सही परवरिश यह है कि बच्चों को मज़बूत बनाएं.
मैं अक्सर कहता हूँ, "औलाद और शरीर छित्तर मार कर के पालो तो ही सही रहेंगे."
तुषार कॉस्मिक
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
सही परवरिश यह है कि बच्चों को मज़बूत बनाएं.
Left, Right.
इस्लाम में जन्नत और दोजख की स्पष्ट अवधारणा है।
यह वर्णन किया गया था कि अल्लाह के दूत (ﷺ) के मुक्त गुलाम थावबन ने कहा:
यह मुद्दा इन दिनों फिर से महत्वपूर्ण इसलिए है चूँकि "गर्ट विल्डर" ने नेदरलॅंड्स का चुनाव जीत लिया है. तो क्या? उस से क्या सम्बन्ध? संबंध है. यह एकमात्र ऐसा राजनेता था जिसने नूपुर शर्मा का साथ दिया था, उस वक्त साथ दिया था जब कि नूपुर शर्मा की अपनी पार्टी ने उसे निकासित कर दिया था.
खैर.
जो भी नुपुर ने कहा था, वो रहमानी के जवाब में कहा था.
और
जो कहा था वो कुछ भी मन-घडंत नहीं था. पैगम्बर साहेब की निंदा तो तब होती जब नुपुर ने कुछ ऐसा बोला होता जो इस्लाम मानता न होता. इस्लामिक ग्रन्थों में लिखा है कि पैगम्बर साहेब ने हज़रत आईशा से जब शादी की तो वो 6 साल की थीं. जब जिस्मानी रिश्ता बनाया तब वो 9 साल की थी. इसी बात को श्रीमान जाकिर नायक ने भी तसदीक किया है.
लेकिन नुपुर शर्मा ने बोल दिया तो उसे मार दिया जाना चाहिए!
क्यों?
नुपुर शर्मा ने नेगेटिव सेंस में बोला शायद इसलिए. ठीक है, तो आप इसी मुद्दे को पॉजिटिव कर के बता दें. बता दीजिये कि नुपुर कहाँ ग़लत है. और पैगम्बर साहेब ने जो किया वो कैसे सही है, किन विशिष्ट हालात में ऐसा किया और वो कैसे अनुकरणीय है.
बस, नुपुर को टांग दो.
टांग भी दिया उस के पुतले को.
नुपुर को मार दो.
मार भी दिया नुपुर नाम की एक बेगुनाह औरत को बांगला देश में. पहले बलात्कार किया, फिर मार के, लाश खेत में फेंक दी. मात्र इसलिए चूँकि उस का नाम नुपुर था.
होना क्या चाहिए था?
होना यह चाहिए था कि यदि नुपुर की बात गलत लगी तो सब से पहले यह देखना था कि वो ग़लत है भी कि नहीं. तथ्यात्मक तौर पर.
लेकिन जैसा कि अब पता पड़ रहा है कि बात तथ्यात्मक रूप में गलत नहीं थी.
तो फिर नुपुर ने जैसे कहा, वो देखना था कि किन हालात में कहा, वो गलत था या सही. तो वो भी गलत प्रतीत होता नहीं. चूँकि बहस में शिवलिंग को भी कोई सम्मान नहीं दिया जा रहा था, तो तैश में आकर जवाब में नुपुर की तरफ से यह कथन आया.
फिर यह देखना चाहिए था कि उस कथन को चाहे नुपुर ने नेगेटिव ढंग से कहा लेकिन पैगम्बर साहेब की वो शादी पॉजिटिव काम है क्या, अनुकरणीय है क्या? जैसा मैंने ऊपर लिखा है, इस का जवाब भी मुस्लिम' को ही देना था. लेकिन मुस्लिम ने ऐसा नहीं किया. मुस्लिम ने टिपण्णी कर ने वाली के खिलाफ़ झंडा-डंडा बुलंद कर दिया.
इस से क्या प्रतीत होता है?
ऐसा लगता है कि मुस्लिम हज़म ही नहीं कर पाए कि यह बात Out हो गयी. मुस्लिम इस बात को झुठलाते हुए प्रतीत होते हैं.
मुस्लिम इस शादी का औचित्य साबित करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं.
