Friday, 19 June 2015

मेरी कविताएँ

मुझे ठीक से पता नहीं कि कविता किसे कहते हैं...जो मैंने लिखा वो कविता है, कवित्त है, तुकबंदी है, तुक्का बंदी  है पता नहीं....बस हाज़िर है

(1) स्वागत मेरे लेखन में
मेरी दुनिया देखन में

कोई बिलबिला जाए
तो कोई पिलपिला जाए


कोई पीला हो 
तो कोई लाल हो
कम ही को खुशी हो
ज़्यादा को मलाल हो


फिर भी आयें,आयें 
शुरू है धायं धायं



(2) हर कोई चाहता है मुस्कराहटें सजाएं
सजाएँ, बिलकुल
बस किसी और के चेहरे से न चुराएं

(3) बस हम धरम हैं
और तुम भरम हो


(4) वैश्य वैश्या हैं 
और वैश्या वैश्य है

लेकिन वो देविका है 
समाज सेविका है

और वो मूषक हैं 
समाज चूषक हैं



(5) मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं 
और मसला मिसाल नहीं

मिसाल पकड़ लेते हैं, मसला छूट जाता है 
जंग छिड़ जाती है, असल असला छूट जाता है

गवाह चुस्त, मुद्दई सुस्त
लफ्ज़ चुस्त, मुद्दा सुस्त

ख्यालों की भीड़ में, अलफ़ाज़ के झुण्ड में
लफ्ज़ हाथ आते हैं, मतलब छूट जाते हैं
कहानी हाथ आती है, मकसद छूट जाते हैं

और हम भूल ही जाते हैं कि
मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं
और मसला मिसाल नहीं

(6) सन्देश है पहाड़ों से
इंसान की जात को
समझो अपनी औकात को
दूर रखो हम से अपनी जमात को
कुछ न समझें हम तुम्हारी बिसात को

न समझोगे तो हटा दिए जाओगे
बेतहाशा मिटा दिए जाओगे

और कभी देना मत हमें दोष
तुम थे ताकत के नशे में मदहोश

हमने तो सिर्फ़ अपना अस्तित्व बचाया है
तुम मिट गए तो तुम्हारी ही माया है
तुम्हारी ही माया है, तुम्हारी ही माया है

(7) कुदरत की दहाड़ -----

प्यारी बहन, प्यारे मित्र, प्यारे भाई,
कुदरत हमारी है, अपनी है, नहीं पराई

और वो कोई हमारी तरह बेज़ार है
नहीं, बिलकुल नहीं, बहुत बहुत समझदार है.

क्यों गर्मी में पानी से भरे खरबूज तरबूज पैदा किये
क्यों सर्द जगहों पर गर्माहट से भरे अखरोट और मेवे दिए

क्यों पहाड़ उसने दुर्गम बनाये, क्यों मैदान आसान
मात्र इस लिए कि हम तुम दूर रखें अपना अहसान

क्यों नहीं समझे हम
क्यों नहीं समझे तुम

नदियाँ, पहाड़ , इसलिए नहीं कि
वहां मंदिरों के नाम पर भीड़ बढ़ायो , गन्दगी फैलायो
डायनामाइट लगा लगा कर पहाड़ों की जडें हिलाओ

जड़ें पहाड़ की नहीं, अपनी हिला रहे हैं
क़त्ल उसे ही करतें हैं, जिसका खा रहें हैं

क्यों नहीं समझे हम
क्यों नहीं समझे तुम

लाख दोष दो राजनेता को,
लाख गाली दो अभिनेता को,

दोषी तुम हो,
दोषी हम हैं,

धरती को माँ कहते ज़रूर हैं लेकिन हर पल उसका बलात्कार करतें हैं
उस पर एकाधिकार समझ कर अत्याचार करतें हैं

अपनी जन संख्या का वज़न बढ़ाये जातें हैं
उल्लू मर जातें हैं, औलादों को पहाड़ों पे चढ़ाये जातें हैं

कुदरत का थप्पड़ है ये अभी, न समझे तो कहर टूटेगा
विनाश जो 12 में होना था, वो 13 में, 14 में कभी भी टूटेगा

निकलो निकलो अपनी बेवकूफ़ी के जंगलों से बाहर और चढो चढ़ाई अक्ल के पहाड़ की
थोडा वक़्त है, थोड़ी ही तुम्हारी हमारी अक्ल, समझो चेतावनी क़ुदरत की दहाड़ की

(8) पहचान असली हीरो कौन है

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो न नेता है 
न अभिनेता है 

जो क्रिकेट नहीं खेलता 
पर रोज़ दंड पेलता 

वो जो पहाड़ धकेलता 
उत्तराखंड को झेलता

वर्दी वाला देवता 
छोटी पगार लेवता 

बचाता रहा है तुम को
बचाता रहा है हम को 

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो दिन रात लगाता है 
भेद कुदरती सुलझाता है 

सियासत पर भार बना 
मज़हब का शिकार बना 

कचहरी में उलझाया गया 
जिंदा जलाया गया 

जिसने बिजली दी, कार दी
नवजीवन की फ़ुहार दी

सुविधायों की बौछार दी
जीवन को नयी धार दी 

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो पत्थर घढ़ता है 
जो शब्द गढ़ता है 

कथा कहानी कहता है 
खोया खोया रहता है 

मीठा तो कभी ख़ार है 
वो ही कलाकार है 

जो मूर्तिकार है 
जो चित्रकार है 

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है

(9) "साहेब  जी को प्रणाम" 


हम ठहरे निपट आम  लोग 
बस निपटे निपटाए हुए लोग

हमें कहाँ समझ कि आप क्या डील कर रहे हैं 
हमें तो बस लग रहा कि आप ढ़ील कर रहे हैं

शुरू में ही बता देते प्रभु, कि अगले दो चार साल तक
या कि आशा न रखी  जाए अगले पांच  साल तक

न रखते आशा 
न होती निराशा

आपने कहा अच्छे दिन आने वाले हैं 
हमें लगा बस आने ही वाले हैं

बस थोड़ा गलतफहमी हो गयी सरकार
करेंगे, साहेब, करेंगे, अगली बार, सुधार

अगली बार
कोई नई सरकार

(10) हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई 
लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई.....
जाओ, निकलो बाहर मकानों से......
जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से

(11) मेरी बातों की कीमत, दोस्त लोग लाखों में आंकतें हैं
मगर एक बात का एक हज़ार भी मांगूं, तो बगलें झाँकतें हैं

(12) हम इस संसार में, मांगे सबकी खैर
सबसे अपनी दोस्ती, न काहू से बैर

(13) वो है रवि शंकर जी , श्री श्री रवि शंकर जी, तो मैं हूँ तुषार
वो हैं दो बार श्री श्री, तो मैं हूँ एक हज़ार बार, श्री तुषार

हा हा ............................

(14) प्रेम प्रेम सब कहें , जग में प्रेम न होए 

ढाई आखर बुद्धि का, पढ़े तो शुभ शुभ होए


(15) बिन खुद की खुदाई, खुदा कहीं न मिलेगा
और खुदा मिले न मिले, जो मिलेगा वो खुदा होगा

(16) मुद्रा की राजनीती न करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी

मुद्दों की मुर्दा राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी
मुर्दा मुद्दों की राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी
मुर्दों की राजनीति करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी


मुद्दों की राजनीती न करने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी


(17) मेरी नन्ही बिटिया

तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है
तू ही प्रभु है या फिर तुझे स्वयम्भू कहूं
तू कौन है
तू क्या है
तू कितनी अच्छी है
तू कितनी प्यारी है
तुझे कुदरत ने कितनी उम्मीदों से भेजा है
सोचता हूँ, मैं इस काबिल भी हूँ, तेरे काबिल भी हूँ
फिर सोचता हूँ, कुदरत ने भेजा है तो सोच कर ही भेजा होगा
तेरी किलकारियों के साथ ही घर जैसे रोशनी से भर जाता है 
तेरे उठते ही जीवन जाग जाता है
तेरे सोते ही रात घिर आती है
मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है

(18) 
"Yours Truly.."
Hmm.....Others' Untruly


(19)  Only Fire, no ashes
Sharp cuts, no rashes


(20) Teachers are cheaters

Leaders are dealers

Administrators are traitors

Great LIVES are great EVILS

PASSIONLESS COMPASSION-LESS

Priest and Pope

No Hope, No Hope

Parted North and South

Parted East and West

STILL ALL THE BEST

STILL ALL THE BEST

(21) Never give a shit 

to the Holy shit. 


And Lo, 


the life is wiser, 


the life is better.


(22) 
रॉंग या राईट 
लेकिन है कॉपी राईट 
नमस्कार 
कॉस्मिक तुषार

दिल्ली पुलिस

हालाँकि देश की पुलिस लगभग एक ही जैसा बर्ताव करती है, लेकिन चूँकि मेरा सीधा वास्ता दिल्ली पुलिस से पड़ता है सो मैं दिल्ली पुलिस के बारे में ही लिखूंगा

बहुत हो हल्ला मचाया जा रहा है, एक केस को लेकर....एक महिला अपने बच्चों सहित दोपहिया वाहन पर थीं....कहा सुनी हो गयी पुलिस कर्मचारी से......एक दूजे को ईंट तक मारी गयीं.....किस की गलती निकलेगी, निकाली जायेगी, कितनी निकाली जायेगी, वक्त बताएगा....

कुछ मित्र, मोदी समर्थक, मुझे पुलिस का बचाव करते दिखे....उनका बनता भी है, केजरीवाल दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के अंडर चाहते हैं, ...मोदी सर्मथक इसलिए विरोध कर रहे हैं कि उनका केजरीवाल का विरोध करना बनता है...दिल्ली पुलिस इसलिए विरोध कर रही है चूँकि वो नहीं चाहती कि उसके आज तक के कामकाज के ढंग में कोई खलल पड़े.....

वो ढंग, जो आम जन को, ख़ास करके अनपढ़-कम पढ़े लिखे जन को, गरीब-कम पैसे वाले जन को अपनी जूती की नोक के नीचे समझती है

वो ढंग, जिसमें  पुलिस  झगड़े की कॉल पर  वकील, जज , कानून सब खुद बन जाती है और समझौता कराने के दोनों तरफ से पैसे खाती है

वो ढंग, जिसमें   पुलिस स्टेशन पिटाई और उगाही के अड्डे हैं

वो ढंग, जिससे आम जन घबराते हैं, इसलिए कि वो कोई भी उल्टा सीधा केस लगा कर किसी के भी सालों खराब कर सकती है

वो ढंग, जिसमें पुलिस  अपने इलाके में रेहड़ी, रिक्शा वाले तक से पैसे वसूलती है

वो ढंग, जिसमें   पुलिस का IO (INSPECTION OFFICER) यह नहीं देखता कि कोर्ट में केस सही ढंग से कैसे पहुंचे, बल्कि यह देखता है कि किसे धमका कर ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूले जा सकते हैं

वो ढंग, जिसमें   पुलिस  यदि ट्रैफिक के लिए नियुक्त हो तो उसका काम यह देखना नहीं कि ट्रैफिक कैसे सुचारू रूप से चले, बल्कि ऐसे नाके, ऐसे पॉइंट पर खड़े होना है, जहाँ पब्लिक से न चाहते हुए भी गलती होनी है और इन महाशयों ने पैसे वसूलने हैं

वो ढंग, जिसमें   पुलिस के लॉक-अप रूम अपने  आप में सज़ा हैं, जहाँ वहीं आदमी को सोना है और वहीं पेशाब करना होता है. होता रहे बाद में निर्दोष साबित, सज़ा तो पहले ही मिल जाती है, थाने तक पहुँचने की सज़ा

वो ढंग, जिसमें   पुलिस  बात करने की तमीज़ से कोसों दूर है,  "आप" कहना ही नहीं आता और  "तू, तडांग" को अपना पैदाईशी हक़ समझा जाता  है

वो ढंग, जिसमें   पुलिस   रिश्वत तो  लेती है लेकिन  होशियार हो गई है कि कहीं कोई रिकॉर्डिंग न हो जाए

वो ढंग, जिसमें   पुलिस सज़ा देना अपना हक़ समझती है और वो भी कोर्ट के हुक्म से नहीं, अपनी मर्ज़ी से, जिसमें थर्ड नहीं फोर्थ, फिफ्थ डिग्री तक अपनाना कला समझा जाता है

खैर.....

मैं केजरीवाल  का कतई समर्थक नहीं हूँ, उनको मैं बहुत ही उथला व्यक्ति मानता हूँ, शुरू से....लेकिन मैं दिल्ली पुलिस का, इसके काम काज के ढंग का निश्चित ही विरोध करता हूँ

नमन.

