Tuesday 5 November 2024

Some Scattered Pearls- कुछ बिखरे मोती

Some Scattered Pearls- कुछ बिखरे मोती~ by Tushar Cosmic 

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जे साई दीपक को आप ने यूट्यूब पर देखा होगा शायद. ये सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं. दीवाली की आतिशबाज़ी को कोर्ट में इन्होनें कोर्ट में कैसे डिफेंड किया वो बता रहे थे एक वीडियो में. कोर्ट ने कहा होगा कि दीवाली में आतिशबाज़ी कोई धार्मिक रीति नहीं है तो इन्होने बताया कि इन्होने बहुत से संस्कृत ग्रंथ ले जा कर रख दिए कोर्ट में जिन में आतिशबाज़ी का ज़िक्र था. फिर इन्होने एक्सप्लेन भी किया कि श्राद्ध पक्ष में हम अपने पूर्वजों को बुला लेते हैं अपने पास तो अब उन को वापिस भी जाना होता है तो उन पूर्वजों को रास्ता दिखाने के लिए रौशनी की जाती है आसमान में आतिश बाज़ी द्वारा.
वाह! वैरी गुड!! इडियट!!! महा-इडियट!!!!
और ये महाशय बड़े ही ज़हीन समझे जाते हैं. ताबड़-तोड़ अंग्रेजी बोलने से कोई बुद्धिशाली नहीं हो जाता.
महा-मूर्ख हैं यह.
कैसे?
अबे, कौन से पूर्वज आते हैं श्रद्धाओं में और फिर कहाँ जाते हैं? रात में ही जाते हैं क्या जो रौशनी चाहिए उन को?
सब कोरी गप. किसी किताब में लिखा है तो सत्य हो गया? है न?
जैसे ज़ाकिर "नालायक" किताब में लिखे पर बहस करता है. फलां किताब में, फलां पन्ने पर अलां-फलां लिखा है इसलिए सही है, इसलिए गलत है.
इडियट!
किताब में लिखे मात्र से कुछ सत्य-असत्य हो जाता है क्या?
मैं तो ज़ाकिर नायक को "जोकर नालायक" समझता हूँ लेकिन और भी गम हैं ज़माने में. और भी नालायक हैं वैसे ही.
असल में तथा-कथित हिन्दुओं में तो डिबेट का मतलब ही "शास्त्रार्थ" था. मतलब जो शास्त्र में लिखा है उस का अर्थ क्या है बस डिबेट इसी बात पर होती थी.
मंडन मिश्र और शंकराचार्य में भी जो डिबेट हुई थी वो असल डिबेट थी नहीं वो शास्त्रार्थ मात्र ही था. नकली डिबेट. ये सब लोग नकली डिबेट कर रहे हैं. कोर्ट में भी.
जे साई, मैं खुले में कह रहा हूँ आप मूर्ख हो. कर लो मेरे से डिबेट कभी भी. चैलेंज है.

* * *

"दिवाली के पटाखे - सरासर मूढ़ता"
कोर्ट की मनाही के बावजूद, प्रदूषण के खतरे के बावज़ूद, हिन्दू खूब-खूब पटाखे फोड़ रहे हैं हर दिवाली पर. जानते हैं क्यों? सिर्फ मुस्लिम और ईसाई को अपनी ताकत दिखाने के लिए. हिन्दू मानस काफी हद तक मुस्लिम और ईसाई एक्सपेंशन के खतरे को भांप चुके हैं, उसे काउंटर करने के लिए दीवाली के पटाखे एक टूल की तरह इस्तेमाल होते हैं.
भाजपा सरकार भी इसे मौन समर्थन देती प्रतीत होती है. अन्यथा इतने पटाखे आएंगे कहा से?
लेकिन यह हठधर्मिता सही है क्या कि चाहे साँस उखड़ जाये, पेड़-पौधे-जानवर तक साँस न ले पाएं लेकिन हम तो पटाखे फोड़ेंगे? ईसाई नव-वर्ष पर पटाखे फोड़ते हैं. क्रिसमस पर पटाखे फोड़ते हैं तो हम क्यों न फोड़ें? मुस्लिम ईद पर जानवर काटते हैं. हम पटाख़े भी नहीं छोड़ सकते?
वैरी गुड?
लेकिन कोर्ट ने जो मना कर रखा है उसे भी तो समझो न कि मना क्यों कर रखा है. दूसरे दीवार में सर मारेंगे तो तुम भी वैसे ही करोगे क्या?
अपना सर बचाओ। तभी तो छाती ठोक कर कह सकोगे दूसरे को भी कि सर फोड़ने नहीं दोगे. या दूसरा कुएं में कूदेगा तो तुम भी कूदोगे?
Tushar Cosmic

* * * शोले फिल्म याद है? ठाकुर धर्मेंदर और अमिताभ जैसे क्रिमिनल को लाता है गब्बर के मुकाबले. क्या लॉरेंस बिश्नोई जैसे लोग सही तोड़ हैं मज़हबी गुंडगर्दी का? गैंग का मुकाबला गैंग से सही है क्या? आप बताएं. . . * * *

सड़क में सब गाड़ी सही सही चल रहे थे. ट्रैफिक नियमों का पालन करते हुए. लेकिन एक व्यक्ति गाडी, साइज में थोड़ी बड़ी, जैसे मर्ज़ी चला रहा था. शरीर में तगड़ा. इसे कोई नियम कायदे की परवाह नहीं थी. अब सब को उस की वह से वैसे ही गाड़ी चलानी पडी चूँकि सब को पहुंचना था अपनी मंजिल और समय पर पहुंचना था.
लग भग पूरी दुनिया के लोग धर्मों की अंधता से लगभग छुट्टी पा चुके थे, सिर्फ एक धर्म को छोड़ कर. इस्लाम.
इसे कोई परवाह नहीं किसी की.
भारत में हिन्दू विरोध कर रहा है, इजराइल में यहूदी विरोध कर रहा है, म्यांमार में बौद्ध को मियां मारना पड़ रहा है, चीन में मुस्लिम को ज़बरन गैर-मुस्लिम किया जा रहा है, यूरोप और अमेरिका में ईसाई विरोध कर रहे हैं. लेकिन मुस्लिम को किसी की परवाह नहीं. इसे अपनी गिरेबान में झांकना ही नहीं. सब गलत हैं, ये ही ठीक हैं बस. चाहे आपस में कटते-मरते फिरें लेकिन ये ही ठीक हैं.
नहीं, मुसलमान को तार्किक ढंग से सोचना होगा.

* * *

जाकिर नाइक से नाराज़ होना ग़लत है। वो सिर्फ वही कहता है जो इस्लामी किताबों में लिखा है।

* * * जिन कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी से भगा दिया, उनके बिना कश्मीर में चुनाव का कोई अर्थ नहीं है।
* * *
"नफ़रती चिंटू" तो सुना होगा आपने.
"नफ़रती मिंटू" क्यों नहीं सुना?
क्या पता नफ़रती मिंटू की वजह से ही नफ़रती चिंटू नफ़रती बना हो?

