Some Scattered Pearls- कुछ बिखरे मोती~ by Tushar Cosmic
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जे साई दीपक को आप ने यूट्यूब पर देखा होगा शायद. ये सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं. दीवाली की आतिशबाज़ी को कोर्ट में इन्होनें कोर्ट में कैसे डिफेंड किया वो बता रहे थे एक वीडियो में. कोर्ट ने कहा होगा कि दीवाली में आतिशबाज़ी कोई धार्मिक रीति नहीं है तो इन्होने बताया कि इन्होने बहुत से संस्कृत ग्रंथ ले जा कर रख दिए कोर्ट में जिन में आतिशबाज़ी का ज़िक्र था. फिर इन्होने एक्सप्लेन भी किया कि श्राद्ध पक्ष में हम अपने पूर्वजों को बुला लेते हैं अपने पास तो अब उन को वापिस भी जाना होता है तो उन पूर्वजों को रास्ता दिखाने के लिए रौशनी की जाती है आसमान में आतिश बाज़ी द्वारा.
वाह! वैरी गुड!! इडियट!!! महा-इडियट!!!!
और ये महाशय बड़े ही ज़हीन समझे जाते हैं. ताबड़-तोड़ अंग्रेजी बोलने से कोई बुद्धिशाली नहीं हो जाता.
महा-मूर्ख हैं यह.
कैसे?
अबे, कौन से पूर्वज आते हैं श्रद्धाओं में और फिर कहाँ जाते हैं? रात में ही जाते हैं क्या जो रौशनी चाहिए उन को?
सब कोरी गप. किसी किताब में लिखा है तो सत्य हो गया? है न?
जैसे ज़ाकिर "नालायक" किताब में लिखे पर बहस करता है. फलां किताब में, फलां पन्ने पर अलां-फलां लिखा है इसलिए सही है, इसलिए गलत है.
इडियट!
किताब में लिखे मात्र से कुछ सत्य-असत्य हो जाता है क्या?
मैं तो ज़ाकिर नायक को "जोकर नालायक" समझता हूँ लेकिन और भी गम हैं ज़माने में. और भी नालायक हैं वैसे ही.
असल में तथा-कथित हिन्दुओं में तो डिबेट का मतलब ही "शास्त्रार्थ" था. मतलब जो शास्त्र में लिखा है उस का अर्थ क्या है बस डिबेट इसी बात पर होती थी.
मंडन मिश्र और शंकराचार्य में भी जो डिबेट हुई थी वो असल डिबेट थी नहीं वो शास्त्रार्थ मात्र ही था. नकली डिबेट. ये सब लोग नकली डिबेट कर रहे हैं. कोर्ट में भी.
जे साई, मैं खुले में कह रहा हूँ आप मूर्ख हो. कर लो मेरे से डिबेट कभी भी. चैलेंज है.
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"दिवाली के पटाखे - सरासर मूढ़ता"
कोर्ट की मनाही के बावजूद, प्रदूषण के खतरे के बावज़ूद, हिन्दू खूब-खूब पटाखे फोड़ रहे हैं हर दिवाली पर. जानते हैं क्यों? सिर्फ मुस्लिम और ईसाई को अपनी ताकत दिखाने के लिए. हिन्दू मानस काफी हद तक मुस्लिम और ईसाई एक्सपेंशन के खतरे को भांप चुके हैं, उसे काउंटर करने के लिए दीवाली के पटाखे एक टूल की तरह इस्तेमाल होते हैं.
भाजपा सरकार भी इसे मौन समर्थन देती प्रतीत होती है. अन्यथा इतने पटाखे आएंगे कहा से?
वैरी गुड?
लेकिन कोर्ट ने जो मना कर रखा है उसे भी तो समझो न कि मना क्यों कर रखा है. दूसरे दीवार में सर मारेंगे तो तुम भी वैसे ही करोगे क्या?
अपना सर बचाओ। तभी तो छाती ठोक कर कह सकोगे दूसरे को भी कि सर फोड़ने नहीं दोगे.
या
दूसरा कुएं में कूदेगा तो तुम भी कूदोगे?
Tushar Cosmic
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शोले फिल्म याद है? ठाकुर धर्मेंदर और अमिताभ जैसे क्रिमिनल को लाता है गब्बर के मुकाबले. क्या लॉरेंस बिश्नोई जैसे लोग सही तोड़ हैं मज़हबी गुंडगर्दी का? गैंग का मुकाबला गैंग से सही है क्या? आप बताएं. . .
