Sunday, 28 June 2015

देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर

कभी नन्हे बच्चे की किलकारी सुनी है......कभी उसकी आँखों में झाँका है......मूर्ख जंग करने चले हैं...मरने मारने चले हैं........

"आओ प्यारे सर टकरायें"

1) हलवाई यदि सिर्फ हलवा ही नहीं बनाता तो उसे हलवाई कहना कहाँ तक उचित है ...?

2) कोई ग्लास पीतल या स्टील का कैसे हो सकता है जब ग्लास का मतलब ही कांच होता है?

3) स्याही को तो स्याह (काली) ही होना था, फिर नीली स्याही, लाल स्याही क्योंकर हुयी?

4) सब गंदगी पानी से साफ़ करते हैं, लेकिन जब पानी ही गन्दा कर देंगे तो किस को किस से साफ़ करेंगे?

5) जल जब जल ही नहीं सकता तो इसे जल कहना कहाँ तक ठीक है?

6) जब कोई मुझे कहता है ,"आ जा "तो मुझे कभी समझ नहीं आता कि वो मुझे आने को कह रहा है, या जाने को या आकर जाने को, क्या ख्याल है आपका?

7) जित्ती भी आये, लगता है कम आई...तभी तो कहते हैं इसे कमाई....मुझे नहीं अम्बानी से पूछ लो भाई.... क्या ख्याल है आपका?

8) जब हम राजतन्त्र से प्रजातंत्र में तब्दील हो गए हैं तो क्या राजस्थान का नाम प्रजास्थान न कर देना चाहिए. नहीं?

9) वेस्ट बंगाल भारत के ईस्ट में है , फिर भी इसे वेस्ट बंगाल क्यों कहते हैं..?

10) गुजरात में शायद सिर्फ गूजर तो नहीं रहते अब फिर भी इसे गुजरात क्यों कहते हैं?

11) छोटे डब्बे में बड़ा डिब्बा तो नहीं समाता, फिर राष्ट्र में महाराष्ट्र कैसे है?

12) सिंध तो भारत में नहीं है अब, फिर भी वो जो राष्ट्र गान है न,,,,,,,,उसमें पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा ...ऐसा कुछ क्यों कहते हैं?

13) आम तो एक ख़ास फ़ल है फिर भी इसे आम क्यों कहते हैं?

14) If the right is right, then is the left wrong?

शेयर करना जायज़ है, चुराना नाजायज़ है, नमन


बढिया कहने का ठेका क्या सुरिंदर शर्मा या अशोक चक्रधर के पास ही है.....हमारे पास भी है.....अभी अभी  उठाया है CPWD से

ठेका बोले तो "शराब देसी".....शराब, जिसे पीकर इन्सान  ख़राब  कहता  ही नहीं, जो कहता है बढ़िया ही कहता है
 


सुना है नेहरु ने नारा दिया था "आराम हराम है".......
नारा गलत है, उथली सोच है, आराम और काम का बैलेंस होना चाहिए.......
यदि आराम हराम हो जाएगा तो काम भी ऊट पटांग हो जाएगा
सरकार किसी की भी हो.....
यदि सरक सरक कर काम करे....
यदि किये वायदे पूरे न करे.....
ज़रूरी नहीं इसे पांच साल तक सरकाना....
इन्हें मंत्री, संत्री मौज मारने को नहीं, काम करने को बनाया गया है 
उखाड़ फेंको.....क्योंकि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतेज़ार नहीं करती
बिन खुद की खुदाई, खुदा कहीं न मिलेगा
और खुदा मिले न मिले, जो मिलेगा वो खुदा होगा
प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति थीं या राष्ट्रपत्नी ? I am still confused.


प्रेम प्रेम सब कहें , जग में प्रेम न होए
ढाई आखर बुद्धि का, पढ़े तो शुभ शुभ होए


हमाम में ही हम सब नंगे नहीं होते, कहावत अधूरी है, जिस ने कही वो शायद कपड़े पहन कर पैदा हुआ था और सेक्स भी कपडे पहन कर करता था.




न तुम कोई GF/BF साथ लाये थे, न लेकर जाओगे
जो आज तुम्हारा/तुम्हारी है, वो कल किसी और का था /की थी
और फिर कल किसी और का होगा/होगी
ज़रा देखिये अपने विश्वास. शायद ही विश्वसनीय हों.
ज़िंदगी हमेशा ऐसे जिओ जैसे मौत है ही नहीं...यह जानते हुए भी कि अगले पल का भरोसा नहीं है...
और ऐसे जिओ जैसे यही पल आखिरी पल है...कुछ भी बाक़ी मत छोड़ो , जो तुम कर सकते हो
किसी डिग्री का ना होने दरअसल फायेदेमंद है। अगर आप इंजिनियर या डाक्टर हैं तब आप एक ही काम कर सकते हैं, पर यदि आपके पास कोई डिग्री नहीं है, तो आप कुछ भी कर सकते हैं।
~ Shiv Khera 

आप डिग्री होते हुए भी कुछ भी कर सकते हैं.....किसी ने रोका है क्या... Tushar Cosmic

जीतने वाले अलग चीजें नहीं करते, वो चीजों को अलग तरह से करते हैं।
~ Shiv Khera 

ग़लत.....वो दोनों करते हैं....यह खेड़ा ने मात्र मीडियाकर लोगों को बहलाने के लिए लिखा है

गलत होना भी अपने आप में गलत नहीं 
क्योंकि जो कुछ करेगा वो ही गलत या ठीक करेगा....
गलती भी उसी से होती है जो कुछ करता है.....
और जो जितना ज्यादा करता है...
जितना तेज़ी से करता है 
उतनी ही उससे ज्यादा गलती भी होती हैं
इसलिए टेंशन नोट

"Brutus, you too"---- dying Julius Caesar
सज्जना ने फूल मारेया, साडी रूह अम्बरा तक रोई
Fair and Lovely जैसी कंपनियों को मानव द्रोही मान कर इनका सब कुछ ज़ब्त कर लेना चाहिए ...और सज़ा अलग देनी चाहिए

किसी भी ज़बरदस्ती, ज़ुल्म का विरोध हिन्दू मुस्लिम खांचो में बंट कर करेंगे तो दुनिया कभी एक न होगी.......ज़ुल्म और जुर्म को हिन्दू और मुस्लिम आदि रंग नहीं दिया जाना चाहिए.....कोई भी ज़ुल्म करेगा तो इंसान बन कर उसका डट कर विरोध करना चाहिए उसके लिए हिन्दू, ईसाई, सिख आदि होने की कोई ज़रुरत नहीं है........
लेखन मात्र लेखन नहीं होता...वो विचार भी होता है.....आईडिया भी होता है...वो साहित्य भी होता है...वो भविष्य की प्लानिंग भी होता है....वो नए समाज का नक्शा भी होता है...मूर्ख है वो लोग जो एक लेखक को यह कहते हैं कि तुमने समाज के लिए किया ही क्या है

फिर तो मुशी प्रेम चंद, मैक्सिम गोर्की और ऑस्कर वाइल्ड ने भी कुछ नहीं किया

लानत !! 
इस देश में द्रोण जैसे व्यक्ति के नाम पर द्रोण अवार्ड रखा गया है शायद गुरु दक्षिणा में बिन सिखाये ही शिष्यों के अंग भंग करना भारतीय सभ्यता के लिए आदर्श है




जब जागो, तब सवेर
जब सोवो, तब अंधेर

सीधी बात, नो बकवास--Sprite
टेढ़ी बात, ओनली बकवास---Tushar Cosmic


ताजमहल में कुछ दम नहीं है ....बस ऐसे ही मशहूर कर दिया गया है…है क्या सीधे सीधे संगमरमर के पत्थर लगे हैं …… कभी माउंट आबू में दिलवाड़ा के जैन मंदिर देखें हों … संगमरमर के हैं.... क्या कलाकारी है.……संगमरमर की ये बड़ी चट्टानों को तराश कर, बहुत महीन नक़्क़ाशी की है.... क्या कला है, वाह