* * *
* * *
*कंक्रीट के जंगल*
ये जो शहर के बीचों-बीच पचासों मँजिल कंक्रीट के ऊंचे-ऊंचे जंगल खड़े कर दिए गए हैं, और किये जा रहे हैं, सरासर बेफ़कूफी है मेरी नज़र में. टाउन-प्लानर, इंजीनियर बहुत सयाने लोग होंगे न? बहुत पढ़े-लिखे? क्या इन को नहीं पता कि यह शहर पहले ही आबादी के बोझ तले दबा चला जा रहा है. गाड़ी पर गाड़ी चढ़ी है यहाँ. जहाँ खड़े हो जाओ मेला लगा महसूस होता है. ऊपर से ये हाई-राइज टाउन! चलो मान लिया इन में जो आबादी रहेगी, उस के लिए टाउन में खाली जगह छोड़ी गयी हैं, पार्किंग का भी प्रावधान है लेकिन आखिर-कार इस आबादी ने शहर की सड़कों-बाज़ारों, मोहल्लों में भी तो आना ही है न. ऐसा शहर जो पहले ही घुटता जा रहा है.
मेरी नज़र में स्टिल्ट पार्किंग भी आधी-अधूरी योजना थी, उस से जितना फायदा हुआ, उतना ही नुक्सान भी. लोगों ने चूहा फ्लोर बना-बना बेच दिए, नहीं बेचे तो गो-डाउन बना लिए, कहीं तो गाड़ी अंदर पहुँच ही नहीं पाती, कहीं पहुंचती भी हैं तो लोग फिर भी गाड़ी बाहर ही खड़ी करते हैं. वैसे ही ये कंक्रीट के जंगल भी.
क्या कहते हैं आप मित्रो?


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यदि पेजर को रिमोट बम्ब बनाया जा सकता है तो साधारण बारिश को भी ज़हर बनाया जा सकता है और गाइडेड मिसाइल की तरह गाइडेड बादल भी भेजे जा सकते हैं.
Beware!
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इस्लामिक टेरर को खत्म कर ने के लिए इस्लामिक टेररिस्ट को मारने से क्या होगा? तुम एक मारोगे , कल दो और आ जाएंगे. दुनिया में इस्लामिक टेरर ख़त्म करने के लिए तुम्हें इस्लामिक विचारधारा पर अटैक करना होगा. लेकिन वो तुम इस लिए नहीं करते क्योंकि एक ऊँगली यदि इस्लाम पर उठाओगे तो चार ऊँगली तुम्हारे अपने धर्म, मज़हब, अक़ीदे पर भी उठ जाएंगी. इस लिए पत्ते, टहनियाँ काटते रहते हो और खुश होते रहते हो. जड़ पर प्रहार करने से तुम्हारी अपनी जड़े भी हिल जाएंगी. लेकिन हिम्मत करो. यह शुभ है. यह शुभ साबित होगा. यह ही शुभ साबित होगा.

* * *

"अर्थ अनर्थ व्यर्थ"
अलग-अलग शब्दों अर्थ कुछ के कुछ समझे जाते है इस की कुछ मिसाल देता हूँ:---
१. "भइया" शब्द का अर्थ Brother होता है. लेकिन पंजाब में इस शब्द का मतलब Brother नहीं होता. पंजाब में इस शब्द का मतलब होता है "लेबर" या फिर "पूरबिया" या फिर "पूरबिया लेबर". यू-पी, बिहार से जो लेबर जाती है, इस शब्द का जुड़ाव उन्ही से है.

२. "ईमानदार" शब्द का मतलब अक्सर "ऑनेस्ट" समझा जाता है. मतलब "सत्यनिष्ठ". लेकिन इस शब्द का वास्तविक अर्थ है, जो ईमान वाला है यानि "मुसलमान". अब मुसलमान की नज़र में मुसलमान ही ईमानदार है बाकी बे- ईमानदार, वो अलग बात है.

३. "टट्टी" शब्द का अर्थ "मल" समझा जाता है लेकिन ऐसा है नहीं. मल-त्याग करने के लिए जो मोटे कपड़े (जैसे टाट) की ओट बनाई जाती थी उसे टट्टी कहा जाता था. टाट. टट्टी.
Tushar Cosmic

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रिश्तों को लेकर बहुत कठोर मापदंड मत बनाइए। सामने वाले को एक-एक चीज़ पर परखिये मत। हो सकता है कोई दोस्त बहुत बौद्धिक हो मगर तारीफ करना न जानता हो। हो सकता है कोई ईर्ष्या करता है मगर सबसे सही सलाह भी वही देता हो। सामने वाली एक-एक प्रतिक्रिया पर उसे स्कोर मत दीजिए। उसके हर रिएक्शन पर उसका रिपोर्ट कार्ड तैयार मत कीजिए।
संभव है कि जब वो आपकी किसी खुशी पर बहुत खुश न हुआ तब वो खुद किसी गहरे दुख से गुज़र रहा हो। आप ये सोचकर नाराज़ हो गए कि वो इतना खुश क्यों नहीं हुआ और उसने ये सोचकर अपना दुख बयां नहीं किया कि आपकी खुशी में भंग न पड़ जाए। वो दुखी हो कर आपकी खातिर खुश होने का अभिनय कर रहा है और आप इस बात पर नाराज़ हो गए कि आपकी इतनी बड़ी खुशी में भी वो सिर्फ खुश होने का अभिनय कर रहा है।
इंसान सामान भी खरीदता है तो चीज़ बहुत अच्छी लगने पर उसकी कुछ कमियों से समझौता कर लेता है। मोबाइल का कैमरा अच्छा है तो उसे खरीद लिया ये जानते हुए कि उसकी बैटरी वीक है। टी शर्ट के बाजू पर कंपनी का लोगो पसंद नहीं आया मगर टी शर्ट का Colour पसंद है, तो बाजू पर बने लोगो को इग्नोर कर दिया। मगर हम इंसानों के साथ ऐसा कोई समझौता नहीं करते। कपड़ों की तरह उन्हें कोई रियायत नहीं देते।
वो इंसान जो किसी कंप्यूटर प्रोग्राम से नहीं, भावनाओं से चलता है। वो इंसान जो कमज़ोर है। आत्म संशय से घिरा है। उस इंसान को हम किसी संदेह का लाभ नहीं देना चाहते। सारी माफियां खुद के लिए बचाकर रखते हैं। छोटी-छोटी बातें बुरा लगने पर सालों पुराने रिश्तों में पीछे हट जाते हैं। बातचीत बंद कर लेते हैं और खुद ही खुद को अकेला करते जाते हैं। कुछ वक्त बाद नाराज़गी पिघल कर हवा हो जाती है। सामने वाले के साथ गुज़ारा वक्त याद आने लगता है। खाली वक्त में उसे मिस भी करते हैं। मगर उससे बात करने की पहल नहीं कर पाते।
अकेलापन आज दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी है। डिप्रेशन सबसे बड़ा रोग है और ये रोग हमने खुद अर्जित किया हैं, क्योंकि हम लोगों को तब तक पास नहीं करते जब तक कि वो रिश्तों में दस बटा दस नंबर न ले आएं।
By @Umesh Singh....from Facebook

* * *
देखिए, शब्दों को एक निश्चित संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
क्या आप जानते हैं कि अदालती मामलों को "कोर्ट केस" क्यों कहा जाता है?
केस का अर्थ है बॉक्स. किसी बात को केवल प्रासंगिक बॉक्स, प्रासंगिक मामले/ Case में ही समझा जा सकता है...अव्यवस्थित रूप से नहीं।
और आम तौर पर लोग असली point चूक जाते हैं, जब वे शब्दों के प्रासंगिक मामले को देखने में असफल हो जाते हैं।
See, words must be understood in a certain context.
Do you know why Court matters are called "Court Cases"?
Case means box. A matter can be understood only in its contextual box, its contextual case, not haphazardly. * * *

“मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, विशेषकर सेवाओं में। मैं किसी भी ऐसी चीज के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूं जो अक्षमता और दोयम दर्जे के मानकों की ओर ले जाती है। मैं चाहता हूं कि मेरा देश हर चीज में प्रथम श्रेणी का देश बने। जिस क्षण हम दोयम दर्जे को प्रोत्साहित करते हैं, हम खो जाते हैं। पिछड़े समूह की मदद करने का एकमात्र वास्तविक तरीका अच्छी शिक्षा के अवसर देना है... लेकिन अगर हम सांप्रदायिक और जाति के आधार पर आरक्षण के लिए जाते हैं, तो हम प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों को निगल जाते हैं और दूसरे दर्जे या तीसरे दर्जे के बने रह जाते हैं। मुझे यह जानकर दुख हुआ कि सांप्रदायिक विचारों के आधार पर आरक्षण का यह व्यवसाय कितना आगे बढ़ गया है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पदोन्नति भी कभी-कभी सांप्रदायिक और जातिगत विचारों पर आधारित होती है। इस तरह न केवल मूर्खता होती है, बल्कि विनाश भी होता है।''
27 जून,1961 को नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र का अंश
“I dislike any kind of reservation, more particularly in services. I react strongly against any thing which leads to inefficiency and second rate standards. I want my country to be a first-class country in everything. The moment we encourage the second-rate, we are lost. The only real way to help the Backward group is to give opportunities of good education… But if we go in for reservations on communal and caste basis, we swamp the bright and able people and remain second-rate or third-rate. I am grieved to learn of how far this business of reservation has gone based on communal considerations. It has amazed me to learn that even promotions are based sometimes on communal and caste considerations. This way lays not only folly, but disaster .”
Extract from Letter by nehru to CMs on June 27,1961
And usually people miss the point, when they fail to see the contextual case of the words.
Hope I am clearer.
* * *
एक मुल्ला तर्क दे रहा था अल्लाह के वजूद के पक्ष में. वो कह रहा था, "जो चीज़ बनाई जाती है, बनाने वाला उस से बाहर होता है. अल्लाह ने टाइम बनाया, अल्लाह टाइम से बाहर है."
बकवास. पहली बात नृत्य नर्तक से बाहर होता है क्या, एक्टर एक्टिंग से बाहर होता है क्या?
और समय?
अल्लाह ने टाइम बनाया तो किसी टाइम तो टाइम बनाया होगा तो जिस टाइम अल्लाह ने टाइम बनाया, उस टाइम वो टाइम था या नहीं.
मियाँ, कुछ भी कहते रहो, कुछ prove न कर पाओगे.

* * *
क्या "फिल्म जेहाद" भी कुछ है? मल्लब मुस्लिम लोग जान-बूझ के भाई-जान लोग की फिल्म हिट करवाते हैं?

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कहते हैं अपने ही वकील से बचना होता है सब से पहले तो आप को. Same, जिसे नेता चुनो, कभी मत सोचो कि तुम्हारे लिए काम करेगा. नहीं करेगा. उससे काम लेना होता है. उस की चाल-बाजियों से बचना होता है. मुस्लिम एक मुश्त भाजपा/हिन्दू के खिलाफ वोट देता है. काफिर को एक-मुश्त मुस्लिम के ख़िलाफ़ वोट देना चाहिए. लेकिन अपने नेता की नाक में दम रखना चाहिए. उसको चैन की सांस नहीं लेनी चाहिए. वो सेवा करने का दम भरते हैं तो उनसे जम के सेवा लेनी चाहिए।

* * * स्पैम कॉल करने वालों का चालान किया जाना चाहिए, उन पर आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए। एक सप्ताह के अंदर xyz कंपनी के लोन विभाग से कोई रजनी, रेनू, मीनू की कॉलिंग नहीं होगी।

* * *

जया बच्चन ने यदि संसद में कहा कि उस के नाम "जया अमिताभ बच्चन" नहीं है बल्कि "जया बच्चन" है तो इस में गलत क्या कहा?
खूब मज़ाक बनाया जा रहा है. ट्रोल किया जा रहा है. आम जन जीवन में विवाहित स्त्रियों का नाम ऐसे ही लिया जाता है क्या? पत्नी के नाम में पति का नाम जबरन घुसाया जाता है क्या?
मतलब एक विवाहित स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व कोई है नहीं. हां, विवाहित पुरुष का स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है फिर भी.
"अमिताभ जया बच्चन" किसी ने नहीं कहा, जया बच्चन को "जया अमिताभ बच्चन" कहा जा रहा है और जया जी द्वारा विरोध करने पर ट्रोल भी किया जा रहा है.
यह है बदतमीजी! और यह चली आ रही है सोशल मीडिया पर.
* * *
मेरे पास सैंकड़ों किताबें हैं एक बड़ी लकड़ी की अलमारी में. यह मेरी जमा-पूँजी है पूरी उम्र की. अधिकांश किताबें मैंने पढ़ी हैं लेकिन कुछ नहीं भी पढ़ी जो अब कभी शायद ही पढूं चूँकि अब तो नज़र भी उतना साथ नहीं देती.
किताबों में कुछ सेकंड हैंड भी हैं. कहाँ से कहाँ से खरीदी मैंने... फुटपाथ से ले कर हाई क्लास शोरूम से. कई घर बदले, कई ऑफिस बदले लेकिन यह लाइब्रेरी, यह अलमारी, ये किताबें मेरे साथ रहीं. बहुत मेहनत लगती थी हर बार, जब भी मैं घर-दुआर बदलता था. लेकिन की वो मेहनत, ख़ुशी ख़ुशी की.

कभी सोचता था कि जब मरूँगा तो बच्चे इस पूँजी का प्रयोग करेंगे. याद करेंगे पिता एक लाइब्रेरी छोड़ गए लेकिन अब पता है कि ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, मैं गया तो मेरी जाते ही यह लाइब्रेरी भी चली जाएगी. यह ठीक वैसे ही है जैसे कुछ बुड्ढों के मरते ही बच्चे सब से पहले वो प्रॉपर्टी बेचते हैं जिस पर बुड्ढा कुंडली मार कर बैठा था.

* * *

"बठिंडा"
मैं सारी क़ायनात का हूँ और सारी कायनात मेरी है. मैं कॉस्मिक हूँ. "तुषार कॉस्मिक".
बावज़ूद इस के अपने होम टाउन, अपने नेटिव सिटी बठिंडा, जहाँ मैंने ज़िंदगी के पहले उन्नीस-बीस साल गुज़ारे हैं, को बहुत ही प्यार करता हूँ.
वहाँ जाता हूँ तो लौटते हुए लगता है जैसे कोई प्यारे दोस्त से बिछड़ रहा होऊँ. लगता है बठिंडा के गले लग के फूट-फूट के रोता जाऊं. अब के बिछड़े फिर पता नहीं कब मिलें. मिलें न मिलें.
अक्सर मन होता है चुपके से उठूं और दिल्ली से बठिंडा की ट्रैन पकड़ूँ. बठिंडा स्टेशन पहुँच जाऊँ. यह स्टेशन. कितना अपना-अपना सा. वहाँ पहुँच बठिंडा की गलियों मं घूमता रहूँ. कोई मुझे पहचाने न. न कोई मुझे नोटिस करे. न.
मुझे बस बठिंडा का कोना कोना देखना है फिर से, महसूस करना है, अपना वो जीवन फिर से जीना है, जो वहाँ से मैं जी कर निकल चुका. जहाँ समोसे खाता था शाम को, वहीँ समोसे खाने हैं. जहाँ जलेबी खाई, वहीं जलेबी खानी है. जिस मंदिर के बाहर बैठ मंगलवार का प्रसाद खाया, उसी मंदिर जाना है.
समय का पहिया वापिस नहीं घुमाया जा सकता, पता है मुझे, लेकिन थोड़ा सा तो घुमाया ही जा सकता है. यादों में ही सही.
Tushar Cosmic