और फिर दुनिया के किसी भी विषय पर, व्यक्ति पर तार्किक रूप से क्यों सोचा नहीं जाना चाहिए? पैगम्बर साहेब थे तो इंसान ही न. क्यों उन के जीवन की घटनाओं का बौद्धिक रूप से विश्लेष्ण नहीं होना चाहिए? क्यों मुस्लिम इस बुरी तरह से उखड़ जाते हैं? क्या इस लिए कि मुस्लिम जवाब देने में असमर्थ समझते हैं खुद को?
मैंने सुना जाकिर नायक को, ये श्रीमान बता रहे थे कि लड़की का जब मासिक धर्म शुरू हो जाता है तो उस से शादी की जा सकती है. और मासिक धर्म 9-10 साल की उम्र में शुरू हो जाता है और इसी उम्र में हज़रत आएशा से पैगम्बर साहेब ने शादी की थी. और मैंने यह भी सुना है कई बार कि मुस्लिम को पैगम्बर मोहम्मद के जीवन की यथा-सम्भव नकल करनी होती है जीवन में. इसे शायद सुन्नत कहते हैं. क्या यह सवाल नहीं उठता कि मासिक धर्म का शुरू हो जाना ही काफी है क्या यह तय करने को कि लड़की शादी के काबिल हो गयी? एक 10 साल की बच्ची जब pregnant हो जाएगी तो क्या उस का शरीर इस pregnancy को सम्भाल पायेगा? प्रसव को झेल पायेगा? क्या एक दस साल की बच्ची ने इतना जीवन देख लिया होता है कि वो अपने बच्चे को सम्भाल पाए? क्या नौ साल की बच्ची की शादी कर के उस का बचपन तो नही छीना जा रहा? ऐसी शादी में बच्ची की मर्ज़ी को उस की मर्ज़ी माना जा सकता है क्या? फिर यदि उस का पति बड़ी उम्र का हुआ और जवानी में ही यदि वो विधवा हो गयी तो क्या यह शादी एक सही फैसला माना जा सकता है? क्या पैगम्बर साहेब की यह शादी अनुकरणीय है? ऐसे ढेर से सवाल खड़े होते हैं.
शायद मुस्लिम समाज इस मुद्दे के अंतर-निहित सवालों को समझता है. और इन सवालों से बचने के लिए ही बवाल किया गया है.
यदि इस्लाम वैज्ञानिक मज़हब है तो इस्लाम को तो हाथ पसार सवाल उठाने वालों का स्वागत करना चाहिए कि आओ, जो भी शंका हो, जवाब हम देंगे.
लेकिन ज़मीनी हकीक़त तो बिलकुल उलट है. तर्क तो दूर की बात, टिपण्णी ही क्यों की?
मेरे ख्याल है कि इस दुनिया के हर इंसान को किसी भी विषय-व्यक्ति पर सोचने का, टीका टिपण्णी करने का हक़ है. हमें खुद की सोच को ही दुरुस्त नहीं करना होता बल्कि दूसरों की सोच दुरुस्त हो इस का भी ख्याल रखना होता है. एक सड़क जिस पर सब ग़लत- शलत कारें चला रहे हों, आप ड्राइव करना पसंद करेंगे? पता नहीं कब कौन ठोक दे. सड़क पर चलना तभी सुरक्षित है यदि सिर्फ आप ही नहीं, दूसरे लोग भी गाड़ी सही-सही चलायें. यह सिर्फ़ मिसाल है. समझाने के लिए. किसी धर्म पर कोई टिपण्णी नहीं है.
यह तर्क भी सही नहीं है कि तुम्हें क्या हक़ है हमारे नबी, हमारे अवतार, हमारे भगवान, हमारे गुरु के बारे में कुछ भी कहने का. हक़ हमें बुनियादी है. कुदरती है. संवैधानिक है. फ्री थिंकिंग और फ्री एक्सप्रेशन एक फ्री समाज की बुनियादी ज़रूरत है.
एक व्यंग्य अक्सर पढ़ता हूँ. एक कुत्ते को गली से उठा कर राज महल में ले जाया गया. वो कुछ समय राज महल में रहा लेकिन फ़िर वापिस गली में आ गया. अब उस के साथी कुत्तों ने पूछा कि क्या हुआ? वापिस क्यों आ गया? तो उस कुत्ते ने जवाब दिया, " वहां राज महल में सब सुविधा थी. खाना पीना, सब बढ़िया. चिंता फिकिर नाहीं. बस दिक्कत एक ही थी. वहां भौंकने की आज़ादी नहीं थी.
