Sunday, 17 November 2024

सतगुर नानक परगटया, मिटी धुंध जग चानण होया. सच में क्या?



क्या बाबा नानक "सिक्खों के गुरु" थे?
क्या बाबा नानक "सिक्खों के पहले गुरु" थे?

सिक्खी बाबा नानक ने नहीं चलाई. सो वो सिक्खों के "पहले गुरु" थे, यह कहना कतई ठीक नहीं. उन्होंने कोई मोहर-बंद, डिब्बा-बंद धर्म चलाया ही नहीं. हालांकि उन के आने से "धर्म/righteousness" अपने आप कुछ कुछ चल पड़ा, वो अलग बात है.

और यह भी कहना कि वो सिक्खों के गुरु थे, उन को सीमित करना है. नहीं. ऐसा नहीं था. सिक्ख तो तब थे ही नहीं.

वो गुरु थे, लेकिन गुरु वो सब के थे.
और जो सब का नहीं, वो असल में गुरु हो ही नहीं सकता.

गुरु कौन है? जो भारी हो. गुरुत्व हो जिस में. मतलब जिस से कुछ सीखा जा सके.

तो क्या बाबा नानक गुरु थे?
निश्चित ही बहुत कुछ सीखने जैसा था उन से और आज भी है. वो गुर हैं निसंदेह.

वो हरिद्वार में जा कर सूर्य की उल्टी दिशा में पानी चढाने लगते हैं. पूछने पर कहते हैं कि करतार पुर में उन के खेत हैं, और वो अपने खेतों को पानी दे रहे हैं.
"खेत में पानी यहाँ से कैसे जा सकता है?" लोगों ने पूछा.
"तो फिर सूर्य को यहाँ से पानी कैसे जा सकता है?" बाबा नानक ने पूछा.

वैरी गुड.
यह तरीका था ललकारने का तर्क-हीन कृत्यों को.

लेकिन क्या बात वहीं खत्म हो गयी?
क्या आज हम ने सीख लिया उन से कुछ?

सतगुर नानक परगटया, मिटी धुंध जग चानण होया.
मिट गयी धुंध?
क्या लोग आज सूर्य को पानी नहीं चढ़ाते?

अभी छठ पूजा हो कर हटी है. सूरज को ही अर्ध्य दिया जाता है. हिन्दू आज भी रोज़ाना सूरज को पानी दे रहे होते हैं.

क्या सीखा बाबा नानक से?
कुछ भी नहीं.

उन्होंने बचपन में जनेऊ पहनने को इंकार कर दिया.

"ਦਇਆ ਕਪਾਹ ਸੰਤੋਖੁ ਸੂਤੁ ਜਤੁ ਗੰਧੀ ਸਤੁ ਵਟੁ ॥
ਇਹੁ ਜਨੇਊ ਜੀਅ ਕਾ ਹਈ ਤ ਪਾਡੇ ਘਤੁ ॥
ਨਾ ਏਹੁ ਤੁਟੈ ਨਾ ਮਲੁ ਲਗੈ ਨਾ ਏਹੁ ਜਲੈ ਨ ਜਾਇ ॥
ਧੰਨੁ ਸੁ ਮਾਣਸ ਨਾਨਕਾ ਜੋ ਗਲਿ ਚਲੇ ਪਾਇ ॥
ਚਉਕੜਿ ਮੁਲਿ ਅਣਾਇਆ ਬਹਿ ਚਉਕੈ ਪਾਇਆ ॥
ਸਭੁ ਕੋ ਆਖੈ ਪਹੁਚਾ ਕਿਸੈ ਨ ਚਲੈ ਨਾਲਿ ॥
ਧਰਮ ਕੇ ਮੂਲੈ ਪੜੀਐ ਰਸੁ ॥"

"दयाभाव को कपास बनाओ, संतोष को धागा, संयम को गांठ और सत्य को मोड़।
अगर ऐसा जनेऊ आत्मा के लिए है, तो पंडित इसे मेरे लिए बनाओ।
यह जनेऊ न टूटता है, न गंदा होता है, न जलता है और न ही कहीं खोता है।
नानक कहते हैं, धन्य है वह इंसान, जो इसे गले में पहनकर चलता है।
पंडित इसे बनाकर चारपाई पर बैठकर पहनाते हैं,
लेकिन यह किसी के साथ नहीं जाता।
धर्म की जड़ में सत्य और ज्ञान का रस है।"

यह कहा था बाबा नानक ने पंडित को.

क्या हिन्दू जनेऊ नहीं पहन रहे? आज भी पहन रहे हैं हिन्दू जनेऊ. खूब पहन रहे हैं. शादी बयाह, अंतिम क्रिया-कर्म में तो पहनते ही हैं.

उन्होंने जगनन्नाग में जा कर आरती को इंकार कर दिया.

"ਗਗਨ ਮੈ ਥਾਲੁ ਰਵਿ ਚੰਦੁ ਦੀਪਕ ਬਨੇ ਤਾਰਿਕਾ ਮੰਡਲ ਜਨਕ ਮੋਤੀ ॥
ਧੂਪੁ ਮਲਆਨਲੋ ਪਵਣੁ ਚਵਰੋ ਕਰੇ ਸਗਲ ਬਨਰਾਇ ਫੂਲੰਤ ਜੋਤੀ..."

"गगन (आकाश) को थाल समझो, रवि (सूर्य) और चंद्रमा को दीपक, और तारों के समूह को मोती।

सुगंधित धूप को अग्नि और हवा को चंवर (पंखा) मानो, और सारे जंगल की रोशनी को फूलों का अर्पण।"
(भाव: पूरी सृष्टि स्वयं ईश्वर की आरती कर रही है।)

ये शब्द हैं बाबा के आरती पर.
लेकिन मंदिरों में आरती तो आज भी होती है.

कहते हैं वो मक्का गए और पैर मक्का की तरफ कर के सो रहे.
मुसलमानों ने रोका,"अल्लाह के घर की तरफ पाँव न किये जाएं."
बाबा ने कहा, "तो फिर मेरे पाँव उधर कर दो, जहाँ अल्लाह का घर न हो."
और कहते हैं कि जैसे-जैसे उन के पाँव घुमाये गए, मक्का उधर घूम गया.
मक्का तो खैर क्या घूमा होगा लेकिन जैसे-जैसे उन के पाँव घुमाये गए होंगे वैसे-वैसे बाबा ने पूछा होगा, "क्या यहाँ अल्लाह नहीं है?" तो मुस्लिम सोचने पर मजबूर हो गए होंगे कि अल्लाह तो सब जगह है. बस. इस तरह से कुछ-कुछ हुआ हो सकता है.

लेकिन क्या आज भी मुस्लिम मक्का की तरफ पाँव कर लेंगे? मुझे लगता नहीं।

सिख क्या करते हैं? गुरूद्वारे में बिना सर पर कपड़ा बाँधे घुसने नहीं देते. क्या ओमकार, वाहेगुरु, निरंकार सिर्फ गुरूद्वारे में है? यह सवाल था ओशो का. वही सवाल जो नानक ने किया था.

गाया जाता है उन के हर जन्म दिवस पर, "सतगुर नानक परगटया, मिटी धुंध जग चानण होया."

लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता. मुझे लगता है, बाबा नानक ने प्रयास किया कि धुंध छंट जाये, रौशनी हो जाये. लेकिन इंसान इतना मूढ़ है कि यह अपने उद्धारकों का, सुधारकों का भजन-पूजन कर के जान छुड़ा लेता है. उन के कथन ग्रंथों में डाल कर, नमन कर के पीछा छुड़ा लेता है. न पढ़ता है, न समझता है, न मनन करता है. ग्रंथ-बद्ध करना कुछ भी बुरा नहीं लेकिन मशीनी ढंग से मत्थे टेके चले जाना, वो गड़बड़ है.

बाबा नानक के साथ भी ऐसा ही किया गया है, किया जा रहा है. उन को पहले तो सिक्खों के गुरु बोल कर सीमति किया गया है सिक्खों तक. दूसरा उन के कथनों को ग्रंथ-बध करके जान छुड़ा ली गयी है. अब बस पाठ करो. मत्था टेको और मामला खतम. चिंतन-मनन तो करना ही नहीं.

शायद सिक्खी में मूर्ती पूजा नहीं है. लेकिन क्या सच में? ग्रंथ साहेब को ही मूर्ती का दर्जा नहीं दे दिया गया क्या? आओ मत्था टेको. मन्नतें मांगों.

यह करते हैं अपने महा-पुरषों के साथ, उन के कथनों, उन की वाणी के साथ हम. उन के सारे काम, सारे प्रयास को मिटटी कर देते हैं हम. .

कैसा लगेगा यदि मैं कहूँ:

"सतगुर एडिसन परगटया,
मिटी धुंध जग चानण होया"

कम से कम बल्ब ऑन करो तो कमरा रोशन तो हो जायेगा. लेकिन हम तो एडिसन का भी धन्यवाद नहीं करते. इडियट हैं हम.
किसी ने लिखा कि बाबा नानक तो सूफी हैं. मैंने जवाब दिया:-- नहीं. बाबा नानक मेरी नज़र में सूफी नहीं थे. बाबा नानक बाबा नानक थे. काहे, सीमित करना? हम असीम को सीमित क्यों करने लगते हैं? यह सीमित करना भी हमारी सीमा है न कि बाबा नानक की. दूसरी बात, सूफी अक्सर मुस्लिम समझ लिए जाते हैं. लेकिन मेरी नज़र में वो मुस्लिम नहीं थे. वो इस्लाम के बागी थे, लेकिन क्या वो सिर्फ इस्लाम के बागी थे? क्या इतना ही उन का परिचय था? नहीं. इस्लाम के बागी तो एक्स-मुस्लिम भी हैं. जिन को कहा गया सूफी, वो इस्लामिक समाज में थे, लेकिन मुस्लिम नहीं थे. और इस्लामिक समाज में रहते हुए मुस्लिम न होना बड़ी बात है. बड़ी खतरनाक बात है. इस्लाम ने तो मंसूर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, सरमद की गर्दन उड़ा थी जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर. आज भी सूफियों की दरगाह जला दी जाती हैं. वहां बम विस्फ़ोट किये जाते हैं. सूफियों की याद में मेले में आये लोग मारे जाते हैं. सूफी अपने आप में मग्न, मस्त, मौला थे. इतने मग्न की खुद "मौला" थे.अनहलक अहम ब्रह्मस्मि. उन के शब्द सीधे बाण हैं, कोई टेढ़-मेढ़ नहीं. और उन के शब्द इस्लाम की आलोचना मात्र नहीं है. उन के शब्द उन की अपनी समझ से निकले हैं. उस में जो इस्लाम के खिलाफ चले गए, उन से इस्लाम की आलोचना हो गयी तो हो गयी. उन के शब्द उन की अपनी दीन-दुनिया की समझ है. सूफी असीम हैं. बाबा नानक असीम हैं. अब जब दोनों असीम हैं तो फिर सूफी बाबा नानक थे और बाबा नानक सूफी थे. यह मैंने क्या लिख दिया? पहले इंकार किया कि बाबा नानक सूफी नहीं थे, फिर इकरार किया. हाहाहा..... जब असीम को शब्दों में पिरोने की कोशिश होगी तो ऐसा ही अनर्गल होगा. लिखने कुछ लिखो, लिखा कुछ जायेगा. मेरे साथ तो अक्सर होता है, शुरू मैं करता हूँ लिखना, खत्म जैसे कोई और करता है. मैंने जो सोचा नहीं होता, वो मैं लिख देता हूँ. क्लैरिटी खुद-बा-खुद आती जाती है लिखते-लिखते. अस्तु. नमन.
तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 12 November 2024

बिखरे मोती -2

बिखरे मोती -2
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Don't be the people of the Book.

Rather be the people of the Library.

And never be a donkey anyway.

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"सनातन?"
एक सज्जन बता थे कि सनातन का अर्थ है कुदरत..... प्रकृति.
और प्रकृति का पूजन ही सनातन है. प्रकृति है तो हम हैं. प्रकृति से ही हम हैं. और प्रकृति सनातन है.
गुड.
यह बात कहने-सुनने में बहुत अच्छे लगती है.
लेकिन क्या बात इतनी ही सीधी और सरल है?
अभी छठ पूजा हो के हटी है. मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. यहाँ कई एकड़ में फैला एक डिस्ट्रिक्ट पार्क है. इस के बीचों-बीच एक झील हुआ करती थी. अब सूखी थी. छठ के लिए इस में कुछ पानी भरा जाता है. छठ पे इस के किनारे आयोजन किया जाता है. लाउड स्पीकर. गाना बजाना. पटाखे. पूजन. सब कुछ होता है. आयोजन खत्म. भीड़ गायब। लेकिन पीछे कूड़ा. पूरी झील के इर्द गिर्द कूड़ा. और झील में कीचड़ नुमा पानी. यह है प्रकृति की पूजा!
असल में यह सब अब सांकेतिक रह गया है. शायद सांकेतिक भी नहीं. लोग छठी मैया से अपनी मन्नतें माँगते होंगें, जैसे कहीं भी अपनी इच्छाओं का बोझा लाद देते हैं. किसी भी मंदिर-मजार, पीर-फकीर के डेरे पर. बस. यह प्रकृति-पूजन नहीं है. यह दुष्प्रयोजन है. प्रकृति का दुष्प्रयोग है.
क्या "छट्ठी मैया" को पंजाबी जानते थे? मैं पंजाब से हूँ. कुछ दशक पहले तक वहां किसी को इस उत्सव का पता नहीं था. ऐसे ही भारत में बहुत से धार्मिक आयोजन हैं, उत्सव हैं जो लोकल हैं, जिन का बाहरी लोगों को बिलकुल कोई मतलब नहीं.
यह मिसाल है. तो जिसे सनातन समझा जा रहा है, वो कुल मिला कर कबीलों, गाँव, देहातों, कस्बों का पूजन मात्र है. लोकल देवी-देवता का पूजन. बस. और इस में सनातन कुछ भी नहीं है.
छुपे अर्थ चाहे कुछ भी रहे हों, शुरू में प्रयोजन चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन असल में सारा आयोजन बस दुनियावी अर्थ साधने के लिए होता हैं. प्रकृति को संभालने की किसे पड़ी है? भजन-पूजन तो सिर्फ अपने स्वार्थ सिद्ध करने को किया जा रहा है. यह सनातन है?
Tushar Cosmic
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"समझदार लोग"
समझदार इंसान ज़रा सा मौका मिलते ही कतार तोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करता है. मूर्ख इंसान कतार में खड़ा अपनी बारी आने का इंतज़ार करता है.
भारत में लेफ्ट साइड चलते हैं लेकिन समझदार लोग राइट साइड में भी अपना राइट समझते हैं. घुस जाते हैं, कतार तोड़ कर. जो लोग सही लेन में सरकते रहते हैं, वो मूढ़ हैं, महा मूढ़ हैं. ऐसे कोई ज़िंदगी में आगे बढ़ सकता है? होता रहे ट्राफिक जाम. समझदार लोग टेढ़-मेढ़ कर के कतार में सरकने वाले लोगों से कहीं आगे निकल ही जाते हैं.
गाड़ी पार्क करने की जगह हो या न हो, लेकिन समझदार लोग आड़ी-टेढ़ी गाड़ी पार्क कर देंगे. कई बार तो बीच सड़क में गाड़ी छोड़ चल देंगे. भाड़ में जाए दुनिया-दारी. कई किसी के भी घर-द्वार के आगे गाड़ी छोड़ देंगे. भली करेंगे राम. बुरे तो वो लोग हैं जो इन की गाड़ियों के टायरों की हवा निकाल देते हैं या इन की गाड़ी डैमेज कर देते हैं. गर्र..
Moral:- समझदार बनो.