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सड़क में सब गाड़ी सही सही चल रहे थे. ट्रैफिक नियमों का पालन करते हुए. लेकिन एक व्यक्ति गाडी, साइज में थोड़ी बड़ी, जैसे मर्ज़ी चला रहा था. शरीर में तगड़ा. इसे कोई नियम कायदे की परवाह नहीं थी. अब सब को उस की वह से वैसे ही गाड़ी चलानी पडी चूँकि सब को पहुंचना था अपनी मंजिल और समय पर पहुंचना था.
लग भग पूरी दुनिया के लोग धर्मों की अंधता से लगभग छुट्टी पा चुके थे, सिर्फ एक धर्म को छोड़ कर. इस्लाम.
इसे कोई परवाह नहीं किसी की.
भारत में हिन्दू विरोध कर रहा है, इजराइल में यहूदी विरोध कर रहा है, म्यांमार में बौद्ध को मियां मारना पड़ रहा है, चीन में मुस्लिम को ज़बरन गैर-मुस्लिम किया जा रहा है, यूरोप और अमेरिका में ईसाई विरोध कर रहे हैं. लेकिन मुस्लिम को किसी की परवाह नहीं. इसे अपनी गिरेबान में झांकना ही नहीं. सब गलत हैं, ये ही ठीक हैं बस. चाहे आपस में कटते-मरते फिरें लेकिन ये ही ठीक हैं.
नहीं, मुसलमान को तार्किक ढंग से सोचना होगा.
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जाकिर नाइक से नाराज़ होना ग़लत है। वो सिर्फ वही कहता है जो इस्लामी किताबों में लिखा है।
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जिन कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी से भगा दिया, उनके बिना कश्मीर में चुनाव का कोई अर्थ नहीं है।
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"नफ़रती चिंटू" तो सुना होगा आपने.
"नफ़रती मिंटू" क्यों नहीं सुना?
क्या पता नफ़रती मिंटू की वजह से ही नफ़रती चिंटू नफ़रती बना हो?
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*कंक्रीट के जंगल*
ये जो शहर के बीचों-बीच पचासों मँजिल कंक्रीट के ऊंचे-ऊंचे जंगल खड़े कर दिए गए हैं, और किये जा रहे हैं, सरासर बेफ़कूफी है मेरी नज़र में. टाउन-प्लानर, इंजीनियर बहुत सयाने लोग होंगे न? बहुत पढ़े-लिखे? क्या इन को नहीं पता कि यह शहर पहले ही आबादी के बोझ तले दबा चला जा रहा है. गाड़ी पर गाड़ी चढ़ी है यहाँ. जहाँ खड़े हो जाओ मेला लगा महसूस होता है. ऊपर से ये हाई-राइज टाउन! चलो मान लिया इन में जो आबादी रहेगी, उस के लिए टाउन में खाली जगह छोड़ी गयी हैं, पार्किंग का भी प्रावधान है लेकिन आखिर-कार इस आबादी ने शहर की सड़कों-बाज़ारों, मोहल्लों में भी तो आना ही है न. ऐसा शहर जो पहले ही घुटता जा रहा है.
मेरी नज़र में स्टिल्ट पार्किंग भी आधी-अधूरी योजना थी, उस से जितना फायदा हुआ, उतना ही नुक्सान भी. लोगों ने चूहा फ्लोर बना-बना बेच दिए, नहीं बेचे तो गो-डाउन बना लिए, कहीं तो गाड़ी अंदर पहुँच ही नहीं पाती, कहीं पहुंचती भी हैं तो लोग फिर भी गाड़ी बाहर ही खड़ी करते हैं. वैसे ही ये कंक्रीट के जंगल भी.
यदि पेजर को रिमोट बम्ब बनाया जा सकता है तो साधारण बारिश को भी ज़हर बनाया जा सकता है और गाइडेड मिसाइल की तरह गाइडेड बादल भी भेजे जा सकते हैं.
Beware!
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इस्लामिक टेरर को खत्म कर ने के लिए इस्लामिक टेररिस्ट को मारने से क्या होगा? तुम एक मारोगे , कल दो और आ जाएंगे. दुनिया में इस्लामिक टेरर ख़त्म करने के लिए तुम्हें इस्लामिक विचारधारा पर अटैक करना होगा. लेकिन वो तुम इस लिए नहीं करते क्योंकि एक ऊँगली यदि इस्लाम पर उठाओगे तो चार ऊँगली तुम्हारे अपने धर्म, मज़हब, अक़ीदे पर भी उठ जाएंगी. इस लिए पत्ते, टहनियाँ काटते रहते हो और खुश होते रहते हो. जड़ पर प्रहार करने से तुम्हारी अपनी जड़े भी हिल जाएंगी. लेकिन हिम्मत करो. यह शुभ है. यह शुभ साबित होगा. यह ही शुभ साबित होगा.