यह व्यंग्य साधा गया है उन पर जो फ्री एक्सप्रेशन की डिमांड करते हैं, इस का समर्थन करते हैं.
लेकिन मैं इस कथ्य को दूसरे ढंग से लेता हूँ. मेरा मानना है कि यदि फ्री एक्सप्रेशन की आज़ादी नहीं तो सब सहूलतें बेकार हैं. मैं उस कुत्ते की कद्र करता हूँ जिस ने फ्री एक्सप्रेशन न मिलने पर राज महल को लात मार दी. जिस समाज में फ्री एक्सप्रेशन की आज़ादी नहीं, वहाँ फ्री थिंकिंग भी रुक जाएगी, वैज्ञानिकता थम जाएगी. फ्री एक्सप्रेशन से फ्री थिंकिंग stimulate होती है.
लेकिन यहाँ तो हर कोई दूसरे को कोर्ट कचहरी में खींच रहा है. ऐसे ही गेलीलिओ को खींचा गया था, ऐसे ही ब्रूनो को.....समय-चक्र ने इन को सही साबित किया. समय-चक्र ने इन को इंसानियत के हीरो साबित किया.
"मेरी भावना आहत हो गयी."
तो क्या करें भाई? आप अपनी भावनाओं को मजबूत बनाओ न.
आप Newton के काम के खिलाफ़, शेक्सपियर के नाटकों के खिलाफ़, मुंशी प्रेम चंद के लेखन के खिलाफ़, शिव कुमार बटालवी की कविताओं के खिलाफ़ जितना मर्जी बोलो, जितना मर्जी लिखो कोई तलवारें नहीं खींचेगी. लेकिन आप किसी भी तथा-कथित धार्मिक किताब, व्यक्ति के खिलाफ़ कुछ बोल दो, लिख दो तो मार-काट मच जायेगी. क्यों? सोचिये.
यह जो ईश निंदा, ब्लासफेमी कानून हैं, यह वैज्ञानिक सोच की राह में रोड़ा हैं. ईश की निंदा हो गयी. कैसे साबित करोगे? पहले साबित तो करो कि ईश है भी कि नहीं. ठीक वैसे ही जैसे तुम आलू, गोभी कोर्ट में दिखा सकते हो, छुआ सकते हो, वैसे ही.
ईश सिर्फ एक मान्यता है. मान्यता तो फिर ईश पर सवाल उठाने वालों की भी है. इन को क्यों मार देना? इसलिए चूँकि यह गिनती में कम हैं. भीड़ का गणित. सही हो न हो, सही ही माना जाता है चूँकि भीड़ मानती है.
नुपुर वाला मुद्दा, इस का एक दूसरा पहलू भी है. ऐसा भी लगता है कि जान-बूझ कर भी उछाला जा रहा है. भाजपा को वोट से मुस्लिम समर्थक दल हरा नहीं पा रहे. तो अब मुस्लिम और मुस्लिम समर्थक दल, भाजपा विरोधी दल गाहे-बगाहे सड़क पर उतर रहे हैं. यह सिलसिला शाहीन बाग़ से शुरू हुआ तो चलता ही जा रहा है. दिल्ली ने हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे. अब कानपुर ने. और कितने ही और शहरों ने भी. मुस्लिम हर हाल में भाजपा सरकार पर अपना दबाव बनाये रखना चाह रहे हैं. नुपुर वाला मुद्दा भी उसी सिलसिले की एक कड़ी प्रतीत हो रहा है. सही गलत से कोई मतलब नहीं. बस मुद्दा बनाये रखो.
लेकिन मैं अपने मुस्लिम भाईओं और बहनों से यह कहना चाहता हूँ कि आप को गैर मुस्लिम देख रहा है, नोटिस कर रहा है, उस का मुस्लिम के प्रति डर बढ़ता जा रहा है जो उसे मजबूर करता है मोदी की हजार गलतियाँ माफ़ कर के उसे ही सत्ता सौपने को.
तो मेरा संदेश है मुस्लिम मित्रो को और गैर-मुस्लिम मित्रों को भी, आज ज़माना इन्टरनेट का है. सब पलों में चेक हो जाता है. दीन- धर्मों को सब से बड़ा चैलेंज किसी व्यक्ति-विशेष से नहीं है बल्कि इन्टरनेट से है, सोशल मीडिया से है. अब चीज़ें छुपाई न जा सकेंगीं.
