आज मैं निश्चित ही परिवार व्यवस्था के खिलाफ हूँ और भविष्य को परिवार विहीन देखता हूँ या दूसरे शब्दों में "वसुधैव कुटुम्बकम" और "विश्व बंधुत्व" की धारणाओं को साकार हुआ जाता देखता हूँ
असल में "वसुधैव कुटुम्बकम" और "विश्व बंधुत्व" जैसी धारणाएं और परिवार व्यवस्था दोनों विपरीत हैं, जब तक परिवार रहेंगे तब तक विश्व एक नहीं होगा....कभी आपने सोचा हो कि दुनिया में जितनी भी दीवारें हैं, वो हैं क्यों? आपके और आपके पड़ोसी के बीच दीवार क्यों है? मात्र इसलिए कि वो अलग परिवार है, आप एक अलग परिवार हैं.
लेकिन जब तक यह समझ आया शादी हो चुकी थी.....शादी हुई , तो परिवार बन गया, रिश्तेदारी बढ़ गई...........किसी का जीजा, किसी का फूफा, तो किसी का मासड बन गया
अब रिश्तेदारी हुई तो निभानी भी पड़ती हैं, चयूइंग गम स्वाद हो न हो चबानी भी पड़ती हैं, ढोल हो या ढोलकी, जब गले पड़ गई तो बजानी भी पड़ती है......डिश बेमज़ा हो, बेल्ज्ज़त हो लेकिन खानी भी पड़ती है
मुझे लगता था कि रिश्तेदार मात्र रस्में निभाते हैं...कोई मर गया तो जाना आना होता है....
कोई शादी हो तो शक्ल दिखाना होता है....शगुन दो, खाना खाओ और दफ़ा हो जाओ, फ़िर बरसों तक 'तू कौन मैं कौन'?
कोई मर गया, अफ़सोस प्रकट करो, अफ़सोस हो न हो , लेकिन प्रकट करो....आप शायद ठीक से पहचानते भी न हो, जो मरा है उसे, शायद कोई नशेड़ी भंगेड़ी था जिसके मरने से उसके घर वाले खुद बहुत खुश हों लेकिन चूँकि रिश्तेदारी पड़ती है सो नकली ही सही, गमज़दा शक्ल बनाए रखना है
'मृत्यु क्रिया' पर वक्ता की बकबक सुनना, ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल क्षण...वो आइंस्टीन ने कहीं कहा कि सापेक्षता का सिद्धांत समझना हो तो मान लीजिये कि आप बगीचे में अपनी गर्ल/बॉय फ्रेंड के साथ बैठे हैं, समय उड़ता प्रतीत होगा और यदि आपको गर्म तवे पर बैठा दिया जाए तो समय ठहर सा गया लगेगा....मुझे लगता है कि आइंस्टीन को गर्म तवे की बजाए, किसी की क्रिया पर मन्दिर, गुरूद्वारे में बैठने की मिसाल देनी चाहिए...समय लगता है मानो सरकारी फाइल की गति चल रहा हो, बीत ही नहीं रहा होता, दुनिया नीरस लगने लगती है......लगता है खुद ही मर जाएँ.
खैर, जैसे तैसे निबटाई जाती हैं रिश्तेदारियां, यारियां.
ससुराल यदि पूछेगी भी तो अपनी औलाद की वजह से, दामाद/बहू को कभी कोई गलत फहमी नहीं पालनी चाहिए कि ससुराल से उसका कोई सीधा रिश्ता है...इसलिए अंग्रेज़ी में अच्छे से कहा जाता है..."मदर-इन-लॉ", "ब्रदर-इन-लॉ", "सिस्टर-इन-लॉ".......कोई गलतफहमी न पालें......रिश्ता मात्र कानूनी है.......माँ भी है, बहन भी है , भाई भी लेकिन सब कानूनी.....चूँकि पति पत्नी का रिश्ता बांधा ही जाता है कानून से, सो कानूनी रिश्तेदारियां.......खैर, ससुराल वाले हर दम अपने ही बच्चे की तरफ झुकते हैं, अपने बच्चे की गलती भी हो तो उस पर पर्दा डालेंगे, साथ अपने ही बच्चे का देंगे
और सांडू.... सांडू का रिश्ता....यह तो एक अजीब ही रिश्ता है........एक तरह की अदृश्य दौड़ होती है सांडूयों में.....एक तरह का कम्पटीशन......बहनों बहनों में अक्सर बन जाती है लेकिन सांडूयो में बहुत कम गहरी छनती है.......