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मुस्लिम से मैं सीधा-सीधा कहना चाहता हूँ कि तुम्हें बहुत जिद्द है न सारी दुनिया को मुस्लिम करने की? कुछ नहीं है तुम्हारे पल्ले सिवा एक बड़ी आबादी के और कुछ मुल्कों पर शासन के. और जहाँ तुम्हारा शासन है भी, वहां भी जनता का एक हिस्सा तिलमिला रहा है इस्लाम के चंगुल से निकलने को.
ईरान की मिसाल ले लो. औरतें जान देने पर तुली है लेकिन इस्लाम से बाहर आना चाहती हैं.
अफगानिस्तान में जब तालिबान आया था तो ऐसे ही लोग भाग रहे थे. प्लेन से लटक गए थे.
जहाँ से इस्लाम आया है, जहाँ मक्का है (सऊदी अरब) वहाँ इस्लाम को dilute किया जा रहा है. मतलब अरब में समझ आता जा रहा है कि इस्लाम को विदा करना चाहिए. मोहम्मद-बिन-सलमान ( सऊदी का प्रिंस) को समझ आ गया कि इस्लाम को शब्दशः लादा जाना सही नहीं है.
अरब से बाहर के मुसलमानों को जाने कब समझ आएगा?

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मुस्लिम की बेसिक जिद्द है कि ख़लकत (कायनात) का एक ख़ालिक़ ही है, एक ही मालिक है. अल्लाह और अल्लाह का आखिरी मेस्सेंजर थे हज़रत मोहम्मद साहेब और अल्लाह का फाइनल मैसेज है क़ुरान. चलो इसी पे बहस करते हैं. साबित करो कि खलकत का कोई खालिक है ही? यह अपने आप नहीं बनी. और वो एक ही है, एक से ज़्यादा नहीं हैं? और उस का नाम अल्लाह ही है. और वो अल्लाह मैसेंजर भेजता रहा है? और आख़िरी मैसेंजर/ नबी मोहम्मद साहेब हैं? और अल्लाह का आखिर मैसेज क़ुरआन है? साबित करो.

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सोसाइटी के भीतर सोसाइटी (Society within Society), स्टेट के भीतर स्टेट ( State within State). यह है मुस्लिम समाज. और चिल्लाने लगते हैं यदि कोई और समाज इन का बहिष्कार करने की बात भी कर दे. इन्होने तो जन्मजात रोटी-बेटी का रिश्त तोड़ रखा है काफिरों के साथ. वो?

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भारत में हिन्दू धर्म, सनातन धर्म, हिंदुत्व जैसा कभी भी कुछ नहीं रहा. यहाँ सब की अपनी-अपनी डफली रही है और सब अपना-अपना राग अलापते रहे हैं. लेकिन फिर कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा लिया गया और भानुमति ने कुनबा जोड़ लिया. यह भानुमति असल में सावरकर, आरएसएस और भाजपा रही है.

तथा-कथित हिन्दुओं से भी सीधा-सीधा कहना चाहता हूँ कि न तो कोई हिंदुत्व नामक चीज़ है, न भाव, न विचार-धारा, न विश्वास. कुछ नहीं. इसे परिभाषित भी नहीं कर पाओगे. और न ही भारत-भूमि नामक कोई ज़मीन का टुकड़ा सैतालीस से पहले था, जो हिन्दुओं की बपौती रहा हो. यह सब इस्लाम, ईसाईयत और कम्युनिज्म आदि से बचने के लिए आरएसएस किस्म की सोच रखने वाले लोगों द्वारा घड़े गए नैरेटिव हैं. और ये नैरेटिव अब ज़मीन पकड़े हैं इस्लाम के खतरे की वजह से. मुख्यतः इस्लाम की हिंसा से, इस्लाम से ही बचाने के लिए.
इसीलिए तुम भाजपा के निकम्मेपन को भी बरदाश्त कर जाते हो, इसीलिए अपने विश्वासों/अंध-विश्वासों पर डिबेट का बहुत आग्रह नहीं करते. बल्कि बचते हो. और बचते हुए अतार्किक मान्यताओं का भी समर्थन कर जाते हो. लेकिन यह सब शुभ नहीं है.

इस्लाम को छिन्न-भिन्न कर दो तर्कों के प्रहार से, लेकिन फिर तुम्हारी अपनी मान्यताएं भी टूटेंगी. टूटने दो. यही रास्ता बेस्ट है. न कि वो जिस में तुम इस्लाम को तो चुनौती देते रहते हो और अपनी मान्यताओं को बचा ले जाना चाहते हो. वो सब बकवास है. "हस्ती मिटती नहीं हमारी". नहीं. इस्लाम के साथ तुम्हारी हस्ती में से भी बहुत मिट जायेगा. और यही शुभ है.

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महाभारत और रामायण को इतिहास मानने वालों को पूछना है.
कौन सा बंदर हवा में उड़ता है? कौन सा बंदर बोलता है? कौन सा बंदर सूरज को खा सकता है? करवों से बच्चे कब पैदा होते हैं? या फिर सूरज से या फिर हवा से?
बच्चे सिर्फ सम्भोग से पैदा होते हैं, वो भी एक ही प्रजाति के नर और मादा से.
कुछ का कुछ पेल रखा है और फिर जिद्द करते हो कि यह इतिहास है.
यह मिथिहास है भय्ये.

और न महाभारत और न रामायण इतिहास की तरह पढ़ाई जाती है. मिथिहास का अर्थ जानते हैं क्या है? मिथिहास मतलब मिथ्या नहीं है. यह मिथ्या और इतिहास का गठजोड़ है. इस में इतिहास भी और मिथिक भी हैं. यानि पता नहीं कितना सच है, कितना झूठ. सच भी हो सकता और झूठ भी. दोनों का समिश्रण। किस्से-कहानियों को भी जोड़ा-तोड़ा गया हो सकता है. कल्पनाओं के घोडा भी दौड़ा हो सकता है. लेकिन कोई झूठ भी बोलता है तो उस में कुछ तो सत्य भी बोल ही जाता है. ऐसे ही आज हम विश्लेषण कर के सत्य या यूँ कहें कि सत्त (निचोड़) निकलने की कोशिश करते हैं. वो काम की चीज़ है न कि यह साबित करने की जिद्द कि यह सब हूबहू सत्यकथा ही है. सत्यकथा जोर मत दो, सत्त-कथा पर जोर दो.

