Tuesday, 17 August 2021

असीमित धन खतरनाक है दुनिया के लिए

लोहा ज़्यादा काम आता है या सोना? सोना एक पिलपिल्ली सी धातु है. शुद्ध रूप में जिसका गहना तक नहीं बनता. लेकिन सबसे कीमती मान रखा है मूढ़ इन्सान ने इसे. यह सिर्फ मान्यता है और कुछ नहीं. वरना गहने तो लक्कड़, पत्थर, लोहा, स्टील किसी के भी बनाये जा सकते हैं, पहने जा सकते हैं. आप देखते हो आदिवासी, वो ऐसे ही गहने पहनते हैं. हिप्पी किस्म के लोग भी ऐसे ही पहन लेते हैं. मैं खुद ऐसे गहने पहनता रहा हूँ. अब भी चांदी पहनता हूँ.


यही समाज ने इंसानों के साथ किया है. एक गटर साफ़ करने वाले की कीमत एक IAS ऑफिसर से कम कैसे हो गयी? ठीक है IAS का काम गटर साफ़ करने वाला नहीं कर सकता, लेकिन गटर साफ़ करने का काम भी तो IAS नहीं कर सकता? फिर समाज को सब की ज़रूरत है.

और हो न हो, समाज की जिम्मेवारी है कि इस तरह से चले कि सब को अहमियत मिले. समाज ने यदि किसी इन्सान को इस धरती पर आने दिया है तो अब समाज की ज़िम्मेदारी बन गयी. या तो आने ही न देता समाज में ऐसे व्यक्तियों को जिन को वो कोई अहमियत नहीं देता, या बहुत कम अहमियत देता है. जैसे बहुत लोग भीख मांग रहे हैं, अपराध कर रहे हैं, सडकों पर बेकार पड़े हैं, या निहायत गरीबी की ज़िंदगी जी रहे हैं. क्या ज़रूरत थी इन की? लेकिन समाज ने इन को आने दिया धरती पर. ठीक है इन के माँ-बाप ने आने दिया, नहीं आने देना चाहिए था फिर भी आने दिया, लेकिन समाज ने भी आने दिया. गलती की लेकिन आने दिया. अब समाज की भी ज़िम्मेदारी बन गयी. यदि इन को सही शिक्षा, सही भोजन, सही रहन-सहन नहीं मिलता तो समाज की भी ज़िम्मेदारी है.

सो मैं कह रहा था कि लोहे और सोने का फर्क सिर्फ इन्सान ने पैदा किया है. एक IAS अफसर और गटर साफ़ करने वाले का, एक मोची का फर्क सिर्फ इन्सान ने पैदा किया है. अन्यथा कोई फर्क होना ही नहीं चाहिए. अमीर गरीब का फर्क इन्सान ने पैदा किया है. आप देखते हो, धरती पर सिवा इन्सान के कोई और जानवर अमीर-गरीब नहीं होता. सब को सब कुछ मिलता है. यह धरती, यह कायनात, यह कुदरत सब को सब कुछ देती है. गर्मी में तरबूज-खरबूज देती है. रेगिस्तान में खजूर देती है. वो पागल नहीं है, वो सब को जगह-मौसम के हिसाब से सब कुछ देती है.

कोई ज़रूरत नहीं थी कि समाज को ऐसा बनाया जाये कि कोई बहुत गरीब हो जाये और कोई बहुत अमीर. एक झटके से हम इस फर्क को खत्म कर सकते हैं. यह हम आज भी कर सकते हैं. आप देखते हो राजाओं की अनगिनत बीवीयाँ होती थीं. कृष्ण की १६००० रानियाँ थीं, मोहम्मद की दस बढ़ बीवीयाँ थी और शायद बहुत सी दासियाँ भी. पटियाला के राजा की अनेक बीवीयाँ थी अभी कुछ दशक पीछे की बात है. लेकिन हम ने कानून बनाया न और बीवीयों की गिनती सीमित कर दी.

हम यह अमीर की अमीरी सीमित कर सकते हैं. यह बहुत ज़रूरी है. धन सिर्फ धन नहीं है. यह शक्ति भी है. इसे चंद हाथों में देना खतरनाक है. आप देखते हो, हम हर किसी को हथियार नहीं रखने देते. लाइसेंस लेना होता है. फिर पता नहीं हम ने असीमित धन क्यों रखने दिया है लोगों को? वो कोई हथियार से कम है क्या?

