मदर डे स्पेशल- -भविष्य में माँ-बाप का रोल नगण्य होगा- कैसे? देखें.
मादर चोद यह तकिया कलाम है हमारा.
लेकिन आप फिर भी मदर-डे की बधाई लीजिये. अब आगे चलते हैं. मेरा मानना है कि भविष्य में माँ-बाप का रोल जैसा आज है वैसा बिलकुल नहीं होना चाहिए.
औलाद पैदा करने का हक़ जन्म-सिद्ध (birth राईट, पैदईशी हक़) न हो के, earned राईट होना चाहिए. आज हर किसी को हमने औलाद पैदा करने का अधिकार दे रखा है. और जितनी मर्जी औलाद पैदा करने का हक़ दे रखा है. कई बार तो साफ़ दिख रहा होता है कि यह बच्चा स्वस्थ जीवन नहीं जी पायेगा फिर भी माँ बाप की जिद्द पर उसे इस दुनिया में लाया जाता है और वो बेचारा सारी उम्र नरक भोगता रहता है. दिख रहा होता है कि पैरेंट अभी आर्थिक रूप से खुद का वज़न नहीं झेल सकते, लेकिन उनको बच्चे पैदा करने देते हैं हम. फूटपाथ पर जीवन घसीटने वाले को औलाद पैदा करने देते हैं हम.
न, न यह सब नही चलेगा आगे. अब डिटेल में सुनिए
पहली बात. आपने जैसे किसी पशु की नस्ल सुधारनी हो तो बेस्ट मेल फेमेल लिए जाते हैं. उनका संगम होता है और उनके बच्चे होते हैं. सेम हियर. स्वस्थ तीव्र-बुद्धि बच्चे होने चाहियें बस. उसके लिए हरेक को बच्चा पैदा करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. पेरेंट्स की मेंडिकल कुंडली मिलाई जानी चाहिए, देखना चाहिए कि इनके बच्चे स्वस्थ होंगे भी नहीं। आज काफी-कुछ पता किया जा सकता है। कई मेल-फीमेल के बच्चे कभी स्वस्थ नहीं हो सकते, वो चाहे खुद स्वस्थ हों तब भी, इनसे बच्चे पैदा नहीं होने चाहिए । बहन-भाई और मा-बेटे बाप-बेटी में बच्चे नाजायज क्यों है सारी दुनिया में. चूँकि बच्चे स्वस्थ नहीं होते उनके. ठीक वैसे ही.
दूसरी बात. जब तक एक लेवल तक कमाने न लगे कोई पेरेंट्स, तब तक उनको बच्चा पैदा करने का हक़ ही नहीं होना चाहिए। कुछ तो निश्चित हो बच्चे का आर्थिक वज़न समाज पर नहीं पड़ेगा।
तीसरी बात और सबसे खतरनाक बात. वो बात जिससे बहुत लोगों की नाक को खतरा हो जायेगा अभी का अभी. . बच्चा माँ-बाप से कैसी भी सामाजिक बेड़ियाँ विरासत में नहीं लेगा। कौन सी हैं वो बेड़ियाँ? वो बेड़ियाँ हैं जिन्हें तुम हीरे-जवाहरात समझते हो. कीमती आभूषण समझते हो. वो हैं तुम्हारे संस्कार, तुम्हारा धर्म। तुम्हारा दीन-मज़हब, पंथ.
देखते हो आप एक बच्चा हिन्दू घर में पैदा हुआ तो वो हिन्दू है, सिक्ख घर में पैदा हुआ तो सिक्ख है, मुस्लिम का बीटा मुस्लिम है. देखते हैं आप?