* * *
मैं मुसलमानों से जल्दी से कोई तर्क-वितर्क नहीं करता.
क्यों?
चूँकि तर्क-वितर्क होगा, बहस होगी, तो बात दीन -मज़हब पर भी जाएगी, क़ुरआन-पुराण पर भी जाएगी.
और
मुसलमान तो इस्लामिक ग्रंथों में लिखे के ज़िक्र तक को भी नकार देता है. तलवार निकाल लेता है. नूपुर के मामले में ऐसा ही हुआ था. तो फिर क्या तर्क करना?
आप ही सही हो प्रभु.
मेरा एक सिक्ख दोस्त हुआ करता था, स्कूल-कॉलेज के समय में. हम बहुत बहस करते थे. दुनिया जहान की. मज़ाक-मज़ाक में वो डंडा उठा लेता था और सामने बैठ जाता।
और कहता,"हूण दस्स , तू सही या मैं?"
और मैं हँसते हुए कहता, "तू ही सही है मेरे वीर."
और वो भी हँसने लगता, "देखिया, डन्डा पीर है विगड़े-तगडियाँ दा."
ठीक है, जब डण्डा ही पीर है, सिद्ध है, अमीर है, तो फिर तर्क की क्या गुंजाइश? इसलिए कोई बहस नहीं मुसलमान से. वो बहस से पार हैं. अपरम्पार हैं.

* * * It is Common sense that evolves into genius. Applied step to step. Gradually. It derives wonderful conclusions. But the irony is that common sense is very hard to find. Very Uncommon.

* * *
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Sunday 3 November 2024

मैं देश-भक्त नहीं हूँ.


मैं देश-भक्त नहीं हूँ. चूँकि मैं देश को ही कोई रियलिटी नहीं मानता. यह वर्चुअल रियलिटी है. माना गया सत्य. जैसे मान लो मूलधन, "सौ". और फिर हम गणित का सवाल हल करने निकलते थे. वर्चुअल रियलिटी. आभासी सत्य. जो सत्य है नहीं लेकिन सत्य होने का आभास देता है.

गाँव, क़स्बा, शहर, प्रदेश, देश. लेकिन हम देश पर ही क्यों रुक जाते हैं? हम पूरी पृथ्वी तक अपनी भक्ति क्यों नहीं फैला पाते? पूरी कायनात की बात ही दूर है. "वसुधैव कुटुंबकम" और फिर "देश-भक्ति"/ "राष्ट्र-भक्ति" इन दोनों कांसेप्ट में विरोध क्यों नहीं देख पाते? हम "भारत माता की जय" बोलते हुए "चीन माता", "जापान माता", "नेपाल माता" क्यों भूल जाते हैं?

हमें यह समझा दिया है कि देश ही हमारी दुनिया है. जैसे देश कोई अंतिम सत्य हो. बाकी देशों के प्रति एक दुराव, एक अलगाव हम में बचपन से ही भर दिया जाता है. जैसे धर्म हमारे दिमागों में बचपन से ही फिट कर दिए जाते हैं, वैसे ही देश और देश-भक्ति भी.

लेकिन धर्म की जकड़न देश-भक्ति की जकड़न से कहीं आगे है. जितना मुझे पता है, इस्लाम में तो देश और देश-भक्ति का कांसेप्ट है ही नहीं. और इसे अक्सर बहुत बुरा समझा-समझाया जाता है. लेकिन यहाँ तक मैं इस्लाम से सहमत हूँ. देश और देश-भक्ति कुछ है ही नहीं. लेकिन इस से आगे इस्लाम में मुस्लिम उम्मा का कांसेप्ट है. यानि मुस्लिम Brotherhood. वहां मैं पूरी तरह असहमत हूँ. इस्लाम मुस्लिम और काफिर में बाँटता है. खतरनाक बँटवारा है. इसी का नतीजा हम देखते हैं कि दुनिया में जहाँ भी आतंकवादी घटनाएं होती हैं, वो अक्सर "अल्लाह-हू-अकबर" के नारे के साथ हो रही हैं. और फिर इन आतंवादियों की अंतिम क्रिया भी इस्लामिक विधि से ही होते हैं और फिर कई बार तो इन आतंकवादियों के जनाजे में लाखों की भीड़ भी जमती है बावजूद इस के मुस्लिम कभी नहीं मानते कि इस्लाम में कोई दिक्कत-गड़बड़ है. इस्लाम को वो लोग शांति का मज़हब ही कहते रहते हैं.

अस्तु, मैं इस्लाम और इस्लामिक उम्मा के कांसेप्ट से कतई सहमत नहीं हूँ. लेकिन मैं "राष्ट्रवाद" और "संस्थागत धर्मों" के कांसेप्ट से भी सहमत नहीं हूँ.

आज जो भारत या कई मुल्कों में फिर से राष्ट्रवाद जोर पकड़ रह है, वो है ही इसलिए चूँकि मुस्लिम जो दुनियावी तरक्की में बहुत पीछे छूट गए हैं, वो इन तरक्की-शील मुल्कों में जैसे-तैसे कानूनी-गैर कानूनी ढंग से घुसते हैं. और फिर वहाँ पहुँच उन मुल्कों की नेटिव कल्चर, कायदा-कानून, हर व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास शुरू कर देते हैं. भारत में भी आरएसएस का, राष्ट्रवाद का, भाजपा का उत्थान होने की सब से बड़ी वजह यही है. अस्तु. वो वक्ती तौर पर यह सही कदम है भी. लेकिन वक्ती तौर पर ही.

मैं बाकी सब धर्मों को गुंडे-बदमाश मानता हूँ. मैंने लिखा भी है अक्सर, "धर्म गिरोह हैं, इस्लाम माफिया है." कार्ल मार्क्स ने धर्मों को अफीम बताया था लेकिन मैंने लिखा है, "धर्म ज़हर हैं इस्लाम पोटासियम साइनाइड है."

“Patriotism is the last refuge of the scoundrels”, Samuel Johnson ने कहा था. देश-भक्ति गुंडे-बदमाशों की आखिरी शरण-स्थली है.

यह मैं देश और धर्म को क्यों जोड़ रहा हूँ? इसलिए चूँकि देश-धर्म के नाम पर लोगों को पागल करना सब से आसान है. ऐसा ही किया जाता है. झुण्ड के झुण्ड. भीड़. कहीं भी जमा हो जाती है और कुछ भी अंट-शंट कर देती है. पागल भीड़.

फिजिक्स में एक कांसेप्ट पढ़ाया जाता है. "Necessary Evil". आवश्यक बुराई. बुराई लेकिन ज़रूरी. ऐसा कुछ जो बुरा है लेकिन उस के बिना गुज़ारा नहीं. मिसाल दी जाती है Friction/घर्षण की. घर्षण गति कम करता है, यदि बहुत ज़्यादा घर्षण होगा तो कार चल ही नहीं पायेगी. लेकिन फर्श एक-दम चिकना हो, तेल-तेल हो तो भी कार गति नहीं कर पायेगी. घर्षण कार की गति के लिए बुरा है लेकिन ज़रूरी भी है. ज़रूरी बुराई.

ऐसे ही देश और देशभक्ति हैं, ये वक्ती तौर पर ज़रूरी हैं, बुराई होते हुए भी. बस. जब मैं कहता हूँ कि "मैं देश-भक्त नहीं हूँ. राष्ट्र-वादी नहीं हूँ" तो मेरा मतलब इतना ही है कि इस सत्य को समझें कि देश, राष्ट्र, देशभक्ति, राष्ट्रवाद ये सब काम चलाऊ कांसेप्ट हैं. असल में इन का कोई मतलब नहीं.

