No Muslim be allowed to criticise RSS, unless the one criticises Islam and Christianity because RSS is just a shadow of these Gangs.
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Showing posts from August, 2018
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तुम तो लगे हो अपने और अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा करने. फिर जब नाली साफ़ न हो, सड़क पर खड्डे हों, पुलिस बदतमीज़ हो, जज बे-ईमान हो तो तुम्हें क्या? तुमने कोई योग-दान दिया था यह सब ठीक करने को? नहीं दिया था. तब तो तुम ने यही सोचा कि मुझे क्या? मैं क्यों समय खराब करूं? कौन पड़े इस सब पच्चड़ मनें? घर-परिवार पाल लूं, यही काफी है. यही सब सोचा न. अब जब सड़क पर तेरी बहन-बेटी के साथ कोई गुंडा-गर्दी करता है तो पुलिस सही केस नहीं लिखती, कोर्ट सही आर्डर नहीं लिखती, तो सिस्टम की नाकामी खलती है. खलती है न? भैये जैसे अपनी, अपने परिवार की बेहतरी के लिए जी-जान लगाते हो, गिरगिटियाते हो, वैसे इस सिस्टम को सुधारने के लिए भी दिमाग लगाओ, जी-जान लगाओ, गाली सहो, छित्तर खाओ, तभी तुम हकदार हो सिस्टम को कोसने को. वरना जहाँ तुमने कुछ दिया ही नहीं, वहां से कुछ भी पाने की उम्मीद मत रखो.
संघ की शाखा का प्रति-प्रयोग
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देश के कोने-कोने में संघ की तर्ज़ पर शाखा लगाओ मितरो. संघ का 'बौद्धिक' सिर्फ हिंदुत्व सिखलाता है. तुम्हार बौद्धिक तर्क और विज्ञान सिखाये. तुम किसी भी धर्म के पक्ष-विपक्ष में मत सिखलाओ. सिर्फ क्रिटिकल थिंकिंग, वैज्ञानिक ढंग से सोचना, सवाल उठाना, जवाब ढूंढना सिखलाओ. सवाल मत सिखाओ, जवाब मत सिखाओ. सवाल उठाना सिखाओ, जवाब ढूंढना सिखलाओ. संघ की नब्बे साल की ट्रेनिंग है, फिर बिल्ली के भागों छींका टूट गया है. इस देश को, दुनिया को संघ-मुसंघ से छुटकारा दिलवाने का मात्र एक ही रास्ता है और वो है क्रिटिकल थिंकिंग. मुल्क के कोने कोने में शाखाएं लगाओ, सिर्फ संघ की शाखा का अनुसरण कर लो. बस फर्क यही रहे कि वो हिंदुत्व सिखाते हैं तुम विज्ञान सिखाओ. मुझ से सम्पर्क करें, आगे की रण-नीति के लिए.
रक्षा-बंधन
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"रक्षा बंधन" एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं. एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत. और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए. और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा." वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ. वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं. अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, ...
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"मन्दिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला" लिखने वाले हरिवंश राय बच्चन साहेब के वंश को अगर आप जानते हैं तो अमिताभ बच्चन से. लेकिन हरिवंश जी आग थे, अमिताभ राख़ है. हरिवंश जी मन्दिर मस्जिद दोनों को ललकारते हैं. अमिताभ गणेश वन्दना गा देते हैं. अफ़सोस यह कि इस मुल्क का महानायक बेटे को माना जा रहा है, जबकि बाप बाप था और है. नमन हरिवंश जी को.