हमारे यहाँ साली आधी घरवाली समझी जाती है और गाली भी. अब पता नहीं, आधी घरवाली को कोई गाली कैसे दे सकता है या शायद आधी है, इसीलिए गाली समझा जाता है. लेकिन गाली तो साला भी बन चुके हैं. क्यूँ? पत्नी से सम्बन्धित हैं, स्त्री से. पुरुष समाज का वर्चस्व प्रदर्शन. और जीजाजी बहुत सम्माननीय. जिनके आगे भी जी लगता है और पीछे भी. शादी के बाद भी कहीं कहीं तो दीदी जीजी हो जाती हैं लेकिन जीजा दीदा नहीं होते. पुरुष वर्चस्व. अब यह बात दीगर है कि जो जीजा हैं वो किसी के साले भी होते हैं और जो साले हैं वो किसी के जीजा भी. अजीब चक्कर है, कहीं ज़हर तो कहीं शक्कर है
पति के छोटे भाई को देवर कहा जाता है, दूसरे नंबर का वर यानि पति. और देवर भाभी का मज़ाक भी आम बात मानी जाती है. उधर जयेष्ठ जेठ हो चुके हैं, उनका दर्जा पिता समान माना जाता है. माना तो देवर को भी बेटा समान है लेकिन वो देवर भी हो सकते हैं लेकिन जेठ जेवर होते कभी नहीं सुने. वैसे एक फिल्म आई थी बहुत पहले हेमा मालिनी और ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों थे, हेमा मालिनी का पति मर जाता है और देवर ऋषि कपूर के साथ उसकी शादी तय होती है, वो देवर जिसे वो बेटा मानती आई थी. बहुत छोटा था, यह फिल्म गंगानगर में अकेले एक सिनेमा हाल पर देखे थी. एक चादर मैली सी. अस्तु, रंग बदलती पारिवारिक अवस्था की वजह से दोनों आप्शन रखे जाते थे.शायद अब भी प्रासंगिकता हो लेकिन बड़ी ही बेहूदी है.
भाई भाई की कहीं बहुत बनती है, कहीं जायदाद के लिए मुकद्दमे लड़ रहे होते हैं, जिसके पास कब्जा होता है पुश्तैनी प्रॉपर्टी का, वो या तो हिस्सा देना नहीं चाहता, या बराबर नहीं देना चाहता अपने बाकी भाई बहनों को.....मेरा वास्ता रहा है, अभी भी है प्रॉपर्टी के धंधे से.....आपको कोर्ट में कितने ही केस मिल जायेंगे "पार्टीशन सूट".....भाई बहन और उनके उत्तराधिकारियों के बीच....दिल्ली की पुरानी कोठियों में तकरीबन हर ब्लॉक में ऐसा मुकदमा मिल जाएगा, शायद हर गली में
खैर, बहनों से याद आया, भाई लोग बहनों से राखी पर तो बहुत प्रेम दिखायेंगे लेकिन जायदाद में उसे हिस्सा देकर राज़ी ही नहीं होते, या फिर सस्ते में ही निपटा देना चाहते हैं....अगर किसी बहन के हिम्मत कर भी ली तो उससे राखी तक का रिश्ता तोड़ देते हैं .....
बहनों बहनों में इसलिए ज़्यादा बन जाती है चूँकि जायदाद के मामले में वो लगभग एक ही धरातल पर खड़ी होती हैं सो कोई संघर्ष तो होता नहीं, प्रेम बना रहता है
तमाम विसंगतियां हैं रिश्तेदारियों में, लेकिन फिर भी आज मेरा अनुभव यह है कि रिश्ते बहुत काम आते हैं, रिश्ते हमारी रीढ़ होते हैं, सुख दुःख के साथी होते हैं.......