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"अर्थ अनर्थ व्यर्थ"
अलग-अलग शब्दों अर्थ कुछ के कुछ समझे जाते है इस की कुछ मिसाल देता हूँ:---
१. "भइया" शब्द का अर्थ Brother होता है. लेकिन पंजाब में इस शब्द का मतलब Brother नहीं होता. पंजाब में इस शब्द का मतलब होता है "लेबर" या फिर "पूरबिया" या फिर "पूरबिया लेबर". यू-पी, बिहार से जो लेबर जाती है, इस शब्द का जुड़ाव उन्ही से है.
३. "टट्टी" शब्द का अर्थ "मल" समझा जाता है लेकिन ऐसा है नहीं. मल-त्याग करने के लिए जो मोटे कपड़े (जैसे टाट) की ओट बनाई जाती थी उसे टट्टी कहा जाता था. टाट. टट्टी.
Tushar Cosmic
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रिश्तों को लेकर बहुत कठोर मापदंड मत बनाइए। सामने वाले को एक-एक चीज़ पर परखिये मत। हो सकता है कोई दोस्त बहुत बौद्धिक हो मगर तारीफ करना न जानता हो। हो सकता है कोई ईर्ष्या करता है मगर सबसे सही सलाह भी वही देता हो। सामने वाली एक-एक प्रतिक्रिया पर उसे स्कोर मत दीजिए। उसके हर रिएक्शन पर उसका रिपोर्ट कार्ड तैयार मत कीजिए।
संभव है कि जब वो आपकी किसी खुशी पर बहुत खुश न हुआ तब वो खुद किसी गहरे दुख से गुज़र रहा हो। आप ये सोचकर नाराज़ हो गए कि वो इतना खुश क्यों नहीं हुआ और उसने ये सोचकर अपना दुख बयां नहीं किया कि आपकी खुशी में भंग न पड़ जाए। वो दुखी हो कर आपकी खातिर खुश होने का अभिनय कर रहा है और आप इस बात पर नाराज़ हो गए कि आपकी इतनी बड़ी खुशी में भी वो सिर्फ खुश होने का अभिनय कर रहा है।
इंसान सामान भी खरीदता है तो चीज़ बहुत अच्छी लगने पर उसकी कुछ कमियों से समझौता कर लेता है। मोबाइल का कैमरा अच्छा है तो उसे खरीद लिया ये जानते हुए कि उसकी बैटरी वीक है। टी शर्ट के बाजू पर कंपनी का लोगो पसंद नहीं आया मगर टी शर्ट का Colour पसंद है, तो बाजू पर बने लोगो को इग्नोर कर दिया। मगर हम इंसानों के साथ ऐसा कोई समझौता नहीं करते। कपड़ों की तरह उन्हें कोई रियायत नहीं देते।
वो इंसान जो किसी कंप्यूटर प्रोग्राम से नहीं, भावनाओं से चलता है। वो इंसान जो कमज़ोर है। आत्म संशय से घिरा है। उस इंसान को हम किसी संदेह का लाभ नहीं देना चाहते। सारी माफियां खुद के लिए बचाकर रखते हैं। छोटी-छोटी बातें बुरा लगने पर सालों पुराने रिश्तों में पीछे हट जाते हैं। बातचीत बंद कर लेते हैं और खुद ही खुद को अकेला करते जाते हैं। कुछ वक्त बाद नाराज़गी पिघल कर हवा हो जाती है। सामने वाले के साथ गुज़ारा वक्त याद आने लगता है। खाली वक्त में उसे मिस भी करते हैं। मगर उससे बात करने की पहल नहीं कर पाते।
अकेलापन आज दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी है। डिप्रेशन सबसे बड़ा रोग है और ये रोग हमने खुद अर्जित किया हैं, क्योंकि हम लोगों को तब तक पास नहीं करते जब तक कि वो रिश्तों में दस बटा दस नंबर न ले आएं।
By @Umesh Singh....from Facebook
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देखिए, शब्दों को एक निश्चित संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
क्या आप जानते हैं कि अदालती मामलों को "कोर्ट केस" क्यों कहा जाता है?
केस का अर्थ है बॉक्स. किसी बात को केवल प्रासंगिक बॉक्स, प्रासंगिक मामले/ Case में ही समझा जा सकता है...अव्यवस्थित रूप से नहीं।
See, words must be understood in a certain context.