ध्यान

"ध्यान" #ध्यान शब्द बहुत ध्यान खींच रहा है आज कल... बहुत से स्वामी, महाराज, बड़े छोटे गुरु और गुरु घंटाल ध्यान की बात करते हैं, ध्यान सिखाते हैं स्कूल से ही टीचर शिकायत शुरू कर देते हैं, बच्चे ध्यान नहीं देते पढाई पर......एक बीमारी है ADHD (Attention Deficiency Hyper-activity Disorder). माना जाता है कि बच्चों में पाई जाती है. यानि कुछ बच्चों में ध्यान की कमी रहती है, उनका ध्यान बहुत तेज़ी से भटकता है. मैंने लिखा कि यह माना जाता है, इसलिए कि मेरी नज़र में यह कोई बीमारी है ही नहीं. मेरे एक जानकार एक नर्सिंग होम में लैब असिस्टेंट हैं बरसों से. एक बार मुझे बता रहे थे कि उनके बच्चे को यह बीमारी है और किसी बड़े डॉक्टर से अपॉइंटमेंट भी लिया है. मैं हतप्रभ. मैंने पूछा कि बच्चे का जो ध्यान कम लगता है वो पढाई में ही कम लगता है या खेल में भी. उन्होंने कहा, नहीं, खेल में तो ठीक है. मैंने कहा, "ये बात. भाई साहेब, बीमार आपका बच्चा नहीं, हमारी पढाई है. आपका बच्चा बीमार नहीं है औरों से ज़्यादा समझदार है. इलाज उसका नहीं, हमारे स्कूलों का होना चाहिए. कई बार कोई स्वस्थ बीमारों के बीच आ जाए तो सब बीमारों को लगेगा कि वो बीमार है उसका इलाज होना चाहिए. जैसे मेरी बेटी कुहू, वो बहुत तेज़ भागती, दौडती है लेकिन सब उसके इर्द -गिर्द मोटे हैं सो सबको लगता है कि वो कमज़ोर है, उसे कोई टोनिक देना चाहिए. मैं आज ही कह रहा था कि उसे टोनिक की ज़रुरत नहीं है हमें जिम शुरू करने की ज़रुरत है और जो मैं एक आध दिन में करने भी वाला हूँ." खैर....मैंने कहा उन मित्र को कि यह डॉक्टर की अपॉइंटमेंट कैंसिल करो....यह कोई बीमारी है नहीं, ठीक वैसे ही जैसे हस्तमैथुन को बड़ी बीमारी समझा जाता है, वैसे ही बहुत से रोग होते नहीं, बस रोग समझे जाते हैं और फिर व्यक्ति सच में रोगी हो जाता है, बात उनको समझ में आ गई और वो बच्चा समाज की होशियारी और यारी का शिकार होते-होते बच गया एक और अवधारणा चर्चा में है आज कल, "MULTI- TASKING", यानि एक ही समय में एक से ज़्यादा काम.....अब यह भी एक तरह की बकवास है.....आप अपनी उंगली अपने चेहरे के सामने लाओ....अब ध्यान से उंगली देखो, अब उस उंगली के पीछे किसी चीज़ पर ध्यान लगाओ, फिर उंगली पर ध्यान लगाओ....आप देखेंगे कि जब आप उंगली देखते हैं तो पीछे की चीज़ ओझल हो जाती है, जब आप पीछे की चीज़ देखते हैं तो उंगली ओझल हो जाती है, आप दोनों एक साथ देखने का प्रयास करें दोनों धुंधले हो जायेंगे......मतलब साफ़ है आप एक समय में एक ही जगह अपने ध्यान को फोकस कर सकते हैं.....एक से ज़्यादा विषय पकड़ने की कोशिश करेंगे, सब गड्ड-मड्ड हो जाएगा....सो MULTI- TASKING एक तरह की बकवास है....आप एक ही समय में अपने चेतन मन (Conscious Mind) से एक से ज़्यादा काम कभी नहीं कर सकते.....हाँ, वैसे हम हर वक्त एक से ज़्यादा काम कर रहे होते हैं, मिसाल के लिए पहली बार बच्चा चलता है तो उसे बहुत ध्यान रखना पड़ता है, एक एक कदम सम्भाल कर फिर वो धीरे धीरे पारंगत हो जाते हैं, बड़ा हो जाता है, अब वो चलता जाता है, सिग्रेट भी पीता जाता है, फ़ोन पर बात भी करता जाता है ....कुछ इस तरह से MULTI- TASKING हर वक्त हम सब करते रहते हैं लेकिन निश्चित ही कोई भी कार्य जिनको आप के चेतन मन ने करना है वो एक से ज़्यादा करने का प्रयास घातक नतीजे देगा...ध्यान एक समय एक ही जगह लगाया जा सकता है ध्यान एकाग्र ही होता है, ध्यान का स्वभाव है एकाग्रता, एकाग्रता के भिन्न ध्यान कुछ हो ही नहीं सकता.....हाँ एकाग्रता घनी हो सकती है या फिर छिछली...एकाग्रता लम्बी हो सकती है या छोटी अवधी की, लेकिन ध्यान होगा एकाग्र ही तब ध्यान, वो ध्यान जिसकी हमारे आध्यात्मिक गुरु चर्चा करते हैं वो क्या है? आयें समझें. जैसा मैंने कहा कि हमारे अवचेतन मन (Subconscious Mind) को हम बहुत से काम सौंप देते हैं.....असल में आप समझें कि हमने कोई नौकर रखा हो और कोई निश्चित काम सीखाने के बाद हम वो काम उसे सौंप दें और खुद कोई और काम करने लगें........अवचेतन मन वह नौकर है....... जैसे कंप्यूटर में हम कई बैक प्रोग्राम चलाए रखते हैं, वो अपना काम करते रहते हैं, हम अपना, लेकिन कई बार बैक प्रोग्राम इतने भारी हो जाते हैं कि वो हमारे कामों को बाधित करने लगते हैं और हमें बहुत से प्रोग्राम बंद करने पड़ते हैं, फिर से सारा सिस्टम सेट करना पड़ता है..... जैसे नौकर ज़्यादा शक्तिशाली हो जाए और हमारे बिना चाहे ही काम करता रहे और बिना मतलब के काम करता रहे...ठीक वैसे ही हमारा अवचेतन मन काम करता रहता है...... यह एक un-organized प्रोग्राम है, यह कब किधर मुड़ जाएगा, कब क्या सोचने लगेगा इसे बहुत कुछ बाँधा नहीं जा सकता.....अभी आप मेरे शब्द पढ़ रहे हैं लेकिन आपकी बेटी का रिजल्ट आना है दसवीं का आपको उसकी चिंता है, अब उसका रिजल्ट कैसा भी आए अप कुछ कर नहीं सकते उसमें कुछ, लेकिन चिंता है, चिंता नुक्सान कर सकती है लेकिन आप पढ़े जा रहे हैं मुझे और वो चिंता आपके दिल पर सवार हो चुकी है, आपको दर्द होने लगता है, आप पढ़े जा रहे हैं और उधर दर्द बढ़ता जाता है...एकाएक आप उठ खड़े होते हैं, चहलकदमी करने लगते हैं, छाती जोर से मलने लगते हैं, अब धीरे धीरे यह दर्द घटने लगता है...वजह जानते हैं क्या है? अवचेतन मन ने आपको घेर रखा था, वो नौकर की जगह मालिक बन चुका था, वो अनियंत्रित प्रोग्राम है, वो कैसे भी चलता रहता है वैसे उसका आपको चिंतित करना भी यह बताना है कि आप कुछ करो, सोचो बेटी के बारे में, उसके इम्तिहान के बारे में, उसके भविष्य के बारे में, अवचेतन मन भी अपना फर्ज़ निभा रहा है लेकिन अवचेतन को आप समझा भी दोगे तो भी ज़रूरी नहीं कि वो समझ जाए, वो अनियंत्रित रहता है और यही मानव की दिक्कत है. यह दो भागों में विभक्ति मानव जीवन के लिए वरदान भी है और श्राप भी..वरदान इसलिए कि मानव एक से ज़्यादा काम कर सकता है एक वक्त में.......और श्राप इसलिए कि अवचेतन अनियंत्रित हो जाता है...जैसे शुरू में आप सिग्रेट पीते हैं, वो आपका चुनाव होता है, चेतन मन से...फिर धीरे-धीरे यह चुनाव आपका नहीं रहता, आप छोड़ना चाहें तो भी नहीं छोड़ सकते, सिगरेट छोड़ो आप खाने के, ज़रुरत से ज़्यादा खाने तक को नहीं छोड़ पाते.......बस यहीं नौकर के मालिक बनने की कहानी.....यही है.....जब आप कई बार किसी प्रोग्राम को ctrl+alt+ delete के बाद भी बंद नहीं कर पाते......तब आपको पूरा सिस्टम ही बंद करना पड़ता है इसी तरह से आपको अपने अवचेतन को रिप्रोग्राम करना पड़ता है.....आप अपने अवचेतन को बारबार इंस्ट्रक्शन दे सकते हैं, फिल्में दिखा कर, काल्पनिक फिल्में, मनस-चित्र....शब्दों से ज़्यादा मन चित्र, चल-चित्र पकड़ता है सो इस तरह से अवचेतन के अनियंत्रंण को कुछ दिशा दे सकते हैं अब समझ लीजिये मन दो भागों में विभक्त हो काम करता रहता है, ध्यान वह उर्जा है, वह इलेक्ट्रिसिटी है जिसके बिना चेतन मन काम नहीं करता, आप बढ़िया खाना खा रहे हों, अपना मनपसंद लेकिन आपका ध्यान नहीं है यदि वहां, तो खाने का स्वाद मालूम न होगा लेकिन आपका अवचेतन फिर भी बिजी है, असल में अवचेतन ने ही सारा ध्यान खा लिया, सारी उर्जा खा ली इसलिए ही तो आपका चेतन निष्क्रिय रहा. बच्चे में बहुत कम अवचेतन मन है, लगभग न के बराबर, वो वर्तमान में जीता है, इंसान जैसे जैसे बड़ा होता जाता है लगभग बेहोशी में जीता है, उसका अवचेतन मन भरता जाता है, वो कभी भी चेतन होता ही नहीं, वर्तमान में होता ही नहीं, अवचेतन मन से ही सारा जीवन जी जाता है तो इस सारे मामले में दिक्कत क्या है? अवचेतन अपना काम कर रहा है, अपना फर्ज़ निभा रहा है, चेतन अपना काम करता है, अपनी ड्यूटी कर रहा है....क्या परेशानी है? परेशानी है और परेशानी यह है कि अवचेतन नौकर से मालिक हो जाता है, बेकाबू हो जाता है, अनियमित है, दिशाहीन है और निरंतर है, अबाध है और अवचेतन ठस्स है, जड़ है. परेशानी यह है कि आप सिग्रेट छोड़ना चाहते हैं, नहीं छोड़ पाते....आप मीठे सपने देखना चाहते हैं, लेकिन अवचेतन आपको भयंकर सपने दिखाता है, हालांकि अपनी तरफ से उस तरह के सपने दिखा वो आपकी मदद ही कर रहा होता है लेकिन उसकी मदद भी जान-लेवा साबित होती है, मेरा मानना है कि बहुत सी हत्याएं तो स्वप्न ही करते हैं. परेशानी यह है कि आप हर वक्त एक मशीन की तरह जीते जाते हैं, आपके सारे जीवन को अवचेतन घेर लेता है, आप सोये-सोये जीते हैं, आपको न खाने का ठीक से स्वाद पता लगता है, न पीने का, न मरने का-न जीने का. मरने का पता भी उसे लगता है जो जीया हो, जो जीया ही मरा-मरा हो उसे क्या पता लगे कि जीना क्या है? परेशानी यह है कि आप अवचेतन को काम करने को बंद कराना चाहें तो यह नहीं करेगा, यह चलता ही रहेगा, आप सोये हों, जागे हों यह चलता ही रहेगा और जब तक मन बंद न हो, मन अ-मन न हो अमन कैसे हो, शांति कैसे हो? परेशानी यह है कि अवचेतन ठस्स है, इसमें जल्दी कुछ घुस जाए तो निकलता नहीं, यदि बचपन में आपको सिखा दिया गया कि आप हिन्दू हैं और हिन्दू एक सर्वश्रेष्ठ धर्म है तो आप सारी उम्र हर तथ्य को, हर तर्क को उसी सांचे में ढालते रहोगे, जो बात उस ढाँचे में, उस सांचे में फिट हो गयी वो सही, अन्यथा सब गलत.....अब लाख आपको कोई तर्क से समझाता रहे कि हिन्दू होना, मुस्लिम होना इंसानियत के लिए, आपके लिए, कायनात के लिए सही नहीं है, शायद ही समझें आप....चूँकि जो अवचेतन में जड़ जमाए बैठी धारणाएं हैं, वो अपनी जगह छोड़ने को राज़ी ही नहीं होती, पुराने प्रोग्राम डिलीट हो के राजी ही नहीं. हल क्या हैं? एक तो हल यह है कि अवचेतन को अपने हिसाब से ढाला जाए, उसके साधन हैं, मिसाल के तौर पर मेरा जन्म हिन्दू-सिक्ख परिवार में हुआ, कायदे से मुझे भी वैसी ही मान्यताओं में जीना चाहिए ...लेकिन अरसा लगा, हजारों तर्क-वितर्क तब जा के इस जंजाल से निकल पाया.......सो तर्क काम आ गए, बहुत बार तर्क काम नहीं आते, जैसे कोई सिग्रेट छोड़ना चाहे तो भी न छोड़ पाए....लेकिन वहां सम्मोहन काम आ सकता है....सम्मोहन चेतन मन के अवरोध को हटा देता है और सीधे प्रोग्राम को अवचेतन में अपलोड कर देता है.....आप खुद को भी सम्मोहित कर सकते हैं.....खुद को निरंतर शब्दों से प्रेरित कर सकते हैं, मनस चलचित्र दिखा सकते हैं. दूसरा हल यह भी है कि आप सोने से पहले अपने आपको जैसे सपने दिखाना चाहते हैं वैसी इंस्ट्रक्शन दें....जैसे आपको पता होता है कि सुबह उठना है तो बिन अलार्म के या अलार्म के बजने से पहले ही आपका अवचेतन आपको (हमें) उठा देता है ...अवचेतन को पता था कि आपने सुबह उठना है सो उसने अपना काम कर दिया ..ऐसे ही अवचेतन को कुछ हद तक सपने दिखाएं जा सकते हैं ..और सपने हमारे चेतन को प्रभावित करते हैं.......आज तक हम यह समझते आएं हैं कि हमारे सपने हमारी जागृत अवस्था से बनते हैं.....यही है आज का मनोविज्ञान..लेकिन मेरा मानना है कि हमारे सपने हमारे चेतन को भी प्रभावित करते हैं, दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं.....यदि नींद से उठते ही सपने कागज़ पर उतार लिए जाएँ तो बहुत से काम के आईडिया मिल सकते हैं, अवचेतन सब समस्याओं का हल खोजता रहता है और सुझाता भी रहता है.....यह है एक तरीका अवचेतन को मालिक से नौकर बना उसका फायदा उठा लेने का. तीसरा हल है कि सोते हुए व्यक्ति पर सम्मोहन प्रयोग लिया जाए. आपने आज तक जिस सम्मोहन को पढ़ा-समझा है, वो जागे व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है, मैं सोये व्यक्ति पर सीधे सम्मोहन प्रयोग की बात कर रहा हूँ.....बहुत मद्धम, बहुत महीन आवाज़ से सोये व्यक्ति को निर्देश दिए जा सकते हैं...........आवाज़ इतनी तेज़ की सोये व्यक्ति को सुन जाए, लेकिन इतनी मद्धम कि वो नींद से उठ भी न जाए....मैंने अपनी बड़ी बेटी जब वो लगभग छः-सात बरस की थी उन दिनों यह प्रयोग बहुत किया था और नतीजे उत्साह-वर्धक थे....यह प्रयोग इंसानियत के लिए खतरनाक है....इंसान को पहले ही रोबोट बनाया जाता है.....इस विधि का शैतानी लोग प्रयोग कर इन्सान को और जल्दी रोबोट बनाने में सफल हो सकते हैं.....मैंने बहुत सोचा, लेकिन आज लगा कि हर ज्ञान इंसानियत का अच्छा बुरा दोनों कर सकता है......यदि यह विधि विध्वंसक लोगों के हाथ पड़ेगी तो विधायक लोगों के हाथ भी पड़ेगी और मेरा बहुत यकीन है कि अब इंसानियत के पास इन्टरनेट जैसा वो अस्त्र है जो बहुत तेज़ी से इंसानियत के अंधेरों को काट देगा. चौथा हल है कि बीच में अवचेतन को दिए गए काम उससे छीन लिए जाएँ.....जैसे आप पार्क में सीधे चलते हैं और सोचते जाते हैं.....अब आप उल्टा चलना शुरू कर दें, आपको पीछे देखते चला होगा, सम्भल कर....आपकी सोच बंद हो जायगी चूँकि अवचेतन को ध्यान की उर्जा मिलनी बंद हो जायेगी.....आप चेतन हो जायेंगे. आप दांत साफ़ करते हैं, मानो सीधे हाथ से और सोचते जाते हैं कुछ भी ....अब उलटे हाथ को यह काम सौंप दें .....तुरत चेतन हो जायेंगे. पांचवां हल है, हर कार्य जागृत हो कर करने का. आप पानी पीते हैं, बस गले में उड़ेल लेते हैं जैसे ड्रम में पानी डालते हैं...खाना खाते हैं ऐसे जैसे गोदाम में माल फेंकते हैं.......इसे बदलें, एक-एक घूँट का स्वाद ले के पीएं...एक-एक कौर का स्वाद ले के धीरे-धीरे खाएं......आज कल एक और बीमारी चली है ...कम समय में ज़्यादा काम करने की....ज़िंदगी छोटी है, और बस एक ही है सो सब झपट लो...