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क्या कोई लिख सकता है कि मैं नहीं हूँ देशभक्त? हिन्दू नाम से कोई धर्म नहीं है. भारत नाम से कोई मुल्क था ही नहीं सैंतालीस से पहले और जो था वो अंग्रेजों का था. India. हिन्दुओं का आज जितना बड़ा राज्य कोई नहीं था, और अलग अलग राजाओं के रजवाड़े थे, इन में भारत कौन सा था पता नहीं. मैंने लिखा है.
कोई ख़ास बात है ही नहीं. यूनाइटेड किंगडम, यूनाइटेड स्टेटस ऑफ़ अमेरिका, USSR ये सब ऐसे ही जोड़-तोड़ के बने होंगे. क्या फर्क पड़ता है?
माँ के पेट से ही तो देश-राष्ट्र बनते नहीं. धरती माँ.
और तथा कथित सभ्यता-संस्कृति भी कोई एक स्थान विशेष से बंधी नहीं होती. पूरी दुनिया से लोगों ने एक दूजे से मान्यताएं, विचार, विश्वास लिए-दिए हैं. छोड़े और अपनाये हैं. यह भारतीय-अभारतीय सभ्यता सब बकवास है.

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कोई नहीं खेलता मुल्क के लिए. बकवास करते हैं खिलाड़ी. और न खेलना ही चाहिए. असल में खेल सिर्फ खेलने के लिए होते हैं. इस में देश-विदेश कहाँ से आ गया? वो सिर्फ Name & Fame पाने के लिए बक-झक की जाती है.

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मेरी नज़र में दुनिया सभ्य नहीं है. और न ही संस्कृति है कहीं । कंक्रीट के जंगलों में रहने से सभ्य नहीं हुआ जाता. एक कोठी और एक कोठड़ी में हो, तो इसे संस्कृति नहीं कहा जाता.

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कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम क्यों कहा था? एक पहलु जो मुझे समझ आता है वो एक्सप्लेन करता हूँ. अफीम हो, कोई नशा हो, यह हमें असल ज़िंदगी से दूर ले जाता है. हम वक्ती तौर पर अपनी दुःख, चिंताए भूल चुकते हैं. धर्म यही करते हैं. ये कथा-कीर्तन, ये भजन, ये पूजा-पाठ, ये सब.. हमें हमारी समस्याओं से, उन के समाधान से, इन सब चिंताओं से दूर ले जाते हैं. और हमें वक्ती तसल्ली देते हैं कि आसमान में बैठे कोई "बड़े पापा" हमारी मदद करते हैं. जब कि असलियत में ऐसा कुछ है नहीं. धर्म असलियत से दूर ले जा कर एक खुश-फ़हमी क्रिएट करता है, यही अफीम भी करती है, कोई भी नशा करता है इसीलिए मार्क्स ने इसे अफीम कहा है.

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"ध्यान की झलकें"
मेरी नज़र में हम अक्सर ध्यान में होते हैं या ध्यान जैसी स्थिति में होते हैं. अक्सर. बस शब्द हमें नहीं पता. हमें नहीं पता कि यह ध्यान है.
दौड़ाक अक्सर ध्यान में चले जाते हैं दौड़ते-दौड़ते. सब दुनिया पीछे छूट जाती है और वो बस दौड़ते जाते हैं. फिर वो भी मिट जाते हैं. बस दौड़ रह जाती है. कभी दौड़ के देखो. दौड़ते जाओ. बहुत सोच-विचार के साथ थोड़ा न दौड़ते रह सकते हो. सोच-विचार तो छूटते ही जाना है. और ध्यान का प्रादुर्भाव हो ही जाना है. इसे ही अंग्रेजी में Runner's High कहा जाता है.
कभी अनुभव किया हो, बैठे हैं, कुछ सोच चल रही है और अनायास ही टकटकी सी बंध जाती है. सब सोच रुक सी जाती है. अपने आप. कुछ किया नहीं. बस हो गया. कुछ पल के सब कुछ रुक सा जाता है. यह ध्यान है.
कभी हाईवे पर ड्राइव करो. दोनों तरफ खेत हैं. कभी कोई ढाबा गुजर जाता है. कोई गाँव. फिर कभी कोई ट्रेक्टर. कितना अच्छा लगता है. हाईवे बहुत ही आकर्षित करते हैं. बस ड्राइव करे जाओ. क्यों? यह ध्यान में ले जाता है.
अक्सर सड़कों पे लिखा होता है, "Speed Thrills but Kills". पढ़ा होगा आप ने. ठीक है तेज ड्राइव नहीं करना चाहिए लेकिन सोचने की बात यह है कि इंसान करता ही क्यों है तेज ड्राइव? क्यों? चूँकि यह ध्यान में ले जाती है. सब सोच छूट जाती है. एक दम अलर्ट. पूरी तरह से ध्यानस्थ.
कभी निद्रा से उठते ही महसूस हुआ कि अभी तो सोये थे, इतनी जल्दी कैसे उठ गए? जबकि सोये रहे घंटों. ऐसा तभी महज़ होता है जब निद्रा बहुत ही गहन हो. जैसे बचपन की निद्रा. या बचपन जैसी निद्रा. यह भी ध्यान की एक झलक है. ध्यान में समय है ही नहीं. असल में समय तो कुछ है ही नहीं. सब मन का खेल है. ध्यान में मन हट जाता है. सो समय का बोध भी खत्म सा हो जाता है. सो इस तरह की निद्रा भी ध्यान जैसी ही स्थिति है बस चेतना नहीं है सो ध्यान जैसी स्थिति है लेकिन ध्यान नहीं है.

और मुझे लगता है कि सेक्स में भी इंसान को ध्यान जैसा कुछ अनुभव होता है. मन शिथिल हो जाता है. या यूँ कहूँ कि मन अस्तित्व-हीन होता चला जाता है.
यह सब मेरी अपनी समझ है. न तो मैं कोई ज्ञानी. न ध्यानी. आम आदमी. आम आदमी पार्टी वाला नहीं. अपने आप में मग्न सच्ची-मुच्ची का आम आदमी. अपने रिस्क पर पढ़ें और समझें, जो लिखा सब बकवास हो सकता है.

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फेसबुक को कोई मतलब नहीं है किस ने अच्छा लिखा बुरा लिखा. यह पूरी तरह से एक कमर्शियल प्लेटफार्म है. पैसे दो और चाहे कचरा पोस्ट बूस्ट करवा लो. यह तो हम सब का ही फ़र्ज़ है कि अच्छा लिखने वालों को प्रमोट करें. अच्छी पोस्ट को कॉपी पेस्ट करें, लेखक के नाम के साथ. तो जहाँ अच्छी पोस्ट मिले, उसे फैला दो. ज़करिये के सहारे मत रहो.