अरे, भाई, एक कहावत है, गरीब की जोरू. हरेक की भाभी........गरीब तो वैसे ही शुद्र होता है...चाहे वो..किसी भी जात का हो
चलो अभी बता दो कितने पंडित, कितने क्षत्रिय, कितने वैश्य सीवर साफ़ करते हैं, कूड़ा उठाते हैं...नाली साफ़ करते हैं?.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का

ब्रह्मण हमारे घरों से रोटी लेने आता था और शूद्र टट्टी.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का

झंडू बाम नामक कंपनी के मालिक कितने झंडू होंगे, ये इस कम्पनी के नाम से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं---- आपका ख़ादिम, तुषार कॉस्मिक


मोदी जी के मितरो कहने से और फेसबुक लिस्ट में रहने से कोई मित्र नहीं हो जाता मित्र....सो सावधान

आज कल गीता, सीता, राधा घरों में झाड़ू पोचा, बर्तन मांजती हैं
और मोना, सोना, मोनिका, सोनिका टेलीमार्केटिंग करती हैं 

अक्सर

"बहन का खसम" और "जीजा जी" आगे भी "जी" पीछे भी "जी" 
मतलब एक है और नहीं  भी  है

तिथि 06-10-12, समय 9 बजे रात्रि , हमारे प्रोग्राम के मुख्य "अतिथि" होंगे अक्ल मंद जी महाराज" मंद बुधि, नहीं नहीं, बंद बुधि जी महाराज मंच पर दहाड़ रहे हैं .



क्या नवरात्रों का गरबा पुरातन भारत के वसंत-उत्सव जैसा नही है?

आवारा घूमने वाले पशुओं और पशुनुमा इंसानों के मालिको के ऊपर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए!



यदि औरत बहादुरी दिखाए तो मर्दानी!
और यदि आदमी बहादुरी दिखाए तो जनाना ........क्यों नहीं? क्यों नहीं?? क्यों नहीं???
जब वैराग्य होने लगे तो वियाग्रा प्रयोग कर सकते हैं, व्यग्र हो जायें
ईश्वर की परिभाषा, उसकी कल्पना, परिकल्पना और उसके इर्द गिर्द बनाया गया पाप पुण्य, स्वर्ग नरक, मंदिर, मस्जिद इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ, फरेब, मक्कारापन और नक्कारापन है.
हम जो भी समझते हैं..दिक्कत यह है कि बस वही समझते चले जाते हैं..
ये जो सरकारी आभूषण/विभूषण/रत्न आदि पदवियां हैं...
ये सम्मान कम और अपमान ज्यादा होती हैं..........नहीं?
आज भी दुनिया लगभग वहीं खडी है जहाँ से शुरू हुई थी, जंगलो में......बस जंगल कंक्रीट के हो गये, इंसान ने तन ढक लिए.....बाकी अंदर से सब जंगली हैं, सब नंगे हैं

एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी भारत की महान सभ्यता संस्कृति में यकीन है.

एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी भारत के विश्व गुरु बनने की क्षमता में यकीन है.
एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी मोदी जी के "अच्छे दिन" वाले नारे में यकीन है.



जब आपको किसी चीज़ की कीमत धेला भी न चुकानी हो तो आप उसे बेशकीमती का ख़िताब दे देते हैं.नमकीन में से निकाली गई मूंगफली, बिस्कुट के ऊपर से उतारा गया काजू और बच्चे से ली गई आइसक्रीम ज़्यादा ही स्वाद होते हैंहमारी आधी समझदारी तो यह है कि दूसरे हमें बेवकूफ न बना दें और आधी यह कि दूसरों को हम कैसे बेवकूफ बना दें
अब विक्रेता कंपनियों को कार के साथ थोड़ी अक्ल भी देनी चाहिए,पैकेज डील, ताकि लोगों को समझ आये कि उन्होने कार खरीदी है सड़क नहीं, सडक उनके बाप का माल नहीं है.पोस्ट शेयर करने वालों को नमन करेंगे, चोरी करने वालों का दमन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे..........जय हो!मुद्दे ही बहुत गंभीर हैं हमारे मुल्क में, सूर्य नमस्कार किया जाए या नहीं......वाह, वैरी गुड.....गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, जनसंख्या वृद्धि.....इस तरह के बकवास मुद्दों के लिए समय नहीं है हमारे पास...इडियट ....आ जाते हैं पता नहीं कहाँ कहाँ से
फुट रेस्ट खुला छोड़ के स्कूटर खड़ा करने वालो, इससे चोट खाने वाले तुम्हें माफ़ नहीं करेंगे
जो मज़ा बच्चे से कुश्ती हारने में है वो शायद दुनिया का सबसे बड़ी जंग जीतने में भी नहीं है ...असल में जंग जीतने का मज़ा तो कोई रुग्ण व्यक्ति ही ले सकता है.
'पेन' कार्ड बनवाएं, एक जगह लिखा था.
कितना सही लिखा था


एक पोस्ट देख रहा हूँ आज कल," जाति देख कर वोट देने वालो, आप अपना नेता चुन रहे हो, जीजा नहीं"

जैसे जाति देख जीजा चुनना कोई सही बात हो



जिनको आँखों में दवा डालने में दिक्कत होती हो उनको कुदरत का सीधा सा नियम समझना चाहिए कि पहाड़ों पर होने वाली बारिश अपने आप घाटियों में पहुँच जाती है


जो लोग व्यवस्था परिवर्तन को इसलिए नकार रहे हों कि नई व्यवस्था में भी कमियां होंगी इनको पूछिए कि तुम्हारा कच्छा सड़ा हो, बदबू मार रहा हो, तो क्या तुम नया कच्छा इसलिए नहीं लोगे कि धोना पड़ेगा या इसलिए नहीं लोगे कि अभी ऐसा कच्छा आविष्कृत नहीं हुआ जो मैला न हो, और सदैव सड़ा कच्छा ही पहनते रहोगे क्या?



लेखन से बहुत बार खुद के विचारों के प्रति भी क्लैरिटी बढ़ती है....बहुधा मैं लिखते लिखते ही विषय को और अच्छी तरह से समझ पाता हूँ......बाकी मित्रों के कमेंट से विषय की समझ और गहरी होती जाती है....जीवन के प्रति समझ बढ़ाने के लिए भी लेखन मददगार है.


बिटिया कह रही थी कि जानवर भी तो इन्सान ही हैं, क्यों खाना इनको
"सुना है यदि दिल्ली से बिहार तक कोई ट्रेन में सफर कर रहा हो तो यात्री बिक जाते हैं डकैतों में.... बस मालदार दिखना चाहिए.........कितने बैग हैं, साथ कितने लोग हैं, स्त्रियाँ कितनी, बच्चे कितने, पुरुष कितने, हुलिया, डील डौल ..... सारी जानकारी ...एक गैंग नहीं लूट पाया तो आगे वाला कोई लूट लेगा, सो वो अगले वाले को बेच देता हैं, इस तरह यात्री कितनी बार बिक चुका होता है, उसे कभी पता नहीं लगता, उसे तो पता बस तब लगता है जब वो लुट चुका होता है ."
इन शब्दों का निश्चित ही कॉल सेंटर वालों से सम्बन्ध है
फ़ोन लेते ही कब हम कईयों के लिए व्यापार बन गए, पता ही नहीं चला.

"कौवों की दुआ यदि कामयाब होती तो गाँव के सब ढोर कब के मर चुके होते"
दुआ/प्रार्थना आदि से कुछ नहीं होता, समझ लीजिये...

