव को जितना सेक्स का आनंद लेना  चाहिए, शायद उसका दस प्रतिशत ही कर पाता है .......आप सेक्स जरूरत से ज़्यादा नहीं कर सकते और न ही नमक ज़रुरत से ज़्यादा खा  सकते हैं.....एक हद के बाद नमक खाने को बेस्वाद कर देता है, कडवा कर देता है .......अब कहीं पढ़ा कि विज्ञान मानने लगा कि नमक के उस  तरह से कोई नुक्सान नहीं हैं, जैसे माना जाता रहा है.........यह है हमारी आधुनिकता?

कितनी ही दवाइयां ऐसी हैं जो बाद में नुकसानदायक सिद्ध होने पर बाज़ार से हटा ली जाती हैं ....यह है हमारी आधुनिकता?

हमारे कपड़े.....किसने कहा कि स्त्री को ऊंची हील पहननी चाहिए? वो कुदरत मूर्ख है न जिसने आपकी हील और पंजा बराबर जमीन पर टिकाया.....आप ज़्यादा सयाने हो?...संस्कृति के नाम पर विकृति...विकास के नाम पर विकार

किसने बताया कि गलफांस लगा लो तो व्यक्ति शरीफ हो जाता है? कोट पैंट पहने हो.....प्लेन शर्ट पहने हो व्यक्ति, तो शरीफ हो जाता है........बताना चाहता हूँ इंसानियत के खिलाफ सबसे बड़े जुर्म ये टाई-वाई लगाने वाले करते हैं.....तलवार से नहीं, कलम से काटते हैं

किसने बताया कि मरे मरे रंग आदमी पहने और चटक रंग स्त्री?

सब अंध-विश्वास है.

खाना पीना पहनना सब अंध विश्वास ...जब आपकी अक्ल काम न करे और आप बस विश्वास कर जाएँ तो वो सब अंध विश्वास

दूषित राजनीति और बाज़ारवाद का राक्षस हमें खा रहा है  ...हमें विभ्रमित कर रहा है...यह हमें बता रहा है कि जब तक आप स्टारबक्स की  कॉफ़ी के सैंकड़ों रुपैये खर्च नहीं करेंगे आपकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी.....आप वहां पहुँच मात्र खुश होने के लिए खुश हो सकते हैं....मात्र इसलिए  खुश हो सकते हैं कि आप वहां पर हैं

जिन दिनों मेरा पञ्च तारा होटलों में बहुत आना जाना रहता था..मैं अक्सर  देखता लोग एक अजीब तरह की मानसिकता में होते......जैसे कोई सुंदर लड़की का हर अंग प्रत्यंग, हर भाव भंगिमा कहती फिरती हो, "मैं सुंदर हूँ, मैं सुंदर हूँ," ऐसे ही लोग खुश होते फिरते, "मैं पञ्च तारा में हूँ, मैं पञ्च तारा में हूँ"......जो लोग ऑटो टैक्सी वाले को कभी दस रुपैये न दें, वो वहां बैरे को, गार्ड को सौ रुपैये टिप दे देते.....इसी तरह का अहसास हमारी तथा कथित आधुनिकता हमें देती है, "हम आधुनिक हैं, हम आधुनिक हैं" और हम अपनी जेबें कटाने को तैयार हो जाते हैं

हम बर्गर, पिज़ा, मैगी इसलिए खा रहे हैं कि हमारे दिमागों में बिठाया गया है कि इनको खाना आधुनिक है.

अक्सर अच्छे खासे लोग मैकडोनल्ड के  कर्मचारियों से बात करते हिचकिचाते हैं......सोचते हैं कोई और ही ले आये उनके लिए बर्गर....या फिर ज़बरदस्ती उनके साथ अंग्रेज़ी बोलते हैं..... बस जैसे तैसे.......आधुनिकता! नकली...सिखाई हुई

आधुनिकता ने एक और राक्षस को जन्म दिया है...उसका नाम है 'प्लास्टिक'....हमारे जीवन के लगभग हर पहलु को छूता  है...जो चीज़ें अच्छी भली और मटेरिअल की बनाई जाती थीं.....वो भी प्लास्टिक की बनाई जाने लगी......आप पहाड़ों पर चले जाओ, झरनों पर या समुद्री तटों पर......प्लास्टिक का राक्षस हर जगह मिल जाएगा.....यदि मानव जाति को बचना है तुरत प्रभाव  से इसे लगभग बंद कर दिया जाना चाहिए

आधुनिकता मतलब नवीनीकरण ही नहीं होता.....न हर नया अच्छा होता है और न ही हर पुराना बुरा........न हर पुराना अच्छा होता है और न ही हर नया बुरा......लेकिन खामख्वाह पुराने का विरोध भी आधुनिकता नहीं ..आधुनिकता पुरातनपंथी, पोंगापंथी, नवीनपन्थी में से कुछ भी नहीं है 

आधुनिकता शब्द बना है अधुना से.....अधुना मतलब अभी, वर्तमान.....अभी हमें क्या करना चाहिए? कैसे जीना चाहिए? .....आधुनिकता का मतलब पश्चिमीकरण नहीं है ....पूर्वीकरण भी नहीं है ...और न ही उत्तरीकरण या द्क्षिणीकरण ...आधुनिकीकरण मतलब अभी के हिसाब से सर्वोतम रहनसहन......और वो सर्वोतम कहीं से भी आता हो सकता है पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण कहीं से भी .....कल दूसरे ग्रहों से भी .....यह है आधुनिकता 

मेरी इस परिभाषा के मद्देनज़र मुझे नहीं लगता कि हम आधुनिक हुए हैं....मुझे नहीं लगता कि हमारा विकास हुआ है.

मुझे लगता है हम बहुत मामलों में पिछड़ गए हैं, प्रकृति  से बिछड़ गए हैं.......हमारा रहन सहन प्राकृतिक से सुसंस्कृतिक नहीं, विकृत हो गया है...... हमारे बच्चे हम से निम्नतर जीवन जी रहे हैं......हम में  विकास नहीं विकार पैदा हुआ है.....हम विकास नहीं विनाश की और अग्रसर हैं

इलाज़ क्या है? और कुछ नहीं आप मेरा यह आर्टिकल ही पढ़ा दीजिये अपने इर्द गिर्द सब को.....आपको दिनों में लोग बदलते नज़र आयेंगे.

नमन.....कॉपी राईट.....चुराएं न साझा कर सकते हैं

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