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Tushar Cosmic

Sunday, 10 November 2024

रुदाली

गली में कल कीर्तन था. कीर्तन क्या था "क्रंदन" था. रोना-पीटना था. इत्ती भद्दी, गला फाड़ आवाज़, ऊपर से लाउड-स्पीकर. पूरी गली को चार-पांच घंटे नरक बना दिया.

"कमली वाला मेरा यार है...". गा रही बाइयाँ. पति के सामने गाये तो सर पीट ले. बता इस का तो यार है. "कमली वाला". और खुल्ले में इज़हार है. कल्लो क्या करोगे?

"आ जा...... आ जा, अम्बे रानी आ जा. शेरों वाली आ जा. पहाड़ों वाली आ जा."

शेरों वाली ऐसे बेसुरे आह्वान सुन कर शेर को वापिस पहाड़ों की तरफ ले जाएगी. तुम्हारे पास कभी नहीं आएगी.

शिव जी महाराज तांडव करने लगेंगे. उन का तीसरा नेत्र खुल जायेगा. कृष्ण जी, जंगलों में चले जाएंगे.

बात क्यों नहीं समझती अम्मा? जब हमारे जैसे नश्वर प्राणी तुम्हारी चीख चिल्लाहट बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भोले बाबा कैसे करेंगे? कृष्ण कन्हैया, गोपाल, गोपाल जी की गौ कैसे करेंगी?

शेरों वाली का शेर भड़क गया तो कहीं तुम्हें ही न खा जाये. इसलिए रहम करो .. ....................खुद पे.

नर्क में पड़ोगी, पकौड़े तले जाएंगे तुम्हारे, कोई खायेगा भी नहीं इतने ही बेसुरे, मेरा मतलब बेस्वाद होंगे जितना तुम्हारा गायन.

और यह रुदन बंद करो. "काले रंग पे मोरनी रुदन करे..." मोरनी तो पता नहीं रुदन करती है या नहीं तुम ज़रूर करती हो सब बाइयाँ मिल कर.

क्या बवाल काटती हैं यार ये माइयाँ इन कीर्तनों में? तौबा!

एक फिल्म आई थी "रुदाली". कोई मर जाता था तो भाड़े की रुदन करने वाली बुलाई जाती थी. मतलब जिन का भाई-बंद मरा उन को तो रोना आ नहीं रहा तो किराये की रोने वाली रोती थीं, रुदन करती थीं. रुदाली.

यहाँ किराए की भगवान जी को प्रसन्न करने वाली बुलाई जाती हैं. ऐसे में भगवान जी ज़रूर आएंगे? उन को तो जैसे पता ही नहीं कि हो क्या रहा है. नहीं?

बड़ी बिटिया कह रही थीं, पापा यह रेचन का तरीका है. इस तरह से ये लोग अपना गुब्बार निकाल लेती हैं. हाँ, वो गुब्बार अब दूसरों पर क्या इमपैक्ट डालता है उस की इन को क्या चिंता.

अबे, बच्चे भी समझते हैं माता कि तुम कर क्या रही हो. भंते, अब तो बाज आ जाओ.

खूब हो-हल्ला. कीर्तन से दुखी मोहल्ला. तेज़ लाउड स्पीकर लगा कर फटी आवाज़ में क्रन्दन रूपी कीर्तन करने वाली बाईयां जान लें, अगर भगवान कहीं होगा भी तो तुम्हारी आवाज़ से बचने के लिए छुप जाएगा कहीं जंगलों में, कन्दराओं में, समन्दरों में. और निश्चित जानो कि तुम्हारे लिए नरक के भयंकर अग्नि-कुण्ड तैयार हैं.

दूसरी घटना कहूँ, या दुर्घटना जो कल हुई, मिलती-जुलती है.

किसी श्रीमान जी ने बुलाया था. घर के पास वाले मंदिर में शाम का भजन-कीर्तन रखा था. श्रीमती जी को ही भेजा.

पंद्रह मिनट बाद ही कॉल आ गया, "मुझे ले जाओ, मेरी तबियत खराब हो रही है."

मैंने कहा, "क्या हुआ?"

बोली, "बहुत तेज आवाज है. मंदिर के अंदर ही तेज लाउड स्पीकर लगा रखे हैं. मेरा दिमाग फट रहा है."

"तुरत के तुरत बाहर आ जाओ, मैं आता हूँ लेने." मैंने कहा.

मैं भगा-भगा पहुंचा. देखा तो श्रीमती जी के चेहरे पे हवाईयां उड़ रहीं थीं. संभाला. घर लाया.

बड़ी बिटिया ने डांटा, "आप पहले ही क्यों मंदिर से बाहर नहीं आईं? मत्था टेकती, शक्ल दिखातीं और बाहर आ जातीं."

खैर, बड़ी देर में श्रीमती जी संभलीं.

Moral:- जैसे-तैसे तो लिखा है. अब मोरल भी हम ही निकालें. न. हम से न होगा. खुद्दे ही निकालो मोरल. अब इत्ती सी मेहनत तो करो. नमस्ते.

Tushar Cosmic

Tuesday, 5 November 2024

Some Scattered Pearls- कुछ बिखरे मोती

Some Scattered Pearls- कुछ बिखरे मोती~ by Tushar Cosmic 


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जे साई दीपक को आप ने यूट्यूब पर देखा होगा शायद. ये सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं. दीवाली की आतिशबाज़ी को कोर्ट में इन्होनें कोर्ट में कैसे डिफेंड किया वो बता रहे थे एक वीडियो में. कोर्ट ने कहा होगा कि दीवाली में आतिशबाज़ी कोई धार्मिक रीति नहीं है तो इन्होने बताया कि इन्होने बहुत से संस्कृत ग्रंथ ले जा कर रख दिए कोर्ट में जिन में आतिशबाज़ी का ज़िक्र था. फिर इन्होने एक्सप्लेन भी किया कि श्राद्ध पक्ष में हम अपने पूर्वजों को बुला लेते हैं अपने पास तो अब उन को वापिस भी जाना होता है तो उन पूर्वजों को रास्ता दिखाने के लिए रौशनी की जाती है आसमान में आतिश बाज़ी द्वारा.
वाह! वैरी गुड!! इडियट!!! महा-इडियट!!!!
और ये महाशय बड़े ही ज़हीन समझे जाते हैं. ताबड़-तोड़ अंग्रेजी बोलने से कोई बुद्धिशाली नहीं हो जाता.
महा-मूर्ख हैं यह.
कैसे?
अबे, कौन से पूर्वज आते हैं श्रद्धाओं में और फिर कहाँ जाते हैं? रात में ही जाते हैं क्या जो रौशनी चाहिए उन को?
सब कोरी गप. किसी किताब में लिखा है तो सत्य हो गया? है न?
जैसे ज़ाकिर "नालायक" किताब में लिखे पर बहस करता है. फलां किताब में, फलां पन्ने पर अलां-फलां लिखा है इसलिए सही है, इसलिए गलत है.
इडियट!
किताब में लिखे मात्र से कुछ सत्य-असत्य हो जाता है क्या?
मैं तो ज़ाकिर नायक को "जोकर नालायक" समझता हूँ लेकिन और भी गम हैं ज़माने में. और भी नालायक हैं वैसे ही.
असल में तथा-कथित हिन्दुओं में तो डिबेट का मतलब ही "शास्त्रार्थ" था. मतलब जो शास्त्र में लिखा है उस का अर्थ क्या है बस डिबेट इसी बात पर होती थी.
मंडन मिश्र और शंकराचार्य में भी जो डिबेट हुई थी वो असल डिबेट थी नहीं वो शास्त्रार्थ मात्र ही था. नकली डिबेट. ये सब लोग नकली डिबेट कर रहे हैं. कोर्ट में भी.
जे साई, मैं खुले में कह रहा हूँ आप मूर्ख हो. कर लो मेरे से डिबेट कभी भी. चैलेंज है.