मुद्दा यह है कि हम समझ ही नहीं रहे कि मुद्दा क्या है


जब से मच्छर मारने के रैकेट आये हैं
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एक मच्छर साला आदमी को बैडमिंटन चैंपियन बना देता है



कोई मित्र बता रहे थे कि ये जो फाइव स्टार सलून खुले हैं, वहां चेहरा शेव कराने के पांच सौ रुपये ज़रूर लगते हैं लेकिन उसके बाद सफ़ेद बाल भी काले ही उगते हैं, सच है क्या?
कोई मित्र बता रहे थे कि ये जो फाइव स्टार सलून खुले हैं, वहां चेहरा शेव कराने के पांच सौ रुपये ज़रूर लगते हैं लेकिन उसके बाद सोने के बाल उगते हैं, सच है क्या?
जहाँ विश्वास होगा वहां विश्वास घात हो सकता है .....यह जानते हुए भी विश्वास करना होता है, कितना करना है, कब करना है यह समझना जीवन की महान कलाओं में से एक है
यदि आप अपने नाम के साथ "जी" लिखें तो लोग आप पर हसेंगे, और यदि "जी जी" लिखें तो लोग आपको पागल समझेंगे लेकिन भारत एक ऐसा महान मुल्क है जहाँ अपने नाम के साथ "श्री श्री" लगाने वालों को महान संत समझा जाता है
बास्केट बाल के लिए लम्बे खिलाड़ी ही क्यों चाहिए? अलग अलग ऊँचाई वाले लोगों के लिए अलग अलग ऊंचाई के गोल पोस्ट भी तो बनाए जा सकते हैं, जैसे कुश्ती या बॉक्सिंग में अलग अलग वज़न के मुताबिक मुकाबले होते हैं, बास्केट बाल में ऊंचाई के मुताबिक मुकाबले नहीं हो सकते क्या?ईश्वर को कोई इनकार कर ही नहीं सकता, नास्तिक भी नहीं....हाँ, परिभाषा सबकी अलग हो सकती है
न कोई शत प्रतिशत खरा है और न ही खोटा........सो खोटे के खोट को जानते हुए भी उसके खरेपन का उपयोग करना जीवन की महान कलाओं में से एक हैखबरदार जो मेरी अर्थी उठाते किसी ने राम नाम सत्य बोला........नाम नाम होता है.........कोई भी हो.......काम चलाऊ .....सो बेहतर हो बोला जाए ""मस्त  है जी मस्त  है, मुर्दा बिल्कुल मस्त है "
सडक और अपने घर के ड्राइंग रूम में फर्क न समझने वालो, एक्सीडेंट तुम्हे माफ़ नहीं करेंगेमैं मरूं तो मेरे साथ ढेरों लकड़ियाँ न जलाई जाएँ, मुझे नहीं बनना नेपाल जैसे भूकम्प की वजहकाश कोई ऐसा भूकम्प आए कि इस दुनिया से मंदिर, चर्च, मस्ज़िद, गुरूद्वारे जैसी जगहें हमेशा हमेशा के लिए ढह जाएँ.......दुनिया कहीं ज़्यादा खूबसूरत हो जायेगी, आने वाले बच्चे कहीं ज़्यादा खुशनुमा माहौल पायेंगेरोड रेज में कत्ल तक हुए जा रहे हैं........बहुत गलत है....वैसे लोग भी तो रोड और ड्राइंग रूम में फर्क नहीं समझते.......जहाँ मर्ज़ी गाड़ी खड़ी कर देते हैं.........दस साल तक के बच्चों को कारें चलाने को दे देते हैं.
"अगर सच कहूं तो.........."
"हम्म्म्म.... तो आप मानते हैं कि आप अभी तक सच नहीं कह रहे थे?
"नहीं, नहीं, मेरा मतलब..................."
"समझ गये भाई जी, मतलब......और न समझाओ...नमस्ते"

"भाई, सो रहे हो क्या?"
"हाँ, गहरी नीदं में हूँ "
स्कूल में सिखाया जाता था,"मान लो मूलधन सौ" और फिर असल हल तक पहुंचा जाता था.
लेकिन कुछ महान लोग होते हैं, जो अड़ जाते हैं, कि जब पता है कि मूलधन सौ है ही नहीं, तो मानें क्यों.
मूर्ती तोड़ने वाले ऐसे ही लोग थे/हैं
स्कूल में सिखाया जाता था,"मान लो मूलधन सौ" और फिर असल हल तक पहुंचा जाता था.
लेकिन कुछ महान लोग होते हैं, जो अड़ जाते हैं, कि जब पता है कि मूलधन सौ है ही नहीं, तो मानें क्यों.
एक मित्र मेरे किसी हाइपोथिसिस को हवा में यह कह कर उड़ा रहे थे कि यह तो सिर्फ हाइपोथिसिस है

"वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर भी कह रहा हूँ........."
"नहीं तो फिर कह ही क्यों रहे हो भाई, और कह रहे हो तो फिर यह क्यों कह रहे हो कि कहना नहीं चाहिए?"


सवाल, "बुरा न मानें तो इक बात पूछूं?"
मेरा जवाब,"क्यों भई, बिना खाए आपको पता लग जाएगा कि चाइना राम हलवाई की मिठाई कैसी है?
सवाल, "बुरा न मानें तो इक बात पूछूं?"
मेरा जवाब," मत पूछो, यह ज़रूर कोई बुरा मानने वाली ही बात होगी"



छोटे बच्चे के साथ बैट बॉल खेलने में जो मज़ा है, वो क्रिकेट वर्ल्ड कप मैच देखने में कहाँ?


कमल में कीचड़ खिला है

मैं अपने जितेन्द्र साहेब यानि जम्पिंग जैक जी को कहना चाहता हूँ कि बच्चे सफल हों यह अच्छी बात है लेकिन एकता कपूर की तरह नहीं, जिसे आधी दुनिया गालियाँ देती फिरे कचरा परोसने की वजह से


धुआं उगलती फैक्ट्रीयों की तसवीरें नहीं लगाते हम अपने कमरों में
लगाते हैं कुदरती नज़ारे, नदियाँ, पहाड़, जंगल, झरने
फिर भी चिंता हमारी यह है कि भारत का उद्योगीकरण कैसे हो

देखो तो दूध पिलाती माँ और पी रहा बच्चा.........मूर्ख फिर भी परमात्मा के होने का सबूत मांगते हैं


माँ अक्सर कहती थीं, जब मैं बच्चा था, "तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है" और खुद न खा मुझे खिला देती थीं
दशकों लग गए समझने में कि एक ही बात कैसे होती है


एक मित्र ने लिखा है,"देश के प्रत्येक नागरिक तक मूल भूत सुविधायें पहुंचे यह सरकार की जिम्मेदारी हैं "
मेरा जवाब है, "लोग बच्चे पैदा करते रहें और ठेका सरकार ने ले रखा है .....सरकार के पास पैसा किसका है......टैक्स का.........उसपे हक़ करेक का कैसे हो गया......?"


हनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में सुपरशक्तियुक्त व्यक्ति थे …………… जैसे आयरनमैन, सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडर मैन........ हनुमैन 

लेकिन भारत में हो गए हनुमान … नहीं विश्वास? 

देखिये क्या वो उड़ते नहीं सुपरमैन की तरह, क्या वो कूदते नहीं स्पाइडरमैन की तरह ……… उनमें तो सूरज तक को खा जाने की शक्ति है, ख़ाक मुकाबला करेगा उनका कोई पश्चिम का सुपरमैनहनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में सिक्ख थे …………… गुरदास मान, हरभजन मान, भगवंत मान , हनुमानहनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में मुसलमान थे …………… रहमान, लुक़्मान, हनुमान ………… मुसलमान!यदि कहीं परमात्मा होगा भी तो इन औरतों का कीर्तन नुमा क्रन्दन सुन कर गुफाओं में छुप जाएगा, समन्दर में धंस जाएगा, हवाओं में घुल जाएगा, बादल बन उड़ जाएगा .......तौबा !