झट-पट ....सो भागो हर वक्त, हर काम को जल्दी से निपटा दो.....जिन लक्ष्यों के लिए ये काम किये जा रहे हैं, उनको भी जल्दी निपटा दो........पैसा कमाना है अच्छे भोजन के लिए, अच्छे सम्भोग के लिए....लेकिन उसकी भी जल्दी है सो उसे भी झटाक से, पटाक से निपटाना है.......बेहोशी में ही खा लेना है, बेहोशी में नहा लेना है, बेहोशी में सम्भोग कर लेना है.....सब बस निपटाना है ....सो इस निपटान संस्कृति से थोड़ा बाहर आयें .....भोजन बनाना खाना जो फ़ास्ट हो गया है, उसे स्लो करें....स्वाद लें बनाने का भी और खाने का भी.....Conscious Doer Mode कह सकते हैं चौथे और पांचवे हल को. छठा हल है, साक्षी होना, मिसाल के लिए हम चलते जा रहे हैं और सोचते जा रहे हैं, हम चल रहे हैं अवचेतन मन से और सोच रहे हैं चेतन मन से.....अब हम चाहते हैं कि चेतन हो जाएँ, निश्चित ही हम अपने चेतन को सोच से हटा देते हैं और उसे साक्षी बना देते हैं, उसका रोल thinker से हटा कर Seer बना देते हैं....लेकिन अब यह सोच नहीं पाएगा अब बस यह जो भी कार्य अवचेतन मन से हो रहे हैं उनको देखता जाएगा, इसका खुद का कार्य कुछ भी नहीं है सिवा घटना को देखने के, यह है एक विधि जागृत रहने की, लेकिन यह हर वक्त के लिए नहीं है कदापि. हमें सोचने की भी तो ज़रुरत है न. हमें बहुत से काम चेतन होकर करने की भी तो ज़रुरत रहती है. Seer का मतलब होता है दर्शक, आत्मिक दर्शन करने वाला, अध्यात्मिक. लेकिन आप या तो Thinker हो सकते हैं या Seer या Conscious Doer. आप, यानि आपका चेतन मन एक समय में एक से ज़्यादा नहीं हो सकते. यह पहला नियम हमेशा याद रखें, ध्यान एक वक्त में एक ही जगह लग सकता है. ध्यान मतलब चेतन मन. सो जब भी सम्भव हो गियर बदल सकते हैं. जागृत होने के लिए SEER/ साक्षी बन जाएं लेकिन यह गियर भी तभी बदलना चाहिए जब आप ऐसे काम कर रहे हों जिनमें चेतन मन का उपयोग न हो, जब आपको गहन सोचने की ज़रुरत न हो. मिसाल के लिए आप गहन चिंतन में डूबे हैं, कोई बिज़नस प्लान सोच रहे हैं. बाहर कुत्ता भौंक रहा है, आपको उसका होश ही नहीं रहेगा, आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उसके नीचे गद्दी कितनी नर्म है, कितनी मुलायम, बिलकुल मक्खन लेकिन आपको उसका होश ही नहीं रहेगा. आपका सारा ध्यान, सारा होश, सारा चेतन मन सोच में डूबा है. इस वक्त वो THINKER MODE में है. अब मानो आप सेक्स कर रहे हैं, आप अपने पार्टनर के साथ डूबे हैं, सम्भोग क्रियाओं में. आपको और कुछ भी होश नहीं है. इस वक्त आपका होश, चेतना सब Conscious Doer Mode में हैं, चेतन मन न "विचार प्रक्रिया" में है, न साक्षी स्थिति में, वो अभी "कर्ता प्रक्रिया" में है, भोग में है. अब मानो आप पार्क में अकेले चल रहे हैं, चलना आपका अवचेतन सम्भाले है और आप चेतन से साक्षी हो जाते हैं. चले जा रहे हैं और खुद के प्रति, इर्द गिर्द के प्रति साक्षी हैं. आप SEER MODE में हैं, दार्शनिक/साक्षी स्थिति में हैं. जहाँ तक मेरा तज़ुर्बा है Thinker Mode तो चलता ही रहता है अपने आप उसके लिए तो कुछ करना ही नहीं होता, Conscious Doer Mode में कोशिश करते रहना चाहिए कि बीच-बीच में आते रहें, उलटे हाथ से लिखना शुरू कर दीजिये, यदि बाल्टी से नहाते हैं तो शावर से नहा लें, यदि चावल खाते आ रहे हैं तो रोटी खाएं, यदि नमकीन खाते हैं तो मीठा खा लें....हम करते भी हैं ऐसा, एक ही स्वाद, चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो, बेस्वाद लगने लगता है जल्द ही, वो तरीका है कुदरत का हमें बताने का कि जाग जाओ, बोरियत तरीका है हमें बताने का कि जागो, स्वाद बदलो, दृश्य बदलो. मेरी समझ से साक्षी होने की प्रक्रिया बेहद साधारण कार्यो में ही प्रयोग की जानी चाहिए. जैसे पार्क में चलते हुए, लेकिन भीड़ भरी सड़क पर कार चलाते हुए नहीं. साक्षी होना बहुत सेफ स्थितियों में, निरापद स्थितियों में ही प्रयोग किया जाना चाहिए. और पहले जो विधियाँ सम्मोहन और आत्म सम्मोहन से जुड़ी लिखी हैं मैंने, उनका प्रयोग कर खुद को कब कब चेतन रहना है उसका निर्देश दे सकते हैं अब मेरी समझ यह है कि हर वक्त जाग्रत रहने का, हर कार्य जागृत रह कर करने का आग्रह गलत है......इस आग्रह को मानने का मतलब यह है कि हम अवचेतन को कोई भी काम सौंपने को तैयार नहीं हैं.....तब आप चलते हुए कोई ज़रूरी फ़ोन कैसे अटेंड कर सकते है? नहीं बस चलते जाएं और चलने पर ही ध्यान रखें......नहीं, यह कतई व्यवहारिक नहीं है....यह बेतुका है. जागृत रहने का मतलब यही है कि हम पर सदैव के लिए अवचेतन कब्ज़ा न कर ले, हम अवचेतन के शिकार न हो जाएं, उसके लिए यदा-कदा, यथा सम्भव जागृत हो जाएं, और जागृत होना सप्रयास होता है, अन्यथा अवचेतन रहना तो अपने आप चलता ही रहता इसीलिए जागृत होने पर जोर दिया जाता है. और बुद्ध होने का मतलब मेरी समझ से यही है कि एक बुद्ध अपने अवचेतन और चेतन को अपने हिसाब से निर्देश दे सकता है.....जैसे हम सोते हैं तो हमारा चेतन सोता है लेकिन अवचेतन जागता रहता है, सपने बुनता है.....एक बुद्ध अवचेतन को भी बंद कर सकता है....बुद्ध अवचेतन का मालिक बन जाता है पूरी तरह से तभी उसे स्वामी कहा जाता है, साईं कहा जाता है .......उसे अवचेतन एक पूरी तरह से कंट्रोल्ड प्रोग्राम बन जाता है, जिसे अपनी मर्ज़ी से शुरू किया जा सकता हो, चलाया जा सकता हो, बंद किया जा सकता हो, बस मेरी नज़र में बुद्धत्व का इतना ही मतलब है. असल में अक्सर ध्यान ऑब्जेक्टिव होता है यानि इसे कोई न कोई विषय चाहिए...लेकिन विषय-हीन जब हो ध्यान, तो असल में इसे आप आत्मिक अर्थों में ध्यान कह सकते है......मैं इसे आत्मिक अर्थ इसलिए कहा चूँकि आप ध्यान के अलावा कुछ भी नहीं हैं....ध्यान ही जीवन उर्जा है.........आप विषय-हीन ध्यान दो तरह से कर सकते हैं......एक तो उदासीन हो जाएँ,साक्षी हो जाएं, अपने मनस पटल पर चलने वाले चित्र- चलचित्रों के प्रति ...चलने दीजिये, रस न लीजिये....ध्यान मत दीजिये...जब ध्यान न देंगे तो इन चित्रों को उर्जा न मिलेगी....बिन बिजली के पंखा कितनी देर चलेगा? चलेगा कुछ देर लेकिन फिर बंद हो जायेगा......और अब ध्यान की उर्जा वापिस ध्यान पर ही रहेगी...केंद्र पर ही....उद्गम स्थल पर ही. वैसे आप सीधा भी ध्यान जहाँ से उठ रहा है, वहां ध्यान लगा सकते हैं, यह डायरेक्ट मेथड है.......कभी याद हो बचपन में एका-एक टकटकी बिंध जाना, आंखें खुली की खुली राह जाना.....शायद ही आपको ख्याल हो, यह कुदरती ध्यान में पहुँच जाना है......बड़े होते-होते यह विलुप्त हो जाता है. दोनों ही विधियाँ ठीक हैं. नतीजा दोनों का एक ही है ........विषय-मुक्त ध्यान...सब्जेक्टिव ध्यान.......दृश्य और दर्शक का भेद खत्म....... जितनी देर आप जागृत रहें उत्तम.....आप को पता लगेगा कि शांति होती क्या है, अमन होता क्या है. बेहतर है कि बैठ कर करें, आंख बंद कर करें चूँकि आप शयन मुद्रा में हैं तो यह विधि आपको सुला देगी और मैं अक्सर सोने से पहले यह विधि प्रयोग करता हूँ.....जितना भी तनाव हो कुछ ही समय में छू और मैं इसी विधि के ज़रिये अक्सर दिन में कभी भी आंख बंद कर सो जाता हूँ. यह एक अलग ही अनुभव है, जब तक इस से गुजरेंगे नहीं, आपको पता ही नहीं चलेगा कि आप क्या खोते रहे हैं. ध्यान सर्वोतम दवा है. वो कहते भी हैं,"Meditation is the best Medication". बीमारी आती कैसे है हम तक? बहुत बीमारी तो मन की उपज है. हमने ग़लत जगह ऊर्जा लगाई, ध्यान की ऊर्जा. जैसे आप किसी खराब रेडियो को बिजली दिए जाएँ, वो संगीत न देगा, मात्र शोर देगा, सर दर्द देगा. एक उदहारण देता हूँ. एक बहन हैं मेरी, अच्छे खासे घर में शादी हुई, एक बेटा है कोई उन्नीस साल का. लेकिन अब वो बीमार रहती हैं. खड़े-खड़े गिर जाती हैं. वजह यह है कि वो इस बात का बहुत शोक मनाती हैं कि उनके देवर, जेठ साझे काम में से, बराबर काम में से उनके पति से ज़्यादा पैसा खींच रहे हैं.....बात तो ठीक है उनकी, हक़ की बात है......लेकिन दूसरे हिसाब से देखें उनकी चिंता यह है कि उनको पास छोटी कार है जबकि उनके देवर जेठों के पास बड़ी कार है......उन्हें समझाया मैंने कि आप यह क्यों नहीं देखती कि कितने ही लोग हैं जिनके पास कोई कार ही नहीं है, जो बेकार हैं, जिनको यदि दुनिया की सबसे छोटी कर भी मिल जाए तो मानो स्वर्ग मिल जाए. लेकिन हक़ की बात. हक़ की बात पर तो सारा महाभारत लड़ा गया. वो कैसे छोड़ दें? सो मामला तो पति के हाथ में है सारा. भारतीय समाज. वो कुछ कर नहीं सकती सिवा पति को कहने के. मायका बहुत दखल दे नहीं सकता. सो अंदर-अंदर ही इतनी परेशान हैं कि खुद को बेहद बीमार कर चुकी हैं. मैंने यही समझाया कि आप अपनी उर्जा कहीं और लगाएं. गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ना शुरू कर दें या कुछ भी और करें जो ठीक लगता हो. चूँकि ध्यान एक समय, चेतन मन का ध्यान एक समय एक ही जगह रहता है. देखें कि जिन खुशियों को वो छोटा मान रही हैं. वो गरीब बच्चों के लिए कितनी बड़ी हैं. दवा शुरू की गई है लेकिन दवा कितने दिन असर करेगी, मुझे शंका है. बीमारी तो आमंत्रित की गई है. जब तक व्यक्ति खुद बीमारी छोड़ना न चाहे, बीमारी कैसे छोड़ जायेगी? आप खुद सिग्रेट छोड़ना नहीं चाहते यदि, अपने आप तो सिग्रेट आप को छोड़ के जाने से रही. सम्मोहन की भी सलाह दी मैंने. लेकिन वहां भी यही बात है. सम्मोहन में भी वही निर्देश दिए जा सकते हैं जो वो चाहें. सम्मोहन भी तो उनकी मर्ज़ी के खिलाफ नहीं हो सकता. वैसे यह भी कहते हैं कि सम्मोहन में आप किसी की मर्ज़ी के खिलाफ काम नहीं करवा सकते, वो हर जगह सही नहीं है....आप किसी हिन्दू को सम्मोहित करके हिन्दू के खिलाफ़ कुछ कहने को, करने को कहो, शायद आपको उठ कर थप्पड़ मार दे. लेकिन फिर बहुत से हिन्दू आज भी मुस्लिम बन रहे हैं. यह एक सम्मोहन से दूसरे सम्मोहन में ही तो जाना है. सो हम सारा जीवन ही सम्मोहन में जी रहे होते हैं, हमारा जीवन ही समाज, परिवार, धार्मिक और राजनीतिक नेता डिज़ाइन कर देते हैं. हमें पता ही नहीं लगता कि हम जिस धर्म के लिए जान तक देने को तैयार हो जाते हैं, वो मात्र एक सम्मोहन का नतीजा है, लम्बा सम्मोहन, बचपन से चला आ रहा सम्मोहन. सो मर्ज़ी के खिलाफ कुछ नहीं किया, कराया जा सकता सम्मोहन में ऐसा मैं नहीं मानता. तुरत नहीं किया कराया जा सकता लेकिन लम्बे समय में यह सम्भव है खैर, उनके मामले में सम्मोहन भी घर के किसी व्यक्ति की मौजूदगी में होगा, यह तक मैंने कहा लेकिन मुझे आज 5-6 दिन बाद भी कोई सूचना नहीं मिली कि ऐसा कुछ किया जाए. अब वो कैसे ठीक होंगी? ठीक होना ही नहीं चाहती. मैंने कहा कि आपका हक़ बिलकुल बनता है व्यापार में बराबर का, और बड़ी गाड़ी में घूमने का लेकिन उसके लिए जितना मिल रहा है, उसका भी आनंद क्यों गवा रही हैं और वो भी इस कदर कि खड़ी खड़ी गिर जाती हैं? कभी ज़्यादा नुक्सान भी हो सकता है......यह कहाँ की समझदारी है कि और ज़्यादा के लिए जो है वो भी गवा दो?....कुछ चीज़ें हमारे हाथ में नहीं होतीं.....उनके लिए प्रयास तो किया जा सकता है लेकिन बीमारी मोल नहीं ली जा सकती....और मोल भी कैसा? अपने जीवन का.......खैर, शायद उनको मेरी बात समझ में आए, प्रयास ज़ारी रहेगा, यह आर्टिकल भी पढने को दूंगा, शायद कुछ अच्छा हो जाए. तो इस सन्दर्भ से कहना यह है मित्रवर कि बीमारी तो हमारी ज्यादातर मानसिक होती हैं, शरीर पर तो बस वो प्रकट होती हैं. हमने गलत जगह ध्यान की ऊर्जा लगाई अब वो ऊर्जा शरीर पर बीमारी बन कर फूटती है. जैसे वो बहन बड़ी गाड़ी लेना चाहती हैं, उनका बस चले तो एक सेकंड में ले आयें, नहीं ला पा रही हैं लेकिन ध्यान ने जो ऊर्जा पैदा की वो तो प्रकट होगी, वो बीमारी बन प्रकट होती है. सो ध्यान यदि विषय-हीन हो जाए तो तुरत स्वास्थ्य प्रकट होता है, स्वस्थ शब्द का अर्थ ही स्वयं में स्थित होना है....ध्यान का उद्गम स्थल पर ही रहना....जब ध्यान ही आपका कहीं और नहीं है तो कैसे कोई मानसिक विकार उत्पन्न होगा.....आपने ख़राब TV को बिजली दी ही नहीं,कैसे वो खर्र....खर्र....की आवाजें निकालेगा? मानो आपको किसी चिंता से नींद नहीं आ रही, पहले तो देखें कि आपका अवचेतन आपको कुछ बताना चाह रहा है, आप इस चिंता को नज़र अंदाज़ न करें. इसका सामना करें. इस विषय पर गहनता से सोचें. लेकिन बहुत बार सोचने के बाद भी चिंता घेरे रहती है. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि अवचेतन अनियंत्रित, अबाध काम करता रहता है, अवचेतन एक बिगडैल नौकर है जो मालिक पर हावी होने के प्रयास में लगा रहता है और कामयाब भी रहता है. सो इस चिंता को दूर करने का एक उपाय है कि आप ध्यान करें. जैसे ही आपकी चिंता को ऊर्जा मिलनी बंद हुई वो हट जाएगी...और यदि आप शयन मुद्रा में हैं तो कुछ ही देर में सो भी जायेंगे. सो ध्यान को ठीक से समझें, तो ही फायदा ले सकते हैं, वैसे ही जैसे साइकिल भी आप ठीक से सीखें तभी कोई फायदा ले पायेंगे, वरना गिर-गिर दांत तुडवा लेंगे. वैसे ही आप ध्यान के साथ पंगे लेंगे, बेवकूफियां करेंगे तो पागल हो सकते हैं, ध्यान कोई और नहीं आप स्वयं हैं.....आप का कोर, केंद्र क्या है सिवा ध्यान के? कोशिश कीजिये ढूँढने की. सिवा ध्यान के आप कुछ भी नहीं है, और इस ध्यान पर ध्यान करना ही ध्यान है. सादर नमन........कॉपी राईट........चुराएं न....साँझा करें

