मेरी समझ है कि मन्दिरों में माहवारी के दिनों औरतों को रोकना महज़ इसलिए रखा गया होगा चूँकि पहले कोई इस तरह के पैड आविष्कृत नहीं हुए थे, जन-जन तक पहुंचे नहीं थे........सो मामला मात्र साफ़ सफाई का रहा होगा.
आज इस तरह की रोक की कोई ज़रूरत नही. अब सवाल यह है कि क्या आज इस तरह के मंदिरों की भी ज़रूरत है, जहाँ के पुजारी मात्र गप्पे हांकते हैं, बचकाने किस्से-कहानियाँ पेलते हैं?
अब इस मुल्क की औरतों को इन मंदिरों को ही नकार देना चाहिए, जहाँ ज्ञान-विज्ञान नहीं अंध-विश्वास का पोषण होता है.
महिलाओं को इन मंदिरों में घुसने की बजाए इन मंदिरों के बहिष्कार की ज़िद्द करनी चाहिए.
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Tuesday, 23 October 2018
Monday, 22 October 2018
Biological Waste (जैविक कचरा)
Biological Waste (जैविक कचरा). शायद ही पढ़ा हो आपने कहीं ये शब्द. जब पढ़े नहीं तो मतलब भी शायद ही समझें.
'ब्लू व्हेल चैलेंज'....यह ज़रूर पढ़ा होगा आपने.
इस खेल को खेलने वाले बहुत से लोगों ने आत्म-हत्या कर ली. पकड़े जाने पर जब इस खेल को बनाने वाले से पूछा गया कि क्यों बनाई यह खेल? एक खेल जिसे खेलते खेलते लोग जान से हाथ धो बैठें, क्यों बनाई?
जवाब सुन के आप हैरान हो जायेंगे. जवाब था, "जो इस खेल को खेलते हुए मर जाते हैं, वो मरने के ही लायक होते हैं. उनका जीवन निरर्थक है. वो Biological Waste (जैविक कचरा) हैं. और मैं कचरा साफ़ करने वाला हूँ."
ह्म्म्म..........क्या लगा आपको? यह ज़रूर कोई फ़िल्मी विलेन है.
नहीं. मेरी नज़र में यह व्यक्ति बहुत ही कीमती है. और वो जो कह रहा है, वो बड़ा माने रखता है.
अब ये जो लोग मारे गए, अमृतसर में रावण जलता देखते हुए. कौन हैं ये लोग? Biological Waste (जैविक कचरा).
इनके जीने-मरने से क्या फर्क पड़ता है? इनका क्या योग दान है इस धरती को? इस कायनात को?
बीस-पचास साल इस धरती का उपभोग करते. खाते-पीते-हगते-मूतते और अपने पीछे अपने जैसों की ही फ़ौज छोड़ जाते.
इंसानियत को, जंगलात को, हवा को, पानी को, पशुओं को, पक्षियों को, कायनात को क्या फायदा था इनके होने से?
कौन सा साहित्य रच जाते? कौन सा गीत-संगीत दे जाते इस दुनिया को?कौन सा ज्ञान -विज्ञान प्रदान कर जाते?
मूर्ख लोग. जिनकी अक्ल मात्र बचकानी चीज़ों में अटकी है, जिनको होश नहीं कि वो खड़े कहाँ हैं? खड़े क्यों हैं? ऐसी भीड़ का क्या फायदा?
सो ज्यादा चिल्ल-पों न मचाएं.
"होई वही जो राम रच राखा."
"भगवान-जगन नाथ के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता. जीवन मरण सब उस के हाथ है."
"जिसकी जितनी लिखी होती है, वो उतने ही साँस लेता है, न एक पल ज्यादा न कम.
बाकी आप सब खुद समझ-दार हैं. मुझे तो वो ट्रेन और 'ब्लू व्हेल चैलेंज बनाने वाले एक ही जैसे दीखते हैं. Biological Waste (जैविक कचरा) साफ़ करने वाले.
नमन...तुषार कॉस्मिक
उत्सव-धर्मिता
आपको पता है हम उत्सव क्यों मनाते हैं......?
चूँकि हमने जीवन में उत्सवधर्मिता खो दी.