अक्सर देखता हूँ, मुस्लिम मित्रो को "गंगा जमुनी" तहज़ीब का ज़िक्र करते हुए ....मेरे प्यारो, अब गया वक्त .......अब तो ऐसे तहज़ीब विकसित होगी जिसे आपको "गंगा थेम्स अमेज़न" तहज़ीब कहना होगा और यह हिन्दू मुस्लिम इसाई जैसी तहज़ीबों की चिता पर खड़ी होगी

मुस्लिम खुश हो सकता है, मजाक बना सकता है कि हिन्दू उसकी संख्या से डर रहा है, उल्टी पुलटी हरकतें कर रहा है, हिन्दू भी मुस्लिम का किन्ही मुद्दों पर मज़ाक बना सकता है, बनाता है, लेकिन बेहतर हो यदि दोनों वो मजाक देख सकें जो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम बन इंसानियत का बना दिया है
वैसे तो सभी मंदिर, गुरूद्वारे, मस्ज़िद बस व्यापार हैं लेकिन सबसे साफ़ सुथरा व्यापार अक्षरधाम मंदिरों का है.
विशुद्ध टूरिस्ट स्थल ......एक बार की इन्वेस्टमेंट, फिर बस बैठे कमाते रहो



कस्टमर कष्ट से मर रहा होता है लेकिन कंपनियों की कस्टमर हेल्पलाइन उसे फुटबॉल की तरह इधर उधर उछालती रहती हैं

सब नहीं...लेकिन ज्यादातर...ख़ास करके सरकारी 

कस्टमर हेल्पलाइन का मतलब ही यह देखना है कि कस्टमर की हेल्प हो न जाए कहीं
मोहल्ले की औरतें लाउड स्पीकर पर गला फाड़ कीर्तन कर रही हैं


मैंने भी लाउड स्पीकर मँगा, शकीरा का हिप्स डोंट लाई (Hips don't lie) बजा दिया है, आवाज़ कीर्तन की आवाज़ से थोड़ी ऊंची रखी है, स्पीकर का मुंह कीर्तन की दिशा में कर दिया है 

कानूनी हक़ है भई , सबका



दुनिया में सिर्फ देश एक ही है......जिसका नाम है
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जिसका नाम है बांग्ला देश

अक्सर आप और हम रोष प्रकट करते रहे हैं कि PUT पुट है तो फिर BUT बुट क्यों नहीं है

चलिए आज थोड़ा रोष इसलिए प्रकट करें कि यदि साढ़े तीन या साढ़े चार हो सकते हैं तो साढ़े एक और साढ़े दो क्यों नहीं, डेढ़ और अढाई क्यों?

जुगाड़ अपने आप में एक काम चलाऊ आविष्कार होता है, हमें नज़रिया बदलना होगा, जुगाड़ और जुगाडू दोनों को सम्मान देना होगा, जुगाड़ को विस्तार देना होगा, इतना कि वो जुगाड़ से वास्तविक अर्थों में आविष्कार हो सकेउदासीन होने का अर्थ यह नहीं है कि उदास रहो.
इसका मतलब यह भी नहीं है कि अपनी कोई राय ही न रखो, लुल्ल हो जाओ

इसका मतलब है कि जब भी किसी विषय विशेष पर अपनी राय बनानी हो तो त्रित्य व्यक्ति की तरह विषय को देखो, अपनी व्यक्तिगत लाग लपेट बीच में मत लाओ
मात्र नियत अच्छी होने से नियति नहीं बदला करती उसके लिए बुद्धि का निमित्त होना भी ज़रूरी है
कहते हैं, "बूढ़े तोते नहीं सीखते "
कहता हूँ, "जो नहीं सीखते वो ही बूढ़े होते हैं, और तोते नहीं, खोते (गधे) होते हैं"यह दुनिया ...यहाँ "एक तीर से दो शिकार" करना बढ़िया माना जाता है
अंग्रेज़ी में कुछ ऐसा कहते हैं, "To kill two birds with one stone"
....और यह दुनिया सुसंस्कृत है

प्रेशर पॉइंट...जैसे शरीर में होते हैं वैसे ही किसी भी आर्टिकल में होते हैं....दिक्कत यह कि लोग गलत पॉइंट पकड़ते हैं जल्दी!!SEXPEER!!

अभी कहीं किसी मित्र ने एक शब्द लिखा था सेक्सपीर/ Sexpeer
वाह! आज से मैं भी SHAKESPEARE को लिखूंगा SEXPEERसीरियस न लें मेरी कोई बात...आय ऍम जस्ट मज़ाकिंग......मज़ा-किंग भई.....हाँ, मज़ा सीरियसली ले सकते हैं
हमारी मांगें पूरी करो----- राम मंदिर नहीं, काम मंदिर बनाओ, वो भी एक नहीं अनेक....गली गली
सबसे ज़्यादा काम की बात है "काम" की बात....लगभग सब बीमारियों का राम-बाण, काम-बाण
सुना है बाबर ने मंदिर तोड़ा था
सुना है संघियों ने मस्जिद तोडी थी
मेरे ख्याल से दोनों बधाई के पात्र हैं
चूँकि इस दुनिया से मंदिर मस्जिद दोनों विदा करने चाहिए




तथा कथित धर्म एक सामाजिक व्यवस्था है, सड़ी गली सामाजिक व्यवस्था जो ज्ञान, विज्ञान और बुद्धि से तालमेल नहीं रख पाती, जो समय के साथ पीछे छूट जाती है लेकिन फिर भी इंसानियत की छाती पर चढी रहती है

किसी वहम में मत रहें कि डॉक्टर कोई फ़रिश्ता होता है....वो एक इन्सान है...साधारण इन्सान...सब इंसानी, सामाजिक कमियों से लैस......उसके अपने स्वार्थ होते हैं....जहाँ सुई से इलाज हो जाना होता है वहां भी वो तोप चलवा सकता है

हमारे विश्वास, हमारी श्रधा विचारगत होनी चाहिए, न कि संस्कारगत....मामला चाहे कुछ भी हो.....

हिंदी पोस्ट

सब भौगलिक सीमाएं काल्पनिक हैं.......वो भी गिरा देनी होंगी...लेकिन जैसे हम गणित में किसी सवाल को हल करने के लिए माना करते थे...."मान लो मूलधन सौ रुपये"......ठीक वैसे ही एक इंसानीयत ...एक सरकार तक पहुँचने से पहले इन सीमा में रहते हुए फिलहाल काम किया जा सकता है.......लेकिन बाबा रामदेव की तरह यह बेवकूफियां न बघारी जाएँ कि भारत को विश्व गुरु बनाना है.....दुनिया का सिरमौर बनाना है...दुनिया की छाती पर चढ़ बिठाना है.....मैं हैरान हूँ इस तरह कि उथली सोच रखने वाले लोग भारत के जनमानस में पैठ बनाये बैठे हैं...
इंसान और इंसान के बीच हज़ार अदृश्य दीवारें हैं....गोर काले की, स्त्री पुरुष की, देश की विदेश की.....हिन्दू मुस्लिम इसाई आदि आदि की........हर दीवार गिराई जानी चाहिए...सब भेद मिटा देने चाहिए.........जन्म से न कोई मुस्लिम , न कोई हिन्दू...सब बीमारियाँ समाज की देन है..
जंगल में जानवरों की मीटिंग हो रही थी, उनके वैज्ञानिकों ने सर्व सम्मती से माना कि ज़हर उतारने का सीरम शुद्ध ज़हर से ही बनाया जा सकता है और यह ज़हर मात्र इंसान के दिमाग से ही लिया जा सकता है क्योंकि उससे भयंकर और शुद्ध ज़हर और कहीं नहीं मिल सकता



सौभाग्य और दुर्भाग्य मात्र अपवाद हैं.......नियम यही है कि जितना कर्म उतना फल ....


इंसान जो इंसानियत तक सोचे वो क्या ख़ाक इंसान है, थोड़ी कुतियत भी होनी ज़रूरी है, थोड़ी बिल्लियत, थोड़ी कबूतरियत भी...

बेमतलब की है रजत शर्मा "आप की अदालत"---टेलीविज़न मनोरंजन मात्र----कभी किसी आरोपी को दोषी भी करार दिया है इस अदालत ने?

उनको भी नहीं जिनको बाद में असल अदालत ने दोषी पाया
मित्रवर पूछ रहे हैं कि क्या गौ को राष्ट्र माता घोषित करना चाहिए?

मैं पूछता हूँ कि क्या सांड को राष्ट्र पिता घोषित करना चाहिए?

क्या कोई बताएगा कि शपथ ग्रहण के लिए इतना ताम झाम क्यों...क्यों समय और उर्जा की व्यर्थता?