आरक्षण/ Reservation

अब वो.....भागवत जी ..शायद कहा उन्होंने कि आरक्षण ठीक है.....अब अपनी समझ से बाहर है यह सब

आरक्षण जितना जल्दी खत्म हो उतना अच्छा....सिर्फ वोट की राजनीति है यह स्टेटमेंट



समाज में जब भी, जहाँ भी असंतुलन होगा, तनाव बढ़ेगा........एक समय था एक हिस्से को शूद्र कह कर उसका जीवन शूद्र कर दिया गया, नरक कर दिया गया
फिर आरक्षण ला कर समाज में असंतुलन पैदा किया गया, एक हिस्सा जो ज़्यादा कुशल था जब उसे नौकरी छीन कर कम कुशल व्यक्ति को दी जाने लगी तो फिर से तनाव पैदा हो गया.
आज दोनों वर्गों की पीड़ा सच्ची है, आप बात छेड़ लो आरक्षण की, दोनों तरफ से तलवारे खिच जायेंगी
और दोनों अपनी जगह सही हैं
जिसे शूद्र कह कर दलन किया गया वो भी अपनी पीड़ा के प्रति सच्चा है
जिससे काबिल होते हुए रोज़गार छीना गया, वो भी सच्चा है
हल मैंने दिया है ..जरा गौर फरमाएं------


!!!!! आरक्षण, हां, न, या फिर कुछ और , मेरा नज़रिया !!!!!

हम पंजाब से हैं, बठिंडा..........मैं छोटा था......हमारे घर में पाखाना छत पर था.....खुला...बस चारदीवारी थी........हमारा मैला उठाने औरत आया करती थी...जो सर पर टोकरी में ले जाती थी हमारी टट्टी....उन्हें हरिजन कहते थे..उनकी बस्ती शहर से बाहर हुआ करती थी.......और हमारे घरों में उनको चूड़ा कहा जाता था......एक अजीब तरह की हिकारत , नफ़रत के साथ उनका ज़िक्र होता था....और अक्सर कहा जाता था कि नीच नीच ही रहते हैं.......नीच अपनी जात दिखा ही देते हैं......और एक बात बता दूं अब मैं दिल्ली में रहता हूँ...यहाँ भी मादीपुर जे जे कॉलोनी लगती है पास में......यहाँ भी एक ब्लाक चूड़ों का कहा जाता है...और सीवर, नाली साफ़ करने वाले यहीं से आते हैं.....मैंने नहीं देखा कि कोई शर्मा जी, त्रिपाठी जी, कोई अरोड़ा जी, कोई अग्रवाल जी सीवर साफ़ करते हों........ब्रह्मण हमारे घरों से रोटी लेने आता था और जमादार टट्टी.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का


अब सवाल है कि आज आरक्षण दिया जाये या नहीं.........मेरा मानना है कि  हिन्दू समाज ने अपने एक अंग को मात्र सेवा लेने के लिए अनपढ़ रखा....उसका उपयोग, दुरूपयोग किया.......लेकिन क्या समाज ने ऐसा सिर्फ शुद्र के साथ किया......नहीं, स्त्री के साथ भी ऐसा ही किया...तभी तो तुलसी बाबा ने कहा...ढोर गवार सूद्र पसु नारी.........सब ताडन के अधिकारी........समाज ने हरेक कमज़ोर के साथ ऐसा ही किया...उसे दबाया...उसका प्रयोग किया.....तो कहना यह है कि जो गरीब है वो भी समाज का ही बनाया है.....पूंजीवाद का बनाया है.....पीढी पीढी दर पूंजी के transfer सिस्टम का बनाया है........



आज नौकरी में आरक्षण का कोई मतलब नहीं है.....सरकारी नौकरी वैसे ही खत्म होती जा रही है...आप कहाँ तक दोगे किसी को नौकरी ........उससे भी बेहतर आप्शन दिया है मैंने IPP में.....पूंजी के आरक्षण को खत्म करने का......आप जितना मर्ज़ी कमाओ, जितना मर्ज़ी जमा करो...आपकी अगली पीढी को पांच करोड़ से ज़्यादा ट्रान्सफर नहीं होगा....बाक़ी पैसा आपको सामाजिक कामों में लगाना होगा..

हम पूरे समाज में ही गरीबी अमीरी का फासला क्यों न कम करें........मैं किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ हूँ........हाँ, कमज़ोर वर्ग को हर तरह की सुविधा के पक्ष में हूँ......शिक्षा , स्वास्थ्य हर तरह से...वो भी हर गरीब को...

अरे, भाई, एक कहावत है, गरीब की जोरू. हरेक की भाभी........गरीब तो वैसे ही शुद्र होता है...चाहे वो..किसी भी जात का हो

और गरीब वो है समाज की वजह से...वरना एक डॉक्टर क्यों करोड़ो कमाए और एक मोची क्यों बस कुछ सौ...किस ने बनाया यह सब सिस्टम....समाज ने......क्या समाज को नाली, सीवर साफ़ करने वाले की ज़रुरत नहीं...ज़रा, चंद दिन ये लोग, जिनको नाली साफ़ कराने के काम में लगाया जाता है...चंद दिन यदि काम बंद कर दें...सबकी अक्ल ठिकाने आ जायेगी......फिर लाखों देकर भी सीवर साफ़ कराया जाएगा

मेरा ख्याल है कि जो हो गया ..हो गया......अब कोई फ़ायदा नहीं कि हम झगड़ते रहें.....और यह इस तरह का आरक्षण भी बंद होना चाहिए...नौकरी......सरकारी नौकरी तो वैसे भी सब CCTV तले होनी चाहिए....सरकारी नौकर को जमाता जैसा नहीं, एक नौकर जैसा ही ट्रीटमेंट मिलना चाहिए...हाँ नौकर को बेहतर ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, वो एक दीगर बात है

और उसकी तनख्वाह भी अनाप शनाप नहीं होनी चाहिए.....बाहर इनको पांच हजार की जॉब न मिले जो पचास हज्जार ले रहे हैं

यह सब तो वैसे भी खत्म हों चाहिए......अब हमें समाज के ताने बाने पर फिर से, पूरी तरह नये सिरे से सोचना चाहिए....

बहुत सुझाव दिए हैं मैंने IPP एजेंडा में...ठीक से पढेंगे तो सब समझ आएगा

और मेरा सुझाव है..मैंने लिखा है IPP एजेंडा में कि डर्टी जॉब्स, पूरे समाज को रोटरी सिस्टम से करनी चाहिए....क्यों कोई ज़िम्मा ले किसी का........हम ऐसा समाज क्यों नहीं बना सकते कि आपके धन से खरीद शक्ति को सीमित क्र दिया जाए...आप जितने मर्ज़ी अमीर होते रहें..लेकिन.....आप अपने लिए एक सफाई वाला नहीं खरीद सकते....आपको अपने हिस्से की डर्टी जॉब खुद करनी ही होगी..इस तरह से कुछ

पुराने दर्दों का नया इलाज दे रहा हूँ.......प्रयोग करने से ही पता लगेगा कि कितना कारगर है....मुझे लगता है कि जैसे हम किसी आविष्कार को बड़े पैमाने पर प्रयोग करने से पहले टेस्ट करते हैं छोटे लेवल पर...वैसा ही समाज के साथ भी किया जा सकता है......मेरे सुझाव हो सकें तो छोटे लेवल पर प्रयोग किये जाएँ

बच्चों का पैदा करने का...संख्या भी व्यक्तिगत नहीं होनी चाहिए...वरना पैदा करते रहेंगे बच्चे और फिर सब सुविधा मांगेंगे......पैदा तुम करो, भरे हम.....यह बिलकुल समझ नहीं आएगा ...और बेचारे बच्चे का क्या कसूर...वो क्यों गरीब......

बच्चे पैदा करने की राशनिंग होनी चाहिए, प्लानिंग होनी चाहिए.........सामूहिक लेवल पर.....एक निश्चित भोगोलिक क्षेत्र कितने बच्चे आसानी से अफ्फोर्ड कर सकता है, बस उतने ही बच्चे पैदा होने चाहिए.........और एक जोड़े को हो सके तो एक से ज़्यादा बच्चे का अधिकार न दिया जाए....और हो सके तो बच्चे सामूहिक हों न कि व्यक्तिगत.......

बहुत कुछ प्रयोग करने लायक है

समाज का एक बड़ा हिस्सा बहुत गरीब है...पूंजी मात्र थोड़े से , चंद लोगों के पास है...........जीवन का स्वर्ग बस चंद लोगों के हिस्से है और नर्क लगभग पूरी मानवता के हिस्से......

इलाज आरक्षण नहीं है....कुछ और सोचना होगा....


और पूरे सामाजिक ताने बाने को फिर से देखना होगा.......पुराने दर्दों के नए इलाज खोजने होंगे...प्रयोग करने होंगे....तभी कोई रस्ता निकलेगा.......आप अपने सुझाव दे सकते हैं

यह आर्टिकल आदर्श पराशर , दिनेश कुमार और अम्बरीश जी की गरमा गरम बहस में मेरे शुमार से निकला है सो उन्ही को समर्पित है

कॉपी राईट है, चुराएं न, शेयर करें जितना मर्ज़ी


!!!आरक्षण, और और पहलु !!! 

संतुलन के लिए डर्टी जॉब्स सबको मिलजुल कर करनी चाहिए.....और वो सभी को करनी अनिवार्य होनी चाहिए....गरीब आमिर का सवाल नहीं........

बड़े पूंजीपति की व्यक्तिगत पूंजी का पीढी दर पीढी ट्रान्सफर सीमित होनी चाहिए चाहिए......

अब सवाल यह है कि इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि बच्चे पैदा करना भी सीमित होना चाहिए......गरीब आमिर का सवाल नहीं...बच्चा पैदा करने का फैसला व्यक्तिगत कैसे हो सकता है जब आप सारी ज़िम्मेदारी सरकार पर थोपते हैं....जब आप शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा हर चीज़ सरकार से मांगते हैं तो फिर बच्चे पैदा करने का हक़ भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर क्यों न हो.....वो हक़ कैसे व्यक्तिगत हो सकता है....वरना बच्चे पैदा कोई करता रहे और फिर सरकार से, समाज से हर तरह की सुविधा की आपेक्षा करता रहे...यह कहाँ का न्याय है?

न्याय यह नहीं कि सरकारी नौकरी दी जाए..न्याय यह है कि अच्छा प्रशासन दिया जाए......और आरक्षित नौकरियां.......दामादों जैसी नौकरियां.........पक्की नौकरियां.... क्या अच्छा प्रशासन देंगी......नौकरी तो वैसे ही पक्की नहीं होनी चाहिए..

सरकारी नौकरी को दुधारू गाय भैंस की तरह प्रयोग किया गया है......मोटी तनख्वाह, छुटियाँ ही छुटियाँ......हरामखोरी......और किसी का डर नहीं.....

इस तरह की नौकरी से सिर्फ नौकर का ही भला हो सकता है और किसी का नहीं...समाज का नहीं.......जिसे यह नौकर सेवा दे रहे हैं पब्लिक..उसका नहीं.....यह एक दुश्चक्र है

इससे बाहर आना ज़रूरी है.....मार्किट अपना रास्ता खुद बनाती है...... सरकारी संस्थान पिटने लगे....प्राइवेट क्षेत्र के आगे.....सरकारी पद अपने आप घटने लगे हैं...ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शुरू से ही एप्रोच गलत थी...

नौकरी को नौकरी न मान कर नौकर के जीवन का आरक्षण मान लिया गया

अगर किसी के साथ भी समाज में अन्याय होता है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ.....वो पूरे समाज के ताने बाने को अव्यवस्थित करना है.....अन्याय की भरपाई सम्मान से की जा सकती है....आपसी सौहार्द से की जा सकती है......मुफ्त शिक्षा से की जा सकती है.....मुफ्त स्वस्थ्य सहायता से की जा सकती है......आर्थिक सहायता से की जा सकती है....लेकिन आरक्षण किसी भी हालात में नहीं दिया जाना चाहिए.....




!!!!आरक्षण से भी भयंकर आरक्षण !!!!
भारत में न सिर्फ गलत ढंग से सरकारी नौकरी बांटने की परम्परा है यहाँ तो सांसद तक गलत ढंग से बनाये जाते हैं...सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर, रेखा...अब इनका राजनीति में क्या दखल.....होंगे अच्छे कलाकार, होंगे अच्छे खिलाड़ी..लेकिन सांसद होने के लिए अलग तरह की क्षमता होनी दरकार है.....और यहीं थोड़ा ही बस है यहाँ तो मंत्री पद और प्रधानमंत्री पद तक गलत तरीके से बाँट दिए गए हैं.... मात्र सरकारी नौकरी का ही आरक्षण है क्या.....बहुत तरह के आरक्षण हैं......बहुत भयंकर



!!!आरक्षण, कुछ नए पहलु !!!

अगर किसी के साथ भी समाज में अन्याय होता है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ.....वो पूरे समाज के ताने बाने को अव्यवस्थित करना है.....अन्याय की भरपाई सम्मान से की जा सकती है....आपसी सौहार्द से की जा सकती है......मुफ्त शिक्षा से की जा सकती है.....मुफ्त स्वस्थ्य सहायता से की जा सकती है......आर्थिक सहायता से की जा सकती है....लेकिन आरक्षण किसी भी हालात  में नहीं दिया जाना  चाहिए.....

आज ही पढ़ रहा था कि कोई हरियाणा की महिला शूटर को सरकार ने नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं किया तो वो शिकायत कर रही थीं...अब यह क्या मजाक है....कोई अगर अच्छी शूटर है तो वो कैसे किसी सरकारी नौकरी की हकदार हो गयी....उसे और बहुत तरह से प्रोत्साहन देना चाहिए..लेकिन सरकारी नौकरी देना...क्या बकवास है.....एक शूटिंग मैडल जीतना कैसे उनको उस नौकरी के लिए सर्वश्रेष्ठ कैंडिडेट बनाता है..? एक नौकरी के अलग तरह की शैक्षणिक योग्यता चाहिए होती है.....अलग तरह की कार्यकुशलता चाहिए होती है......और एक अच्छा खिलाड़ी होना...यह अलग तरह की योग्यता है...क्या मेल है दोनों में?