मैं देश-भक्त/ राष्ट्रवादी नहीं हूँ तो क्या इस का मतलब यह है कि मैं अपने इर्द-गिर्द के समाज के इस कदर खिलाफ हूँ कि कहीं भी बम फोड़ दूँ, गन ले कर कई सौ लोगों का कत्ल कर दूँ? क्या यह मतलब है मेरा? नहीं. मैं देश-भक्त न होते हुए भी अपने इर्द-गिर्द के समाज का हितेषी हूँ. मैं पूरी दुनिया का हितेषी हूँ. मैं "वसुधैव कुटुंबकम" ही नहीं "ब्रह्माण्ड कुटुम्बकम" में यकीन करता हूँ. मैं कॉस्मिक हूँ.

Tushar Cosmic

Monday 28 October 2024

तुम ने इस्लाम कबूला है या कोई जुर्म?

क्या तुम ने डाकुओं की फिल्में देखी हैं? दगड़-दगड़ घोड़े दौड़ रहे हैं. पीठ पर डाकू बैठे हैं. लेकिन मुंह पर कपड़ा भी बाँधे हैं. क्यों? ताकि पहचान में न आ सकें.

इस्लाम गिरोह की तरह काम करता है. इस में पर्दे का बहुत रिवाज़ है.

औरतों के मुंह छुपाये जाते हैं. बस आँखें छोड़ सब ढक दो. वो भी देखने के लिए खुली रहनी ज़रूरी हैं, नहीं तो वो भी ढक देते.

ISIS याद है. सीरिया तहस-नहस हुआ था. फोटो देखे होंगे. उन्ही दिनों ये लोग कत्ले-आम मचाये हुए थे. लोगों को पिंजरे में डाल जिंदा जला दिए थे, यज़ीदी लड़कियों के लगातार बलात्कार हुए थे. कईयों की गर्दनें उतार दीं थी, कईओं को लाइन से गोलियों से भून दिया गया था. याद होगा, वीडियो मिल जाएंगे यूट्यूब पर देख लेना. नोट करने की बात यह थी कि जो लोग यह सब कर रहे थे, उन्होंने अपने चेहरे छुपा रखे थे. भई, इतना ही शुभ काम कर रहे हो तो, पर्दे के पीछे काहे छुप रहे हो?

मुस्लिम सिर्फ कपड़े के पीछे ही नहीं छुपते, नाम भी छुपाते हैं. दिलीप कुमार, मधु बाला, अजीत और न जाने कितने ही एक्टर रहे हैं हिंदी फिल्मों में जो असल में मुस्लिम थे लेकिन हिन्दू नामों के पीछे छुप गए.

आज भी योगी ने जब अपने व्यापार की नाम प्लेट लगाने का आदेश दिया तो हाहाकार मच गयी. क्यों? चूँकि मुस्लिम हिन्दू नामों के पीछे छुप कर व्यापार कर रहा है.

और ये जो "लव जिहाद" का आरोप लगाते हैं न भगवा ब्रिगेड वाले, ये कोई कोरा झूठ हो ऐसा मुझे लगता नहीं चूँकि मेरे इर्द-गिर्द बहुत से मर्द देखे हैं मैंने जिन की बीवियाँ हिन्दू घरों से हैं लेकिन उल्टा नहीं है. तो मुस्लिम आदमी, गैर मुस्लिम औरतों को इस तरीके से भी इस्लाम में लाते हैं यह तो पक्का है. अब वो अपनी पहचान छुपाते हैं, नाम गलत बताते हैं शुरू में, इस की भी बहुत ज़्यादा संभावना है. ऐसे कई केस पकड़े भी गये हैं.

एक वाक़या याद आता है, कोई लगभग डेढ़ दशक पुरानी बात है. मैं फेसबुक पर आया ही था. मुझे फेसबुक ठीक से चलना आता ही नहीं था. कोई SAM नाम से मित्र बनी. कुछ बात-चीत बढ़ी तो पता लगा वो शाज़िया मीर थीं. कश्मीर में पहलगाम या अनंतनाग के पास किसी गाँव में रहती थी. तब तक मुझे इस्लाम की "खूबियां" कुछ खास नहीं पता थी. मैं सब धर्मों को एक जैसा समझता था. एक जैसा "व्यर्थ". वो तो सोशल मीडिया पर आने के बाद ही मुझे इस्लाम पर ढेरों वीडियो और लेख मिले तो मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे. और फिर जब मैं इस्लाम के खिलाफ पोस्ट डालने लगा तो शाज़िया ने मुझे एक-दो बार समझाने का प्रयास किया. उस के कहने से मैंने वो पोस्ट हटा भी दीं. लेकिन मेरा सच ज़ोर मारने लगा और मैं यदा-कदा इस्लाम पर पोस्ट डालने लगा. फिर शाज़िया गायब हो गईं. हो सकता है, वो आज भी पढ़तीं हो मेरा लिखा कभी छुप कर चूँकि हम लोग जिन से अलग होते हैं, उन को भी कभी-कभी बीच में देखना चाहते हैं.

आज मुझे समझ आता है कि शाज़िया SAM नाम से अपनी ID क्यों चला रहीं थी? चूँकि शाज़िया को पता था कि मुस्लिम नाम से शायद कोई लोग उसे रिजेक्ट कर सकते हैं शुरू में ही. हालाँकि उस वक्त तक मुझे शाज़िया और SAM, दोनों में न तो कोई फर्क पता था और न ही कोई परहेज़ था.

X-मुस्लिम देखे हैं. ज़्यादातर ने अपने मुँह छुपा रखे हैं. क्यों? चूँकि पहचान लिए गए तो मार दिए जाएंगे. किसी और धर्म को कतई फर्क नहीं पड़ता, छोड़ दो , छोड़ दो. कोई मरने मारने नहीं आएगा. लेकिन इस्लाम..? यह तो है गिरोह. कोई यह गिरोह कैसे छोड़ के जा सकता है. यह One-way ट्रैफिक है. जहाँ एंट्री तो है एग्जिट कोई नहीं.

इस्लाम में रहते हुए तो मुँह छुपाते ही हैं मुस्लिम, इस्लाम छोड़ दिया तब भी मुँह छुपाते हैं. मैंने सुना है, मारे जाने का, सामाजिक बहिष्कार का डर न हो तो आधे मुस्लिम X-मुस्लिम हो जाएंगे. X-मुस्लिम की बाढ़ आ जाये, सुनामी आ जाये.