बीवी का हाथ टूट गया था, ससुराल पास में ही है सो लगभग दो महीने तक कपड़े धोना,खाना पीना सब इंतज़ाम वो ही करते रहे. छोटी बेटी तो रहती ही नानी के घर है.
पीछे किसी काम के लिए धन की वक्ती ज़रुरत थी तो बड़े भाई साहेब (Cousin) ने तुरत मदद की
माँ के कूल्हे की हड्डी टूट गई तो भी सब रिश्तेदार मौजूद रहे, और जो जैसे मदद कर सकता था, की
मेरा नजरिया बदल गया है....
हालांकि मैं ऊपर लिख आया हूँ, मुझे अनेक विसंगतियाँ दीखती हैं रिश्तेदारियों में...बहुत बार जो रिश्तेदार सक्षम है, अच्छे सम्बन्ध होने पर भी मदद नहीं करता .....बहुत बार रिश्तेदारों के व्यवहार बिलकुल नकली लगते हैं
लेकिन इस सब के बावज़ूद आज मेरा तजुर्बा यह है कि रिश्तेदार भी आम इंसान की तरह ही होते हैं.....यदि हम उनसे सही से पेश आयें....उनके दुःख सुख को समझें और यथासम्भव हल भी करने का प्रयास करें तो वो लोग भी अपनी तरफ से अच्छा व्यवहार पेश करते हैं
मानवीय सम्बन्धों में रिश्तों की डोर का एक भरोसा होता है सो मदद करते हुए रिस्क भी लिया जाता है, वो रिस्क जो किसी अनजान के साथ आसानी से नहीं लिया जाता. आपको यदि अपने किसी भाई, भतीजे की रूपए से मदद करनी हो तो आप कर देते हैं चूँकि परिवार का मामला है, आप उम्मीद करते हैं कि मदद पानी में नहीं जायेगी, यही मदद आप किसी राह जाते व्यक्ति की नहीं करते हैं, उतनी आसानी से तो नहीं करते . अब मेरा मतलब यह नहीं कि राह जाते बंदे की मदद न की जाए, या नहीं की जाती.....मैं एक आम सामाजिक व्यवहार लिख रहा हूँ
मैंने पीछे लिखा था कहीं कि मैंने हसन निसार साहेब के एक इंटरव्यू में उन्हें कहता सुना कि इंसान की गहराई नापने का एक पैमाना यह भी है कि उसने अपने पुराने रिश्ते कहाँ तक सम्भाल रखे हैं.
सो मेरा मानना यह है कि हमारे रिश्तेदार इन्सान है हमारी तरह, रोबोट नहीं हैं और इंसानी व्यवहार भावनाओं की वजह से, आर्थिक वजहों से, अवचेतन प्रोग्रामिंग की वजह से बहुत बार अतार्किक हो जाता है, अजीब हो जाता है, संकीर्ण हो जाता है, स्वार्थी हो जाता है, बेतुका हो जाता है लेकिन यदि हसन निसार साहेब का सबक याद रखा जाए तो रिश्तेदारियां, यारियां बेहतर निभाई जा सकती हैं
मैंने पीछे कोई दो साल पहले दीवाली के बहाने अपने कुछ प्यारे मित्रों से फिर से सम्बन्ध स्थापित किये जिनसे बहुत छोटी छोटी वजहों से रिश्ते खतम कर चुका था
एक दोस्त के यहाँ गया दीवाली लेकर, डरता डरता. कोई छः साल पहले रिश्ता खत्म कर चुका था. फिर एकाएक जैसे अक्ल का बल्ब जला. पहुँच गया. दरवाज़े तक दिमाग में रस्साकशी चलती रही. कहीं पहचानने से इनकार न कर दें. कहीं पुराने गिले शिकवे न निकाल बैठें. कहीं छूटते ही माहौल गर्म न हो जाए. कहीं धक्के मार खदेड़ न दें. और भी पता नहीं क्या क्या .......