लेकिन कौन समझाये, यहाँ तो सरकारी नौकरी को बस रेवड़ी बांटने जैसा काम मान लिया गया है, बस जिसे मर्ज़ी दे दो......

कोई दंगा पीड़ित है , सरकारी नौकरी दे दो
कोई किसी खेल में मैडल जीत गया, नौकरी दे दो
कोई शुद्र कहा गया सरकारी नौकरी दे दो

जैसे दंगा पीड़ित होना, दलित होना, खेल में मैडल जीतना किसी सरकारी नौकरी विशेष के लिए उचित eligibility हो

यह सब तुरत बंद होना चाहिए, हाँ बड़े पूंजीपति की व्यक्तिगत पूंजी का पीढी दर पीढी ट्रान्सफर  खत्म होना चाहिए......

समाजवाद और पूंजीवाद का सम्मिश्रण


!!आरक्षण, कुछ और पहलु !!! 

कितना ही अन्याय हुआ हो.....लेकिन उस मतलब यह नहीं है कि मुफ्त में सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ ....

सरकारी नौकरी वैसे ही कम होती जा रही हैं और ये सरकारी नौकर बहुत गैर ज़िम्मेदार रहे हैं...यह सब तो वैसे भी नहीं चलाना चाहिए.......समाज के जिस भी हिस्से से कोई अन्याय हुआ है उसे हर सम्भव मदद करनी चाहिए.....लेकिन वो मदद अंधी मदद न हो, यह भी देखना ज़रूरी है.....

उद्धरण अन्याय के और भी बहुत मिल 
जायेंगे......पाकिस्तान बना.....बहुत लोग सब कुछ गवा दिए...

अक्सर दंगे होते हैं, लोगों का सब कुछ लुट, पिट जाता है.....बहुत मदद दी भी जाती है..लेकिन मदद का मतलब यह नहीं की सरकारी नौकरी दी जाए...व्यक्ति काम कर सकता है या नहीं, यह देखा ही न जाए.....और एक ज्यादा सक्षम व्यक्ति को काम न देकर कम सक्षम आदमी को काम दिया जाए.....यह अन्याय उन लोगों के प्रति भी है जो वो सर्विस लेंगे.....पूरे समाज के प्रति अन्याय है....

शुद्र जिनको किया गया...और उसके लिए आंबेडकर ने जो आरक्षण का हल दिया....वो तो शुरू से ही गलत था....है......सरकारी नौकर से रोज़ पाला पड़ता है, क्या हाल करते हैं वो आम पब्लिक का.....पब्लिक को गुलाम समझते हैं.....हरामखोरी, रिश्वतखोरी ही की ज्यदातर ऐसे लोगों ने.....बिलकुल खत्म होना चाहिए यह सब..

समाज में बराबरी का मतलब यह है कि सरकारी तंत्र को निकम्मा कर दो? क्या बकवास है....?

समाज के एक हिस्से से अन्याय हुआ तो सारे समाज के ताने बाने को ख़राब कर दो....यह कोई ढंग नहीं था...न है...

गलत ढंग था....नतीज़ा सामने है....सरकारी तंत्र बर्बाद है.....

सरकारी संस्थान घाटे में हैं

पब्लिक सरकारी आदमी से त्रस्त है, चाहे कोई भी महकमा हो

शुद्र कह के समाज के एक बड़े हिस्से के प्रति अन्याय किया गया, सत्य है, तथ्य है......लेकिन हल सरकारी नौकरी का आरक्षण नहीं है ...

समाज में जब भी, जहाँ भी असंतुलन होगा, तनाव बढ़ेगा........एक समय था एक हिस्से को शूद्र कह कर उसका जीवन शूद्र कर दिया गया, नरक कर दिया गया

फिर आरक्षण ला कर समाज में असंतुलन पैदा किया गया, एक हिस्सा जो ज़्यादा कुशल था जब उसे नौकरी छीन कर कम कुशल व्यक्ति को दी जाने लगी तो फिर से तनाव पैदा हो गया.

आज दोनों वर्गों की पीड़ा सच्ची है, आप बात छेड़ लो आरक्षण की, दोनों तरफ से तलवारे खिच जायेंगी

और दोनों अपनी जगह सही हैं

जिसे शूद्र कह कर दलन किया गया वो भी अपनी पीड़ा के प्रति सच्चा है
जिससे काबिल होते हुए रोज़गार छीना गया, वो भी सच्चा है

हल दिया है मैंने...

https://www.facebook.com/tushar.cosmic/posts/10202445635403620?comment_id=10202457988592442&offset=0&total_comments=33&ref=notif&notif_t=share_comment

अरे, भाई, एक कहावत है, गरीब की जोरू. हरेक की भाभी........गरीब तो वैसे ही शुद्र होता है...चाहे वो..किसी भी जात का हो
चलो अभी बता दो कितने पंडित, कितने क्षत्रिय, कितने वैश्य सीवर साफ़ करते हैं, कूड़ा उठाते हैं...नाली साफ़ करते हैं?.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का

ब्रह्मण हमारे घरों से रोटी लेने आता था और शूद्र टट्टी.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का




CASTE BASED RESERVATION, HOW TO DECREASE OR INCREASE -----

A lot has been and being said against caste based reservation.
Great!
A few points to be considered.

1) A large piece of Hindu community was disgraced labeling Shudras.

These so-called-Shudras had been created just for the sake of serving community for low level dirty kinda jobs.

Hence no education, no brains, no intelligence, no temples,  no spirituality,  no freedom, no life.
A lifeless life.
Below animals.

They were humiliated by labeling low caste, then why they should not be given facilities in the name of low caste?

Such was their pain that they chose to be converted as Buddhists, Muslims or Christian rather living a disgraceful life as Hindus.

2) A lot many people say these days that reservation should be removed, of-course, this should be removed but kindly tell me before that have U ever seen a Pandey ji cleaning the drainage or working in a community dustbin or dying while cleaning a gutter? If yes, then U are right.

3) The simple formula of a balanced society is, dirty jobs should be performed on rotary basis.

One day by Sharma ji, another day by Verma ji, another day by Arora ji, another day by Hora ji, another day by Pawar ji, another day by Talwar ji.
Like that, the whole society should participate.

And these jobs should be highly payable. After-all these are very tough jobs. One of the toughest ones.

Implementation of this system may prove a step-stone in removing reservation.

And if our society is not able to do this then the caste based benefits should be increased instead of decreasing

4) The only thing, I wanna change in the reservation system is reservation in the jobs.

The so-called-Shudras should be given more benefits in education. These students should be given more scholarships, free dresses, free food, free shelter.

But there should be no compromise in quality.

The exams for selection of a candidate should be only the written ones, multiple choice type, no interviews type exams, I mean, selectors should not be able to discriminate, if a candidate clears a particular written exam, he/she be selected, who-so-ever, any caste.

Thus there will be no quality compromise.

But again, I wanna say that so-called-Shudras be given more chances of getting free education and other benefits.

Indian society has oppressed this part of their society for millennium, now is the time to re-pay.

Only within a few decades the Suvarns are burning themselves with anguish  & jealousy.

No, let them understand the pain of the downtrodden, let the society be balanced.

5) And do not think that I am supporting facilities to the so-called Shudras because I must had been born as one, no, I was born in a Sikh family and had been adopted by a Hindu-Sikh family, Khatri, Kshatriya.

I support or oppose issues as per my own understanding.

COPY RIGHT MATTER
TUSHAR COSMIC

NONE HEARS YOUR PRAYERS

"कौवों की दुआ यदि कामयाब होती तो गाँव के सब ढोर कब के मर चुके होते"
दुआ/प्रार्थना आदि से कुछ नहीं होता, समझ लीजिये...
Existence has given us freewill, it is indifferent to us. If it interferes, the free-will not remain free. Hence it is indifferent after providing us Free-will. Whatever we do with this Free-will it is up-to us.

We can make Life a Hell or a Heaven, existence never interferes.
Having said this, I wanna assert that all our prayers are merely for our own mental satisfaction.

None is there above or below to hear any prayers or grant any demands.
You sit in a temples or a Mosque or a Church or anywhere, ho on praising your lord, go on doing whatever exercises, with true or untrue mind, anyway, none is listening, except yourself.

All the talks with any god or goddess or GOD are just monologues.
If all the prayers have been heard and accomplished, the world would have been finished till now.Human Prayers are so much against each other. Just imagine. God is so much compassionate not to hear any prayers and fulfil any demands raised in them.

You may feel that sometimes your prayers have been heard, your wishes fulfilled, but dear ones, that only because of your own efforts. You needed some mental support to face those troubling period, you got that support from your Holy exercises, that is it.

All your prayers and holy exercises are to soothe you,to give you some courage, some confidence to face the troubling period, to let the troubling period pass.


There is a theory, it is quite common sense though, but then every science is a common senses, okay, there is a theory that you cannot concentrate upon more than one subject at a time.So these prayers etc give you an option to let your attention deviate from your troubles and have some peace, some hope so that you may go on attempting for whatever you want in life.That is the hidden psychology. You go on attempting, you get game to play, to deviate your mind from the trouble, you get some way so that the trouble may not trouble you so much and during all this with all your efforts, attempts you succeed some how ,many a times.

And you deduce that your prayers were heard.

And when not heard, you are given a ready-made logic, it was only because of yourself, your heart was not true while praying. And you believe it.

Both ways, you are convinced, convinced that someone hears your prayers.
convinced irrationally.

But do you really want live rationally. It is too dangerous. The whole responsibility falls upon your shoulders. No god, no devil. Only you yourself are responsible. Too much. No? So you choose the simple way. God, gods, goddesses, devils, prayers, this , that and so on.

Actually you do not wanna be free, you wanna live a life of slave, whose every action is decided, manoeuvred by some outside forces. Freedom is too much for you. With freedom comes the responsibility. That responsibility is too heavy for yo. Hence you avoid freedom and seek some thing/someone outside. Hence you easily kneel in front of any Baba, any self proclaimed God any kinda Holy-shit, Baba-shit.

Beware. Be aware. Choose freedom. Choose responsibility. Get rid of all kinda shit, be it holy or unholy.

Love you all sans your shit.

रिश्तेदारियां


आज मैं निश्चित ही परिवार व्यवस्था के खिलाफ हूँ और भविष्य को परिवार विहीन देखता हूँ या दूसरे शब्दों में "वसुधैव कुटुम्बकम" और "विश्व बंधुत्व" की धारणाओं को साकार हुआ जाता देखता हूँ

असल में "वसुधैव कुटुम्बकम" और "विश्व बंधुत्व" जैसी धारणाएं और परिवार व्यवस्था दोनों विपरीत हैं, जब तक परिवार रहेंगे तब तक विश्व एक नहीं होगा....कभी आपने सोचा हो कि दुनिया में जितनी भी दीवारें हैं, वो हैं क्यों? आपके और आपके पड़ोसी के बीच दीवार क्यों है? मात्र इसलिए कि वो अलग परिवार है, आप एक अलग परिवार हैं.

लेकिन जब तक यह समझ आया शादी हो चुकी थी.....शादी हुई , तो परिवार बन गया, रिश्तेदारी बढ़ गई...........किसी का जीजा, किसी का फूफा, तो किसी का मासड बन गया

अब रिश्तेदारी हुई तो निभानी भी पड़ती हैं, चयूइंग गम स्वाद हो न हो चबानी भी पड़ती हैं, ढोल हो या ढोलकी, जब गले पड़ गई तो बजानी भी पड़ती है......डिश बेमज़ा हो, बेल्ज्ज़त हो लेकिन खानी भी पड़ती है

मुझे लगता था कि रिश्तेदार मात्र रस्में निभाते हैं...कोई मर गया तो जाना आना होता है....

कोई शादी हो तो शक्ल दिखाना होता है....शगुन दो, खाना खाओ और दफ़ा हो जाओ, फ़िर बरसों तक 'तू कौन मैं कौन'?

कोई मर गया, अफ़सोस प्रकट करो, अफ़सोस हो न हो , लेकिन प्रकट करो....आप शायद ठीक से पहचानते भी न हो, जो मरा है उसे, शायद कोई नशेड़ी भंगेड़ी हो जिसके मरने का खुद उसके घर वालों को कोई अफ़सोस न हो लेकिन आप रिश्तेदार हैं सो अफ़सोस करना होता है, चूँकि रिश्तेदारी पड़ती है सो नकली ही सही, गमज़दा शक्ल बना के दिखाना होता है, सारे जहाँ का दर्द हमारे सीने में है, जीने में है

'मृत्यु क्रिया' पर वक्ता की बकबक सुनना, ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल क्षण...वो आइंस्टीन ने कहीं कहा कि सापेक्षता का सिद्धांत समझना हो तो मान लीजिये कि आप बगीचे में अपनी गर्ल/बॉय फ्रेंड के साथ बैठे हैं, समय उड़ता प्रतीत होगा और यदि आपको गर्म तवे पर बैठा दिया जाए तो समय ठहर सा गया लगेगा....मुझे लगता है कि आइंस्टीन को गर्म तवे की बजाए, किसी की क्रिया पर मन्दिर, गुरूद्वारे में बैठने की मिसाल देनी चाहिए...समय लगता है मानो सरकारी फाइल की गति चल रहा हो, बीत ही नहीं रहा होता, दुनिया नीरस लगने लगती है......लगता है खुद ही मर जाएँ.

खैर, जैसे तैसे निबटाई जाती हैं रिश्तेदारियां, यारियां.

ससुराल यदि पूछेगी भी तो अपनी औलाद की वजह से, दामाद/बहू को कभी कोई गलत फहमी नहीं पालनी चाहिए कि ससुराल से उसका कोई सीधा रिश्ता है...इसलिए अंग्रेज़ी में अच्छे से कहा जाता है..."मदर-इन-लॉ", "ब्रदर-इन-लॉ", "सिस्टर-इन-लॉ".......कोई गलतफहमी न पालें......रिश्ता मात्र कानूनी है.......माँ भी है, बहन भी है , भाई भी लेकिन सब कानूनी.....चूँकि पति पत्नी का रिश्ता बांधा ही जाता है कानून से, सो कानूनी रिश्तेदारियां.......खैर, ससुराल वाले हर दम अपने ही बच्चे की तरफ झुकते हैं, अपने बच्चे की गलती भी हो तो उस पर पर्दा डालेंगे, साथ अपने ही बच्चे का देंगे

और सांडू.... सांडू का रिश्ता....यह तो एक अजीब ही रिश्ता है........एक तरह की अदृश्य दौड़ होती है सांडूयों में.....एक तरह का कम्पटीशन......बहनों बहनों में अक्सर बन जाती है लेकिन सांडूयो में बहुत कम गहरी छनती है.......