Do you know why Court matters are called "Court Cases"?
Case means box. A matter can be understood only in its contextual box, its contextual case, not haphazardly.
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“मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, विशेषकर सेवाओं में। मैं किसी भी ऐसी चीज के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूं जो अक्षमता और दोयम दर्जे के मानकों की ओर ले जाती है। मैं चाहता हूं कि मेरा देश हर चीज में प्रथम श्रेणी का देश बने। जिस क्षण हम दोयम दर्जे को प्रोत्साहित करते हैं, हम खो जाते हैं। पिछड़े समूह की मदद करने का एकमात्र वास्तविक तरीका अच्छी शिक्षा के अवसर देना है... लेकिन अगर हम सांप्रदायिक और जाति के आधार पर आरक्षण के लिए जाते हैं, तो हम प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों को निगल जाते हैं और दूसरे दर्जे या तीसरे दर्जे के बने रह जाते हैं। मुझे यह जानकर दुख हुआ कि सांप्रदायिक विचारों के आधार पर आरक्षण का यह व्यवसाय कितना आगे बढ़ गया है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पदोन्नति भी कभी-कभी सांप्रदायिक और जातिगत विचारों पर आधारित होती है। इस तरह न केवल मूर्खता होती है, बल्कि विनाश भी होता है।''
27 जून,1961 को नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र का अंश
“I dislike any kind of reservation, more particularly in services. I react strongly against any thing which leads to inefficiency and second rate standards. I want my country to be a first-class country in everything. The moment we encourage the second-rate, we are lost. The only real way to help the Backward group is to give opportunities of good education… But if we go in for reservations on communal and caste basis, we swamp the bright and able people and remain second-rate or third-rate. I am grieved to learn of how far this business of reservation has gone based on communal considerations. It has amazed me to learn that even promotions are based sometimes on communal and caste considerations. This way lays not only folly, but disaster .”
Extract from Letter by nehru to CMs on June 27,1961
And usually people miss the point, when they fail to see the contextual case of the words.
Hope I am clearer.
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एक मुल्ला तर्क दे रहा था अल्लाह के वजूद के पक्ष में. वो कह रहा था, "जो चीज़ बनाई जाती है, बनाने वाला उस से बाहर होता है. अल्लाह ने टाइम बनाया, अल्लाह टाइम से बाहर है."
बकवास. पहली बात नृत्य नर्तक से बाहर होता है क्या, एक्टर एक्टिंग से बाहर होता है क्या?
और समय?
अल्लाह ने टाइम बनाया तो किसी टाइम तो टाइम बनाया होगा तो जिस टाइम अल्लाह ने टाइम बनाया, उस टाइम वो टाइम था या नहीं.
मियाँ, कुछ भी कहते रहो, कुछ prove न कर पाओगे.
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क्या "फिल्म जेहाद" भी कुछ है? मल्लब मुस्लिम लोग जान-बूझ के भाई-जान लोग की फिल्म हिट करवाते हैं?
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कहते हैं अपने ही वकील से बचना होता है सब से पहले तो आप को. Same, जिसे नेता चुनो, कभी मत सोचो कि तुम्हारे लिए काम करेगा. नहीं करेगा. उससे काम लेना होता है. उस की चाल-बाजियों से बचना होता है. मुस्लिम एक मुश्त भाजपा/हिन्दू के खिलाफ वोट देता है. काफिर को एक-मुश्त मुस्लिम के ख़िलाफ़ वोट देना चाहिए. लेकिन अपने नेता की नाक में दम रखना चाहिए. उसको चैन की सांस नहीं लेनी चाहिए. वो सेवा करने का दम भरते हैं तो उनसे जम के सेवा लेनी चाहिए।
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स्पैम कॉल करने वालों का चालान किया जाना चाहिए, उन पर आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए। एक सप्ताह के अंदर xyz कंपनी के लोन विभाग से कोई रजनी, रेनू, मीनू की कॉलिंग नहीं होगी।
जया बच्चन ने यदि संसद में कहा कि उस के नाम "जया अमिताभ बच्चन" नहीं है बल्कि "जया बच्चन" है तो इस में गलत क्या कहा?
खूब मज़ाक बनाया जा रहा है. ट्रोल किया जा रहा है. आम जन जीवन में विवाहित स्त्रियों का नाम ऐसे ही लिया जाता है क्या? पत्नी के नाम में पति का नाम जबरन घुसाया जाता है क्या?
मतलब एक विवाहित स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व कोई है नहीं. हां, विवाहित पुरुष का स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है फिर भी.