जैसे ही दरवाज़ा खुला भाभी सकपका गई लेकिन कुछ ही क्षणों बाद मुस्कराने लगी. अंदर बुलाया, और बस छः सालों का अंतराल चंद मिनटों में ही काफूर हो गया
और एक दोस्त हैं, उन चंद लोगों में से जो मुझे 'तू' करके बुलाते हैं.......एक बार एक छोटा सा फंक्शन कर रहे थे, शायद उसने पहले से दारु पी रखी थी. कुछ बोला, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कि बुरा माना जाए. मेरा ही दिमाग खराब था. उसे डांट कर भगा दिया. फिर शायद दो साल बीत गए. मेरी अक्ल का बल्ब जगा. पहुँच गया उसके दरवाज़े पर. माफी माँगी उससे. परिवार के सामने मैंने उससे बेहूदगी की थी, सो माफी भी सपरिवार माँगी, उसके परिवार के सामने माँगी. अब रिश्ता पहले जैसा है
एक Cousin हैं , आगे उनका बड़ा परिवार है, मुझ से बड़े हैं उम्र में काफी. उनके बच्चे लगभग मेरे और पत्नी की उम्र के. हमें लगता कि वो हमें अपने फंक्शन में बुलाते तो हैं लेकिन ठीक से व्यवहार नहीं करते. इंतज़ार करते हैं कि हम पहले बुलाएं, नमस्कार करें तो ही आगे से जवाब देंगे. एक बार तो हम उनका एक जन्मदिन का प्रोग्राम बीच में छोड़ आए. खैर, रूठना मनाना चलता रहा. आज मैं समझता हूँ कि उनकी छुट-पुट गलतियाँ तो थीं लेकिन गहरे में कहीं कुछ बहुत नेगेटिव था नहीं. शायद हम भी बहुत ध्यान दे रहे थे कि कौन पहले नमस्ते कर रहा है, शायद हम बहुत छोटी चीज़ों पर ध्यान दे रहे थे. वो मुद्दे होते हुए भी बड़े मुद्दे नहीं थे. आज सम्बन्ध बहुत मधुर हैं.
खैर, निष्कर्ष यह है कि हमारे समाज का ताना बाना ऐसा है कि हमारी रिश्तेदारियों में तमाम तामझाम हैं, रिश्ते बनते बिगड़ते रहते हैं, लेकिन बिगड़ जाएं तो फिर से बना लीजिये और रहीम को गलत साबित कीजिये कि प्रेम की डोर टूट जाए तो फिर नहीं जुडती, जुड़ जाए तो पहले जैसी नहीं रहती.... मैं अपने जीवन में इसे गलत साबित होते देख रहा हूँ, आप भी देख सकते हैं.
रिश्ते बनाना और बनाए रखना इसलिए ज़रूरी है कि रिश्ते हमारी भावनात्मक, बौद्धिक और आर्थिक रीढ़ होते हैं, एक दूजे की ऊर्जा होते हैं, एक दूजे की जान होते हैं, एक दूजे का प्राण होते हैं
मित्रवर, जो कुछ भी मैंने लिखा है, वो मेरी एक आम धारणा है, गणना है. हो सकता है किसी की अपने सांडू से बहुत अच्छी पटती हो, हो सकता किसी की अपनी बहन से बिलकुल न जमती हो, हो सकता है किसी की सासू माँ सगी माँ से भी ज़्यादा प्यार करती हों और यदि अपने बच्चे की गलती हो तो उसका साथ न दे कर अपनी बहू या दामाद का साथ देते हों, हो सकता है आपकी दोस्त या रिश्तेदार जिनसे आपकी बिगड़ी हो वो बिगड़ी आपको आज भी बनाने के काबिल ही न लगती हो.
हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. आप आप हैं और मैं मैं. असल में हम सब मैं मैं हूँ, हैं.
सो निश्चित तौर पर तो आप ही बेहतर अपनी स्थितियों को समझ सकते हैं, ज़रूरी नहीं कि समझते ही हों लेकिन समझ सकते हैं
हो सकता है मैं सही होऊं, हो सकता न होऊं, आप आमंत्रित हैं अपने तजुर्बे और विचारों को पेश करने के लिए.