फिर वो उसी ढंग से सोचता है सारी उम्र।
क्या समझते हो आप कि वोट देने का अधिकार बालिग़ होने पर मिलता है, इसलिए ताकि इंसान सही से सोच समझ सके. यही न. सरासर झूठ बात है यह. वोट कौन कैसे देगा, यह पैदा होते ही तय कर दिया जाता है. अरे भाई उसकी राजनितिक, सामजिक सोच तो आपने उसके पैदा होते ही तय कर दी. वोट भी वो उसी सोच से देता है. यह क्राइम है. जो माँ बाप ने किया बच्चे के खिलाफ ।
हर धर्म के लोग बकवास करते हैं कि वो ज़बरन धरम के खिलाफ हैं. कानून भी हैं कि जबरन किसी का धर्म नहीं बदला जायेगा। लेकिन कैसा लगेगा आपको यदि मैं कहूं कि हर इन्सान पर धर्म-दीन जबरन ही लादा जाता है, उसके पैदा होते ही जबरन लादा जात है. माँ दूध के साथ धर्म का ज़हर भी पिला देती है , बाप ने चेचक के टीके के साथ मज़हब का टीका भी लगवा देता है , दादा ने प्यार-प्यार में ज़ेहन में मज़हब की ख़ाज-दाद डाल देता है, नाना ने अक्ल के प्रयोग को ना-ना करना सिखा देता है, लकड़ी की काठी के घोड़े दौड़ाना तो सिखाया जाता है लेकिन अक्ल के घोड़े दौड़ाने पर रोक लगा दी जाती है.
इसके इलाज के लिए ज़रूरी है कि स्कूलों में ही रहे बच्चा बालिग़ होने तक। माँ-बाप को बस सीमित समय तक ही बच्चे से मिलने का समय दिया जाना चाहिए । या फिर माँ-बाप खुद को धर्म-मज़हब के विषाणु से मुक्त करें तभी बच्चे को अपने साथ रखें। वो भी उनका पाली-ग्राफ टेस्ट होना चाहिए बार बार। झूठ बोले तो सजा होनी चाहिए और बच्चा वापिस स्कूल में जाना चाहिए। यह मुश्किल है लेकिन कोरोना काल में आपने देखा मुश्किल फैसले भी लेने पड़े इन्सान को. धर्म-मज़हब का वायरस अगली पीढ़ी तक न जाए इसके लिए उनको पिछली पीढ़ी से बचाना ही होगा। वरना यह चैन कभी न टूटेगी।
इससे तमाम और तरह की समाजिक-वैचारिक बीमारियाँ भी छटेंगी। मेरा मानना है कि बीमारी, उम्र की सीमा (Longevity) यह सब भी समाज की सामूहिक सोच से प्रभावित होती है, तय होती है.
एक समाज जिसने सोच रखा है कि पचास साल का आदमी बूढा होता है उस समाज में पचास साल का आदमी जवान हो ही नहीं सकता। एक समाज ने सोच रखा है कि साठ साल के बाद आदमी बस मौत के करीब चला जाता है तो वहां आदमी आपको नब्बे साल-सौ साल के स्वस्थ, जवान आदमी मिल ही नहीं सकते । वहां आपको फौज सिंह, बर्नार्ड शॉ कैसे मिलेंगे, जो शतक लगाते ऐन उम्र के भी और क्रिएटिविटी के भी.
तो सिर्फ धर्म की ही नहीं, और भी सामाजिक बीमारियां हैं जो हर पिछली पीढ़ी, अगली पीढ़ी पर थोपती चली जाती है. शिक्षा के नाम, संस्कृति के नाम पर. किसी बीमारी को आप बढ़िया नाम दे दो, लेकिन रहेगी तो वो बीमारी ही.
आखिरी बात. कोरोना काल ने सिद्ध किया है सिजेरियन से ज्यादा नार्मल डिलीवरी हो रही हैं. तो भैया वो कुदरत कोई पागल नहीं है. उसने बच्चे के आने का रास्ता बनाया है उसके लिए हर मा का पेट काटा जाए यह मेडिकल वर्ल्ड का एक फ्रॉड लगता है मुझे। इस पर और रिसर्च होनी चाहिए । मुझे लगता कि कोई इक्का दुक्का ही डिलीवरी होनी चाहिए जो नार्मल न हो, बाकी माँ यदि ढंग से जीएगी तो बच्चा कुदरती ढंग से ही हो जायेगा.
मुझे पता है इसमें बहुत कुछ हज़म नहीं होगा मेरे मित्रों को, लेकिन सोच कर देखिये. वीडियो देखने के लिए शुक्रिया. साथी हाथ बढ़ाएं, वीडियो शेयर करते जाना.
नमस्कार
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