चूँकि हमने दुनिया नरक कर दी
कभी बच्चे देखें हैं.......उत्सवधर्मिता समझनी है तो बच्चों को देखो....
हर पल नये...हर पल उछलते कूदते.....हर पल उत्सव मनाते
क्या लगता है आपको बच्चे होली दिवाली ही खुश होते हैं.......?
वो बिलकुल खुश होते हैं....इन दिनों में.......लेकिन क्या बाक़ी दिन बच्चे खुश नही होते?
कल ही देख लेना ....यदि बच्चों को छूट देंगे तो आज जितने ही खेलते कूदते नज़र आयेंगे
यह है उत्सवधर्मिता
जिसे इंसान खो चुका है और उसकी भरपाई करने के लिए उसने इजाद किये उत्सव ...होली...दीवाली......
खुद को भुलावा देने के लिए ये चंद उत्सव इजाद किये हैं........खुद को धोखा देने के लिए...कि नहीं जीवन में बहुत ख़ुशी है ..बहुत पुलक है......बहुत उत्सव है.
नहीं, बाहर आयें ..इस भरम से बाहर आयें...समझें कि दुनिया लगभग नरक हो चुकी है......हमने ..इंसानों ने दुनिया की ऐसी तैसी कर रखी है
कुछ नया सोचना होगा...कुछ नया करना होगा ताकि हम इन नकली उत्सवों को छोड़ उत्सवधर्मिता की और बढ़ सकें
वैसे तो जीवन ही उत्सवमय होना चाहिए, उत्सवधर्मी होना चाहिए, लेकिन विशेष उत्सव जो भी मनाये जाएँ, वो मात्र इसलिए नहीं कि हमारे पूर्वज मनाते थे या हम मनाते आ रहे हैं....मनाते आ रहे हैं......
मिस्टर वाटसन एक रेस्तरां में इसलिए खाना खाते आ रहे हैं पिछले तीस साल से चूँकि उनके पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे चूँकि उनके पिता के पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे. क्या कहेंगे आप? बहुत बुद्धि का काम कर रहे हैं मिस्टर वाटसन?
लोग कांग्रेस को इसलिए वोट देते रहे चूँकि वो कांग्रेस को ही वोट देते आ रहे थे? ऐसे तर्कों को आप कितना तार्किक कहेंगे? है न मूर्खता!
लेकिन आप भी तो वही करते हैं. उत्सव इसलिए मनाते हैं चूँकि बस आप मनाते आ रहे हैं...आपके बाप मनाते आ रहे हैं.
न.न. उत्सव मनाएं लेकिन थोड़ा जागिये. थोड़ा विचार कीजिये.
पुराने किस्से-कहानियों को संस्कृति के नाम पर मत ढोते चलिए. उत्सव मनाने हैं तो नई वजह खोज लीजिये.
क्या दीवाली पर एडिसन या निकोला टेस्ला को याद नहीं किया जा सकता जिन्होंने इस दुनिया को रोशन करने में योगदान दिया?
कल ही मैं पढ़ रहा था कि गूगल ने लच्छू महाराज को याद किया. वाह! क्या तबला बजाते थे! मैं उनको देख-सुन कर दंग! ऐसे लोगों की याद में उत्सव मना सकते हैं.
गणित में रूचि हने वाले रामानुजन की जयंती का उत्सव मना सकते हैं.
गायन में रूचि रखने वाले नुसरत फतेह अली की याद में गा सकते हैं.
नृत्य में रूचि रखने वाले मित्र 'वैजयन्ती माला' की जन्म-जयंती मना सकती हैं.
हम अपने कलाकारों, वैज्ञानिकों की याद में रोज़ उत्सव मना सकते हैं.
हम हर पल उत्सव मना सकते हैं.
हम बिना वजह के उत्सव मना सकते हैं.