नींद
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“वो मुर्दों से शर्त लगा कर सो गया.” सुरेन्द्र मोहन पाठक अक्सर लिखते हैं यह अपने नोवेलों में. लेकिन जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते हैं, कब सोते हैं ऐसे? नींद आती भी है तो उचटी-उचटी. बचपने में ‘निन्नी’ आती है तो ऐसे कि समय खो ही जाता है. असल में समय तो अपने आप में कुछ है भी नहीं. अगर मन खो जाये तो समय खो ही जायेगा. तब लगता है कि अभी तो सोये थे, अभी सुबह कैसे हो गई? लेकिन यह अहसास फिर खो जाता है. न वैसी गहन नींद आती है, न वैसा अहसास. ‘नींद’. इस विषय पर कई बार लिखना चाहा, लेकिन आज ही क्यों लिखने बैठा? वजह है. मैं खाना खाते ही लेट गया और लेटते ही सो गया. नींद में था कि सिरहाने रखा फोन बजा. अधनींदा सा मैं, फोन उठा बतियाने लगा और आखिर में मैंने सामने वाले को कहा, “सर, थोड़ा तबियत खराब सी थी, सो गया था, मुझे तो लगा कि शायद सुबह हो चुकी लेकिन अभी तो रात के ग्यारह ही बजे हैं.” डेढ़-दो घंटे की नींद और लगा जैसे दस घंटे बीत चुके. समय का अहसास गड्ड-मड्ड हो गया था इस नींद में. फिर नींद के विषय में सोचने लगा और सोचते-सोचते सोचा कि लिख ही दूं इस विषय पर, सो बन्दा हाज़िर-नाज़िर है. मेरा ...
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भारतीय समाज को सब बामनी किस्सों को छोड़ आगे बढ़ना होगा, वरना वहीं गोल-गोल घूमता रहेगा सदियों. वही रास-लीला, वही राम-लीला. वही दशहरा, वही राम. वही रावण. वही कृष्ण. वही शिव. वही पार्वती..... इन सब में ही जब उलझा रहेगा तो वैज्ञानिक, दार्शनिक, ज्वलन्त लेखक पश्चिम में ही पैदा होंगे यहाँ तो बारिश के गड्डे भरे जायें उत्ता ही काफी है.
हम
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हम पार्कों में नकली हंसी हंसते हैं, चूँकि हमारी कुदरती हंसी-ख़ुशी खो चुकी है. 'हास्य-योग' बना रखा है हमने. हम हस्त-मैथुन कर रहे हैं, चूँकि कुदरती काम-क्रीड़ा पर हमने पहरे लगा रखे हैं, कानून बांध रखे हैं. हम ऐसे लोगों के मरण पर अफ़सोस ज़ाहिर कर आते हैं जिनके मरने से हमें ख़ुशी होती है. चलो पिंड छूटा. हम नेता को गाली देते हैं लेकिन सामने पड़ जाये तो पूँछ हिलाते हैं. हम भूल चुके हैं कि असली क्या है और नकली क्या है. हमारे असल में नकल है और नकल में असल है. स्त्रियाँ नकली सम्भोग-आनन्द दर्शाती हैं ताकि पुरुष खुश रहे. नकली चीखती चिल्लाती हैं. नकली ओर्गास्म. अंग्रेज़ी में तो कहावत ही है, Fake it till you make it". जब सोना न खरीद सको तो नकली सोना पहन लो. हम इन्सान हैं. हम सब जानवरों से बुद्धिमान हैं, हम महान हैं..
कौन है असली हीरो?
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"हेलो फ्रेंड्स, चाय पी लो" पूछने वाली मैडम को आप फेमस कर देते हैं. जैसे स्क्रीन में से निकल चाय का लंगर चला देंगी और सबका चाय का बजट घट जायेगा या कट जायेगा. "सेल्फी मैंने ले ली आज" गाने वाली को सर पे बिठा लेते हैं. जैसे सेल्फी लेना कोई दुर्गम पहाड़ चढ़ना हो, जिसे आज चढ़ ही लिया मैडम ने. सेल्फी इनने ले ली ही आज. "सही खेल गया भेन्चो" कहने वाले 'झंडू बाम', नहीं-नहीं, सॉरी-सॉरी, 'भुवन बाम' को आप हीरो बना देते हैं. क्या है यह सब? यह इन लोगों का हल्कापन नहीं दर्शाता. यह आप लोगों की उथली सोच को दिखाता है. आपकी सोच 'चाय', 'सेल्फी' और 'भेन्चो' पे अटकी है. इससे आगे जाती ही नहीं. कैसे पहचानोगे आप कि कौन है असल हीरो? गोविंदा जैसा नाच अगर किसी अंकल ने कर लिया तो आप फ्लैट हो गए, फ्लोर हो गए, कोठी हो गए, हवेली हो गए, महल हो गए. कोई थर्ड क्लास फिल्मों का एक्टर, उसे आप हीरो मान लेते हैं. मतलब जिसने कभी एक मीनिंग-फुल फिल्म नहीं की हो, लेकिन आपको क्या? आपके लिए उसका ओवर-एक्टिंग वाला स्टाइल ही काफी है. जिसने साबुन, तेल,...