सादर नमन, कॉपी राईट
असल में "वसुधैव कुटुम्बकम" और "विश्व बंधुत्व" जैसी धारणाएं और परिवार व्यवस्था दोनों विपरीत हैं, जब तक परिवार रहेंगे तब तक विश्व एक नहीं होगा....कभी आपने सोचा हो कि दुनिया में जितनी भी दीवारें हैं, वो हैं क्यों? आपके और आपके पड़ोसी के बीच दीवार क्यों है? मात्र इसलिए कि वो अलग परिवार है, आप एक अलग परिवार हैं.
लेकिन जब तक यह समझ आया शादी हो चुकी थी.....शादी हुई , तो परिवार बन गया, रिश्तेदारी बढ़ गई...........किसी का जीजा, किसी का फूफा, तो किसी का मासड बन गया
अब रिश्तेदारी हुई तो निभानी भी पड़ती हैं, चयूइंग गम स्वाद हो न हो चबानी भी पड़ती हैं, ढोल हो या ढोलकी, जब गले पड़ गई तो बजानी भी पड़ती है......डिश बेमज़ा हो, बेल्ज्ज़त हो लेकिन खानी भी पड़ती है
मुझे लगता था कि रिश्तेदार मात्र रस्में निभाते हैं...कोई मर गया तो जाना आना होता है....
कोई शादी हो तो शक्ल दिखाना होता है....शगुन दो, खाना खाओ और दफ़ा हो जाओ, फ़िर बरसों तक 'तू कौन मैं कौन'?
कोई मर गया, अफ़सोस प्रकट करो, अफ़सोस हो न हो , लेकिन प्रकट करो....आप शायद ठीक से पहचानते भी न हो, जो मरा है उसे, शायद कोई नशेड़ी भंगेड़ी था जिसके मरने से उसके घर वाले खुद बहुत खुश हों लेकिन चूँकि रिश्तेदारी पड़ती है सो नकली ही सही, गमज़दा शक्ल बनाए रखना है
'मृत्यु क्रिया' पर वक्ता की बकबक सुनना, ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल क्षण...वो आइंस्टीन ने कहीं कहा कि सापेक्षता का सिद्धांत समझना हो तो मान लीजिये कि आप बगीचे में अपनी गर्ल/बॉय फ्रेंड के साथ बैठे हैं, समय उड़ता प्रतीत होगा और यदि आपको गर्म तवे पर बैठा दिया जाए तो समय ठहर सा गया लगेगा....मुझे लगता है कि आइंस्टीन को गर्म तवे की बजाए, किसी की क्रिया पर मन्दिर, गुरूद्वारे में बैठने की मिसाल देनी चाहिए...समय लगता है मानो सरकारी फाइल की गति चल रहा हो, बीत ही नहीं रहा होता, दुनिया नीरस लगने लगती है......लगता है खुद ही मर जाएँ.
खैर, जैसे तैसे निबटाई जाती हैं रिश्तेदारियां, यारियां.
ससुराल यदि पूछेगी भी तो अपनी औलाद की वजह से, दामाद/बहू को कभी कोई गलत फहमी नहीं पालनी चाहिए कि ससुराल से उसका कोई सीधा रिश्ता है...इसलिए अंग्रेज़ी में अच्छे से कहा जाता है..."मदर-इन-लॉ", "ब्रदर-इन-लॉ", "सिस्टर-इन-लॉ".......कोई गलतफहमी न पालें......रिश्ता मात्र कानूनी है.......माँ भी है, बहन भी है , भाई भी लेकिन सब कानूनी.....चूँकि पति पत्नी का रिश्ता बांधा ही जाता है कानून से, सो कानूनी रिश्तेदारियां.......खैर, ससुराल वाले हर दम अपने ही बच्चे की तरफ झुकते हैं, अपने बच्चे की गलती भी हो तो उस पर पर्दा डालेंगे, साथ अपने ही बच्चे का देंगे
और सांडू.... सांडू का रिश्ता....यह तो एक अजीब ही रिश्ता है........एक तरह की अदृश्य दौड़ होती है सांडूयों में.....एक तरह का कम्पटीशन......बहनों बहनों में अक्सर बन जाती है लेकिन सांडूयो में बहुत कम गहरी छनती है.......