सो यह मरने-मारने की भाषा छोड़ दें. अपनी सोच में वैज्ञानिकता लायें. तार्किकता लाएं. ध्यान लाएं. समाधान लाएं.
और जो भी लिखा, यदि कहीं कुछ गलत लिखा हो तो ज़रूर बताएँ.
नमन
तुषार कॉस्मिक
यह एक मिथ्या नाम है. ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिसे वेज बिरयानी कहा जा सके। हम हिंदी में इसे पुलाव कहते हैं. पुलाव का मतलब मिश्रित सब्जियों के साथ पकाया गया चावल है। तो फिर इसे वेज बिरयानी क्यों कहा जा रहा है? इस्लामिक प्रभाव के कारण. मुस्लिम लोगों को चावल और मांस का मिश्रण बिरयानी बहुत पसंद होती है. उन्हीं के प्रभाव से पुलाव भी वेज बिरयानी बन गया है। इस तरह संस्कृति पर आक्रमण होता है। छोटे कदम। बड़े प्रभाव.
आप कैसे जानते हैं कि अल्लाह महान है, या अल्लाह महान है?
सबूत क्या हैं? अल्लाह ने कौन सी प्रतियोगिता लड़ी है? और किसके साथ? कैसी तुलना? किसके साथ? और उस तुलना के प्रमाण क्या हैं? कोई वीडियो? कोई ऑडियो?
सबसे पहले ये समझें कि "फोबिया" क्या है.
किसी अनुचित कारण से डर लगना ही फ़ोबिया है। अकारण भय महसूस होना। किसी ऐसी चीज़ से डरना जो वास्तव में डरावनी नहीं है।
इस्लामोफोबिया.
इस शब्द से यह आभास होता है कि लोग किसी फोबिया से पीड़ित हैं। लेकिन यह एक मिथ्या नाम है. इस्लाम से डरने वाले लोगों के पास कारण हैं. उचित कारण. इस्लामी Text/Books, इस्लामी इतिहास, इस्लामी सैन्य और सांस्कृतिक आक्रमण। सदियों पुरानी मान्यताएं. अवैज्ञानिक दृष्टिकोण. मुसलमानों की सर्वोच्चता की अनुचित भावना। पूरी दुनिया में गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा।
यह इंटरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब का युग है। चीजें ज्यादा दिनों तक छुपी नहीं रह सकतीं. लोग दिन-ब-दिन इस्लाम की हकीकत से वाकिफ होते जा रहे हैं। इसलिए डर है.
इस डर को "इस्लामोफोबिया" शब्द से दूर नहीं किया जा सकता। नहीं, इनकार मोड किसी की मदद नहीं करेगा। मुसलमान की भी नहीं. दरअसल, अक्सर यह कहा जाता है कि मुसलमान इस्लाम के पहले शिकार हैं।
इसलिए सबसे पहले हमें इस शब्द को, इस शब्द इस्लामोफोबिया फोबिया को छोड़ देना चाहिए और इसे ISLAMOFEAR कहना शुरू कर देना चाहिए और फिर हमें इस डर को हमेशा के लिए दूर करने के तरीके खोजने शुरू करने चाहिए।
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First, understand what Phobia is. A phobia is feeling fearful for some unreasonable reason. Feeling fear unreasonably. Fearing from something which is not fearful in fact.
Islamophobia. The word, it gives the impression that people are suffering from a phobia. But this is a misnomer. People fearing from Islam have reasons. Reasonable reasons. Islamic text, Islamic history, Islamic Military, and Cultural Invasions. Muslims aggressions. Age-old beliefs. Unscientific approach. Muslim's Unreasonable Feeling of Supremacy. Violence against Non-Muslims all over the World.
This is an age of the Internet and the World Wide Web. Things cannot be concealed for a long time. People are becoming aware of the reality of Islam day by day. Hence the fear.
This fear can not be washed away by the term Islamophobia. No. Denial mode shall not help anyone. Not even Muslims. In fact, it is often said that Muslims are the first victims of Islam.
Hence first we should drop this word, this term i.e. Islamophobia phobia, and start calling it ISLAMOFEAR, and then we must start to find ways of removing this fear forever.
These are just superstitions.