बस उत्सव के नाम पर मूर्खताएं न करते जाएँ और ये मूर्खताएं मात्र इसलिए न करते जायें कि आप करते आये हैं, आपके बाप करते आये हैं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Monday, 15 October 2018
~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~
"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते।
माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है।
कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहा रहे हैं।
बुरा लग रहा है मुझे अपने आप को इन मासूम जानवरों के साथ कम्पेर करना।क्यूँकि ये बेचारे तो अपने स्वरूप में जीते हैं।कभी देखा कुत्ता बारात ले कर जा रहा है किसी बकरी पे बैठ के और उसके दोस्त शराब पी कर बन्दूकें चला रहे हैं। कभी देखा किसी बैल की शादी में गाय के पिता को कन्यादान करके आँसू बहाते हुए? कभी देखा बिल्ली को देवर और ससुर जिससे वो परदा करती हो? कभी किसी बंदरिया को अपनी शादी में मेहन्दी लगाते देखा।
हम मनुष्य सबसे क्यूट जानवर बिलकुल भी नहीं हैं।मैं अक्सर अपनेआप को इन जानवरों की चेतना और आँखों से देखती हूँ।मुझे स्वयं में कुछ भी उनसे बेहतर नज़र नहीं आता।"
By Veena Sharma Ji the Gr........8
--::: अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो :::--
उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो.
और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह?
कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही.
तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है.
अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!!
खैर, इन्सान भी जानवर है बिलकुल ...जिसमें जान है, वो जानवर है.......लेकिन एक फर्क है....बाकी जानवर 'पशु' हैं यानि पाश में हैं....बंधे हैं...बंधे हैं प्रकृति से......उनके पास बहुत कम फ्रीडम है......उनके पास चॉइस बहुत कम है........इन्सान के पास बुद्धि ज़्यादा है सो उसके पास चुनाव की क्षमता भी ज़्यादा है...इतनी ज़्यादा कि वो कुदरत के खिलाफ भी जा सकता है......सुनी होगी कहानी आपने भी कि कालिदास या फिर तुलसी दास से जुड़ी है.....जब वो लेखक नहीं था तो इत्ता मूर्ख था कि एक पेड़ पर चढ़ उसी शाख को काट रहा था जिस पर बैठा था वो भी उधर से जिधर से कटने के बाद वो खुद भी धड़ाम से नीचे गिर जाता......कहते हैं कि उसे तो अक्ल आ गई लेकिन इन्सान को वो अक्ल नहीं आई....वो इत्ता ही मूर्ख है कि जिस कुदरत के बिना वो जी नहीं सकता उसे ही नष्ट करने लगा है.....सो यह है चुनाव की क्षमता जो इन्सान को पशुता से बाहर ले जाती है.....लेकिन दिक्कत यह है कि इस चुनाव में वो पशुता से भी नीचे गिर सकता है, गिरता जा रहा है.......
इन्सान भी जानवर है बिलकुल -- लेकिन एक बदतरीन जानवर है.
इलाज है. इलाज है अपनी लगी बंधी मान्यताओं के खिलाफ पढ़ना, लिखना, सोचना शुरू करो. अपनी मान्यताओं पर शंका करनी शुरू करो. अपने नेता, अपने धर्म-गुरु, अपने शिक्षकों के कथनों पर शंका करो, सवाल करो. दिए गए सब जवाबों पर सवाल करो. अपने सवालों पर भी सवाल करो. यही इलाज है.
तुषार कॉस्मिक....नमन
Thursday, 11 October 2018
धूप-स्वास्थ्य-ज्ञान
ज़ुकाम को मात्र ज़ुकाम न समझें......यह नाक बंद कर सकता है, कान बंद कर सकता है, साँस बंद कर सकता है.
पहले वजह समझ लें. थर्मोस्टेट. थर्मोस्टेट सिस्टम खराब होने की वजह से होता है ज़ुकाम. थर्मोस्टेट समझ लीजिये कि क्या होता है. 'थर्मोस्टेट' मतलब हमारा शरीर हमारे वातावरण के बढ़ते-घटते तापमान के प्रति अनुकूलता बनाए रखे. लेकिन जब शरीर की यह क्षमता गड़बड़ाने लगे तो आपको ज़ुकाम हो सकता है और गर्मी में भी ठंडक का अहसास दिला सकता है ज़ुकाम. और सर्दी जितनी न हो उससे कहीं ज्यादा सर्दी महसूस करा सकता है ज़ुकाम.
खैर, अंग्रेज़ी की कहावत है, "अगर दवा न लो तो ज़ुकाम सात दिन में चला जाता है और दवा लो तो एक हफ्ते में विदा हो जाता है."