हमारे यहाँ साली आधी घरवाली समझी जाती है और गाली भी. अब पता नहीं, आधी घरवाली को कोई गाली कैसे दे सकता है? या पूरी नहीं है, आधी है, पूरी नहीं बनती, आधी बनी रहती है, आधी घर वाली इसीलिए गाली. लेकिन गाली तो साला भी बन चुके हैं. क्यूँ? पत्नी से सम्बन्धित हैं, स्त्री से. पुरुष समाज का वर्चस्व प्रदर्शन. और जीजाजी बहुत सम्माननीय. जिनके आगे भी जी लगता है और पीछे भी. शादी के बाद भी कहीं कहीं तो दीदी जीजी हो जाती हैं लेकिन जीजा दीदा नहीं होते. पुरुष वर्चस्व. अब यह बात दीगर है कि जो जीजा हैं वो किसी के साले भी होते हैं और जो साले हैं वो किसी के जीजा भी. अजीब चक्कर है, कहीं ज़हर तो कहीं शक्कर है

पति के छोटे भाई को देवर कहा जाता है, दूसरे नंबर का वर यानि पति. और देवर भाभी का मज़ाक भी आम बात मानी जाती है. उधर जयेष्ठ जेठ हो चुके हैं, उनका दर्जा पिता समान माना जाता है. माना तो देवर को भी बेटा समान है लेकिन वो देवर भी हो सकते हैं लेकिन जेठ जेवर होते कभी नहीं सुने. वैसे एक फिल्म आई थी बहुत पहले हेमा मालिनी और ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों थे, हेमा मालिनी का पति मर जाता है और देवर ऋषि कपूर के साथ उसकी शादी तय होती है, वो देवर जिसे वो बेटा मानती आई थी. बहुत छोटा था मैं, यह फिल्म गंगानगर में अकेले एक सिनेमा हाल पर देखी थी. एक चादर मैली सी. अस्तु, रंग बदलती पारिवारिक अवस्था की वजह से दोनों आप्शन रखे जाते थे. देवर बेटा भी माना जाता है और वक्त पड़े तो नम्बर दो का वर भी. शायद अब भी प्रासंगिकता हो लेकिन बड़ी ही बेहूदी है.

भाई भाई की कहीं बहुत बनती है, कहीं जायदाद के लिए मुकद्दमे लड़ रहे होते हैं, जिसके पास कब्जा होता है पुश्तैनी प्रॉपर्टी का, वो या तो हिस्सा देना नहीं चाहता, या बराबर नहीं देना चाहता अपने बाकी भाई बहनों को.....मेरा वास्ता रहा है, अभी भी है प्रॉपर्टी के धंधे से.....आपको कोर्ट में कितने ही केस मिल जायेंगे "पार्टीशन सूट".....भाई बहन और उनके उत्तराधिकारियों के बीच....दिल्ली की पुरानी कोठियों में तकरीबन हर ब्लॉक में ऐसा मुकदमा मिल जाएगा, शायद हर गली में

खैर, बहनों से याद आया, भाई लोग बहनों से राखी पर तो बहुत प्रेम दिखायेंगे लेकिन जायदाद में उसे हिस्सा देकर राज़ी ही नहीं होते, या फिर सस्ते में ही निपटा देना चाहते हैं....अगर किसी बहन ने हिम्मत कर भी ली तो उससे राखी तक का रिश्ता तोड़ देते हैं .....

बहनों बहनों में इसलिए ज़्यादा बन जाती है चूँकि जायदाद के मामले में वो लगभग एक ही धरातल पर खड़ी होती हैं सो कोई संघर्ष तो होता नहीं, प्रेम बना रहता है

तमाम विसंगतियां हैं रिश्तेदारियों में, लेकिन फिर भी आज मेरा अनुभव यह है कि रिश्ते बहुत काम आते हैं, रिश्ते हमारी रीढ़ होते हैं, सुख दुःख के साथी होते हैं.......

बीवी का हाथ टूट गया था, ससुराल पास में ही है सो लगभग दो महीने तक कपड़े धोना, खाना पीना सब इंतज़ाम वो ही करते रहे. छोटी बेटी तो रहती ही नानी के घर है.

पीछे किसी काम के लिए धन की वक्ती ज़रुरत थी तो बड़े भाई साहेब (Cousin) ने तुरत मदद की

माँ के कूल्हे की हड्डी टूट गई तो भी सब रिश्तेदार मौजूद रहे, और जो जैसे मदद कर सकता था, की

मेरा नजरिया बदल गया है....
हालांकि मैं ऊपर लिख आया हूँ, मुझे अनेक विसंगतियाँ दीखती हैं रिश्तेदारियों में...बहुत बार जो रिश्तेदार सक्षम है, अच्छे सम्बन्ध होने पर भी मदद नहीं करता .....बहुत बार रिश्तेदारों के व्यवहार बिलकुल नकली लगते हैं

लेकिन इस सब के बावज़ूद आज मेरा तजुर्बा यह है कि रिश्तेदार भी आम इंसान की तरह ही होते हैं (जी हाँ, यह गहरी खोज है ).....यदि हम उनसे सही से पेश आयें....उनके दुःख सुख को समझें और यथासम्भव हल भी करने का प्रयास करें तो वो लोग भी अपनी तरफ से अच्छा व्यवहार पेश करते हैं

मानवीय सम्बन्धों में रिश्तों की डोर का एक भरोसा होता है सो मदद करते हुए रिस्क भी लिया जाता है, वो रिस्क जो किसी अनजान के साथ आसानी से नहीं लिया जाता. आपको यदि अपने किसी भाई, भतीजे की रूपए से मदद करनी हो तो आप कर देते हैं चूँकि परिवार का मामला है, आप उम्मीद करते हैं कि मदद पानी में नहीं जायेगी, यही मदद आप किसी राह जाते व्यक्ति की नहीं करते हैं, उतनी आसानी से तो नहीं करते . अब मेरा मतलब यह नहीं कि राह जाते बंदे की मदद न की जाए, या नहीं की जाती.....मैं एक आम सामाजिक व्यवहार लिख रहा हूँ

मैंने पीछे लिखा था कहीं कि मैंने हसन निसार साहेब को कहते सुना कि इंसान की गहराई नापने का एक पैमाना यह भी है कि उसने अपने पुराने रिश्ते कहाँ तक सम्भाल रखे हैं.

सो मेरा मानना यह है कि हमारे रिश्तेदार इन्सान है हमारी तरह, रोबोट नहीं हैं और इंसानी व्यवहार भावनाओं की वजह से, आर्थिक वजहों से, अवचेतन प्रोग्रामिंग की वजह से बहुत बार अतार्किक हो जाता है, अजीब हो जाता है, संकीर्ण हो जाता है, स्वार्थी हो जाता है, बेतुका हो जाता है लेकिन यदि हसन निसार साहेब का सबक याद रखा जाए तो रिश्तेदारियां, यारियां बेहतर निभाई जा सकती हैं

मैंने पीछे कोई दो साल पहले दीवाली के बहाने अपने कुछ प्यारे मित्रों से फिर से सम्बन्ध स्थापित किये जिनसे बहुत छोटी छोटी वजहों से रिश्ते खतम कर चुका था

एक दोस्त के यहाँ गया दीवाली लेकर, डरता डरता. कोई छः साल पहले रिश्ता खत्म कर चुका था. फिर एकाएक जैसे अक्ल का बल्ब जला. पहुँच गया. दरवाज़े तक दिमाग में रस्साकशी चलती रही. कहीं पहचानने से इनकार न कर दें. कहीं पुराने गिले शिकवे न निकाल बैठें. कहीं छूटते ही माहौल गर्म न हो जाए. कहीं धक्के मार खदेड़ न दें. और भी पता नहीं क्या क्या .......

जैसे ही दरवाज़ा खुला भाभी सकपका गई लेकिन कुछ ही क्षणों बाद मुस्कराने लगी. अंदर बुलाया, और बस छः सालों का अंतराल चंद मिनटों में ही काफूर हो गया

और एक दोस्त हैं, उन चंद लोगों में से जो मुझे 'तू' करके बुलाते हैं.......एक बार एक छोटा सा फंक्शन कर रहे थे, शायद उसने पहले से दारु पी रखी थी. कुछ बोला, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कि बुरा माना जाए. मेरा ही दिमाग खराब था. उसे डांट कर भगा दिया. फिर शायद दो साल बीत गए. मेरी अक्ल का बल्ब जगा. पहुँच गया उसके दरवाज़े पर. माफी माँगी उससे. परिवार के सामने मैंने उससे बेहूदगी की थी, सो माफी भी सपरिवार माँगी, उसके परिवार के सामने माँगी. अब रिश्ता पहले जैसा है

एक Cousin हैं , आगे उनका बड़ा परिवार है, मुझ से बड़े हैं उम्र में काफी. उनके बच्चे लगभग मेरे और पत्नी की उम्र के. हमें लगता कि वो हमें अपने फंक्शन में बुलाते तो हैं लेकिन ठीक से व्यवहार नहीं करते. इंतज़ार करते हैं कि हम पहले बुलाएं, नमस्कार करें तो ही आगे से जवाब देंगे. एक बार तो हम उनका एक जन्मदिन का प्रोग्राम बीच में छोड़ आए. खैर, रूठना मनाना चलता रहा. आज मैं समझता हूँ कि उनकी छुट-पुट गलतियाँ तो थीं लेकिन गहरे में कहीं कुछ बहुत नेगेटिव था नहीं. शायद हम भी बहुत ध्यान दे रहे थे कि कौन पहले नमस्ते कर रहा है, शायद हम बहुत छोटी चीज़ों पर ध्यान दे रहे थे. वो मुद्दे होते हुए भी बड़े मुद्दे नहीं थे. आज सम्बन्ध बहुत मधुर हैं.

खैर, निष्कर्ष यह है कि हमारे समाज का ताना बाना ऐसा है कि हमारी रिश्तेदारियों में तमाम तामझाम हैं. रिश्ते बनते बिगड़ते रहते हैं, लेकिन बिगड़ जाएं तो फिर से बना लीजिये और रहीम को गलत साबित कीजिये कि प्रेम की डोर टूट जाए तो फिर नहीं जुडती, जुड़ जाए तो पहले जैसी नहीं रहती.... मैं अपने जीवन में इसे गलत साबित होते देख रहा हूँ, आप भी देख सकते हैं.

रिश्ते बनाना और बनाए रखना इसलिए ज़रूरी है कि रिश्ते हमारी भावनात्मक, बौद्धिक और आर्थिक रीढ़ होते हैं, एक दूजे की ऊर्जा होते हैं, एक दूजे की जान होते हैं, एक दूजे का प्राण होते हैं

मित्रवर, जो कुछ भी मैंने लिखा है, वो मेरी एक आम धारणा है, गणना है. हो सकता है किसी की अपने सांडू से बहुत अच्छी पटती हो, हो सकता किसी की अपनी बहन से बिलकुल न जमती हो, हो सकता है किसी की सासू माँ सगी माँ से भी ज़्यादा प्यार करती हों और यदि अपने बच्चे की गलती हो तो उसका साथ न दे कर अपनी बहू या दामाद का साथ देती हों, हो सकता है आपकी दोस्त या रिश्तेदार जिनसे आपकी बिगड़ी हो वो बिगड़ी आपको आज भी बनाने के काबिल ही न लगती हो. और आप को बनाने के काबिल लगती हो तो सामने वाले को न लगती हो. आप बिगड़ी बनाने जाएं भी तो और बिगड़ जाए. अपार सम्भावनाएं हैं.

हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. आप आप हैं और मैं मैं. असल में हम सब मैं मैं हूँ, हैं.

सो निश्चित तौर पर तो आप ही बेहतर अपनी स्थितियों को समझ सकते हैं, ज़रूरी नहीं कि समझते ही हों लेकिन समझ सकते हैं

हो सकता है मैं सही होऊं, हो सकता न होऊं, आप आमंत्रित हैं अपने तजुर्बे और विचारों को पेश करने के लिए.

सादर नमन, कॉपी राईट, चुराएं न, सांझा करें

Thursday, 18 June 2015

MLM (MULTI LEVEL MARKETING) /MULTI LEVEL CHEATING

You must have heard that every time Ram used to cut Ravan’s head, it got joined to his torso. 

Every time Bheem tore Jarasandha’s body into two pieces by pulling his legs apart, the body got joined.

The villain of the Terminator movie used to take new shapes even after being destroyed almost completely.

Multi level Marketing companies too come again and again to loot you of money and confidence. They come with new names and faces. Ponzi Schemes, Pyramid Schemes, Multi level marketing or Network marketing, many names, many faces .

No Company can take public funds without appropriate permission of RBI or SEBI. But MLM companies do indulge in collecting Public Funds dodging RBI and SEBI guidelines

They sell their products at highly overprices & they accept it also. That's why they call their income distribution plans as "compensation plans" also.

When they sell their products worth Rs. 400/- at Rs. 1200/- that means Rs. 800/- is taken as public fund and this fund is taken with a promise of future income, which will be derived again illegally from future victims. Irony is victim are used to victimize new people. All given a false financial heaven.

A live show of illegal and immoral use of OPT & OPM (Other people's money & other people's time).

They say that they are distributing the cost of advertisement to the consumers, but this is not true, they already overcharge claiming that their products are far better than the established brands, somethings out of this world, owned by them only.

Why MLM companies are avoiding MLM word these days? Why they started calling themselves "Network marketing companies"? Why an MLM person who calls you is reluctant to tell you that he is inviting you to a MLM meeting? Because they know that MLM word has earned a bad name.

Why an MLM person is adamant to take you to some high profile place arranged by the MLM company? Because they want to loot you under a psychological pressure.

And beware when they invite you to attend an "Educational Program"? These educational programs are just like the one made by lord Macaulay for producing clerk. This educational system is developed for selling MLM companies' products. And the irony is even these 'Educational Programs' are not free of cost, they too are sold.

One man advertised that he is ready to tell everyone a formula to earn easy money @ Rs. 1000/-. Many people sent him the desired amount, he sent a single sentence to all of them, "Do the same, what I have done with you, I have earned my money, you too can and my scheme is no cheating, because my earning from you is a legal proof that my scheme is a successful one."

One man advertised that he needed an employee but only two time's food would be given as a salary. As there is much starvation in India, many approached the advertiser. The one who got employed, was given a duty to visit different Gurudwaras of the city daily, eat for himself and bring the food for the employer.

One man had hanged a NEON SIGN BOARD over the front of his shop, "Sure shot cure for Cancer, Diabetes, blood & AIDS. Fees Rs.1500/- only , money back Guarantee if not benefited."
A lot many people visited him and paid but none got cured. All started rushing back to get the money back.
But the Great doctor, declined the money back, showing the board and explaining the written words,"See, the board says that the money will be back if not benefited, it did never say that money will be backed if you, the payer, will not be benefited. You did not get benefited but I did, hence no money back is due.”

Does this mean that I am against MLM? No. MLM can be a great tool of marketing if, used ideally, with honesty. If some concrete product or service is sold through it, not merely some get-rich-scheme, not castles built in the air.

Uncle chips sells air but some chips also. But many MLM companies sell only the air.

If an MLM company has some genuine product to sell and if the product is sold on a competitive price, not over priced in the name of some exclusivity of the product, available with the company only, it may considered a fair play.

But sadly there is almost no company who is using this tool honestly.

Only a few days back Amway (one of the pioneer MLM companies) people were arrested by Kerala Police for malpractices. RBI too has shown its worry regarding mal-practices of MLM companies.

I have seen, misuse of MLM in educational field also. "Landmark Education Forum", a well-established Life Coaching Company uses MLM for promoting their business. They call the learners to call their relatives and friends in a very tricky manner, and influence these freshly invited visitors to join their program and this system goes on and on. Landmark does not use traditional advertisement and why should they do, when they have this cheap way. And why I call it cheap, only because Landmark Education uses Mass Hypnosis. After exhaustive training of 4-5 days, people become very much vulnerable, they behave like robots. Various reasons are given to them to invite their near and dear to the program, so that the benefit which they got may be availed by the new invitees also.
There is nothing wrong in calling the new people, the only things bad are, using shrewdness, turning the learners into robots secretly & using MLM in a very cunning manner, something very dangerous.

The MLM technique is yet to be harnessed, meanwhile be aware, never get duped.

Your friendly neighborhood, Tushar Cosmic.