धन से अति धनी लोग इस दुनिया को गलत दिशाओं में ले जा सकते हैं. ले जा रहे हैं. आप देखते हैं राजनीति में क्या हो रहा है? प्रजातंत्र कहने को हैं. सब धन तन्त्र हैं. सब तरफ कॉर्पोरेट धन का बोलबाला है. जनता को लगता है कि वो सरकार चुनते हैं. ऐसा बिलकुल भी नहीं है. वो सिर्फ उन लोगों में से चुनते हैं, जो जिन में से उन को चुनने दिया जाता है. जो विकल्प दिए जाते हैं. और वो विकल्प कॉर्पोरेट धन की मदद से परोसे जाते हैं जनता के सामने. अनपढ़, जाहिल, गुंडे, मवाली किस्म के लोग, भाषणबाज लोग. बक-बके लोग. और जनता खुश हो जाती है कि वो सरकार चुन रही है , कि वो प्रजातंत्र में है. असल में उसे पता ही नहीं, इस Pseudo प्रजा तन्त्र के बहाने उस से असल प्रजातन्त्र छीन लिया जा रहा है. और इस प्रक्रिया में अथाह धन प्रयोग किया जा रहा है. सो इस धन, इस धन के जमावड़े को खत्म करना होगा.

क्या आप हवा की जमाखोरी करेंगे? आप ने ज़मीन की जमाखोरी की. पानी तक की करने लगे. पानी इन्सान ने बनाया क्या? ज़मीन इन्सान के बनाई क्या? लेकिन इन्सान इसे बेचता है, खरीदता है, इस की जमाखोरी करता है. लोग सडक पे सड़ते हैं और उधर कोठी खाली पड़ी रहती हैं. यह सब क्या है? संस्कृति के नाम पर सर्कस. सब कुछ गड्ड-मड्ड. संस्कृति का मतलब समझते हैं. ऐसी कृति जिस में कुछ संतुलन है, सौन्दर्य है, सामंजस्य हो. क्या आप को यह समाज देख कर ऐसा कुछ लगता है? यह विकृति है.

बड़ी वजह है धन. धन का असंतुलित वितरण. धन का असीमित संग्रहण.

यदि हम ने यह न बदला तो दुनिया एक बड़ी झोपड़-पट्टी में बदल जाएगी, लगभग बदल ही चुकी है.

इस तरह की जरा सी बात करो तो मार्क्सवादी होने का, वामपंथी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. लेकिन मेरा कहना यह है कि ठप्पे मत लगायें.

बने-बनाये फ्रेम में से मत झांके. बात को सीधा समझिये, तर्क को समझिये. जहाँ मैं रहता हूँ. वहीं एक ४०० गज की कोठी के किनारे नीचे ज़मीन पर एक मोची बैठता है. सदियों से बैठता है. क्यों? ऐसा फर्क क्यों है? क्यों होना चाहिए, यह मुझे बिलकुल नहीं जमता. यदि मैं उस मोची का जीवन स्तर बेहतर करने की सोचता हूँ तो मैं वामपंथी हूँ, मैं मार्क्सवादी हूँ, मैं समाज-तोड़क हूं. ठीक है. यदि ऐसा है तो फिर ऐसा ही है.

धन का असीमित वितरण और संग्रहण यह दुनिया से असल प्रजातंत्र छीन रहा है, यह मन-मर्जी की सरकारें लाद रहा है, यह अधिकांश दुनिया को गरीब किये हुए है, यह दुनिया तक असल शिक्षा नहीं पहुंचने दे रहा. शिक्षा के नाम पर कचरा पढ़ाया जा रहा है. उड़ेला जा रहा है. और तो और कोरोना जैसी नकली बीमारियां भी थोपी जा रही हैं. सब के पीछे असीमित धन की ताकत है.

इसे तोड़ना होगा.

नमन
तुषार कॉस्मिक

2 comments:

  1. Unlimited accumulation of money is exactly like unlimited power in few hands.. yup , its correct like George soros is running agenda or petro dollers are used.. also, it controls elections and politics like anything... Ergo,thisis true

    ReplyDelete
  2. जो कमाए, वो खाए,
    इतना सही है, कोठी वाला कोठी में है क्योंकि उसने मेहनत करी है,
    मोची भी भी बेहतर जीवन गुजाररता है,जिनको वो गांव में पीछे छोड़ आया है, reference में,वो भी बेहतर है

    लेकिन जो भी है,

    अपनी डफली,अपना राग, सब खाए, जो है अपना अपना भाग।

    ReplyDelete