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"दिवाली के पटाखे - सरासर मूढ़ता"
कोर्ट की मनाही के बावजूद, प्रदूषण के खतरे के बावज़ूद, हिन्दू खूब-खूब पटाखे फोड़ रहे हैं हर दिवाली पर. जानते हैं क्यों? सिर्फ मुस्लिम और ईसाई को अपनी ताकत दिखाने के लिए. हिन्दू मानस काफी हद तक मुस्लिम और ईसाई एक्सपेंशन के खतरे को भांप चुके हैं, उसे काउंटर करने के लिए दीवाली के पटाखे एक टूल की तरह इस्तेमाल होते हैं.
भाजपा सरकार भी इसे मौन समर्थन देती प्रतीत होती है. अन्यथा इतने पटाखे आएंगे कहा से?
लेकिन यह हठधर्मिता सही है क्या कि चाहे साँस उखड़ जाये, पेड़-पौधे-जानवर तक साँस न ले पाएं लेकिन हम तो पटाखे फोड़ेंगे? ईसाई नव-वर्ष पर पटाखे फोड़ते हैं. क्रिसमस पर पटाखे फोड़ते हैं तो हम क्यों न फोड़ें? मुस्लिम ईद पर जानवर काटते हैं. हम पटाख़े भी नहीं छोड़ सकते?
वैरी गुड?
लेकिन कोर्ट ने जो मना कर रखा है उसे भी तो समझो न कि मना क्यों कर रखा है. दूसरे दीवार में सर मारेंगे तो तुम भी वैसे ही करोगे क्या?
अपना सर बचाओ। तभी तो छाती ठोक कर कह सकोगे दूसरे को भी कि सर फोड़ने नहीं दोगे. या दूसरा कुएं में कूदेगा तो तुम भी कूदोगे?
Tushar Cosmic

* * * शोले फिल्म याद है? ठाकुर धर्मेंदर और अमिताभ जैसे क्रिमिनल को लाता है गब्बर के मुकाबले. क्या लॉरेंस बिश्नोई जैसे लोग सही तोड़ हैं मज़हबी गुंडगर्दी का? गैंग का मुकाबला गैंग से सही है क्या? आप बताएं. . . * * *

सड़क में सब गाड़ी सही सही चल रहे थे. ट्रैफिक नियमों का पालन करते हुए. लेकिन एक व्यक्ति गाडी, साइज में थोड़ी बड़ी, जैसे मर्ज़ी चला रहा था. शरीर में तगड़ा. इसे कोई नियम कायदे की परवाह नहीं थी. अब सब को उस की वह से वैसे ही गाड़ी चलानी पडी चूँकि सब को पहुंचना था अपनी मंजिल और समय पर पहुंचना था.
लग भग पूरी दुनिया के लोग धर्मों की अंधता से लगभग छुट्टी पा चुके थे, सिर्फ एक धर्म को छोड़ कर. इस्लाम.
इसे कोई परवाह नहीं किसी की.
भारत में हिन्दू विरोध कर रहा है, इजराइल में यहूदी विरोध कर रहा है, म्यांमार में बौद्ध को मियां मारना पड़ रहा है, चीन में मुस्लिम को ज़बरन गैर-मुस्लिम किया जा रहा है, यूरोप और अमेरिका में ईसाई विरोध कर रहे हैं. लेकिन मुस्लिम को किसी की परवाह नहीं. इसे अपनी गिरेबान में झांकना ही नहीं. सब गलत हैं, ये ही ठीक हैं बस. चाहे आपस में कटते-मरते फिरें लेकिन ये ही ठीक हैं.
नहीं, मुसलमान को तार्किक ढंग से सोचना होगा.

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जाकिर नाइक से नाराज़ होना ग़लत है। वो सिर्फ वही कहता है जो इस्लामी किताबों में लिखा है।

* * * जिन कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी से भगा दिया, उनके बिना कश्मीर में चुनाव का कोई अर्थ नहीं है।
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"नफ़रती चिंटू" तो सुना होगा आपने.
"नफ़रती मिंटू" क्यों नहीं सुना?
क्या पता नफ़रती मिंटू की वजह से ही नफ़रती चिंटू नफ़रती बना हो?

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*कंक्रीट के जंगल*
ये जो शहर के बीचों-बीच पचासों मँजिल कंक्रीट के ऊंचे-ऊंचे जंगल खड़े कर दिए गए हैं, और किये जा रहे हैं, सरासर बेफ़कूफी है मेरी नज़र में. टाउन-प्लानर, इंजीनियर बहुत सयाने लोग होंगे न? बहुत पढ़े-लिखे? क्या इन को नहीं पता कि यह शहर पहले ही आबादी के बोझ तले दबा चला जा रहा है. गाड़ी पर गाड़ी चढ़ी है यहाँ. जहाँ खड़े हो जाओ मेला लगा महसूस होता है. ऊपर से ये हाई-राइज टाउन! चलो मान लिया इन में जो आबादी रहेगी, उस के लिए टाउन में खाली जगह छोड़ी गयी हैं, पार्किंग का भी प्रावधान है लेकिन आखिर-कार इस आबादी ने शहर की सड़कों-बाज़ारों, मोहल्लों में भी तो आना ही है न. ऐसा शहर जो पहले ही घुटता जा रहा है.
मेरी नज़र में स्टिल्ट पार्किंग भी आधी-अधूरी योजना थी, उस से जितना फायदा हुआ, उतना ही नुक्सान भी. लोगों ने चूहा फ्लोर बना-बना बेच दिए, नहीं बेचे तो गो-डाउन बना लिए, कहीं तो गाड़ी अंदर पहुँच ही नहीं पाती, कहीं पहुंचती भी हैं तो लोग फिर भी गाड़ी बाहर ही खड़ी करते हैं. वैसे ही ये कंक्रीट के जंगल भी.
क्या कहते हैं आप मित्रो?


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यदि पेजर को रिमोट बम्ब बनाया जा सकता है तो साधारण बारिश को भी ज़हर बनाया जा सकता है और गाइडेड मिसाइल की तरह गाइडेड बादल भी भेजे जा सकते हैं.
Beware!
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इस्लामिक टेरर को खत्म कर ने के लिए इस्लामिक टेररिस्ट को मारने से क्या होगा? तुम एक मारोगे , कल दो और आ जाएंगे. दुनिया में इस्लामिक टेरर ख़त्म करने के लिए तुम्हें इस्लामिक विचारधारा पर अटैक करना होगा. लेकिन वो तुम इस लिए नहीं करते क्योंकि एक ऊँगली यदि इस्लाम पर उठाओगे तो चार ऊँगली तुम्हारे अपने धर्म, मज़हब, अक़ीदे पर भी उठ जाएंगी. इस लिए पत्ते, टहनियाँ काटते रहते हो और खुश होते रहते हो. जड़ पर प्रहार करने से तुम्हारी अपनी जड़े भी हिल जाएंगी. लेकिन हिम्मत करो. यह शुभ है. यह शुभ साबित होगा. यह ही शुभ साबित होगा.