यह है बदतमीजी! और यह चली आ रही है सोशल मीडिया पर.
मेरे पास सैंकड़ों किताबें हैं एक बड़ी लकड़ी की अलमारी में. यह मेरी जमा-पूँजी है पूरी उम्र की. अधिकांश किताबें मैंने पढ़ी हैं लेकिन कुछ नहीं भी पढ़ी जो अब कभी शायद ही पढूं चूँकि अब तो नज़र भी उतना साथ नहीं देती.
किताबों में कुछ सेकंड हैंड भी हैं. कहाँ से कहाँ से खरीदी मैंने... फुटपाथ से ले कर हाई क्लास शोरूम से. कई घर बदले, कई ऑफिस बदले लेकिन यह लाइब्रेरी, यह अलमारी, ये किताबें मेरे साथ रहीं. बहुत मेहनत लगती थी हर बार, जब भी मैं घर-दुआर बदलता था. लेकिन की वो मेहनत, ख़ुशी ख़ुशी की.
कभी सोचता था कि जब मरूँगा तो बच्चे इस पूँजी का प्रयोग करेंगे. याद करेंगे पिता एक लाइब्रेरी छोड़ गए लेकिन अब पता है कि ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, मैं गया तो मेरी जाते ही यह लाइब्रेरी भी चली जाएगी. यह ठीक वैसे ही है जैसे कुछ बुड्ढों के मरते ही बच्चे सब से पहले वो प्रॉपर्टी बेचते हैं जिस पर बुड्ढा कुंडली मार कर बैठा था.
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"बठिंडा"
मैं सारी क़ायनात का हूँ और सारी कायनात मेरी है. मैं कॉस्मिक हूँ. "तुषार कॉस्मिक".
बावज़ूद इस के अपने होम टाउन, अपने नेटिव सिटी बठिंडा, जहाँ मैंने ज़िंदगी के पहले उन्नीस-बीस साल गुज़ारे हैं, को बहुत ही प्यार करता हूँ.
अक्सर मन होता है चुपके से उठूं और दिल्ली से बठिंडा की ट्रैन पकड़ूँ. बठिंडा स्टेशन पहुँच जाऊँ. यह स्टेशन. कितना अपना-अपना सा. वहाँ पहुँच बठिंडा की गलियों मं घूमता रहूँ. कोई मुझे पहचाने न. न कोई मुझे नोटिस करे. न.
मुझे बस बठिंडा का कोना कोना देखना है फिर से, महसूस करना है, अपना वो जीवन फिर से जीना है, जो वहाँ से मैं जी कर निकल चुका. जहाँ समोसे खाता था शाम को, वहीँ समोसे खाने हैं. जहाँ जलेबी खाई, वहीं जलेबी खानी है. जिस मंदिर के बाहर बैठ मंगलवार का प्रसाद खाया, उसी मंदिर जाना है.
समय का पहिया वापिस नहीं घुमाया जा सकता, पता है मुझे, लेकिन थोड़ा सा तो घुमाया ही जा सकता है. यादों में ही सही.
Tushar Cosmic
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मैं मुसलमानों से जल्दी से कोई तर्क-वितर्क नहीं करता.
क्यों?
चूँकि तर्क-वितर्क होगा, बहस होगी, तो बात दीन -मज़हब पर भी जाएगी, क़ुरआन-पुराण पर भी जाएगी.
और
मुसलमान तो इस्लामिक ग्रंथों में लिखे के ज़िक्र तक को भी नकार देता है. तलवार निकाल लेता है. नूपुर के मामले में ऐसा ही हुआ था. तो फिर क्या तर्क करना?
मेरा एक सिक्ख दोस्त हुआ करता था, स्कूल-कॉलेज के समय में. हम बहुत बहस करते थे. दुनिया जहान की. मज़ाक-मज़ाक में वो डंडा उठा लेता था और सामने बैठ जाता।
और कहता,"हूण दस्स , तू सही या मैं?"
और मैं हँसते हुए कहता, "तू ही सही है मेरे वीर."
और वो भी हँसने लगता, "देखिया, डन्डा पीर है विगड़े-तगडियाँ दा."
ठीक है, जब डण्डा ही पीर है, सिद्ध है, अमीर है, तो फिर तर्क की क्या गुंजाइश? इसलिए कोई बहस नहीं मुसलमान से. वो बहस से पार हैं. अपरम्पार हैं.
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It is Common sense that evolves into genius.
Applied step to step.
Gradually.
It derives wonderful conclusions.
But the irony is that common sense is very hard to find. Very Uncommon.
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