वैसे भी शपथ लेने क्या हल होता रहा है...जिसने जो अच्छा बुरा करना है वो करना है...शपथ से कुछ हल न हुआ है, न होगा......
मुद्रा की राजनीती न करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी
मुद्दों की मुर्दा राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी
मुर्दा मुद्दों की राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी
मुर्दों की राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी

मुद्दों की राजनीती न करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी

हम अपने शहीदों को इतना सम्मान जानते हैं क्यों देते हैं .......क्योंकि भीतर से हम सोचते हैं अच्छा है हमें नहीं मरना पड़ा इनके बदले
कोई और ही मरता रहे हमारे बदले और हम बस सम्मान देकर जान छुड़ा लें...कितना सस्ता सौदा है
नहीं?


अछूत को छू लो तो धर्म भंग

भंगी के हाथ का पानी पी लो तो धर्म भंग
इनकी बहू बेटियों से बलात्कार करो तो कोई धर्म भंग नहीं ?
और ऐसा अभी ही नहीं, सदी सदी होता आ रहा है 
और कोई बोले तो इनके सनातन धर्म पर चोट हो जाती है
संस्कृति को खतरा हो जाता है
जब तक यह समाज अपनी सड़ी गली मान्यताओं से झूझना स्वीकार न करेगा, यह सब चलता रहेगा
क्या होगा...ज़्यादा से ज़्यादा......जान जायेगी......वैसे भी कौन सा हमेशा रह पायेंगे यहाँ
अपना फ़र्ज़ पूरा कर जाएँ...मरते हुए खुद को चेहरा दिखा पायेंगे
खुद से निगाह मिला पायेंगे
ज़िंदगी की आँखों में आखें डाल कह पायेंगे...ए ज़िंदगी तेरा नमक खाया था...हक़ अदा कर दिया है
हरामखोरी नहीं की
जितना कर सकते थे, किया है
जितना तूने करने का मौका दिया, किया है
अगर इस दुनिया से कुछ लिया तो आखिरी दम तक जो दे सकते थे, वो दिया भी है
खुदा से नहीं, खुद से नज़रें मिला सकें ...बस इतना काफी है


दुनिया के मजदूरों, एक हो जाओ ....तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं---कार्ल मार्क्स
दुनिया के दिमागो, कुछ करो......... वरना पाने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा---तुषार कॉस्मिक

कर्मचारिओं को तनख्वाह में यदि मूंगफली देंगे तो बन्दर ही मिलेंगे
लेकिन काजू देंगे तब भी उनमें से कई ऑफिस की stationery तक चुरा लेंगें

मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी दे देनी चाहिए
लेकिन आप खुद ध्यान न देंगें तो एक कील भी सीधा न लगाएगा मिस्त्री


हम ढीठ हैं, बेवकूफ हैं-----

जिनको हम महान हस्तियाँ मानते हैं उनसे हम कुछ सीख कर राजी नहीं हैं 
बस उन्हें पूज कर राजी हैं, बाकी हम अपनी बेवकूफियों में जीते राहें, यही हम चाहते हैं

हिन्दू समाज विवेकानंद को बहुत मानता है, लेकिन कभी विवेकानंद की इस बात को स्वीकार करता है कि हिन्दू गौ मांस खाते रहे हैं?

दयानंद को भी बहुत सम्मान दिया जाता है, लेकिन क्या उनकी कही यह बात स्वीकार कर सकता है कि अमरनाथ गुफा में बना शिवलिंग मात्र बर्फ का बना साधारण पिंड हैं, जो कहीं भी बन सकता है? जब यही बात अग्निवेश ने कही तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा

बाबा नानक को भी बहुत सम्मान दिया जाता है, लेकिन क्या हिन्दू समाज उनकी हरिद्वार में सूर्य की उल्टी दिशा में पानी देने की क्रिया से कुछ सीख पाया?

और ताज़ा मिसाल है ओशो की, कल तक खूब गाली दी जाती थी ओशो को, आज नरेंदर मोदी की ओशो की किताबों के साथ फोटो प्रचारित की जा रही हैं, वोही ओशो जिनका आरएसएस जैसे संघठन कट्टर विरोध करते रहे



इन्सानियत और इन्सान की नीयत बेशान है
बेजान है


इमारतें  जानदार  है,
शानदार हैं 


चूँकि लगा  है अम्बुजा सीमेंट 
जिसमें जान है
कोर्इ भी आम नार्इ, हलवार्इ अच्छा नतीजा दे सकते है बशर्ते ठीक से उसे समझाया जाए कि आप चाहते क्या हैं

कोई बेवक़ूफ़ कभी भी अक्लमंदी दिखा सकता है और कोई अक्लमंद कभी भी भयंकर बेवकूफी कर सकता है 

कोई अत्यधिक धनवान भी कभी भी छुट-पुट बेईमानी या चिंदी-चोरी कर सकता है




जयमेव सत्ये
जीत सत्य की नहीं होती
जो जीत जाता है वो सत्य हो जाता है, सत्य मान लिया जाता है.....जयमेव सत्ये
जीत किसी की भी हो सकती है, जीत का सत्य असत्य से कोई लेना देना नहीं है

एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी फौज में भर्ती होता है और जी जान से देश सेवा करता है। जी हाँ, शहीद होकर, वो और कुछ नहीं कर पाता लेकिन दुश्मन की एक गोली जरूर कम कर देता है।



आप घी के कनस्तर जमा कर लीजिये......यह काला बाज़ारी है चूँकि आप तो खा नही सकेंगे यह सब, लेकिन दूसरे लोग जो लोग खा सकते हैं , उनको मरहूम कर देंगे इनको खाने से


आप गेहूं के बोरे जमा कर लीजिये ..........यह काला बाज़ारी है कि आप तो खा नही सकेंगे यह सब, लेकिन दूसरे लोग जो लोग खा सकते हैं , उनको मरहूम कर देंगे इनको खाने से

आप मकान जमा कर लीजिये..........यह काला बाज़ारी नही है, नहीं, कतई नहीं, यह तो है "निवेश, इन्वेस्टमेंट", साफ़ सुथरा काम.....वैसे आप इन सब मकानों में भी कभी नही रह सकते, हाँ, लेकिन दूसरे लोग जो रह सकते हैं , उनको मरहूम कर देंगे इनमें रहने से

!!!वसुधैव कुटुम्बकम, एक अंतर्विरोधी धारणा!!!!

परिवार इस दुनिया की सबसे बड़ी बीमारियों में से एक हैं...यह परिवार ही ही जो वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा को साकार नहीं होने दे रहा.असल में वसुधैव कुटुम्बक की तो धारणा ही गलत है........यह तो टर्म ही contradictory है.......जब तक कुटुंब होंगे व्यक्ति एक दायरे में बंधा रहेगा....वो कहाँ आसानी से अपने कुटुंब के बाहर सोच सकता है.......उसका घर साफ़ होना चाहिए, बाहर चाहे गंदी नाली बहती रहे, उसका बच्चा खाता पीता होना चाहिए, किसी और का बच्चा चाहे भूख से मर जाए, और उसमें ज्यादा बुरा मानने की बात भी नहीं है, जब हमने समाज ही ऐसा बनाया है कि माँ बाप ही बच्चे के लिए ज़िम्मेदार हैं.......तो कहना यह है कि जब तक कुटुंब रहेंगे तब तक वसुधा कभी एक हो नहीं सकती

परिवार ही है जो आपको दूसरे से तोड़ता है..परिवार ही है जो तमाम तरह की दीवारों का जन्म दाता है...परिवार ही है जो तमाम तरह की बीमारियों की जड़ है...

हम जो भी समझते हैं..दिक्कत यह है कि बस वही समझते चले जाते हैं..

ये जो आज फलां को रत्न दे दो
फलां को फलां आभूषण, विभूषण की पदवी से विराज दो

बुक्क्त क्या है इस सब की?

