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Showing posts from January, 2021

बेटियाँ तो सांझी होती हैं

रेशमा की शादी थी. सारा मोहल्ला जैसे जोश में था. "ओये...तू टेंट सम्भाल." "ओये तू हलवाई को सामान लाकर दे." "ओये तूने बामण को बुलाना है." "तूने ये...." "तूने वो.." बेटियाँ तो सांझी होती हैं. रेशमा सिर्फ कुलवंत की बेटी नहीं थी, सारे मोहल्ले की बेटी थी. सबसे ज़्यादा काम रुलदू चाचा ने सम्भाल रखा था. वो तो जैसे पागल ही हो रखा था. कभी इधर भाग रहा था, कभी उधर. कहीं कोई कमी न रह जाए. चाहे बारात अगली गली से ही आनी थी लेकिन फिर भी टेंशन थी कि कहीं कोई बाराती नाराज़ न चला जाये. बारात विदा हुयी तो सारे मोहल्ले की आँखें गीली थीं. समय उड़ता गया. रेशमा की बेटी जवान हो गयी. उसकी शादी तय हुई. लेकिन अब ज़माना बदल गया था. अब कोई चिंता नहीं थी, पहले की तरह. सब काम बैंक्वेट वाले सम्भाल लेते हैं. न हलवाई की चिंता, न टेंट की. बस प्लेट के हिसाब से पैसे देने होते हैं. शहर का अच्छा बैंक्वेट बुक किया रेशमा ने. कोई 1500 रुपये प्रति प्लेट का खर्चा तय हुआ. रेशमा ने सिर्फ करीबी रिश्तेदार और बिज़नस पार्टनर बुलाये. गली-मोहल्ले के सब लोग लिस्ट से हटा दिए गए. रुलदू चाचा अब...

चीकू

 चीकू. वो शुरू से ही सुंदर सा था, सफेद और बीच-बीच में काले धब्बे. कद छोटा। छोटा सा जवान कुत्ता,  उसे कोई मोहल्ले  में छोड़ गया था या शायद वो खुद ही कहीं से आन  टपका था.  जिस घर के सामने वो बैठता था, वो उसे खूब प्यार-दुलार, खाना-दाना  देता था लेकिन फिर घर वालों को कोई और कुत्ता भा गया, जो चीकू से कहीं लम्बा -चौड़ा था.  अब चीकू और उस नए कुत्ते की लड़ाई होने लगी. चीकू रोज़ाना पिट जाता. हार कर उसे वो जगह छोड़नी पडी.  उसे  सुरेश के घर के आगे पनाह मिल गयी. सुरेश को कुत्ते कोई ख़ास पसंद-नापसंद नहीं थे. लेकिन उसके बच्चों को चीकू पसंद आ गया. चीकू को वो बच्चे पसंद आ गए. वो आपस में खेलते. चीकू मस्त. लेकिन कुत्ता तो कुत्ता. वो रात में गली में खूब भौंकता. बिना मतलब भौंकता. सुरेश कहता, "इसे भूत दीखते हैं क्या?" छोटे सटे हुए घर. सुरेश की नींद हराम होने लगी.  एक रात उसने चीकू को भगा दिया. एक दो दिन चीकू गायब रहा. फिर इक दिन वो बुरी तरह से घायल मिला. उसके गले पर गहरा ज़ख्म था. सुरेश ने ख़ास ध्यान न दिया. कुछ दिन बाद किसी ने बताया चीकू को कीड़े पड़  गए हैं. सु...

मैं हवा का ही तो बना हूँ

 अभी बाहर गली में घूम रहा था.  दिसंबर अपने यौवन पर है.  आधी रात .  मुंह पर ठंडी हवा के थपेड़े पड़  रहे थे.  बर्फीली हवा मुझे अच्छी  लग रही थी.  अंदर जाती साँस गीली-गीली  थी.  मुझे अपना होना सुखद लग रहा था.  क्यों?  शायद मैं खुद से मिल रहा था.  मैं हवा का ही तो बना हूँ,  और मिटटी का,  और पानी का,  और ज़मीन का,  और आसमान का.  और  हवा में ही मिल जाऊँगा,  और मिटटी में घुल जाऊंगा,  और पानी में,  और ज़मीन में,  और आसमान में.

घटती इज़्ज़त

 वो परिवार के साथ खाना  खा रहा था.  उसने बच्चों से मुखातिब होते हुए हलके-फुल्के मूड में कह  दिया, "मैं अगर तुम्हारी ममी की थाली से दो कौर रोटी मांग लूँगा तो ममी कहेंगी कि देखों मुझे तुम्हारा बाप खाना नहीं देता. " "सो तो है ही" पत्नी  ने कहते हुए दो कौर रोटी उसकी थाली में फेंक दी.  बड़ी बेटी ने नोट करते हुए कहा, "देखना, ममी पापा को रोटी किस ढंग से दे रही हैं!" "पता है बेटा, जैसे कुत्ते को देती हैं बाहर गली में वैसे ही." उसने कहा.   ममी बोली, "न, न, कुत्ते को तो मैं प्यार से रोटी देती हूँ." सब हंसने लगे, वो भी हंसने लगा. बात आई गयी हो गयी, सब सो गए, लेकिन सोते हुए उसकी आंख कुछ गीली थी.