इन्सान महा बेवकूफ है. उसे दूसरों के साथ तमीज़ से जीना आया ही नहीं. तभी तो इतने सारे कायदे हैं-कानून हैं. इतना सारा नैतिक ज्ञान है. इत्ती सारी धार्मिक बक-झक है.
सोशल मीडिया पर भी यही हाल है. जरा तमीज़ नहीं. अगर किसी ने लिख दिया, बोल दिया, जो अपने स्वार्थों के खिलाफ है या फिर जमी-जमाई धारणाओं के खिलाफ है तो हो गए व्यक्तिगत आक्रमण पर उतारू. या फिर गाली-गलौच चालू. Cyber bullying कहते हैं इसे. अधिकांश लोगों को यहाँ लगता है कि छुपे हैं एक आवरण के पीछे. कौन क्या बिगाड़ लेगा?
वैसे तो सीधी समझ होनी चाहिए कि हर कोई स्वतंत्र है, अपनी बात रखने को. क्या ज़रूरत है कि आपके मुताबिक कोई लिखे या कहे? और क्या ज़रूरी है कि आपके किसी कमेंट का, सवाल का कोई जवाब दे?
आप कोई बाध्य हो किसी का लेखन पढ़ने को? नहीं न.
तो फिर सामने वाला भी कोई बाध्य थोड़ा है कि आपसे कुश्ती करे. फिर हरेक के पास अपनी समय सीमाएं हैं. हरेक की अपनी रूचि है. ज़रूरी नहीं कि वो आपके साथ अपना समय लगाना भी चाहे.
सबसे बढ़िया है कि आपको अगर नहीं पसंद किसी का लेखन-वादन तो आप पढ़ो मत उसका लिखा. आप सुनो मत उसका बोला. आप अमित्र करो उसे या फिर ब्लाक करो.
यह कुश्ती किसलिए?
अगर कोई लिखता-बोलता है तो उसने कोई अग्रीमेंट थोड़ा न कर लिया पढ़ने-सुनने वाले से कि अगले दस दिन तक उसी के साथ सवाल -जवाब में उलझा रहेगा.
थोड़ा तमीज़ में रहना सीखें. थोड़ा गैप बनाए रखें. दूजे के सर पर सवार होने की कोशिश न करें.
वैसे सोशल मीडिया की तीन खासियत हैं.
एक तो मित्र बनाने की सुविधा.
दूजी अमित्र बनाने की सुविधा.
और तीसरी, सबसे बड़ी, ब्लाक करने की सुविधा.
ये तीनों सुविधा सब सिखाती हैं अपने आप में. लेकिन लोग कहाँ सीखते हैं? मित्र-सूची में आयेंगे. फिर कुश्ती करेंगे. फिर शिकायत करेंगे कि हमें अमित्र कर दिया. हमें ब्लाक कर दिया.
भैये, तुम्हें तमीज ही नहीं थी. तुम्हें असहमत होते हुए अगले की मित्र सूची में बने रहने की अक्ल नहीं थी.
तथागत. जैसे आये, वैसे विदा हो गए.
दफा हो--स्वाहा.
नमन ...तुषार कॉस्मिक
सोशल मीडिया पर भी यही हाल है. जरा तमीज़ नहीं. अगर किसी ने लिख दिया, बोल दिया, जो अपने स्वार्थों के खिलाफ है या फिर जमी-जमाई धारणाओं के खिलाफ है तो हो गए व्यक्तिगत आक्रमण पर उतारू. या फिर गाली-गलौच चालू. Cyber bullying कहते हैं इसे. अधिकांश लोगों को यहाँ लगता है कि छुपे हैं एक आवरण के पीछे. कौन क्या बिगाड़ लेगा?
वैसे तो सीधी समझ होनी चाहिए कि हर कोई स्वतंत्र है, अपनी बात रखने को. क्या ज़रूरत है कि आपके मुताबिक कोई लिखे या कहे? और क्या ज़रूरी है कि आपके किसी कमेंट का, सवाल का कोई जवाब दे?
आप कोई बाध्य हो किसी का लेखन पढ़ने को? नहीं न.
तो फिर सामने वाला भी कोई बाध्य थोड़ा है कि आपसे कुश्ती करे. फिर हरेक के पास अपनी समय सीमाएं हैं. हरेक की अपनी रूचि है. ज़रूरी नहीं कि वो आपके साथ अपना समय लगाना भी चाहे.
सबसे बढ़िया है कि आपको अगर नहीं पसंद किसी का लेखन-वादन तो आप पढ़ो मत उसका लिखा. आप सुनो मत उसका बोला. आप अमित्र करो उसे या फिर ब्लाक करो.
यह कुश्ती किसलिए?
अगर कोई लिखता-बोलता है तो उसने कोई अग्रीमेंट थोड़ा न कर लिया पढ़ने-सुनने वाले से कि अगले दस दिन तक उसी के साथ सवाल -जवाब में उलझा रहेगा.
थोड़ा तमीज़ में रहना सीखें. थोड़ा गैप बनाए रखें. दूजे के सर पर सवार होने की कोशिश न करें.
वैसे सोशल मीडिया की तीन खासियत हैं.
एक तो मित्र बनाने की सुविधा.
दूजी अमित्र बनाने की सुविधा.
और तीसरी, सबसे बड़ी, ब्लाक करने की सुविधा.
ये तीनों सुविधा सब सिखाती हैं अपने आप में. लेकिन लोग कहाँ सीखते हैं? मित्र-सूची में आयेंगे. फिर कुश्ती करेंगे. फिर शिकायत करेंगे कि हमें अमित्र कर दिया. हमें ब्लाक कर दिया.
भैये, तुम्हें तमीज ही नहीं थी. तुम्हें असहमत होते हुए अगले की मित्र सूची में बने रहने की अक्ल नहीं थी.
तथागत. जैसे आये, वैसे विदा हो गए.
दफा हो--स्वाहा.
नमन ...तुषार कॉस्मिक
No comments:
Post a Comment