दवा हैं बाज़ार में लेकिन कहते हैं कि ज़ुकाम पर लगभग बेअसर रहती हैं.
तो ज़ुकाम का इलाज़ क्या है?
इलाज बीमारी की वजहों में ही छुपा होता है.
इलाज है, खुली हवा और खुली धूप.
रोज़ाना पन्द्रह से तीस मिनट नंगे बदन सुबह की धूप ली जाये. मैं पार्क जब भी जाता हूँ तो धूप वाला टुकड़ा अपने लिए तलाश लेता हूँ. और बदन पर मात्र निकर. 'जॉकी' का भाई. ब्रांडेड. और व्यायाम और आसन शुरू.
उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. अबे ओये, तुम्हें पता ही नहीं तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ.
हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज.
अबे ओये, कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'.
अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं.
"धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में.
खैर, नज़ला तो नहीं है मुझे लेकिन एक आयत नाज़िल हुई है:-
"हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई
लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई
जाओ, निकलो बाहर मकानों से
जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से."
जादू याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें.
क्या कहा! आपको यह सब तो पहले से ही मालूम था. गलत. आपको नहीं मालूम था. आपको मालूम था लेकिन फिर भी नहीं मालूम था.
नहीं. नहीं. मजाक नहीं कर रहा.
जीवन की एक गहन समझ दे रहा हूँ आपको. हमें बहुत सी चीज़ों के बारे में लगता है कि हमें मालूम है. लगता क्या? मालूम हो भी सकता है. बावज़ूद इसके हो सकता है कि हमें उन चीज़ों के बारे में कुछ भी न मालूम हो.
कैसे?
मिसाल के लिए एक पांचवीं कक्षा के अँगरेज़ बच्चे को अंग्रेज़ी भाषा पढनी आती हो सकती है लेकिन ज़रूरी थोड़े न है कि उसे शेक्सपियर के लेखन का सही मतलब समझ आ जाये. उसे शब्द सब समझ में आते हो सकते हैं, वाक्यों के अर्थ भी समझ आते हो सकते हैं लेकिन शेक्सपियर ने जो लिखा, उस सब का सही-सही मतलब उस बच्चे को समझ आये, यह तो ज़रूरी नहीं. वजह है. वजह यह है कि जितना बड़ा जीवन-दर्शन शेक्सपियर देना चाह रहा है अपने शब्दों में, उतना जीवन ही बच्चे ने नहीं देखा.
हो सकता है आपने भी वो सब न देखा हो जो मैं दिखाना चाह रहा हूँ. घमंड नहीं कर रहा, लेकिन क्या आपने आज तक धूप को इलाज की तरह देखा?
अगर नहीं तो मैं सही हूँ.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Saturday, 6 October 2018
रॉबिनहुड है हल
शायद आप के बच्चे होंगे या फिर आप किसी के बच्चे होवोगे.......पेड़ पे तो उगे नहीं होंगें. राईट?
क्या ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप अपने बुद्धिशाली-बलशाली बच्चे को ही सब बढ़िया खान-पान दें और जो थोड़े कमजोर हों, ढीले हों उनको बहुत ही घटिया खान-पान दें? हो सकता है क्या ऐसा?
नहीं.
हम्म...तो अब समझिये कि आप और मैं इस पृथ्वी की सन्तान हैं. पृथ्वी की नहीं बल्कि इस कायनात की औलाद हैं. हो सकता है हम में से कुछ तेज़ हों, कुछ ढीले-ढाले हों. तो क्या ऐसा होना सही है कि सब माल-मत्ता तेज़-तर्रार को ही मिल जाए? क्या यह सही है कि तेज़ तर्रार रहे कोठियों में और बाकी रहें कोठडियों में? सही है क्या कि तेज़ लोग कारों में घूमें और ढीले लोग उनकी कारें साफ़ करते रहें, पंक्चर बनाते रहें, पेट्रोल भरते रहें? दुरुस्त है क्या कि तेज़ लोग मीट खा-खा मुटियाते रहें और ढीले लोग उनकी रसोइयों में खाना बनाते रहें, बर्तन मांजते रहें? क्या कायनात, जो हमारी माँ है, हमारा बाप है, क्या वो ऐसा चाहेगी, वो ऐसा चाहेगा?