यहूदियों की आबादी बहुत कम है. और हम भारतीयों को भारत में पहले से रह रहे यहूदियों से कोई दिक्कत नहीं है. और मेरे विचार से यहूदी एक बहुत अच्छी कौम है.
My pen name is Tushar Cosmic.
वे यह क्यों नहीं कहते कि कश्मीरी हिंदुओं के घरों पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया है और उनकी महिलाओं के साथ मुसलमानों ने बलात्कार किया है और उनके पुरुषों को मुसलमानों ने मार डाला है?
यह मोहम्मद, क़ुरान और इस्लाम की आलोचना करने की अनुमति नहीं देता है। और जहां आलोचना करने की यह आजादी नहीं है, वहां कोई बहस नहीं हो सकती, कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता। और कोई भी किसी बात को बिना बहस के तार्किक ढंग से कैसे स्वीकार कर सकता है.
भारत में मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिरों पर कब्जा कर लिया है, कश्मीरी हिंदुओं के घरों, संपत्तियों पर कब्जा कर लिया.
स्थानीय नागरिकों को हमास के साथ सहमत होना चाहिए। तो उन्हें निर्दोष कैसे कहा जा सकता है? और क्या आपने एक भी फ़िलिस्तीनी को इज़राइल या दुनिया में कहीं भी मुसलमानों के हमलों की निंदा करते देखा है? यदि नहीं, तो वे अब दुनिया से मदद क्यों मांग रहे हैं?
एक आदमी को शादी करते समय या दफनाते जाते समय सबसे अच्छा दिखना चाहिए।
मुझे खेलों से प्यार है।लेकिन मुझे क्रिकेट से नफरत है.
बहुत कारण से।
एक तो इस खेल में प्रदर्शन को मापा नहीं जा सकता. यह संभावनाओं का खेल है. जिसने कल वर्ल्ड कप जीता, हो सकता है अगले दिन उसे हार मिल जाए. सच्चा खेल नहीं. शायद यही एक कारण है कि क्रिकेट फुटबॉल या किसी अन्य खेल की तरह विश्व खेल नहीं है। इसीलिए शायद क्रिकेट को अब तक ओलंपिक में नहीं लिया गया है.
मेरी नफरत का दूसरा कारण यह है कि मैं सभी संगठित, संस्थागत, भीड़ पैदा करने वाले धर्मों का विरोध करता हूं। और क्रिकेट तो मानो एक धर्म बन गया है. भारत में लोगों ने क्रिकेटरों के मंदिर बना रखे हैं. और उन्होंने क्रिकेटरों को भगवान कहना शुरू कर दिया है. Holy-shit
Tushar Cosmic
बड़ी बहस है कि इजराइल की धरती यहूदियों की है या मुसलमानों की है. मुसलमान कहते हैं कि वो ज़मीन उन से छीन कर यहूदियों को दी गयी है. जब कि यहूदी उस ज़मीन पर अपना हक़ बताते हैं. ऐसा ही कुछ मामला कश्मीर का है. हिन्दू उस ज़मीन पर अपना पुराना हक़ जमाते हैं, जब कि इस वक्त ज़यादातर मुस्लिम रहते हैं वहाँ. तो हक़ किसका हुआ?
असल बात यह है कि किसी भी ज़मीन पर किसी का कोई हक़ नहीं है. धरती माता ने आज तक किसी के नाम कोई रजिस्ट्री नहीं की है. ज़मीन पर कब्जा खेती जब शुरू हुई तभी से है. वो कब्ज़ा कबीलों से ले कर मुल्कों तक फैला है और उस कब्जे के झगड़े पूरी दुनिया में हैं.
क्या हवा किसी एक की है, क्या दरिया किसी एक के हैं? वैसे दरिया भी बाँट लिए गए हैं. ऐसे ही धरती भी बाँट ली गयी है. बस चले तो हवा भी बाँट ली जाएगी और शायद आसमान भी. यह क्या बेवकूफी है? हम पशु-पक्षियों से भी बदतर हैं. इलाकों के लिए शायद वो भी इतना नहीं लड़ते जितना हम लड़ते हैं. हम उन से ज़्यादा समझदार हैं. हम में इन मुद्दों को लेकर तो कतई कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए. लेकिन हमारी पीढ़ियां लड़ रही हैं. कबीले लड़ रहे हैं, गाँव लड़ रहे हैं. मुल्क लड़ रहे हैं.