असली आदमी को सोने, हीरे का नहीं, कांटे के ताज दिया जाता है

असली आदमी की आरती यह समाज अच्छे अच्छे प्रशंसापूर्वक शब्दों से तथा धूप-दीपक से नहीं, गाली और गोली से उतारता है

असली आदमी को दावतें नहीं दी जाती, ज़हर पिलाया जाता है

नकली दुनिया है नकली सिक्के ही चलते हैं, असली सिक्कों की दमक, चमक, खनक तो झेल भी न पायगी यह दुनिया

आज भी दुनिया लगभग वहीं खडी है जहाँ से शुरू हुई थी, जंगलो में, बस जंगल कंक्रीट के हो गये, इंसान ने तन ढक लिए.....बाकी अंदर से सब जंगली हैं, सब नंगे हैं

दूसरे को गलत साबित करने से आप सही नहीं हो जाते......वो भी गलत...आप भी गलत ...दोनों गलत हो सकते हैं.......ज़रा तर्क समझ लीजिये ....यह पुराना घिस पिट तरीका है..अक्सर राजनेता प्रयोग करते हैं...उनकी गलती बताओ ...तो दूसरों कि गलती बताने लगेंगे.....बकवास है ये सब...सब गलत हैं....बेवकूफ पब्लिक बनती है...ऐसे सब नेता दफ़ा करने लायक हैं



एक ख़ास तरह के पागलपन/ उन्माद/ अंध विश्वास का जवाब दूसरे तरह का पागलपन/ उन्माद/ अंध विश्वास नहीं होता.....

और इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि आपका पागलपन/ उन्माद/ अंध विश्वास हरा है या भगवा 

और इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि आपका पागलपन/ उन्माद/ अंध विश्वास कम डिग्री का है या ज़्यादा डिग्री का क्योंकि अंततः दोनों तरह के. सब तरह का पागलपन/ उन्माद/ अंध विश्वास दुनिया के लिए घातक साबित होता है



"आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो"
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.
मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, बैरे नंगे पैर घूमते थे, आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब सागर रत्न रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.
खैर, आज भी डबल ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे
आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो




IAS/IPS का ज़िक्र था तो हमऊ ने थोड़ा जोगदान दई दिया........

"एक ख़ास तरह की मूर्खता दरकार होती है इस तरह के इम्तिहान पास करन के वास्ते.......मतबल एक अच्छा टेप रेकार्डर जैसी.........कभू सुने हो भैया कि इस तरह के आफिसर लोगों ने कुछ साहित वाहित रचा हो......कौनो बढ़िया.......कोई ईजाद विजाद किये हों....कच्छु नाहीं...बस रट्टू तोते हैं कतई ....चलो जी, चलन दो ..अभी तो चलन है."

कहो भई, ठीक लिखे थे हमऊ कि नाहीं ?

मैं सहमत हूँ शन्कराचार्य से शत प्रतिशत ...बिलकुल शूद्र को जाना नही चाहिए मंदिर...प्रवेश छोड़ो देखना तक नही चाहिए....बिलकुल.....बिलकुल...........मन्दिर इस काबिल हैं ही नही 

क्योंकि छाछ भी कभी दही थी........बदलना तो बनता है
क्योंकि सास भी कभी बहु थी.........बदला तो बनता है
कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हैं, कल ही उनकी मानव-ईद है, उनको हिदायत है उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए
सपने....हमारे अंतर्मन में छुपी, दबी भावनाएं हैं, विचार हैं...चित्र हैं...कल्पनाएँ हैं
हमारा अपना गढ़ा संसार.......बस मन पर से तर्क की लगाम हट जाती है

और जैसे बंधे जानवर को खुला छोड़ दो तो वो कहीं भी भागता है..ठीक वैसे ही सोते ही मन की लगाम ढीली हो जाती है...मतलब तार्किक मन की

इसे अर्ध-चेतन मन कहते हैं, जो सपनों में सक्रिय होता है
जन्म से लेकर आज तक जो भी दबा होता है सब कभी भी सपना बन बाहर आ सकता है
सब कुछ इसमें दफन रहता है
एक तरह का बेसमेंट
अपने ही मन का प्रक्षेपण होते हैं सपने और कुछ नही

सोने से पहले खुद को इंस्ट्रक्शन दे कर सोवो कि आपको किस तरह के सपने देखने हैं...सपने बदल जायेंगे





!!! अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो !!!!


उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर, उसे रात में तो दिखता है, इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जिसे तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो और गधा वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह या फिर एटम बम फैंकते हैं अमरीका की तरह.....कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी शब्दावली में शामिल मत करना...कुत्ता वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार, इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही......तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए...इन्सान...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, इंसान ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!!...हाहहहाहा!!!!


स्मृति इरानी को देख वैसे लगता नही कि सास भी कभी बहु थी, लगता है, वो सास है और सास ही थी. नही ?



हम एक समाज हैं, सबकी माँ, बहन हैं....,ये क्या बकवास दिखाते हैं कि एक deo लगा डाला तो हर लड़की झींगालाला........बाज़ार में बिठाल के रखा है नारी अस्मिता को.....लड़की न हुई कोई बिना दिल दिमाग की वस्तु हो गयी जो बस किसी टूथ पेस्ट या deo की खुशबु से सारी अक्ल छोड़ देगी और खुद को इस खुशबु वाले पर उड़ेल देगी...लानत


पटाखे चलाने से जो मना न हों उनको जेल में डाल दिया जाना चाहिए........कुदरत हमारी माँ है, जो माँ की चुनरी में आग लगाये उसे सज़ा देना तो बनता है......ये इन्सान के पट्ठे समझाने से नही समझने वाले.....इनके लिए इनके त्यौहार ज़रूरी हैं.......इनके धर्म से जुड़े हुए हैं न.......कुदरत के प्रति.....Mother Nature के प्रति इनका कोई धर्म है वो ये ऐसे तो नही समझने वाले..........


"सामाजिक और व्यक्तिगत मान्यताएं"
व्यक्ति किसी न किसी माँ से पिता से तो पैदा होगा ही, किसी न किसी घर में पैदा होगा ही, किसी न किसी समाज में, किसी न किसी मुल्क में.....अब यह क्या ज़रूरी है व्यक्ति अपने माँ बाप, समाज, देश की मान्यताओं को मानता ही हो?
उसके इर्द गिर्द के लोग मानते हो सकते हैं..लेकिन उससे क्या? उसकी पत्नी, उसके दोस्त, उसके रिश्तेदार मानते हो सकते हैं, लेकिन उससे क्या? दोस्तों और रिश्तेदारों के बुलाने पर धार्मिक कार्यक्रमों में, सामाजिक कार्यक्रमों में शिरकत भी की जा सकती है, लेकिन उससे क्या?
व्यक्ति की मान्यताएं निहायत निजी मामला है. सामाजिकता बिलकुल अलग मामला है......
अभी एक मित्र पर फ़ोन से बात हो रही थी......उनका कहना यह था कि व्यक्ति जिस समाज में रहता है, कितना ही कहे कि उसकी मान्यताएं उस समाज से अलग हैं लेकिन फिर भी कुछ न कुछ असर तो रह ही जाता है, जैसे गांधी कहते रहे ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, लेकिन जब गोली लगी तो मुंह से निकला 'हे राम'....'या अल्लाह' नहीं निकला.........
मेरा कहना यह था कि आप मेरे पास, मेरे साथ नहीं रहते वरना आप शायद जान पाते कि मेरे घर में, समाज में, सब लोग सब तरह की धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले हैं लेकिन उन सब में रहते हुए भी मैं नहीं मानता हूँ
आप गांधी की बात करते हैं.....ज़रा सुकरात को देखिये, यदि वो समाज की मान्यताओं को मानते होते तो ज़हर क्यों पिलाया जाता?
आप बाबा नानक को देखिये, उन्हें बचपन में ही समझ आ गया, जनेऊ को इनकार कर दिए, हिन्दू घर में पैदा हुए थे, कालू राम मेहता, पिता का नाम.....लेकिन हिन्दू मान्यताओं से बाहर हैं नानक साहेब.......सूर्य को जल चढ़ाने को इनकार कर दिए.........देश विदेश की सीमा से बाहर हैं वो......गगन में थाल, सूर्य, चंद दीपक बने.......यह तो आरती गाते हैं
मिसालें आपको और भी बहुत मिल जायेंगी......लेकिन यदि न देखना चाहें, तो मर्ज़ी आपकी है......कहना यह है मित्रवर कि अपनी मान्यताओं को दूसरों पर न थोपें...अपने चश्में से देख सकते हैं...लेकिन अपने दृश्य दूसरों पर न थोपें और सर्वोतम तो यह है कि चश्में उतार कर देखें