हमारे यहाँ साली आधी घरवाली समझी जाती है और गाली भी. अब पता नहीं, आधी घरवाली को कोई गाली कैसे दे सकता है या शायद आधी है, इसीलिए गाली समझा जाता है. लेकिन गाली तो साला भी बन चुके हैं. क्यूँ? पत्नी से सम्बन्धित हैं, स्त्री से. पुरुष समाज का वर्चस्व प्रदर्शन. और जीजाजी बहुत सम्माननीय. जिनके आगे भी जी लगता है और पीछे भी. शादी के बाद भी कहीं कहीं तो दीदी जीजी हो जाती हैं लेकिन जीजा दीदा नहीं होते. पुरुष वर्चस्व. अब यह बात दीगर है कि जो जीजा हैं वो किसी के साले भी होते हैं और जो साले हैं वो किसी के जीजा भी. अजीब चक्कर है, कहीं ज़हर तो कहीं शक्कर है
पति के छोटे भाई को देवर कहा जाता है, दूसरे नंबर का वर यानि पति. और देवर भाभी का मज़ाक भी आम बात मानी जाती है. उधर जयेष्ठ जेठ हो चुके हैं, उनका दर्जा पिता समान माना जाता है. माना तो देवर को भी बेटा समान है लेकिन वो देवर भी हो सकते हैं लेकिन जेठ जेवर होते कभी नहीं सुने. वैसे एक फिल्म आई थी बहुत पहले हेमा मालिनी और ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों थे, हेमा मालिनी का पति मर जाता है और देवर ऋषि कपूर के साथ उसकी शादी तय होती है, वो देवर जिसे वो बेटा मानती आई थी. बहुत छोटा था, यह फिल्म गंगानगर में अकेले एक सिनेमा हाल पर देखे थी. एक चादर मैली सी. अस्तु, रंग बदलती पारिवारिक अवस्था की वजह से दोनों आप्शन रखे जाते थे.शायद अब भी प्रासंगिकता हो लेकिन बड़ी ही बेहूदी है.
भाई भाई की कहीं बहुत बनती है, कहीं जायदाद के लिए मुकद्दमे लड़ रहे होते हैं, जिसके पास कब्जा होता है पुश्तैनी प्रॉपर्टी का, वो या तो हिस्सा देना नहीं चाहता, या बराबर नहीं देना चाहता अपने बाकी भाई बहनों को.....मेरा वास्ता रहा है, अभी भी है प्रॉपर्टी के धंधे से.....आपको कोर्ट में कितने ही केस मिल जायेंगे "पार्टीशन सूट".....भाई बहन और उनके उत्तराधिकारियों के बीच....दिल्ली की पुरानी कोठियों में तकरीबन हर ब्लॉक में ऐसा मुकदमा मिल जाएगा, शायद हर गली में
खैर, बहनों से याद आया, भाई लोग बहनों से राखी पर तो बहुत प्रेम दिखायेंगे लेकिन जायदाद में उसे हिस्सा देकर राज़ी ही नहीं होते, या फिर सस्ते में ही निपटा देना चाहते हैं....अगर किसी बहन के हिम्मत कर भी ली तो उससे राखी तक का रिश्ता तोड़ देते हैं .....
बहनों बहनों में इसलिए ज़्यादा बन जाती है चूँकि जायदाद के मामले में वो लगभग एक ही धरातल पर खड़ी होती हैं सो कोई संघर्ष तो होता नहीं, प्रेम बना रहता है
तमाम विसंगतियां हैं रिश्तेदारियों में, लेकिन फिर भी आज मेरा अनुभव यह है कि रिश्ते बहुत काम आते हैं, रिश्ते हमारी रीढ़ होते हैं, सुख दुःख के साथी होते हैं.......
बीवी का हाथ टूट गया था, ससुराल पास में ही है सो लगभग दो महीने तक कपड़े धोना,खाना पीना सब इंतज़ाम वो ही करते रहे. छोटी बेटी तो रहती ही नानी के घर है.
पीछे किसी काम के लिए धन की वक्ती ज़रुरत थी तो बड़े भाई साहेब (Cousin) ने तुरत मदद की
माँ के कूल्हे की हड्डी टूट गई तो भी सब रिश्तेदार मौजूद रहे, और जो जैसे मदद कर सकता था, की
मेरा नजरिया बदल गया है....