सब से खतरनाक इस्लामिक कबीला है. हाँ, मैं इसे कबीला मानता हूँ. मुस्लिम उम्मा, पूरी दुनिया में चाहे बिखरी हो लेकिन यह अपने आप में अलग-थलग ही रहती है. यह बिखरी होने के बावजूद एक कबीलनुमा आबादी है. इस आबादी का बाकी दुनिया की सारी आबादी से झगड़ा है. अनवरत. इसे पूरी दुनिया को मुसलमान करना है. अपने जैसा झगड़ालू. अपने जैसा आदिम. इन का इतिहास सारे का सारा मार-काट से भरा है. आज भी जहाँ मुसलमान हैं, वहाँ शांति नाम की कोई चीज़ नहीं है जब कि मुसलमान खुद को अमन-पसंद बताते हैं. इन के इसी दावे की वजह से गैर-मुस्लिम "शांति-दूत" लिखते हैं इन को . खिल्ली उड़ाते हुए. चूँकि अक्सर खबर आती है, कि शांतिदूत ने फलां जगह बम्ब बाँध "अल्लाह-हू-अकबर" कर दिया, खुद तो फटा, साथ में कितने ही निर्दोष लोगों को और उड़ा दिया. और यह चलता ही आ रहा है. फिर भी इन को सारी दुनिया को मुसलमान करना है.
यह सब बड़ा ही संक्षिप्त लिखा है मैंने. अब क्या ऐसे समाज को कहीं भी रहने की इजाज़त मिलनी चाहिए? मेरा सवाल यह है कि मुसलमान को कश्मीर छोड़ो दुनिया के किसी भी कोने में रहने की इजाज़त होनी चाहिए क्या? सोचिये. सवाल यहाँ यह तो होना ही नहीं चाहिए कि ज़मीन के किस टुकड़े पर कौन कब काबिज था या है. धरती लाखों वर्षों से है. इंसान हज़ारों वर्षों से और इंसानी तथाकथित सभ्यता उस से भी कम समय से है. धरती पर किस का, कैसा कब्जा? कब्जा पहले पीछे होना कोई कसौटी होना ही नहीं चाहिए कि किस भू-भाग पर कौन रहेगा?
ऐसे ही आरएसएस (संघ) वाले भी हिन्दू-भूमि के गीत गाते है. कौन सी भूमि है हिन्दू भूमि है? भूमि ने कभी कहा है की वो हिन्दू भूमि है? यह सब बस कथन हैं. कोई भूमि न तो हिन्दू भूमि है, न मुस्लिम, न यहूदी. भूमि सिर्फ भूमि है.
फिर किस को किस भूमि का अधिकार होना चाहिए? जिस समाज की मान्यताएं ही आदिम हों, हिंसक हों, उसे कैसे किसी भी भू-भाग का अधिकार दे दिया जाए?
दीन-धर्म-मज़हब सिर्फ़ दीन -धर्म-मज़हब नहीं हैं. एक जैसे नहीं हैं. उन में ज़मीन आसमान का फर्क है. इन में इस्लाम सब से ज़्यादा हिंसक है, विस्तारवादी है. तर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं. हथियार ही इस का तर्क है. ज़्यादा तर्क करने वाले को मार-काट दिया जाता है. सवाल उठाने की कोई आज़ादी नहीं. आप क़ुरान, मोहम्मद और इस्लाम की आलोचना नहीं कर सकते. ख़ास कर के इस्लामिक समाजों में. और जहाँ आज़ादी नहीं, जहाँ विचार के पैरों में बेड़ियाँ डाल दी जाएँ, जहाँ विचार को हथकड़ियां लगा दी जाएँ, वो कैसे दौड़ेगा? तो यह समाज बस जकड़ा पड़ा है. पिछले १४०० सालों से. और पूरी दुनिया को अपने जैसा बनाना चाहता है. इस समाज को इजराइल, फ़लस्तीन, कश्मीर छोड़ो दुनिया के किसी भी कोने में नहीं होना चाहिए. आज दुनिया में जो भी मुद्दे हैं, झगड़े हैं उन में ज़्यादातर मुसलमानों की वजह से हैं. भारत में भी ज़्यादातर झगड़े-झंझट-इन्ही की वजह से हैं. भारत की आधी ऊर्जा मुसलमानों के मुद्दों में ही उलझी पड़ी है. अनवरत.