अब आप अपने इर्द-गिर्द देखिये.....शायद कायनात ऐसा ही चाहती है. यहाँ हर कमजोर जानवर को ताकतवर जानवर खा जाता है. यही जंगल का कानून है. छोटी मछली को बड़ी मछली का जाती है. यही समन्दर का कायदा है.
लेकिन इन्सान तक आते-आते कुदरत ने, कायनात ने, उसे फ्रीडम दी, आज़ादी दी. अब वो कहीं खुद-मुख्तियार है. वो सोच सकता है. वो चुन सकता है. वो चुन सकता है कि ऐसा समाज बनाये जिसमें कमज़ोर भी ढंग से जी पाए. और इन्सान ने ऐसा समाज बनाने का प्रयास भी किया है. असफल प्रयास.
आईये देखिये.
माँ-बाप तो अपने बच्चों की बेहतरी के लिए जीवन दे देते हैं, जान तक दे देते हैं. लेकिन यह दरियादिली सिर्फ अपने बच्चों तक ही क्यों? कुछ तो गड़बड़ है?
गड़बड़ यही है कि इन्सान ने इंसानियत को सिर्फ अपने परिवार तक के लिए सीमित कर लिया है. वो लाख 'वसुधैव-कुटुम्बकम' के, 'विश्व-बंधुत्व' के गीत गाता रहे लेकिन उसकी सोच परिवार से आगे मुश्किल ही बढती है. नतीजा यह है कि पूरा इंसानी निज़ाम परिवार को बचाने में लगा है. परिवार की सम्पत्ति बचाने में लगा है.
परिवार से बाहर आज भी जंगल का कानून है, परिवार के बाहर आज भी कमज़ोर आदमी को मारा जाता है.
आप कहेंगे कि नहीं, हम सभ्य हैं. हमारे पास संविधान है, विधान है, पुलिस है, फ़ौज है, जज है, कोर्ट है.
नहीं. सब बकवास है. यह सब निजाम इस बेहूदा सिस्टम को बचाए रखने के लिए है. जिसमें अमीर अमीर बना रहे और गरीब गरीब बना रहे. जिसमें कुदरत का जंगली कायदा चलता रहे. कुदरत का समंदरी कानून चलता रहे.
फिर गलत क्या है?
गलत यह है कि कुदरत ने इन्सान को अक्ल दी. अक्ल दी कि वो जंगली सिस्टम से कुछ बेहतर बनाए, समंदरी कायदे-कानून से ऊपर उठे. इन्सान ने बनाया लेकिन वो जो बनाया वो सिर्फ परिवार तक सीमित कर दिया. जो जज्बा, वो त्याग, वो खुद से आगे उठने का ज्वार, वो सब परिवार के लिए, बच्चों के लिए ही रह गया.
और कुल मिला कर यह जंगल से भी बदतर हो गया. हम कंक्रीट का जंगल बन गए. हम समन्दर से गन्दला नाला बन गए.
हमारी सभ्यता असल में तो यह सभ्यता है ही नहीं. हमारी सभ्यता असभ्य है.
'सभ्यता'. सिर्फ खुद को तसल्ली देने को शब्द घड़े हैं इन्सान ने. इस लिज़लिज़े से सिस्टम को सभ्यता कहना सभ्यता शब्द की खिल्ली उड़ाना है.
हमारे पास कोई संस्कृति नहीं है. हम प्रकृति से नीचे गिर गए हैं. हम उलझ गए हैं. हम विकृत हो गए हैं.
प्रकृति मतलब जंगल का कानून. मतलब कमज़ोर ताकतवर की खुराक है प्रकृतिरूपेण.
संस्कृति मतलब सम+कृति. संतुलित कृति. संस्कृति का अर्थ ही यह है कि यह जो असंतुलन है,प्राकृतिक असंतुलन है इसे खत्म किया जाए एवं कमजोर और ताकतवर को समानता दी जाये. कम से कम जहाँ तक सम्भव हो, वहां तक तो प्रयास हो.