हालांकि मैं ऊपर लिख आया हूँ, मुझे अनेक विसंगतियाँ दीखती हैं रिश्तेदारियों में...बहुत बार जो रिश्तेदार सक्षम है, अच्छे सम्बन्ध होने पर भी मदद नहीं करता .....बहुत बार रिश्तेदारों के व्यवहार बिलकुल नकली लगते हैं
लेकिन इस सब के बावज़ूद आज मेरा तजुर्बा यह है कि रिश्तेदार भी आम इंसान की तरह ही होते हैं.....यदि हम उनसे सही से पेश आयें....उनके दुःख सुख को समझें और यथासम्भव हल भी करने का प्रयास करें तो वो लोग भी अपनी तरफ से अच्छा व्यवहार पेश करते हैं
मानवीय सम्बन्धों में रिश्तों की डोर का एक भरोसा होता है सो मदद करते हुए रिस्क भी लिया जाता है, वो रिस्क जो किसी अनजान के साथ आसानी से नहीं लिया जाता. आपको यदि अपने किसी भाई, भतीजे की रूपए से मदद करनी हो तो आप कर देते हैं चूँकि परिवार का मामला है, आप उम्मीद करते हैं कि मदद पानी में नहीं जायेगी, यही मदद आप किसी राह जाते व्यक्ति की नहीं करते हैं, उतनी आसानी से तो नहीं करते . अब मेरा मतलब यह नहीं कि राह जाते बंदे की मदद न की जाए, या नहीं की जाती.....मैं एक आम सामाजिक व्यवहार लिख रहा हूँ
मैंने पीछे लिखा था कहीं कि मैंने हसन निसार साहेब के एक इंटरव्यू में उन्हें कहता सुना कि इंसान की गहराई नापने का एक पैमाना यह भी है कि उसने अपने पुराने रिश्ते कहाँ तक सम्भाल रखे हैं.
सो मेरा मानना यह है कि हमारे रिश्तेदार इन्सान है हमारी तरह, रोबोट नहीं हैं और इंसानी व्यवहार भावनाओं की वजह से, आर्थिक वजहों से, अवचेतन प्रोग्रामिंग की वजह से बहुत बार अतार्किक हो जाता है, अजीब हो जाता है, संकीर्ण हो जाता है, स्वार्थी हो जाता है, बेतुका हो जाता है लेकिन यदि हसन निसार साहेब का सबक याद रखा जाए तो रिश्तेदारियां, यारियां बेहतर निभाई जा सकती हैं
मैंने पीछे कोई दो साल पहले दीवाली के बहाने अपने कुछ प्यारे मित्रों से फिर से सम्बन्ध स्थापित किये जिनसे बहुत छोटी छोटी वजहों से रिश्ते खतम कर चुका था
एक दोस्त के यहाँ गया दीवाली लेकर, डरता डरता. कोई छः साल पहले रिश्ता खत्म कर चुका था. फिर एकाएक जैसे अक्ल का बल्ब जला. पहुँच गया. दरवाज़े तक दिमाग में रस्साकशी चलती रही. कहीं पहचानने से इनकार न कर दें. कहीं पुराने गिले शिकवे न निकाल बैठें. कहीं छूटते ही माहौल गर्म न हो जाए. कहीं धक्के मार खदेड़ न दें. और भी पता नहीं क्या क्या .......