और एक पर्दा है जो मुसलमान कर रहे हैं, वो शायद बहुत कम लोगों को दिख रहा हो. इस्लामिक ग्रंथों से निकाल यदि कोई रिफरेन्स दे दे, जो आज के ज़माने के हिसाब से कुछ फिट सा न बैठता दिखाई पड़ता हो तो मुस्लिम हो-हल्ला करने लगे हैं. सर तन से जुदा का आह्वान करने लगे हैं. नूपुर शर्मा मामले में यही हुआ था. उस ने जो भी कहा था, वो एक डिबेट में कहा था. मिस्टर रहमानी ने हिन्दू मान्यताओं पर कुछ नेगेटिव टिपण्णी की थी तो बदले में नूपुर ने जो कहा था वो इस्लामिक ग्रंथों का रिफरेन्स देते हुए कहा था. जो उस ने कहा, वो इस्लामिक स्कॉलर कई बार कह चुके हैं. लेकिन सर तन से जुदा का नारा सिर्फ नूपुर के लिए. फिर मैंने देखा X-मुस्लिम साहिल को एक डिबेट में. वो कुछ इस्लामिक ग्रंथों में से रिफरेन्स के साथ quote करने जा रहा था, लेकिन मौलाना लगा चीखने-चिल्लाने, "तू मुरतद है, तू कुछ नहीं बोल सकता, तू मुरतद है .... " और डिबेट खत्म. मेरे साथी हैं एक मोहमद क़ासिम (नाम थोड़ा सा बदल दिया है). प्रॉपर्टी की कई डील हम ने मिल-जुल कर की हैं. शरीफ व्यक्ति हैं. कब्बी-कभार इन से इस्लाम पर भिड़ंत हुई है. जब भी कभी मैंने क़ुरान का हवाला दे कर कहा कि क़ुरान में काफिर/गैर-मुस्लिम के खिलाफ बहुत हिँसा है तो ये जनाब बुरी तरह से भड़क गए. मैंने आयतों का रिफरेन्स देने की बात की तो भी इन की Sanity लौटी नहीं. ये भड़के ही रहे. मुझ से कहा, "आप आयतों के मतलब ठीक से नहीं समझते. उस आयत के आगे की आयत पढ़ो, पीछे की आयत पढ़ो. उस का संदर्भ समझो. उस का अनुवाद सही नहीं है." और भी पता नहीं क्या-क्या.
कुल मिला कर नतीजा यह है कि मुस्लिम अपने ही ग्रंथों को पर्दे में रखने लगे हैं.


यहाँ मैं इस्लामिक कांसेप्ट "अल-तकिया" का ज़िक्र भी करूंगा. इस का शाब्दिक अर्थ जो मुझे मिला वह है: "किसी खतरे के समय, चाहे अभी हो या बाद में, खुद को शारीरिक और/या मानसिक चोट से बचाने के लिए अपने विश्वासों, मान्यताओं, विचारों, भावनाओं, राय और/या रणनीतियों को छिपाना या छिपाना।" लेकिन गैर-मुस्लिमों में इस का प्रैक्टिकल अर्थ समझा जा रहा है कि मुस्लिम इस्लाम फ़ैलाने के लिए कैसा भी झूठा और छद्द्म रूप अख़्तियार कर सकते हैं. गैर-मुस्लिम ग़लत हो सकते हैं, अल-तकिया के अर्थ समझने में. लेकिन मुस्लिम इस्लाम फ़ैलाने के लिए साम-दाम दंड-भेद सब तरह की नीति-कूटनीति का प्रयोग करते हैं इस में मुझे कोई शंका नहीं है.

मेरा सवाल है मुस्लिम से, आत्म-निरीक्षण करो. तुम अपने नाम छुपाते हो, अपनी पहचान छुपाते हो, अपनी औरतों को सात पर्दों में छुपाते हो, तुम में से ही जो लोग हिंसक गतिविधियाँ करते हैं तो अपने चेहरे छुपाते हैं, अपने ग्रंथों के रिफरेन्स तक को छुपाने लगे हो, तुम्हारा दीन जो लोग छोड़ जाते हैं वो तक अपने आप को छुपाते हैं. क्यों?

तुम ने इस्लाम कबूला है या कोई जुर्म?

अपने इर्द-गिर्द के जमाने को देखों, कहीं तुम चौदह सौ साल पीछे तो नहीं छूट गए?

Tushar Cosmic

Tuesday 22 October 2024

क्या भारत कोई राष्ट्र था? क्या हिन्दू/सनातन कोई धर्म है?

यहाँ इस भूमि पर, जिसे अब "भारत" कहा जाता है, अनेक राजा थे. वे लड़ते रहते थे. यह कहना गलगट है कि वे "आपस" में लड़ रहे थे चूँकि आपस वाली कोई बात नहीं थी. हर राज्य अपने आप में देश था. यही उनकी दुनिया थी.

मिसाल के लिए देखिए. एक राष्ट्र रहा होगा. छोटा. फिर उस से कुछ बड़ा कोई राज्य बना होगा जो "महाराष्ट्र" बन गया. महाराष्ट्र जो आज भारत का सिर्फ एक स्टेट है. आज भारत को हम राष्ट्र कहते हैं. राष्ट्र में महाराष्ट्र. छोटे डब्बे में बड़ा डब्बा. है न हैरानी की बात! मतलब यह है कि किसी जमाने में कोई छोटा सा नगर ही अपने आप में राष्ट्र माना जाता रहा होगा.

महाराष्ट्र का नाम यदि "म्हार राष्ट्र" से बना मान भी लिया जाये तो भी मेरा क्लेम पुख्ता होता है. कैसे? म्हार राष्ट्र ही म्हार लोगों के लिए एक राष्ट्र था. और यही तो मैंने कहा है कि भारत नाम से कोई राष्ट्र कभी नहीं रहा.

और यह "भारत" नाम राजा "भरत" के नाम पर है, यह भी एक भ्रान्ति है. प्रत्येक राज्य/रियासत का अपना नाम होता था....अपना राजकुमार/राजा।