आप अक्सर पढ़ते होंगे कि मुल्क की अधिकांश सम्पति चंद लोगों के पास ही सिमटी है. मुल्क क्या दुनिया की ही अधिकांश सम्पत्ति चंद लोगों के पास है. तो फिर बाकी दुनिया के पास क्या है? बाकी दुनिया के पास संघर्ष है. गरीबी है. भुखमरी है. बाकी दुनिया संघर्ष में पैदा होती है, संघर्ष में जीती है, संघर्ष में मर जाती है. इसे संस्कृति कैसे कहें? इसे विकृति न कहें क्या?
हल क्या है?
हल सिम्पल है.
रॉबिनहुड. जी हाँ, रॉबिनहुड है हल.
वो अमीरों से लूटता था और गरीबों में बाँट देता था.
जब कोई मन्दिर या गुरुद्वारे में चोरी होती है तो मुझे लगता है चोरों ने अतीव धार्मिक कार्य किया है. लूट हमेशा ग़लत हो, ऐसा ज़रूरी नहीं.
लेकिन इसमें कुछ सावधानी की ज़रूरत है. अगर हर कमाने वाले का धन न कमाने वाले को दे दिया जायेगा तो ऐसे तो कोई अपनी उर्जा धन कमाने में लगाएगा ही नहीं. फिर हल क्या है?
हल यह है कि एक तो जो इस धरती पर आ गया उसे बुनियादी ज़रूरतें लगभग मुफ्त मिलनी चाहिए लेकिन यह तभी हो सकता है जब पृथ्वी पर आने वाले लोगों की गिनती अंधी न हो. वो उतनी ही हो, जितनी यह धरती ख़ुशी-ख़ुशी झेल सकती है. इन्सान की क्वांटिटी घटानी होगी और क्वालिटी बढ़ानी होगी. उसके लिए जनसंख्या सुनियोजित होनी चाहिए.
और शिक्षा पर ज़बरदस्त काम. यह जो शिक्षा अभी दी जा रही है, यह नब्बे प्रतिशत कचरा है. इसकी कतर-बयोंत ज़रूरी है.
पूँजी कमाने दी जाये, लेकिन पूँजी का अनलिमिटेड जमाव खत्म होना चाहिए. एक निश्चित सीमा के बाद निजी पूँजी का हक़ खत्म. उस सीमा के बाद कमाया गया हर पैसा पब्लिक डोमेन में ट्रान्सफर. जैसे आज कॉपी-राईट के मामले में होता है. आप कुछ लिखते हैं, आपका उस पर कानूनी हक़ है लेकिन यह सदैव के लिए नहीं है. एक समय-सीमा के बाद आपका लेखन पब्लिक को मुफ्त मिलेगा, सर्व-जन का हक़ उस पर होगा.
ज़मीन पर एक व्यक्ति का एक सीमा से ज़्यादा कब्जा धरती माता के प्रति और इंसानियत के प्रति अन्याय है. मैं पश्चिम विहार में रहता हूँ. मेरे पास ही एक इलाका है पंजाबी बाग. पंजाबी बाग में हज़ार गज़ तक के घर हैं. कल्पना कीजिये, दिल्ली के बीचों-बीच हज़ार गज़ के घर. इन घरों में गिनती के लोग रहते हैं. पश्चिम विहार और पंजाबी बाग के बीच एक इलाका है. मादी पुर. यहाँ एक-एक कमरे में दसियों लोग रहते हैं. यह अन्याय है. कहीं किसी के पास दस कमरे का घर हो कहीं एक कमरे में दस लोग सो रहे हों. यह अन्याय है.
असीमित ज़मीन-ज़ायदाद को सीमित करना ज़रूरी है. ऐसा पहले भी किया गया है. ज़मींदारी निराकरण एक्ट ऐसा ही था. उस के बल पर ज़मींदारों से ज़मीन छीन खेतिहारों में बाँट दी गयी थी. यह बिलकुल किया जा सकता है. पहले राजा-महाराजा की अनगिनत रानियाँ थीं, आज संभव नहीं. चोरी-छुपे जो मर्ज़ी करते रहो लेकिन कानूनन एक से ज्यादा बीवी नहीं रख सकते.कानून से असीमित हक़ सीमित किये जा सकते हैं.
बस यह है मेरी सोच. मॉडर्न रॉबिनहुडी सोच. इसे आप वामपंथ कह सकते हैं. वैसे मुझे आज तक समझ नहीं आया कि वामपंथ और दक्षिणपंथ है क्या? राईट इज़ राईट एंड लेफ्ट इज़ रॉंग. ऐसा है क्या? मुझे ऐसा ही लगता है.