एक से एक मूर्ख भरे पड़े हैं दुनिया में, कैसे भी अपनी धारणाएं दूसरों पर उड़ेलने में प्रयासरत रहते हैं ....
एक फेसबुक मित्र को मैंने कहीं गुरबाणी का एक श्लोक समझने को कह दिया तो उनको लगा कि मैं सिक्ख हूँ?
फिर उन्ही को मैंने अपना एक आर्टिकल पढने को दिया जिसमें मैंने लिखा है कि मेरे घर में माँ वाहगुरू वाहगुरू करती हैं, पत्नी मंदिर में घंटी बजाती हैं और मैं और बेटी यह सब नहीं मानते, हमारी मान्यताएं हमारी समझ से निर्धारित हैं और कोई किसी को मान्यताओं में ज़बरदस्ती नहीं करता....अब इनको इससे लगा कि यही तो हिन्दुत्व है.
फिर पूछने पर इनको बताया कि मैं अपने नाम के साथ अरोड़ा अपनी वजह से नहीं लगाता, फेसबुक ने कागज़ात मांगे इसलिए लगाना पड़ा......Cosmic लगाता था और वही अब भी लगाना पसंद करूंगा.....लेकिन इनको यह बात समझ ही नहीं आई....इनके हिसाब से मैं जात पात को मानता हूँ इसलिए अरोड़ा लगा रहा हूँ..........
खैर, इनको लाख कहता रहा कि न मेरा सिक्ख धर्म में कोई यकीन है, न हिन्दू में, न हिंदुत्व में, न ही जात पात में, लेकिन लगता नहीं कि इनको समझ आया होगा
अपनी सोच कैसे दूसरों पर कोई फेंकता है, इसका ओछा उद्धरण है यह



किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में छात्रों ने भारतीय वस्त्र पहने हैं......गर्व के साथ बताया जा रहा है.........ज़्यादा गर्व की बात तब होगी जब छात्र ड्रेस कोड के ही खिलाफ खड़े हों....भारतीय हो या पश्चिमी ......इस तरह के ड्रेस कोड सब बंधन हैं, गुलामी है......शिक्षा का इस सब से क्या मतलब?.....सही शिक्षा तर्क सिखाएगी, बगावत हर तरह के बंधन के खिलाफ़



अंग्रेज़ी में कहते हैं, "रीडिंग बिटवीन दी लाइन्स" यानि शब्दों के छुपे मतलब भी समझना......होता होगा ऐसा....लेकिन मैं यह देखता हूँ कि सीधे सीधे, साफ़ साफ़ शब्दों के ज़रिये भी बात समझाना बहुत मुश्किल होता है .........लोग शब्द पढ़ते हैं, अर्थ भी समझते हैं शब्दों के, लेकिन बात का कुल जमा मतलब फिर भी या तो समझते नहीं, या गलत समझते हैंपश्चिम पूर्व सब भेद सतही हैं, ग्लोबल कल्चर पैदा हुआ जा रहा है.......बहुत कुछ ध्वस्त होने वाला है, बहुत कुछ नया आने वाला है.......पिछले तीस साल में दुनिया ने एक लम्बी छलांग लगाई है......सहस्त्राब्दियों लम्बी........मानव चेतना, बुद्धि में एक दम उछाल आया है.......आगे हर पल नया नया है............और आगे माईकल-आनंद पैदा होंगे और जो कि शुभ है
कछुआ छाप अगरबत्ती या आल आउट लगाने से या इलेक्ट्रिक रैकेट से जो मच्छर मरते हैं, क्या आप समझते हैं कि कोई सुदूर सितारों को कोई उनकी परवाह है?
या इनकी आत्माएं मारने वालों को भूत बन परेशान करती होंगी?
या इनको मारने वाले नर्क में जायेंगे?
या इनको अपना खून चूसने से न रोकने वाले स्वर्ग में जायेंगे?
यकीन जानिये अस्तित्व को उस तरह से हमारे मरने जीने से फर्क नहीं पड़ता जैसा हमने सोच रखा है
हमने खुद को ज़रुरत से कहीं ज़्यादा अहमियत दे रखी है




मैं अपने जितेन्द्र साहेब यानि जम्पिंग जैक जी को कहना चाहता हूँ कि बच्चे सफल हों यह अच्छी बात है लेकिन एकता कपूर की तरह नहीं, जिसे आधी दुनिया गालियाँ देती फिरे कचरा परोसने की वजह से
जीवन की किताब को पढने में किताबें मददगार हो सकती हैं.....सो किताबें तो पढनी ही चाहियें.....और एक दूजे के जो विपरीत हों वो पढनी चाहिए....
जैसे मैं एक बार पढ़ रहा था "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" तो फिर पढ़ रहा था "शर्म से कहो हम हिन्दू हैं"
एक बार पढ़ रहा था "ज्योतिष अध्यात्म का विज्ञान" फिर पढ़ रहा था "ज्योतिष एक ढ़कोसला"




सुना है मोहन भागवत कह रहे हैं कि धर्मान्तरण नहीं चाहते तो कानून लाकर रोको.....बढ़िया है, कानून लाना है तो यह लाओ कि कोई भी बच्चा किसी भी धर्म में नहीं डाला जायेगा जब तक वो इक्कीस साल का नहीं हो जाता.....आयी बात समझ में भागवत जी ?सन सैंतालीस का बटवारा------- यदि मुस्लिमों ने मारे हिन्दू और सिख तो इधर से ऐसा ही मुस्लिमों के साथ भी किया गया .... और करने वाले हिन्दू और सिख थे

और चौरासी के दौर में सिक्ख आतंकियों ने हजारों हिन्दू मार गिराए खालिस्तान के नाम पर

फिर बाबरी मस्जिद, हिन्दू आतंकी , मरी इमारतों की लडाई में जिंदा इंसानों की बली , जिसमें हिन्दू मुस्लिम दोनों मारे गए

किसी वहम में न रहें कोई भी, चाहे हिन्दू हो, मुस्लिम हो, चाहे सिख हो

बात सिर्फ इतनी सी है कि जिस धर्म में पले बढे हैं, वो कैसे गलत हो सकता है, यह समझ आने के लिए अपने माँ बाप, परिवार द्वारा दी गयी मानसिक गुलामियों से बाहर आना पड़ता हैसबसे पहला धर्मांतरण इंसान का उसके माँ-बाप , उसके इर्द गिर्द के लोग करते हैं....बच्चे के साथ गुनाह, बच्चे के साथ अपराध, बच्चे के साथ अधर्म...जो उसे अपना धार्मिक झुनझुना पकड़ा देते हैं......यह है रोकने की बात.....एक बच्चा जब तक बालिग़ नहीं होता उसे कोई भी धर्म देना अपराध होना चाहिए.....और उसे पूरी तरह से सपोर्ट करना चाहिए कि वो सवाल उठाये, तर्क उठाये, उसे विश्वास नहीं तर्क सिखाना चाहिए..फिर यदि उसे किसी धर्म को चुनना हो तो वो बालिग़ होने पे चुन ले.....अब उसके बाद यह उसकी मर्ज़ी होनी चाहिए कि वो जब मर्ज़ी जिस मर्ज़ी धर्म को चुन ले ......और आप हैं कि धर्मांतरण न हो उसके लिए कानून लाने की बात करते हैं....कानून रोकेगा क्या किसी को धर्म में जाने, न जाने से....कानून सिर्फ.यह देख सकता है.कि किसी के साथ फौजदारी न हो...बाकी सब कानून से बाहर का विषय है.




सब धर्म व्यक्ति के तर्क को हरते हैं, धर्म का पहला मन्त्र है अंध-विश्वास,चाहे कोई भी हो,
क्या सिर्फ दूसरे को मारना काटना ही हिंसा है? व्यक्ति को इंसान से रोबोट बनाना भी हिंसा है, और इस मामले में सब धर्म एक जैसे हैं ...

विचार की जगह संस्कार, तर्क की जगह अंध-विश्वास...सब एक जैसे....