जितना इतिहास हम जानते हैं, उसमें केवल अशोक के पास ही बहुत बड़ा राज्य था, और उसके बाद महाराजा रणजीत सिंह के पास। अन्यथा मुगलों के पास बड़े राज्य थे और फिर अंग्रेजों के पास सबसे बड़ा राज्य था....भारत...जिसमें पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और शायद कई अन्य पड़ोसी क्षेत्र शामिल थे। यह ब्रिटिश India था, जो 1947 में दो भागों में विभाजित हो गया, अन्यथा ब्रिटिश राज से पहले जैसा भारत आज हम देखते हैं ऐसा कुछ भी नहीं था. सैंकड़ों राज्य थे. अलग-अलग. आज का भारत 1947 में विभक्त नहीं हुआ था, पैदा हुआ था. आशा है मैं स्पष्ट हूं.... दिल्ली-पंजाब में मज़दूरी करने वाला मज़दूर जब बिहार/उत्तर प्रदेश जाता है तो अक्सर मैंने उसे कहते सुना है, "हम अपने मुलुक जा रहा हूँ." यानि उस के लिए बिहार/यू पी उस का मुल्क है. और वो दिल्ली या पंजाब में "परदेसी" है. "देस" उस का बिहार या उत्तर प्रदेश है. "प्रदेश" शब्द देखिये. परदेस शब्द इसी से आया होगा। निश्चित ही. यानि "प्रदेश", यह शब्द जिसे आज हम स्टेट के लिए प्रयोग करते हैं, किसी समय यह भी गाँव-देहात में रहने वाले लोगों के लिए दूसरे देश जैसी ही अवधारणा रही होगा. तभी तो "प्रदेश". "परदेस". आई बात समझ में? एक और बड़े मजे का तर्क दिया जाता है कि यदि भारत नहीं था तो फिर "महाभारत" कैसे लिखी गयी? कहाँ से आ गयी? पहली तो बात यह है कि महाभारत को आज तक कोई ऑथेंटिक इतिहास नहीं माना जाता. यह मिथिहास है. मिथ्या इतिहास. मिथिहास. जिस का यह नहीं पता कि सच कितना है और कल्पना कितनी. चलिए बहस के लिए मान लेते हैं कि यह इतिहास है तो फिर महाभारत में भी भारत जैसा आज एक देश है ऐसे, इतने बड़े देश का कहाँ ज़िक्र है? दिल्ली और इस के इर्द-गिर्द के किसी इलाके को हस्तिना-पुर कहा गया. दिल्ली के पुराने नामों में इंद्रप्रस्थ भी कहा जाता है. बस इसी इलाके की तो लड़ाई थी. बाकी तो सब आस-पास के राजा थे. जरासंध शायद मथुरा-वृंदावन का राजा था. गांधारी शायद कंधार/अफगानिस्तान से थी. कौन सा राजा था उस समय भी जिस के पास आज जितना बड़ा कोई राज्य था जिसे "भारत" कहा जाता था? कोई भी नहीं. एक और तर्क दिया जाता है की विष्णु पुराण में कहीं लिखा है, "उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् | वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ||" इसका मतलब है कि समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत कहते हैं और वहां रहने वाले लोगों को भारतीय कहते हैं. लिखा होगा लेकिन उस से साबित ही क्या होता है? पहली तो बात है कि पुराण कोई ऑथेंटिक ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं. ये सब तथा-कथित धार्मिक किस्म की किताब हैं, जिन पर तर्क बिठाने लगते हैं तो सब रायता बिखर जाता है. दूसरी बात यह है कि जिन को भारती कहा जा रहा है उन में सन सैंतालीस से पहले कौन खुद को भारती कहता था. मैंने ऊपर ही लिखा न राष्ट्र की कोई धारणा ही नहीं थी जैसी आज है. हर राजा का राज्य अपने आप में ही एक राष्ट्र था. बस. और जिस भूमि को भारत कहा जा रहा है विष्णु पुराण में वहाँ पता नहीं कितने ही राष्ट्र थे सन सैंतालीस से पहले. जो बनते-बिगड़ते रहते थे, घटते-बढ़ते रहते थे. यह सिर्फ तथा कथित हिन्दुओं द्वारा फैलायी गयी एक मिथ्या धारणा है कि भारत के 1947 में दो टुकड़े हो गए. हो गए लेकिन ब्रिटिश राज वाले "इंडिया" के. असलियत यह है. अगर भारत एक ही था तो फिर सरदार वल्लभ भाई पटेल कौन सी रियासतों को एकीकृत किये थे? एक को क्या एकीकृत करना? और असलियत यह है कि हिन्दू या सनातन धर्म नाम से भी कुछ नहीं है. धरती का यह हिस्सा जिसे आज भारत कहा जा रहा है, यहाँ न तो हिन्दू/सनातन धर्म नाम से कोई धर्म रहा है और न ही भारत नाम से कोई राष्ट्र. हिन्दू शब्द कहाँ से आया इस पर भी भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं. एक धारणा यह है कि यह शब्द "सिंधु" से बना है. सिंधु दरिया के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा जाने लगा. लेकिन दूसरी धारणा यह है कि यह शब्द पुरातन स्थानीय ग्रंथों में भी है कहीं-कहीं. संस्कृत ग्रंथों में. लेकिन तथा-कथित हिन्दुओं के मुख्य ग्रंथों में "हिन्दू" शब्द कहीं भी नहीं है. न रामायण में, न महाभारत में. न राम ने कभी खुद को हिन्दू कहा, न कृष्ण ने और न ही हिन्दुओं के किसी और बड़े अवतार, देवी-देवता ने. यहाँ जैसे छोटे-छोटे राज्य रहे हैं, वैसे ही हर इलाके के अपने देवी-देवता. आज लॉरेंस बिश्नोई को सभी जानते हैं. बिश्नोई समाज पंजाब और हरियाणा के बॉर्डर एरिया में रहता है. यह समाज जम्भेश्वर नाथ को मानते हैं. क्या बाहर किसी को पता है कि कौन थे ये जम्भेश्वर नाथ? आज भी यहाँ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर देवी-देवता बदल जाते हैं. यहाँ शिव लिंग की पूजा होती है तो यहाँ आसाम में कामाख्या मंदिर में योनि की पूजा भी होती है. यहाँ मृत्यु के बाद शरीर जलाये जाते हैं तो लिंगायत लोगों के शरीर दफनाए जाते हैं. माता दुर्गा! ऐसा लगता है जैसे किसी दुर्ग (किले) की रक्षा के लिए हों. बंगाली लोग श्रद्धा से मूर्ती पूजा करते हैं. दुर्गा पूजा और विसर्जन उन के धार्मिक क्रिया कलापों में सब से प्रमुख है, वहीं आर्य समाजी मूर्ती पूजा का सख्त विरोध करते हैं. यहाँ आस्तिक हैं तो नास्तिक भी हैं. गुरु नानक के उद्घोष "एक औंकार सत नाम" में न तो मूर्ती पूजा है और न ही किसी भगवान का ज़िक्र. जितना मुझे पता है, सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है. वैसे आरएसएस खुद यह कहता है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है. मैंने योगी आदित्यनाथ को भी ऐसा ही कुछ कहते हुए सुना है. और अब सनातन. क्या है भाई यह? जितना मुझे पता है, इस्लाम भी खुद को सनातन ही कहता है. आदम-हव्वा से चलता हुआ. सदैव के लिए. हर समय के लिए और हरेक के लिए. बात हिन्दुओं वाले "सनातन" की. भाई, दशरथ से पहले तो राम नहीं थे. यशोदा मैया से पहले तो कृष्ण नहीं थे. राम और कृष्ण तो तुम्हारे प्रिय भगवान हैं. एक समय ये नहीं थे. ऐसे ही कितने और देवी-देवता जन्में और मरे. सवाल यह है कि इन के समय से पहले सनातन था या नहीं? जो लोग किसी और भगवान, किसी और देवी-देवता को पूजते थे, वो सनातनी थे या नहीं? और रामायण और महाभारत काल से पहले के लोग किन्ही और ग्रंथों को पढ़ते होंगे, पूजनीय मानते होंगे, तो वो सनातनी थे या नहीं? ठीक-ठीक डिफाइन करो यार पहले तो सनातनी से तुम्हारा मतलब क्या है? कौन सा देवी-देवता, कौन सी किताब, कौन सी मान्यता? क्या है सनातन? सनातन का मतलब जितना मैं समझता हूँ, ऐसा कुछ जो सदैव था, सदैव रहेगा और हरेक के लिए है और हरेक के लिए रहेगा. तो भाई, क्या है आप लोगों की मान्यताओं में जो सनातन हैं? मैंने ऊपर ही लिखा कि जिन को सनातनी कहा जा रहा है, उन की मान्यताएं एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं. अनेकता में एकता? तो फिर कर लो मुस्लिम से, ईसाई से एकता. होगी? नहीं न. सनातन की कोई परिभाषा मुझे नहीं मिली, आप को मिलती हो तो ज़रूर लिखना. धर्म-स्थलों में "विश्व में शांति हो", "सर्वस्व का भला हो" बोलने से कुछ साबित नहीं होता. जो लोग तुम्हारे धर्मों को, तुम्हारे धर्म-स्थलों को ही नहीं मानते, जो लोग तुम्हारे धर्म-स्थलों को ही अशांति का बुराई का केंद्र मानते हैं, उन को क्या जवाब दोगे? वो सनातनी हैं या नहीं? यहाँ मैं मुस्लिम या अन्य रिलिजन को मानने वालों की बात नहीं कर रहा. यहाँ मैं उन्ही लोगों की बात कर रहा हूँ जिन को सनातनी ही समझा जाता है. मिसाल के लिए आर्य समाजी भी सनातनी ही माने जाते हैं लेकिन वो तो मूर्ती पूजा के सख्त विरोधी है जब कि तथा कथित हिंदू अधिकांश मूर्ती पूजक हैं. तो ऐसे में ये मूर्ती पूजक सनातनी आर्य समाजियों को सनातनी कहेंगे या नहीं? सवाल हैं. कह सकते हैं. कहते भी हैं. लेकिन यह सब बहुत ही अंतर्-विरोधी है. बहुत ही अतार्किक. बहुत ही उलझा हुआ. निरर्थक. सनातनी कौन है इस के अर्थ खोजने जाते हैं तो बस तनातनी ही मिलती है. असल में परिभाषित करने की कोई ज़रूरत है भी नहीं. यह ज़रूरत सिर्फ इसलिए पड़ रही है चूँकि हिंदुत्व और सनातन शब्दों पर बहुत जोर दिया जा रहा है. अन्यथा एक परिभाषा विहीन समाज मेरी नज़र में बेहतर है परिभाषा में बंधे हुए समाज से. वहाँ सोच की फ्रीडम है. इसी का नतीजा है कि आज तथा-कथित हिन्दू समाज से निकले लोग दुनिया के शीर्ष स्थलों पर पहुँच रहे हैं. सिर्फ इस्लाम, इसाईयत और बाकी बाहरी विचारधारों के प्रभाव से बचने के लिए भारत राष्ट्र/ हिन्दू राष्ट्र या हिंदुत्व/सनातन जैसे नैरेटिव घड़े गए और समाज में पोषित किये गए. खास कर के आरएसएस द्वारा. आरएसएस की तो प्रार्थना में ही हिन्दू भूमि का ज़िक्र है. असल में इस तथा कथित भारत भूमि पर बिखरी हुई मान्यताओं की वजह से समाज एक जुट नहीं हो पाया और यह भी एक वजह रही कि यहाँ के लोग लगभग हर आक्रमणकारी से हारते चले गए. इन में अधिकाँश आक्रमणकारी अपने अपने रिलिजन, होली बुक, सामाजिक कोड, राजनीतिक कोड से बंधे थे. इसलिए इन में एकता थी, जो कि स्थानीय समाज में नहीं थी. यह आक्रमण आज भी जारी है. इस्लाम और ईसाइयत द्ववारा आज भी प्रयास किये जा रहे हैं कि यहाँ के लोगों को कन्वर्ट कर लिया जाये. इस्लाम इस में सब से ज़्यादा प्रयासशील है. साम, दाम, दंड, भेद सब तरह की नीति अपनाई जाती है कि काफ़िर को किसी तरह से मुस्लिम कर दिया जाये. इसी लिए हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र घड़ा गया है. इस में बड़ा योगदान वीर विनायक दामोदर सावरकर की किताब "हिंदुत्व" का है और जिसे धरातल पर उतारा डॉक्टर बलि राम सदाशिव राव हेडगेवार ने. अब बड़े मजे की बात है कोई भूमि कभी हिन्दू या मुस्लिम होती है? भूमि को खुद नहीं पता होगा कि वो हिन्दू या मुस्लिम हो चुकी. कैसी मूर्खताएं हैं? भूमि ने कभी कोई रजिस्टरी की क्या हिन्दुओं के नाम? या किसी भी और के नाम? लेकिन इंसानी मूर्खताओं की वजह से यह सब भी तार्किक लगने लगा है. सब के पास अपने तर्क हैं. कुतर्कों पर टिके तर्क.