जैसे ही दरवाज़ा खुला भाभी सकपका गई लेकिन कुछ ही क्षणों बाद मुस्कराने लगी. अंदर बुलाया, और बस छः सालों का अंतराल चंद मिनटों में ही काफूर हो गया
और एक दोस्त हैं, उन चंद लोगों में से जो मुझे 'तू' करके बुलाते हैं.......एक बार एक छोटा सा फंक्शन कर रहे थे, शायद उसने पहले से दारु पी रखी थी. कुछ बोला, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कि बुरा माना जाए. मेरा ही दिमाग खराब था. उसे डांट कर भगा दिया. फिर शायद दो साल बीत गए. मेरी अक्ल का बल्ब जगा. पहुँच गया उसके दरवाज़े पर. माफी माँगी उससे. परिवार के सामने मैंने उससे बेहूदगी की थी, सो माफी भी सपरिवार माँगी, उसके परिवार के सामने माँगी. अब रिश्ता पहले जैसा है
एक Cousin हैं , आगे उनका बड़ा परिवार है, मुझ से बड़े हैं उम्र में काफी. उनके बच्चे लगभग मेरे और पत्नी की उम्र के. हमें लगता कि वो हमें अपने फंक्शन में बुलाते तो हैं लेकिन ठीक से व्यवहार नहीं करते. इंतज़ार करते हैं कि हम पहले बुलाएं, नमस्कार करें तो ही आगे से जवाब देंगे. एक बार तो हम उनका एक जन्मदिन का प्रोग्राम बीच में छोड़ आए. खैर, रूठना मनाना चलता रहा. आज मैं समझता हूँ कि उनकी छुट-पुट गलतियाँ तो थीं लेकिन गहरे में कहीं कुछ बहुत नेगेटिव था नहीं. शायद हम भी बहुत ध्यान दे रहे थे कि कौन पहले नमस्ते कर रहा है, शायद हम बहुत छोटी चीज़ों पर ध्यान दे रहे थे. वो मुद्दे होते हुए भी बड़े मुद्दे नहीं थे. आज सम्बन्ध बहुत मधुर हैं.
खैर, निष्कर्ष यह है कि हमारे समाज का ताना बाना ऐसा है कि हमारी रिश्तेदारियों में तमाम तामझाम हैं, रिश्ते बनते बिगड़ते रहते हैं, लेकिन बिगड़ जाएं तो फिर से बना लीजिये और रहीम को गलत साबित कीजिये कि प्रेम की डोर टूट जाए तो फिर नहीं जुडती, जुड़ जाए तो पहले जैसी नहीं रहती.... मैं अपने जीवन में इसे गलत साबित होते देख रहा हूँ, आप भी देख सकते हैं.
रिश्ते बनाना और बनाए रखना इसलिए ज़रूरी है कि रिश्ते हमारी भावनात्मक, बौद्धिक और आर्थिक रीढ़ होते हैं, एक दूजे की ऊर्जा होते हैं, एक दूजे की जान होते हैं, एक दूजे का प्राण होते हैं
मित्रवर, जो कुछ भी मैंने लिखा है, वो मेरी एक आम धारणा है, गणना है. हो सकता है किसी की अपने सांडू से बहुत अच्छी पटती हो, हो सकता किसी की अपनी बहन से बिलकुल न जमती हो, हो सकता है किसी की सासू माँ सगी माँ से भी ज़्यादा प्यार करती हों और यदि अपने बच्चे की गलती हो तो उसका साथ न दे कर अपनी बहू या दामाद का साथ देते हों, हो सकता है आपकी दोस्त या रिश्तेदार जिनसे आपकी बिगड़ी हो वो बिगड़ी आपको आज भी बनाने के काबिल ही न लगती हो.
हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. आप आप हैं और मैं मैं. असल में हम सब मैं मैं हूँ, हैं.
सो निश्चित तौर पर तो आप ही बेहतर अपनी स्थितियों को समझ सकते हैं, ज़रूरी नहीं कि समझते ही हों लेकिन समझ सकते हैं
हो सकता है मैं सही होऊं, हो सकता न होऊं, आप आमंत्रित हैं अपने तजुर्बे और विचारों को पेश करने के लिए.
सादर नमन, कॉपी राईट
Hello sir, main b osho premi hoon. Aaj pehli baar aap mujhe apne jaise lage. Mere vichaar kisi ne kabhi nahi maane and maine bahut osho followers se b vichaar share kiye lekin woh sab sirf followers hee nikle, koi b osho ki samaj ko nahi samaj saka.
ReplyDeleteAaj pehli baar mujhe laga k main sahi hoon kyun k rishton k baare me and politics k baare me mere b vichaar aap jaise hain.
And i salute you for your precious thinking at all about issues....thank again
शुक्रिया....विक्की जी
Delete