Amen

PORNOGRAPHY

PORNOGRAPHY, A REDEFINITION

Let us define what is porn......generally if male female found in sexual conditions might be assumed crude, rude, horn or porn.

But I think it is quite natural, nature, pure nature, nature at its best.

Porn is killing some innocent.
Porn is looting some honest people.
Penetrating a body with a tongue or a penis is not porn.
Porn is penetrating with daggers or bullets

PORN

There is nothing wrong in it. As one can learn things watching videos at YouTube, one can learn similarly from Pornhub. Nothing wrong.

The only thing to be taken care of is SEX is not physiology alone, not merely physical motions, it is also emotions.

And you see, only a few years back, a film actress's career used to get dim as she got married.

Now even a porn star like Sunny Leone is getting the lead roles in Hindi Cinema.

Society is changing.
Society has started taking sex somewhat easily.
But baby steps.
Giant steps still needed.

फेसबुकिंग

यद्यपि आपने बुकिंग नहीं कराई, तथापि यह फेसबुकिंग आपके लिए उपस्थित है--

(1) क्यों न हम अपनी पोस्ट के साथ अपना बैंक अकाउंट नंबर दें और अपील करें कि जिनको भी हमारी पोस्ट पसंद आयी हो, वो हमारे अकाउंट में कुछ भी पैसे डालें, ऐसा वो मोबाइल फ़ोन से अपने कॉल बैलेंस से भी कर सकते हैं, "गूगल वालेट" करके एक सर्विस है गूगल की उसमें पैसे डाल सकते हैं...........सच बताएं, कैसा है आईडिया

हर पोस्ट के साथ, गूगल वॉलेट की जानकारी, लिंक सहित दी जा सकती है....वो वैसे भी काम की चीज़ है

चाहे जतना भी हो सहयोग राशी दी जाए, नो मिनिमम लिमिट

और पोस्ट को फेसबुक तक ही क्यों सीमित रखना, पूरा इन्टरनेट मौजूद है, जहाँ मर्ज़ी हो पोस्ट डाली जा सकती हैं.......कॉपीराइट रखने के लिए हर पोस्ट, हर कमेंट को साथ साथ अपनी वेबसाइट, ब्लॉग पर डाला जा सकता है........यह सब अब न तो महंगा है और न ही मुश्किल

मेरा मानना यह है कि बहुत लोग हमारे जेन्युइन प्रयास को समझ भी सकते हैं, हमारी मंशा, हमारे विचार से सहमत भी हो सकते हैं, और समझ सकते हैं कि धन की आवश्यकता सभी को होती है सो हम कोई अनर्गल बात नहीं कह रहे

विशुद्ध व्यक्तिगत डिमांड...आप यूँ समझिये विकिपीडिया जैसे डोनेशन मांगता है.....भाई पैसे नहीं होंगे तो कब तक चलेगा...ठीक वैसे ही...हम लोग दिन रात खपते हैं.....समाजिक विषयों पर लिखते हैं....ठीक है, अपनी इच्छा से लिखते हैं..लेकिन पैसे भी मिल सकें तो और ज़्यादा समय दे सकते हैं और उत्साह से लिख सकते हैं

(2) जिस प्रकार वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती, ठीक उसी प्रकार फेसबुक पे दूसरों को नसीहत देने वाले खुद कभी उस पर अमल नहीं करते

फिर भी इन्सनियात लम्बी अंधेरी गुफा से निकल रही है.........यह जो फेसबुक और whatsapp हैं न.....अभी शायद इसकी अहमियत भविष्य ही आंकेगा....यही है जो दुनिया बदलेगा

(3) ह्म्म्म............तो आप राजनैतिक पार्टी विशेष के भोंपू हो?...नहीं, नहीं....अपने को क्या....वो तो ऐसे ही पूछ रहे थे अपुन .....वैसे फेसबुक का बेस्ट प्रयोग तो आप ही करते हैं....जी, बिलकुल .....अब जब कोई सुविधा हो तो सदुपयोग तो होना ही चाहिए ....बिलकुल......जय हो

महान हस्तियाँ खुद को प्रमोट करने को फेसबुक पेज चलाती हैं, और मित्रवर वहां अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर आते हैं खुद को प्रमोट करने को ....सदुपयोग......फ्रेंड्स विद बेनिफिट

(4) फेसबुक मित्रता मात्र एक सम्भावना है मित्रता की.....सो बहुत सावधान रहें, ख़ास करके शुरू में....सावधानी हटी और ब्लॉकिंग घटी

 (5) फेसबुक मित्रता मात्र मौका है एक दूजे के विचारों को समझने का, यदि कोई लिस्ट में आ गया और उसके बाद निष्क्रिय रहता है किसी को ख्वाब नहीं आ जाएगा कि वो पढ़ रहा है या नहीं....... निष्क्रिय लोगों का सीधा सीधा मतलब यह है वो लोग हमारे विचारों में कुछ ख़ास उत्सुक नहीं हैं....विदा कर देना चाहिए....इसमें कोई भी नाराज़गी की बात ही नहीं......वो अपने रास्ते हम अपने रास्ते.....विदा मात्र इसलिए किया जा रहा है कि वो लोग हमारी लिस्ट में होते भी न होने जैसे थे...इसमें काहे कि नाराज़गी?

(6) हरेक का फेसबुक अकाउंट उसका घर है और किसी के घर में गंद डालने का कोई हक़ नहीं किसी को ......इसीलिए फेसबुक ने ब्लाक करने का प्रावधान दिया है...

(7) मेरी बला से....
हम तो फेंके गए पत्थरों से घर की दीवाल बना लेते हैं,
फेसबुक की दीवाल सजा लेते हैं,
एक और पोस्ट बना लेते हैं

(8) मुद्दे को पटरी से उतारने का प्रयास किया जाता है, भटकाने, भरमाने का प्रयास किया जाता है......

व्यक्तिगत आक्रमण किये जाते हैं, बहस को विचारगत से व्यक्तिगत किया जाता है
उससे भी काम न चलता दीखे तो फिर गाली गलौच आखिरी हथियार

वैसे इन सबसे बचने का आसान तरीका है.......एक आध बार समझाओ...वैसे समझना होता नहीं किसी ने, फिर भी प्रयास ज़रूर करो....न समझे तो विदा करो.....बेहतर है ब्लॉक करो...क्या चक्कर में पड़ना अमित्र करने के...ब्लोकास्त्र सर्वोतम है...न बचेगा बांस, न बजेगी बांसुरी

(9) मुफ्त की चीज़ हज़म नहीं होती, ज़िंदगी के तजुर्बे बताओ, बताओ कि आप वो गलतियाँ न करें, जो हमने करी हैं.......बताओ कि समाज की कुछ बेहतरी हो सके. पहले लिखने में समय लगाओ, फिर कमेंट के जवाब देने में समय लगाओ और जनाब/ मोहतरमा ऐसे पेश आते हैं जैसे हम पर अहसान कर रहे हैं, गले आ आ पड़ेंगे...अरे, आप से कोई पैसे ले लिए क्या फेसबुक पर अपना लेखन पढवाने के?  जिसे समझना हो, उसे एक आध बार में बात समझ आ जाती है, न समझना हो तो मैराथन बहस कर लो तो न समझ आये. नहीं जमता तो लिस्ट में ही मत रहो, यदि फिर भी रहना है और ऐसी ही हरकते करनी हैं तो ध्यान रहे यहाँ भी ब्लोकास्त्र तैयार है

(10) टैगिंग से अक्सर परेशान रहते हैं मित्रवर, टैगासुर कहा जाता है टैग करने वालों को.
लेकिन मैं फिर भी टैग करता हूँ.... करता बहुत कम लोगों को हूँ....चुनिन्दा...और वो भी सॉफ्ट टैग...बस एक सूचना जाती है ... timeline पर नहीं आता कभी कुछ....अब फिर भी मुझे कोई कहे कि टैग क्यों किया तो मैं उसे लिस्ट से बाहर कर देता हूँ.....जो मुझे नहीं पढना चाहता न सही......जाने देना चाहिए बशर्ते कि मैं खुद बहुत उत्सुक न होवूं उसे पढने में.....लोग इसलिए लिस्ट से बाहर करते हैं कि टैग क्यों किया, मैं इसलिए कर देता हूँ कि टैग से इन्कार क्यों किया. उन्हें इनकार का हक़ है, मुझे विदा करने का हक़ है.

(11) !!!!!निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए----बकवास!!!!!!

निंदक सिर्फ निंदा ही करता रहेगा, जोंक की तरह व्यक्ति के उत्साह को चूस जाएगा, ऐसे व्यक्ति को ब्लाक कर देना चाहिए..चाहे फेसबुक हो चाहे जीवन

हाँ, आलोचक का स्वागत होना चाहिए, आलोचक, जिसके पास लोचन, यानि बुद्धि की आँखें हैं...जो अच्छा बुरा देख समझ सकता है .....और जो अच्छे पर उत्साह बढाता भी है, ताली भी बजाता है और गलत दिखने पर गलती भी समझाता है...

इसे समझने के लिए आसान मिसाल हाज़िर है, क्या आप हमेशा अपनी माँ, या बीवी के हाथ के बने खाने में कमियां ही निकालते हैं या अच्छा बना हो तो प्रशंसा भी करते हैं?
उम्मीद है समझ गए होंगे, इससे आसान मिसाल अभी तो मुझे नहीं मिल रही

(12) मेरे फेसबुकिया नियम----

a) फेसबुक की दुनिया में बहुत प्यारे प्यारे और जहीन लोग हैं लेकिन जाहिल उससे कहीं ज्यादा हैं सो कुछ नियम हैं मेरे, अपने सब नये पुराने और आने वाले मित्रों के लिए, मुलाहिज़ा फरमाएं. जमे तो ही मेरे साथ रहें

b) ऐसे ऐसे ढीठ भरे पड़े हैं फेसबुक की दुनिया में....मेरे अकाउंट में हैं ऐसे मित्र (?), जिन्होंने न कभी कोई लाइक दिया, न कोई कमेंट, लेकिन डुबकी मार मार मेरे दो दो साल पुराने स्टेटस चोरी कर रहे हैं, और तो और कमीनगी की हद्द यह है कि समझाये जाने पर समझाने वाले को समझा रहे हैं, चोरी और सीना जोरी....मैं अपने किसी भी स्टेटस या कमेंट की चोरी बर्दाश्त नही करता, आप शेयर करें, जितना मर्ज़ी

b) मेरे दस बीस स्टेटस पढ़ लीजिये. आपके किसी भी पवित्र ख्यालात पर मेरी लात पड़ सकती है कभी भी. रहना हो रहें यहाँ अन्यथा नही. जहाँ आपने गालीनुमा शब्द प्रयोग किये आप की छुट्टी.....आपको हक़ है मेरे लिखे हर शब्द पर एतराज़ ज़ाहिर करने का.....लेकिन व्यक्तिगत आक्षेप करने का बिलकुल नहीं....सो बेहतर होगा कि आप अपने एतराज़ ज़ाहिर करते हुए संतुलित शब्दों का प्रयोग करें अन्यथा मुझे ब्लाक करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता........अब बात यह है कि आप मेरे बिना रह नहीं पाएंगे....आपको फिर से नया अवतार लेकर यानि नए  फेसबुकिया अकाउंट के साथ मुझ तक आना पड़ेगा...सो बेहतर है शुरू से ही साथ बने रहें बस थोड़ा सयंम बनाये रखें...हाँ जैसे वो कहते हैं न सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार है....सो आप भी मेरे साथ सफर में अपने ख्यालात की सुरक्षा के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं.

c) मुझे आप टैग कर सकते हैं, लेकिन मैंने सेटिंग कर रखी है, वो मैं तभी देखता हूँ यदि देखना चाहूं और ज़्यादातर मैं नही देखता. आप यदि कोई ख़ास विषय मुझे दिखाना चाहते हैं तो बेहतर है मेसेज कर दीजिये

d) मैं टैग करता हूँ, वो भी सॉफ्ट टैग, आपको बस एक Notification जायेगी, आपको अपनी Timeline पर  मेरा टैग कभी नहीं दिखेगा. यह सॉफ्ट टैगिंग भी मैं  ज़्यादातर चुने हुए मित्रों को ही करता हूँ , यदि आप कभी भी मेरे टैग से परेशान हों तो कृपया मेसेज करें, आइन्दा टैग नही होगा

e) मैं किसी के लिए उतरदायी नहीं तब तक नहीं जब तक मैंने किसी से उत्तर देने की कोई फीस नहीं ली.....पोस्ट करना एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति है, समझ में आए, पसंद आए बढ़िया...वरना कमेंट करने वालों को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जवाब इसलिए नहीं दिया कि दिया नहीं जा सकता था. ...जवाब आपको इसलिए नहीं दिया कि आपके साथ समय लगाना उचित नहीं समझा गया, हाँ, यदि आपको फिर भी समय लेना ही हो तो फीस देकर ले सकते हैं....तब भी आपको जवाब जमेगा, नहीं जमेगा, इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है
हिंदी को देवनागरी लिपि  में लिखें, अन्यथा यकीन जानिए आपके लेखन को मैं तो बहुत नहीं पढ़ पाऊंगा....हाँ, अंग्रेज़ी लिख सकते हैं लेकिन वो भी रोमन  में. दुरंगी, बदरंगी भाषा मुझे गवारा नहीं

f) मैं सबको एक बार तो आने देता हूँ लेकिन सब न मेरे काम के हैं, न मैं सबके काम का. सो जैसे मित्रगण आते हैं, वैसे ही बहुत से वापिस जाते हैं. तथागत. आपको मौका है, मुझे मौका है एक दूसरे का लेखन पढ़ सकें. एक तरफ़ा रिश्ता मैं अक्सर नहीं रखता. कुछ समय तक देखता हूँ, महीन दो महीना. यदि कोई मित्र फेसबुक पर होते हुए भी सदैव से मेरे प्रति निष्क्रिय हैं तो विदा कर देता हूँ

g) मैं ज्यादातर लोगों को ब्लाक करता हूँ न कि अमित्र. जो मेरे साथ रहते हुए साथ न रह पाए, क्या दिखानी उनको अपनी दुनिया? फेसबुक बड़ा डेमोक्रेटिक है.....सबको बराबर की आज़ादी है......ऐसी जैसी अभी वास्तविक दुनिया में सम्भव नहीं हो पायी....जो पसंद हो अपनी फसबूकिया लाइफ में रखो, जिसे चाहो निकाल दो.......बिंदास. क्या हम जीवन में भी लोग नहीं चुनते...क्या हरेक को मित्र मान लेते हैं...हरेक, जिससे एक बार हेल्लो हो गयी, मित्र हो गया? नहीं न.  यहाँ भी वही नियम है. जो ठीक लगे उन्हें ही साथ रखो....अरे फेसबुक पर यदि आपको किसी के विचार नहीं पसंद तो संवाद करो........लड़ने से क्या होगा, कौन सा कोई ज़बरदस्ती है किसी के साथ कि किसी का लिखा पढना ही होता है? हम सबका पाला पड़ता है फेसबुक पर ऐसे लोगों से जो बस परेशानी का सबब बनते हैं......बेस्ट है ब्लॉकिंग, खुल कर प्रयोग करो.....छुट्टी.  न रहेगा बांस न बजेगी बेसुरी, मतलब बांसुरी

h) उम्मीद है थोड़ा कहा, ज्यादा समझा जाएगा, अक्लमंद को इशारा ही काफी होता है, बेवकूफ के लिए धुनाई भी कम होती है और आप तो मेरे मित्र हैं, अक्लमंद होगें सब न कि मंद अक्ल वाले

(12) शब्द सम्भाल के लिखें, अन्यथा फेसबुक बड़ा समझदार है, कमेंट डिलीट करने का, अमित्र करने का, ब्लाक करने का अख्तियार उसने सबको दिया है .
क्या फायदा होगा इस तरह से?