वैसे मैंने कहीं पढ़ा कि इन्सान के दिमाग का बायाँ हिस्सा तर्कशील है और दायाँ हिस्सा भावनाशील. सो इसी ग्राउंड पर वामपंथी उनको कहा गया जो ज्यादा तर्क-वितर्क करते हैं और दक्षिण-पंथी उनको कहा गया जो भावनाशील होते हैं.
वैसे मुझे यह भेद-विभेद आज तक पल्ले नहीं पड़ा चूँकि मैं तर्क में बहुत ज़्यादा यकीन करता हूँ. मैंने तर्कशीलता के पक्ष में लेख लिखे हैं. लेकिन मैं इत्ता ज्यादा भावुक हूँ कि घर के सब बच्चे मेरा मजाक उड़ाते हैं. कब कोई फिल्म देखते हुए मेरे आंसूं टप-टप गिरने लगें, कोई पता नहीं. कब कुछ पढ़ते हुए मेरी आंखें दबदबा जाएँ, कुछ ठिकाना नहीं.
क्या कहूं खुद को? वामपंथी? दक्षिण-पंथी? क्या?
आप मुझे कम्युनिस्ट कह सकते हैं. ठप्पा ही तो लगाना है. जान छुड़ाने के लिए ठप्पा लगाना ज़रूरी है. लेकिन कुछ भी कहते रहें. आप मुझ से पीछा नहीं छुडा सकते. आज जो अनाप-शनाप टैक्स लगाए जाते हैं. वो क्या है? वो टैक्स से एकत्रित धन ज़रूरत-मंदों में बांटने का विकृत प्रयास है. वो रॉबिनहुड बनने का सरकारी प्रयास है. नाकाम प्रयास है.
सवाल यह है कि यदि हम असीमित धन-असीमित ज़मीन एकत्रित ही नहीं करने देंगे तो क्यों कोई उद्यम करेगा?
सही सवाल है.
जवाब बड़ा आसान है. क्या आज जिस अंधी दौड़ में लोग शामिल हैं, ज़मीन-जायदाद एकत्रित करने को, वो इसलिए शामिल हैं कि उन्होंने वो सम्पदा प्रयोग करनी है?
नहीं. लोग एक हद के बाद तो सम्पदा प्रयोग ही नहीं कर पाते. हाँ, वो सिर्फ अपने अहम के फैलाव के लिए धन जोड़ते रहते हैं.
यदि समाज उनकी प्रेरणा ही बदल दे तो?
हम धन-सम्पदा कमा कर समाज के लिए छोड़ने वाले को बड़ा नाम दे सकते हैं. जैसे अभी भी देते हैं अगर कोई अस्पताल बनवा देता है तो, स्कूल बनवा देता है तो, लाइब्रेरी बनवा देता है तो. ऐसा किया जा सकता है.
कोई धन क्यों कमाए, उसके उत्प्रेरक बदले जा सकते हैं.
वैसे अभी भी हम सारी कमाई तो किसी को भी प्रयोग करने ही नहीं देते. हम टैक्स के रूप में छीन लेते हैं. हमने एक सीमा के बाद कॉपीराईट खत्म किया हुआ है.हमने ज़मींदारी प्रथा खत्म की है, ज़मीन बाँट दी जोतने वालों को.
बुनियादी किस्म की ज़रूरतें तो बहुत थोड़े प्रयास से या कहूं कि लगभग मुफ्त में ही सबको मिल जानी चाहियें लेकिन उसके बाद अगर किसी को और बेहतर जीवन चाहिए तो वो प्रयास कर सकता है लेकिन उसके प्रयास से जो भी धन उत्पन्न होगा एक सीमा के बाद वो उस धन को अपने या अपनी अगली पीढ़ियों के लिए प्रयोग नहीं कर पायेगा, ऐसे प्रावधान बनाये जा सकते हैं.
रॉबिनहुड बनना ही होगा चूँकि “रॉबिनहुड है हल”.
लेकिन काफी कुछ मेरे ढंग से.
नमन...तुषार कॉस्मिक
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