प्याज के छिलके उतारते जाओ तो अंत में कुछ भी नहीं बचेगा. ऐसे ही हिंदुत्व है. जैसे-जैसे खोजते जाओगे वैसे-वैसे पाओगे कि अंत में कुछ भी हासिल नहीं हुआ. और यह शुभ है. यह समाज किसी ख़ास कोड से, बहुत कस के, बहुत ज़ोरों से कतई बंधा हुआ है ही नहीं. जो-२ समाज बंधे हैं वो अन्ततः पूरी दुनिया के लिए अशुभ साबित होंगें. जो समाज किसी किताब से कस के बंध जाये, टस से मस होने को राज़ी न हो, वो सभ्य हो ही नहीं सकता, वो अशुभ साबित होगा ही.

यहाँ मैं दुनिया के दो मसलों का ज़िक्र करूंगा. कश्मीर और फिलस्तीन/इजराइल. मुस्लिम दोनों जगह अपना हक़ जताते हैं. फिलस्तीन/इजराइल पर उन का तर्क है कि वो ज़मीन यहूदियों ने उन से छीन ली. लेकिन यही तर्क वो कश्मीर पर नहीं लगाते. यहाँ भी तो हिन्दू रहते थे पहले. जिन्हें मार-मार कर भगा दिया गया. आज भी रोज़ हिन्दू मज़दूर कत्ल किये जाते हैं. ताकि वहाँ सिर्फ मुस्लिम ही रह सके. ज़मीन के किस टुकड़े पर, बल्कि पूरी ज़मीन, पूरी धरती पर ही कोई सभ्यता, कोई समाज जो मार-काट में यकीन रखता हो, उसे रहना ही नहीं चाहिए. जो दूसरे को जीने का हक़ ही नहीं देना चाहता, उसे जड़ से खत्म कर देना चाहिए.

खत्म करने से यहाँ मेरा मतलब किसी को मारने-काटने से नहीं है. मेरा मतलब है, दूसरों के प्रति जिस भी समाज में वैमन्सयता का भाव आता हो, वो भाव, वो तर्क, मान्यताएं छिन्न-भिन्न कर देनी चाहियें. और यह आज आसान है. सोशल मीडिया बड़ा रोल अदा कर सकता है, कर रहा है. आप इस पोस्ट को भी उसी दिशा में एक कदम मान सकते हैं.

कुछ और सवाल-जवाब India के अस्तित्व पर:-
India(?) में कोई एक संस्कृति (?) कभी भी नहीं थी. आज भी नहीं है.
सिक्ख खुद को हिन्दू मानते ही नहीं और न बौद्ध और न जैन और न लिंगायत. सिख सरे आम कहते हैं हम हिन्दू नहीं. बौद्ध भी खुद को हिन्दू नहीं मानते. लिंगायत ने भी पीछे कहा कि वो हिन्दू नहीं हैं. बाकी आरएसएस या आरएसएस के समर्थक कहते रहें, जो कहना है.
वैसे भी पूरी दुनिया में कोई संस्कृति है ही नहीं और न रही है. संस्कृति का अर्थ है ऐसे कृति जिस में कोई संतुलन हो. यहाँ कोई एक दम भिखारी है तो कोई Super Rich. ऐसा हमेशा रहा है. इसे संस्कृति कैसे कहा जा सकता है? यह बस एक मिसाल है.
कुछ सनातन परम्परा नहीं है. कुछ सनातन ही नहीं है. अगर कुछ सनातन है तो वो है परिवर्तन. Change is the only Constant.
इंसान जंगलो से गाँव और फिर शहरों तक पहुंचा है. उसे एक गाँव से दुसरे गाँव तक तो खबर नहीं थी. जम्बुद्वीब, आर्यवर्त, भारत वर्ष था शुरू से? कैसी बात है सर?
As I know… एशिया का एक हिस्सा है. साउथ एशिया. अंग्रेजों के समय में इसे Indian Subcontinent कहा जाने लगा था. जिस में आज के भारत के अलावा इर्द-गिर्द के पड़ोसी मुल्क भी थे. वो अंग्रेजों की अपनी समझ के लिए था. जिस में अलग-अलग Province थे. Bengal Province, Punjab Province, Bombay Province etc.....बात है एक राजनितिक इकाई की, जैसी आज है. ऐसा भारत सैंतालीस से पहले (except English Raj ) कभी नहीं रहा, तथा-कथित हिन्दुओं के पास तो कभी भी नहीं.


Tushar Cosmic