मेहनत ज़ाया होगी ....पहले अपशब्द लिखने वाले की, फ़िर कमेंट डिलीट करने वाले के....
बेहतर हो प्रयास इस तरह से किये जाएँ कि कुछ सार्थक नतीजे आ पाएं
असहमति इस तरह से दर्ज करें कि वार्तालाप को गति मिले न कि इस तरह कि वार्तालाप या तो दिग्भ्रमित हो जाए या फ़िर बाधित.....
सप्रेम नमन

(13) संवाद करें, विवाद नहीं
अन्यथा
कोलाहल तो होगा, हल नहीं
हलाहल तो होगा, हल नहीं
बस हल्ला हल्ला होगा, पर कोई हल नहीं
सो
संवाद करें , विवाद नहीं

(14) फेसबुक पर मित्र जोड़ने का विकल्प सबसे बढ़िया है
.
.
.
.
.
.
.
.
अगला बढ़िया विकल्प ब्लॉक करने का है

(15) !!!लेखन चोरी!!!

कृष्ण  माखन चोरी करते थे, फेसबुकिये  लेखन चोरी करते हैं.
अक्सर मेरे लेखन की चोरी तो मैंने पकड़ी ही है, उस के अलावा मैंने कई पोस्ट एक से अधिक लोगों के द्वारा प्रेषित देखी हैं ... फेसबुक पे लोग अक्सर दूसरों का लिखा चेप कर वाहवाही लूटने को बहादुरी समझते हैं....
.
बहुत कम लोगों को समझ आता है " "Intellectual property Rights" ......समझायो तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनका हक़ मार लिया किसी ने....हक़ चोरी का...हक़ सीना जोरी का

मैंने हमेशा लेखन चोरी का विरोध किया है, विभिन्न समयों पर मेरे लिखे कुछ नोट्स हैं, इक्कठे कर पेश कर रहा हूँ.कानूनी, गैर कानूनी जानकारी और राय दे रहा हूँ, स्वागत है ---

(16) वहां मौद्रिक चोरी करते हैं
यहाँ बौधिक चोरी करते हैं

न वहां साध है
न यहाँ साध है

वहां भी घाघ हैं
यहाँ भी घाघ हैं

दूसरों को अक्ल देते फिरते हैं,
खुद को अक्ल है नहीं

अक्ल तो नकली है ही,
शक्ल भी असली है नहीं

मूर्ख हैं और चोर हैं
बेईमान घनघोर हैं

चोरी, चोरी है
चाहे मौद्रिक हो, चाहे बौधिक
चोर, चोर है
चाहे मौद्रिक हो, चाहे बौधिक

बड़े मज़े से चोरी करते हैं
पकडे जाने पे सीना जोरी करते हैं

पर जान लें, ये दंडनीय अपराध हैं
ऐसे लोग भीतर से चोर, ऊपर से साध हैं

(17) वैसे जिनको  भी  कॉपी राईट पर बहुत एतराज़ है, उन्हें ऑस्कर वाइल्ड का Picture of Dorian Gray, मैक्सिम गोर्की का Mother, तुर्गनेव का Father and sons, शेक्सपियर का Macbeth, मुंशी प्रेम चंद का गोदान, अमृता प्रीतम का रसीदी टिकेट , Balwant Gargi का  Naked Triangle और खुशवंत सिंह, टॉलस्टॉय, आदि का लेखन हुबहू अपने नाम से प्रकाशित करवा लेना चाहिए
कॉपी राईट, यह क्या होता है?
हुंह!

(18) चोरी की पोस्ट से करप्शन दूर करने का सन्देश देने वालो तुम्हारी जय हो ..जी मैंने तुम्हारी क्षय हो नहीं लिखा है....जय हो लिखा है

(19) भारत जहाँ बैंक में पेन को धागे से बाँध कर रखना पड़ता है, जहाँ प्याऊ के लोटे पर चैन लगाने पड़ती है, जहाँ अपने हर लेख के साथ पाठकों को चोरी न करने के लिए आगाह करना पड़ता है, वहां भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को साकार करना असम्भव न हो चाहे लेकिन मुश्किल ज़रूर है

(20) फेसबुक पर जो लोग दूसरों का लिखा चुराना सही  समझते हैं, मेरे  तेरे  में यकीन   नहीं करते  उनको अपना अकाउंट नंबर देता हूँ अपना सारा धन मेरे अकाउंट में ट्रान्सफर कर दें......क्या मेरा तेरा, नहीं?

(21) ये जो लोग दूजों का लेखन चोरी करके विचार फैलाने का तर्क देते हैं, इन बेवकूफों को कोई समझाओ यारो कि शेयर का बटन भी देता है फेसबुक
ज़्यादा समझदार!
चवन्नी किलो भी नहीं बिकती ऐसी समझदारी

(22) क्या आपने नोट किया कि मित्र मंडली में पोस्ट चोर वो होते हैं, जो लगभग अदृश्य और निर्लेप रहते हैं आपके प्रति.............न कभी लाइक, न कभी डिसलाइक, न कभी कैसा भी कमेंट.......लेकिन ये चोट्टे, मन के खोटे.......अक्ल के अंधे, गंदे बंदे......आपका लेखन उड़ाने में सबसे आगे.......मेरी सबसे गुज़ारिश, जिस भी मित्र को ज़रा भी शंका हो कि लेखन चोरी का है.....तो यदि जानते हों तो ओरिजिनल लेखक को सूचित करें

जब मैं कोई बढ़िया सी पोस्ट एक से ज़्यादा मित्रों द्वारा अपने खाते में डाली गई देखता हूँ...तो सोचता हूँ, शायद कहीं किसी गरीब का दिल जला होगा..

खैर मैं तो तुरत नाम रोशन करने में यकीन रखता हूँ चोरों का........नहीं, मानते, मैं क्या करूं........फिर अंत में ब्लोकास्त्र

(23) पता नहीं भाई लोग चोरी क्यों करते हैं
अपुन तो अपने कमेंट में से स्टेटस बना लेते हैं
और अपने स्टेटस में से कमेंट

(24) अब पता लगा कहाँ से स्टेटस लाते हैं,
शक्ल से ही बाखुदा चोर नज़र आते हैं

(25) "स्टेटस चोरी"

पहली  बात --लेखन एक कला है, विज्ञान है.....हर कलाकार को, वैज्ञानिक को उसका श्रेय मिलना चाहिए, नाम दाम मिलना चाहिए .........कोई न लेना चाहे उसकी मर्ज़ी

दूसरी बात------जैसे ही व्यक्ति लिखता है, यदि सच में ही खुद का लिखा हो, तो पटल पर आते ही लेखन कॉपी राईट होता है......लेखन के लिए पेटेंट नहीं, कॉपी राईट कराया जाता है....पेटेंट, कॉपी राईट, ट्रेडमार्क आदि इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स माने जाते हैं, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी को प्रॉपर्टी इसलिए कहा गया है कि इसे पैदा करने में समय लगता है, मेहनत लगती है.......इसे पैदा करने वाले से, यदि वो बेचना चाहे तो धन देकर खरीदा जा सकता.....यह  निजी सम्पति है, जिसे चुराना दंडनीय अपराध है, आपको नहीं यकीन, मेरा लेखन चोरी कीजिये, मुझे अपना एड्रेस दीजिये, आपको दो चार दिन में मेरा नोटिस मिलेगा, फिर चक्कर काटना कचहरी के.

तीसरा बात----- किसी की पोस्ट चोरी कर आप सिर्फ यह साबित करते हैं कि आप अक्ल से बाँझ है, नपुंसक है......और यदि आप चोरी के हिमायती हैं तो चोर तो हैं ही सीना जोर भी हैं....अजीब तर्क देते हैं..."क्या मेरा क्या तेरा"........इनको कहता हूँ कि अपनी प्रॉपर्टी मेरे नाम कर दो, "क्या मेरा क्या तेरा", फिर उस पॉइंट पर जवाब नहीं देते....इनको कहता हूँ कि आप अपने घर खुले छोड़ते होंगे शायद.....क्या मेरा क्या तेरा.......फिर उस पॉइंट पर जवाब नहीं देते

चौथी बात----यदि आप अच्छा लिखते हैं तो चोरी होती है, यह निश्चित है,  लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चोर सही हैं, कोई भी लेखक यदि चाहे तो अपने कॉपी राईट अधिकार प्रयोग कर सकता है, यह कानूनी भी है और नैतिक भी है

पांचवी बात----- लोग शेक्सपियर को अपने नाम से क्यों नहीं छापते? चूँकि वो प्रसिद्ध है. सो बेहतर है कि अपना लेखन, फेसबुक के साथ साथ, E-mail पर डालें, ब्लॉग पर डालें अपनी वेबसाइट पर डालें, विभिन्न आर्टिकल साईट पर डालें, इसके मल्टीप्ल फायदे हैं, आपको बहुत लोग पढेंगे और जल्दी से चोरी की कोई हिम्मत ही नाही करेगा, और यदि करेगा भी तो झगड़े में आपका मुकाबला नहीं कर पायेगा

चोरी पकड़ने के लिए आप अपने लेखन के हिस्से सीधे गूगल कर सकते हैं.....खुली साईट पर गूगल वैसे ही पकड़ दिखा देगा...."गूगल अलर्ट" भी काम आ सकता है

और फेसबुक जैसी बंद साईट के अंदर भी विभिन्न अकाउंट बना आप अपने लेखन को इसी तरह पकड़ सकते हैं, वैसे  फेसबुक पागल नहीं है जो शेयर का आप्शन देता है, उसे  चोरी और शेयर  करने  का फर्क पता है .......और यदि आपका स्टेटस कोई चोरी करता है और कहने के बावजूद नहीं हटाता है तो आप फेसबुक को रिपोर्ट भी कर सकते हैं.........बहुत लोग फेस बुक पर होने का मतलब समझते हैं दूसरों का लेखन  चुरा कर  छापना, "कौन सा कोई देख रहा है",.....गलतफहमी में हैं.....अब शायद समझ में आये कि फेसबुक पर होने का मतलब यह नहीं है कि दूसरों के लेखन उठा उठा अपने नाम से छापते फिरो

कुल मतलब यह है कि यदि आप अच्छा लिखते हैं और नहीं चाहते कि आपका लेखन कोई चुराए तो यह आपका अधिकार है. जिसे आप थोड़ी जानकारी और प्रयासों से काफी कुछ सुरक्षित कर सकते हैं

आखिरी बात----- सब मित्रों के लिए, कुतर्क   मत कीजिये कि   चोरी  करके  आप   दूसरों  के अच्छे   विचारों   को फैलाने   का शुभ  काम कर रहे  हैं, नहीं , आप कोई शुभ  कार्य  नहीं कर रहे हैं, चोरी मत कीजिये, दूसरों  के अच्छे  विचारों  को फ़ैलाने  का सही  तरीका   चोरी नहीं, शेयर करना है, शेयर कीजिए और अपना लिखिए, जैसा भी. एक वक्त आएगा कि आप देखेंगे कि आप इतना कुछ लिख सकते हैं जिसके लिए एक जीवन कम है ......सो अपने आप को काहे क्षुद्र करते हैं, जब आप में रचनात्मकता का सागर हिलोरें मार रहा है ...




(26) हर दीवार पर ये नहीं लिखा होता कि यहाँ न मूतें , इसका मतलब ये नहीं कि आप वहां मूत सकते हैं, आपको आज़ादी है कि कमेंट करें , लेकिन ये आज़ादी नहीं कि कुछ भी बेतुका comment करें, लठ घुमाने की आज़ादी है सब को, लेकिन राह जाते लोगों को बिना मतलब चोट मारें, ये आज़ादी नहीं है ...


(27) वैसे कोई आयी डी फेक है, होने दो, हमें क्या फर्क पड़ता है?
और हम कहाँ खोज भी सकतें हैं कि फेक है कि नहीं , क्या चिंता करनी.?
फेक के पीछे भी कोई तो इंसान है ही, बस इतना काफी है.
मैं मात्र इतना ध्यान करता हूँ कि व्यक्ति व्यवहार कैसा कर रहा है ...कितनो को मैंने ब्लाक किया और कितनो ने ही मुझे , सब को सब नहीं जमते , कोई परेशानी नहीं ...ऐसा होना स्वाभाविक है ...


28) जो मित्र अपनी फोटो ये बड़ी बड़ी कर के किसी चौक चौराहे, या प्रदर्शनी या मार्किट आदि में लगी दिखाते हैं और साथ में दिखाते हैं कि मेरे और आपके जैसे लोग, छोटे मोटे लोग उनकी तस्वीर को निहार रहे हैं.....

इन्हें बस यही कहना है, "दिल के बहलाने को ग़ालिब ख्याल भी अच्छा नहीं है"


29) मैंने पढ़ा कहीं कि जैल सिंह, भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति, अंग्रेज़ी नहीं समझते थे, सो उनकी अंग्रेज़ी

पंजाबी में लिखी रहती थी...देखिये यदि लिपि नहीं जानते तो बात ख़त्म हो गयी.......फिर तो जो लिपि जानते

हैं उसी में लिखेंगे...............ये पोस्ट तो मात्र उन्ही मित्रों के लिए है जो भाषा और लिपि दोनों जानते हैं पर फिर

भी जानकारी के अभाव में, या आलस्य की वजह से या कोई आर वजह से आज भी भाषा और लिपि का भेद

बनाये रखे हैं...उनको सुझाव है..बाकी मर्ज़ी तो सबकी अपनी है



30) "INTELLECTUAL PROPERTY LAWS, WHAT IS IT, WHEN HURT AND WHEN NOT"

Whatever you write, as you write you get the copy right.
Whatever you steal, as you steal, you are noway right.

The ones, who do not respect my copy right, I m NOT SORRY to say that I can not respect them, on this particular issue.

Simply I do not support copying other's writings or any thing, it is a theft on one's intellectual property.

You learn something from someone's writing, if it is somehow useful for you, that is great, all writing are for that purpose but it does not mean that U are allowed to copy paste other's words....

U can do it differently, use your wisdom, experience and re-write according to your understanding, that is okay.

Now, how much has been just copied or how much is re-used like a re-use of wheel in a car, that is a different story and that is why in the whole world court cases are fought over this issue.

And I am amazed, how difficult it is to make clear to my friends!

Patents, copy rights and trade marks are protected under intellectual property rights.

As a theft of any kinda physical property is considered a crime so is considered theft of intellectual property.

A few vital things are to be understood regarding these laws.

There is saying, "There is nothing new under the sun", which is right and but partially only.

Just take an example of a motor cycle, the technique of cycle, motor, wheel & iron casting etc is used in it, all already invented, still the appropriate use, aggregate of all these already invented things gives birth to a new thing, motor cycle, an invention.

Similarly, if you just copy paste something, without adding any value to the original text, you are infringing intellectual property law but if you give a twist to the original meaning, it is not a theft. An example, there is saying, beauty lies in the eyes of the beholder, then someone changed it as beauty lies in the eyes of the beer holder, see, the one, who twisted the first statement can not be called a thief, as the one has changed the whole concept.

Indian Flag and Flag of Congress party of India has much similarity but still as the central emblem is different, it is not considered intellectual property infringement.

So next time, my dear friends, if you steal or allege someone for stealing, kindly keep my words in mind.

Statutory Warning---- I am no advocate, kindly cross check my words.

COPY RIGHT MATTER/ SHARING IS ALLOWED/ STEALING IS AN OFFENCE