हो सकता है सिक्खों में बहुत सी बुराई आपको नज़र न आयें जो किसी और धर्म में नज़र आती हों, लेकिन क्या सिक्ख किसी गुरु पर तार्किक ढंग से विचार करने देंगे, क्या गुरबानी में यदि कुछ न जमता हो तो उसे खुल कर किसी को कहने देंगे?

और हिन्दू यदि रोबोट नहीं होते तो किसी आडवाणी के कहने पर मुर्दा इमारत तोड़ने निकल पड़ते...

विभन्न धर्मों में जो फर्क आपको शायद बड़े लगते हैं ..मुझे वो बहुत छोटे लगते हैं..गौण...इसलिए मेरी नज़र में सब को एक ही तरह से दफा करने का प्रयास करना होगा..




कभी बहुत पहले देखता था भीख मांगने वाले.......न भी दो भीख, तो कहते चलते थे..जो दे उसका भला,जो न दे उसका भी भला
और आज ट्रैफिक सिग्नल पर गाडी रुक भर जाए, ऐसे खिड़कियाँ पीटते हैं जैसे इनका कर्जा देना हो
मजाल है आपको उतनी देर बात करने दें, कुछ सोचने दें, जान छुड़ाने के लिए दी जाती है भीख कई बार
वक्त ने, ज़रुरत ने भीख मांगने और देने की गरिमा तक को छीन लिया है
विडम्बना, कहीं भी दिख जायेगी, बस आप देखने को तैयार होने चाहिए







!भविष्य, एक झलक !

विज्ञान तुम्हें मंगल ग्रह पर ले जाना चाहता है, अन्तरिक्ष की सैर कराना चाहता है..और तुम्हारा तथा कथित धर्म तुम्हें जंगलों, रेगिस्तानो का वासी बनाये रखना चाहता है

फैसला तुम्हारे हाथ है

एक दिन समय आएगा, एक और पृथ्वी जैसा ग्रह खोज लिया जायेगा और प्रगतिशील लोग इस ग्रह को छोड़ आगे बढ़ जायेंगे

और पड़े रहना यहाँ अपने गपोड़ शंख बजाते

फिर जैसे आज अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में रहने को मरे जाते हो, ऐसे ही उस नए ग्रह पर जाने को तरसते रहोगे

यह सब होने ही वाला है, यकीन मानो मेरा





बहुत पहले मुझे किसी ने समझाया था कि जवाब ढूँढने से पहले सवाल ठीक से समझना चाहिए
जवाब अक्सर सवाल में ही छिपे रहते हैं
जिन तालों को खोलने के लिए हम चाबियाँ तलाश करने दौड़ पड़ते हैं पहले देख लेना चाहिए ताला लगा भी है या यूँ ही अटका है
मिसाल देता हूँ, अगर मिसाल समझ आ गयी तो मसला भी समझ आ जाएगा
एक रात, अस्पताल, पुलिस स्टेशन और फायर ब्रिगेड में इकठा आग लग जाती है, अब बताएं कि एम्बुलेंस सबसे पहले कहाँ आग बुझाने जायेगी, वैसे वो खडी अस्पताल की बाहर पार्किंग में ही है

इस मुल्क को रावण से नही दशहरे और राम लीला जैसे बचकाने कामों से छुटकारा पाने की ज़रुरत है...

अब यह मत बक बकाना कि दशहरा बुराई के अंत का प्रतीक है, अगर ऐसा होता तो तुम्हें हर साल रावण मारना और जलाना नहीं पड़ता....यह मूर्खों वाले तर्क अपने पास रखो

असल में तो तुम्हारी बचकाना बुद्धि ही ज़िम्मेदार है , इस रावण के फिर फिर उठ खड़े होने के लिए

वही बुद्धि जो धर्म के नाम पे होने वाली उल-जुलूल हरकतों में लिप्त है, इस बुद्धि से करोगे साइंस में तरक्की?

इस बुद्धि से सिर्फ तुम रावण के पुतले जला कर प्रदूषण करोगे

इस बुद्धि से तुम सिर्फ रावण जला गन्दगी करोगे

इस बुद्धि से तुम्हारा रावण कभी नही मरेगा, देख लेना तुम्हें फिर से मारना और जलाना पड़ेगा अगले साल, फिर अगले साल , साल दर साल

छोड़ो ये किस्से, कहानियां......तुम्हें कुदरत ने सब दिया है, तुम कोई कम हो किसी राम से, अगर कुदरत को राम पर ही रुकना होता तो तुमको पैदा ही नही करती, कुदरत को तुम पर यकीन है, तुम्हें क्यों खुद पर यकीन नहीं, तुमको क्यों दूर दराज़ के तथा कथित भगवानों पे यकीन है

खुद पे यकीन करो.....अगले साल रामलीला नहीं...अपनी जीत, अपनी हार का जश्न मनायेंगे....अगले साल अपने जीवन के किस्से कहानियां सुनायेंगे.....अगले साल लीला यदि होगी तो मेरी और तेरी..जय हो



लानत है, यहाँ हर करेंसी नोट पर मात्र गाँधी का ही चित्र होता है, शायद अम्बेडकर, भगत सिंह, चिटगाँव के सूर्यसेन, आज़ाद, जगदीश बसु, सी वी रमण जैसे व्यक्ति इस देश में कभी हुए नहीं








Religion

Gods and Goddesses, Fairy Tale characters----- 

They are just childish Imagination, has nothing to do with spiritualism.

Such imaginary gods and goddesses were present in Roman, Greek civilizations too. Apollo, Raw, Poseidon. What happened? Gone with these civilizations.

Here too, in India, in the gap of every 50 kms , you will find some god/goddess which you never heard, Jambheshwar Nath, Tapakeshwarnath etc etc.

And you call it Dharm, religion, spirituality!
This is nothing....

The stories of Kali Mata, Durga Mata, Shankar, Vishnu etc etc.
Amusing stories for grown up kids.






Holier than thou...the biggest reason of human's slaughter

Until humanity gets rid of so-called-religions, religions fed with mother's milk, there can never be peace

(1)  Religions should turn from solid to liquid and liquid to gaseous state.

(2) 
My Reasoning is My Faith
  • I do not believe in following any religion.
  • I do not believe in following. I do not believe in believing without reason.
  • I believe in living with my own wit & witnessing, freedom & wisdom.
  • I will never surrender my wisdom to anyone . And that is the hukam, order of the Nature.
  • All religions are defying nature. If nature wanted you and me to make copy cats of someone/ something in particular, it had never given us freewill, power to reason.





  • And if nature wanted to surrender our freewill to itself, it had not given us the one in the first place. So come outta religious bullshits.
  • A bullshit is a bullshit anyway. It does not make any difference whether the bull is white or black, slim or fat.



    Understand one thing clearly that every order, be it by any of the so called holy scriptures or holy men, how much holy it seems is unholy.
    The very act of ordering is unholy.


    Religions are holy
    .
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    .
    .
    .
    holy-shit.






    All the religions will have to move from rendering Hukamnamans (Orders), Hidayats (Instructions), commandments to friendly suggestions, if they wanna survive.






    Karl Marx is wrong. 
    Religion is not opium. 
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    Religion is Poison.
    It kills the humans.
    And fills the world with Zombies.
    The Dead alives.








    There are many kinda BULLSHITS.

    But worst is new age spiritual BULLSHIT.

    No head, no tail.

    Only shit. Bullshit.

    Beware!




    "More the yelling is, more the selling is."

    Can't you see the simple trick used by the Businesses, Politicians & the Religions



    Use your reason, not your religion.




    Never give a shit 
    to the Holy shit. 
    And Lo, 
    the life is wiser, 
    the life is better.





    Religions can help you of-course only if you have an open mindset, the Granth/ Guru Granth may help you, only if you are not a Sikh, Geeta may help you if you are not a Hindu, Bible may help you if you are not a Christian.....only then you can study with an open mind..only then you can see on merit basis what is valuable and what is not.......only then you can choose what to choose and what to lose.

    I oppose every organized religion...every religion....they just de-humanize...they just make humans robots...they just make humans zombies.......they just turn humans idiots.....they/these religions, be anyone are the real reason of the violence against humanity...