और मुसलमानों की बड़ी आबादी है. क्या किया जाये? इन को समन्दर में डूबा नहीं सकते? हिटलर की तरह हवा में उड़ा नहीं सकते. तो फिर क्या किया जाये?
एक तरीका यह है कि दुनिया में एक ऐसा मुल्क बनाया जाये, जहाँ एक्स-मुस्लिम बसाये जा सकें. बहुत लोग अंदर-अंदर इस्लाम छोड़ चुके हैं, लेकिन चूँकि रहना उन को मुस्लिम समाजों में है मज़बूरी-वश, तो वो मुसलमान ही बने रहते हैं. इन को वहां से निकाला जाना चाहिए. अलग मुल्क दिया जाना चाहिए.
दूसरा, पूरी दुनिया में De-Islamization प्रोग्राम चलाये जाने चाहिए. असल में तो किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा दी ही नहीं जानी चाहिए. यह अनैतिक है. यह गैर-कानूनी होना चाहिए. सब मदरसे, सब धार्मिक किस्म के स्कूल बंद होने चाहिए. सब स्कूलों में वैज्ञानिक सोच को विकसित करना सिखाया जाना चाहिए.
तीसरा, गैर-मुस्लिम समाज को तेजी से इस्लामिक साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए। गैर-मुस्लिम को पता होना चाहिए कि इस्लामिक हिंसा इस्लामिक साहित्य से आती है. जब एक समाज का साहित्य ही नफरत सिखा रहा हो, हिंसा सिखा रहा हो, आदिम कबीलाई किस्म की मान्यताएं सिखा रहा हो तो वो बदलते ज़माने के साथ कैसे तालमेल बिठा पायेगा? लेकिन गैर-मुस्लिमों में से बहुत लोग यह सब नहीं समझते. वो आज भी गंगा-जमुनी तहज़ीब के गीत गाते हैं, या ईश्वर के साथ अल्लाह को जोड़ते है. जो कि सरासर झूठ है. अल्लाह के साथ किसी को नहीं जोड़ा जा सकता, ऐसा इस्लाम कहता है खुद. यह शिर्क है, जो गुनाह है. यह सब समझना होगा गैर-मुस्लिम को. पूरी दुनिया को इस्लामिक खतरों को समझना होगा और इस के लिए युद्ध स्तर पर काम करना होगा.
और मुसलामानों को समझना होगा कि तुम्हारी समस्याओं की जड़ तुम खुद हो, तुम्हारा इस्लाम है. जिसे तुम अपना सब से कीमती आभूषण समझते हो, वही तुम्हारी बेड़ियाँ हैं, हथकड़ियां हैं, वही तुम्हारी जेल है।
आज सोशल मीडिया भरता जा रहा है, फलस्तीनी बच्चों की मौतें दिखाने के लिए. इजराइल ने मार दिया. क्या मुसलमान ने जो आज तक हिंसा, कत्लो-गारत की है पूरी दुनिया में या अभी भी जो कर रहा है जो, वो नहीं देखनी-दिखानी चाहिए? जिन का फलसफा ही यह कि इस्लाम को पूरी दुनिया पर ग़ालिब होना है, उन की ज़्यादतियों को नहीं दिखाया जाना चाहिए क्या? "तुम करो तो रास लीला, हम करें तो करैक्टर ढीला." तुम मारो तो यह दीन, और सामने वाला मारे तो यह ज़ुल्म?
तो वक्त आ गया है, जिस तरह से साम-दाम-दंड -भेद से लोगों को मुसलमान किया गया है, वैसे ही इन को इस्लाम से बाहर निकाला जाये, अन्यथा दुनिया में हिंसा थमेगी नहीं.
या फिर गैर-मुस्लिम सब किसी और सुन्दर ग्रह पर शिफ्ट हो जाएँ और मुसलामानों को यहीं छोड़ दें. लो बना लो इस धरती को मुसलमान. फिर कुछ सालों बाद जब मुसलमान आपस में लड़ मरें तो फिर वापिस इस धरती पर भी कुछ गैर-मुस्लिम लोग आ बसें.
यह हैं कुछ सुझाव. बाकी आप सुझाएं...
नमन.
तुषार कॉस्मिक
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Curated By प्रियेश मिश्र | नवभारतटाइम्स.कॉम | Updated: 12 Oct 2023, 10:02 pm