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"अर्थ अनर्थ व्यर्थ"
अलग-अलग शब्दों अर्थ कुछ के कुछ समझे जाते है इस की कुछ मिसाल देता हूँ:---
१. "भइया" शब्द का अर्थ Brother होता है. लेकिन पंजाब में इस शब्द का मतलब Brother नहीं होता. पंजाब में इस शब्द का मतलब होता है "लेबर" या फिर "पूरबिया" या फिर "पूरबिया लेबर". यू-पी, बिहार से जो लेबर जाती है, इस शब्द का जुड़ाव उन्ही से है.

२. "ईमानदार" शब्द का मतलब अक्सर "ऑनेस्ट" समझा जाता है. मतलब "सत्यनिष्ठ". लेकिन इस शब्द का वास्तविक अर्थ है, जो ईमान वाला है यानि "मुसलमान". अब मुसलमान की नज़र में मुसलमान ही ईमानदार है बाकी बे- ईमानदार, वो अलग बात है.

३. "टट्टी" शब्द का अर्थ "मल" समझा जाता है लेकिन ऐसा है नहीं. मल-त्याग करने के लिए जो मोटे कपड़े (जैसे टाट) की ओट बनाई जाती थी उसे टट्टी कहा जाता था. टाट. टट्टी.
Tushar Cosmic

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रिश्तों को लेकर बहुत कठोर मापदंड मत बनाइए। सामने वाले को एक-एक चीज़ पर परखिये मत। हो सकता है कोई दोस्त बहुत बौद्धिक हो मगर तारीफ करना न जानता हो। हो सकता है कोई ईर्ष्या करता है मगर सबसे सही सलाह भी वही देता हो। सामने वाली एक-एक प्रतिक्रिया पर उसे स्कोर मत दीजिए। उसके हर रिएक्शन पर उसका रिपोर्ट कार्ड तैयार मत कीजिए।
संभव है कि जब वो आपकी किसी खुशी पर बहुत खुश न हुआ तब वो खुद किसी गहरे दुख से गुज़र रहा हो। आप ये सोचकर नाराज़ हो गए कि वो इतना खुश क्यों नहीं हुआ और उसने ये सोचकर अपना दुख बयां नहीं किया कि आपकी खुशी में भंग न पड़ जाए। वो दुखी हो कर आपकी खातिर खुश होने का अभिनय कर रहा है और आप इस बात पर नाराज़ हो गए कि आपकी इतनी बड़ी खुशी में भी वो सिर्फ खुश होने का अभिनय कर रहा है।
इंसान सामान भी खरीदता है तो चीज़ बहुत अच्छी लगने पर उसकी कुछ कमियों से समझौता कर लेता है। मोबाइल का कैमरा अच्छा है तो उसे खरीद लिया ये जानते हुए कि उसकी बैटरी वीक है। टी शर्ट के बाजू पर कंपनी का लोगो पसंद नहीं आया मगर टी शर्ट का Colour पसंद है, तो बाजू पर बने लोगो को इग्नोर कर दिया। मगर हम इंसानों के साथ ऐसा कोई समझौता नहीं करते। कपड़ों की तरह उन्हें कोई रियायत नहीं देते।
वो इंसान जो किसी कंप्यूटर प्रोग्राम से नहीं, भावनाओं से चलता है। वो इंसान जो कमज़ोर है। आत्म संशय से घिरा है। उस इंसान को हम किसी संदेह का लाभ नहीं देना चाहते। सारी माफियां खुद के लिए बचाकर रखते हैं। छोटी-छोटी बातें बुरा लगने पर सालों पुराने रिश्तों में पीछे हट जाते हैं। बातचीत बंद कर लेते हैं और खुद ही खुद को अकेला करते जाते हैं। कुछ वक्त बाद नाराज़गी पिघल कर हवा हो जाती है। सामने वाले के साथ गुज़ारा वक्त याद आने लगता है। खाली वक्त में उसे मिस भी करते हैं। मगर उससे बात करने की पहल नहीं कर पाते।
अकेलापन आज दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी है। डिप्रेशन सबसे बड़ा रोग है और ये रोग हमने खुद अर्जित किया हैं, क्योंकि हम लोगों को तब तक पास नहीं करते जब तक कि वो रिश्तों में दस बटा दस नंबर न ले आएं।
By @Umesh Singh....from Facebook

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देखिए, शब्दों को एक निश्चित संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
क्या आप जानते हैं कि अदालती मामलों को "कोर्ट केस" क्यों कहा जाता है?
केस का अर्थ है बॉक्स. किसी बात को केवल प्रासंगिक बॉक्स, प्रासंगिक मामले/ Case में ही समझा जा सकता है...अव्यवस्थित रूप से नहीं।
और आम तौर पर लोग असली point चूक जाते हैं, जब वे शब्दों के प्रासंगिक मामले को देखने में असफल हो जाते हैं।
See, words must be understood in a certain context.
Do you know why Court matters are called "Court Cases"?
Case means box. A matter can be understood only in its contextual box, its contextual case, not haphazardly. * * *

“मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, विशेषकर सेवाओं में। मैं किसी भी ऐसी चीज के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूं जो अक्षमता और दोयम दर्जे के मानकों की ओर ले जाती है। मैं चाहता हूं कि मेरा देश हर चीज में प्रथम श्रेणी का देश बने। जिस क्षण हम दोयम दर्जे को प्रोत्साहित करते हैं, हम खो जाते हैं। पिछड़े समूह की मदद करने का एकमात्र वास्तविक तरीका अच्छी शिक्षा के अवसर देना है... लेकिन अगर हम सांप्रदायिक और जाति के आधार पर आरक्षण के लिए जाते हैं, तो हम प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों को निगल जाते हैं और दूसरे दर्जे या तीसरे दर्जे के बने रह जाते हैं। मुझे यह जानकर दुख हुआ कि सांप्रदायिक विचारों के आधार पर आरक्षण का यह व्यवसाय कितना आगे बढ़ गया है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पदोन्नति भी कभी-कभी सांप्रदायिक और जातिगत विचारों पर आधारित होती है। इस तरह न केवल मूर्खता होती है, बल्कि विनाश भी होता है।''
27 जून,1961 को नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र का अंश
“I dislike any kind of reservation, more particularly in services. I react strongly against any thing which leads to inefficiency and second rate standards. I want my country to be a first-class country in everything. The moment we encourage the second-rate, we are lost. The only real way to help the Backward group is to give opportunities of good education… But if we go in for reservations on communal and caste basis, we swamp the bright and able people and remain second-rate or third-rate. I am grieved to learn of how far this business of reservation has gone based on communal considerations. It has amazed me to learn that even promotions are based sometimes on communal and caste considerations. This way lays not only folly, but disaster .”
Extract from Letter by nehru to CMs on June 27,1961
And usually people miss the point, when they fail to see the contextual case of the words.
Hope I am clearer.
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एक मुल्ला तर्क दे रहा था अल्लाह के वजूद के पक्ष में. वो कह रहा था, "जो चीज़ बनाई जाती है, बनाने वाला उस से बाहर होता है. अल्लाह ने टाइम बनाया, अल्लाह टाइम से बाहर है."
बकवास. पहली बात नृत्य नर्तक से बाहर होता है क्या, एक्टर एक्टिंग से बाहर होता है क्या?
और समय?
अल्लाह ने टाइम बनाया तो किसी टाइम तो टाइम बनाया होगा तो जिस टाइम अल्लाह ने टाइम बनाया, उस टाइम वो टाइम था या नहीं.
मियाँ, कुछ भी कहते रहो, कुछ prove न कर पाओगे.

* * *
क्या "फिल्म जेहाद" भी कुछ है? मल्लब मुस्लिम लोग जान-बूझ के भाई-जान लोग की फिल्म हिट करवाते हैं?

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कहते हैं अपने ही वकील से बचना होता है सब से पहले तो आप को. Same, जिसे नेता चुनो, कभी मत सोचो कि तुम्हारे लिए काम करेगा. नहीं करेगा. उससे काम लेना होता है. उस की चाल-बाजियों से बचना होता है. मुस्लिम एक मुश्त भाजपा/हिन्दू के खिलाफ वोट देता है. काफिर को एक-मुश्त मुस्लिम के ख़िलाफ़ वोट देना चाहिए. लेकिन अपने नेता की नाक में दम रखना चाहिए. उसको चैन की सांस नहीं लेनी चाहिए. वो सेवा करने का दम भरते हैं तो उनसे जम के सेवा लेनी चाहिए।

* * * स्पैम कॉल करने वालों का चालान किया जाना चाहिए, उन पर आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए। एक सप्ताह के अंदर xyz कंपनी के लोन विभाग से कोई रजनी, रेनू, मीनू की कॉलिंग नहीं होगी।

* * *

जया बच्चन ने यदि संसद में कहा कि उस के नाम "जया अमिताभ बच्चन" नहीं है बल्कि "जया बच्चन" है तो इस में गलत क्या कहा?
खूब मज़ाक बनाया जा रहा है. ट्रोल किया जा रहा है. आम जन जीवन में विवाहित स्त्रियों का नाम ऐसे ही लिया जाता है क्या? पत्नी के नाम में पति का नाम जबरन घुसाया जाता है क्या?
मतलब एक विवाहित स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व कोई है नहीं. हां, विवाहित पुरुष का स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है फिर भी.
"अमिताभ जया बच्चन" किसी ने नहीं कहा, जया बच्चन को "जया अमिताभ बच्चन" कहा जा रहा है और जया जी द्वारा विरोध करने पर ट्रोल भी किया जा रहा है.
यह है बदतमीजी! और यह चली आ रही है सोशल मीडिया पर.
* * *
मेरे पास सैंकड़ों किताबें हैं एक बड़ी लकड़ी की अलमारी में. यह मेरी जमा-पूँजी है पूरी उम्र की. अधिकांश किताबें मैंने पढ़ी हैं लेकिन कुछ नहीं भी पढ़ी जो अब कभी शायद ही पढूं चूँकि अब तो नज़र भी उतना साथ नहीं देती.
किताबों में कुछ सेकंड हैंड भी हैं. कहाँ से कहाँ से खरीदी मैंने... फुटपाथ से ले कर हाई क्लास शोरूम से. कई घर बदले, कई ऑफिस बदले लेकिन यह लाइब्रेरी, यह अलमारी, ये किताबें मेरे साथ रहीं. बहुत मेहनत लगती थी हर बार, जब भी मैं घर-दुआर बदलता था. लेकिन की वो मेहनत, ख़ुशी ख़ुशी की.

कभी सोचता था कि जब मरूँगा तो बच्चे इस पूँजी का प्रयोग करेंगे. याद करेंगे पिता एक लाइब्रेरी छोड़ गए लेकिन अब पता है कि ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, मैं गया तो मेरी जाते ही यह लाइब्रेरी भी चली जाएगी. यह ठीक वैसे ही है जैसे कुछ बुड्ढों के मरते ही बच्चे सब से पहले वो प्रॉपर्टी बेचते हैं जिस पर बुड्ढा कुंडली मार कर बैठा था.

* * *

"बठिंडा"
मैं सारी क़ायनात का हूँ और सारी कायनात मेरी है. मैं कॉस्मिक हूँ. "तुषार कॉस्मिक".
बावज़ूद इस के अपने होम टाउन, अपने नेटिव सिटी बठिंडा, जहाँ मैंने ज़िंदगी के पहले उन्नीस-बीस साल गुज़ारे हैं, को बहुत ही प्यार करता हूँ.
वहाँ जाता हूँ तो लौटते हुए लगता है जैसे कोई प्यारे दोस्त से बिछड़ रहा होऊँ. लगता है बठिंडा के गले लग के फूट-फूट के रोता जाऊं. अब के बिछड़े फिर पता नहीं कब मिलें. मिलें न मिलें.
अक्सर मन होता है चुपके से उठूं और दिल्ली से बठिंडा की ट्रैन पकड़ूँ. बठिंडा स्टेशन पहुँच जाऊँ. यह स्टेशन. कितना अपना-अपना सा. वहाँ पहुँच बठिंडा की गलियों मं घूमता रहूँ. कोई मुझे पहचाने न. न कोई मुझे नोटिस करे. न.
मुझे बस बठिंडा का कोना कोना देखना है फिर से, महसूस करना है, अपना वो जीवन फिर से जीना है, जो वहाँ से मैं जी कर निकल चुका. जहाँ समोसे खाता था शाम को, वहीँ समोसे खाने हैं. जहाँ जलेबी खाई, वहीं जलेबी खानी है. जिस मंदिर के बाहर बैठ मंगलवार का प्रसाद खाया, उसी मंदिर जाना है.
समय का पहिया वापिस नहीं घुमाया जा सकता, पता है मुझे, लेकिन थोड़ा सा तो घुमाया ही जा सकता है. यादों में ही सही.
Tushar Cosmic

* * *
मैं मुसलमानों से जल्दी से कोई तर्क-वितर्क नहीं करता.
क्यों?
चूँकि तर्क-वितर्क होगा, बहस होगी, तो बात दीन -मज़हब पर भी जाएगी, क़ुरआन-पुराण पर भी जाएगी.
और
मुसलमान तो इस्लामिक ग्रंथों में लिखे के ज़िक्र तक को भी नकार देता है. तलवार निकाल लेता है. नूपुर के मामले में ऐसा ही हुआ था. तो फिर क्या तर्क करना?
आप ही सही हो प्रभु.
मेरा एक सिक्ख दोस्त हुआ करता था, स्कूल-कॉलेज के समय में. हम बहुत बहस करते थे. दुनिया जहान की. मज़ाक-मज़ाक में वो डंडा उठा लेता था और सामने बैठ जाता।
और कहता,"हूण दस्स , तू सही या मैं?"
और मैं हँसते हुए कहता, "तू ही सही है मेरे वीर."
और वो भी हँसने लगता, "देखिया, डन्डा पीर है विगड़े-तगडियाँ दा."
ठीक है, जब डण्डा ही पीर है, सिद्ध है, अमीर है, तो फिर तर्क की क्या गुंजाइश? इसलिए कोई बहस नहीं मुसलमान से. वो बहस से पार हैं. अपरम्पार हैं.

* * * It is Common sense that evolves into genius. Applied step to step. Gradually. It derives wonderful conclusions. But the irony is that common sense is very hard to find. Very Uncommon.
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