केजरीवाल नहीं है भविष्य: मिसाल
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इन्द्रलोक, दिल्ली मेट्रो स्टेशन के ठीक एक बड़ी सी ट्रैफिक लाइट है. बड़ी इसलिए कि बहुत ट्रैफिक होता है यहाँ. सब तरफ ये.... चौड़ी सड़क हैं. एक सड़क जो शहज़ादा बाग़ को जाती है, इसका मुहाना बंद किया गया है. किसलिए? इसलिए चूँकि यहाँ कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया गया है. इसमें क्या ख़ास है? शायद कुछ नहीं. चूँकि ऐसा दिल्ली में जगह-जगह है. ख़ास मुझे जो दिखा, वो यह कि इस शिविर के बाहर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है, जिस पर अरविन्द केजरीवाल जी विराज रहे हैं और कांवड़ियों का स्वागत कर रहे हैं. इसलिए लिखता हूँ कि केजरीवाल भारत का भविष्य नहीं है. एक सेक्युलर स्टेट के स्टेट्समैन को सेक्युलर होना चाहिए. उसे इन सब पच्चड़ में पड़ना ही नहीं चाहिए. अब केजरी के ऐसा करने से मेरी अधार्मिक भावनाएं आहत हो गईं हैं, उसका क्या? मेरी अधार्मिक आस्था खतरे में पड़ गई, उसका क्या? चलो, वो तो किया जो किया. मतलब इस हद तक चले गए कि तथा-कथित धार्मिक कृत्यों के लिए सड़क बंद हो तो हो. क्या फर्क पड़ता है? मतलब चीफ मिनिस्टर का काम यही तो बचा है कि एक बिजी सड़क बंद करवा के धार्मिक(?) कार्यक्रम आयोजित करवाए. वाह रे मेरे भारत!
जेम्स बांड हूँ मैं
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कैसे? सिम्पल है, समझाता हूँ. मैं जिस माहौल में रहता हूँ, उसकी सोच कुछ और है और मेरी सोच कुछ और है. वो उत्तर जाता है तो मैं दक्षिण. वो पूरब जाता है तो मैं पश्चिम. मैं तो रहता भी पश्चिम विहार, दिल्ली में हूँ. लेकिन क्या मैं अपनी सोच इस माहौल में ज़ाहिर करता हूँ? जी करता हूँ, लेकिन हर वक्त नहीं, हर जगह नहीं. अक्सर तो मैं माहौल की सोच में शुमार हो जाता हूँ. ऊपर-ऊपर से ही सही, लेकिन हो जाता हूँ. मिसाल के लिए मैंने कांवड़ यात्राओं के लिए शिविरों में अपनी उपस्थिती दर्ज़ करवाई हैं जबकि इनको मैं परले दर्ज़े का अहमकाना काम मानता हूँ. अरे यार, मन की शक्ति पैदा करनी है तो मैराथन में हिस्सा ले लो, पहाड़ चढ़ लो, नदियाँ साफ़ कर लो, तालाब खोद लो, कुछ भी और कर लो. बहुत कुछ किया जा सकता है. रोज़ लोग नए-नए कारनामे करते ही हैं. खैर. मेरी मौसी के बड़े बेटे हैं, उम्र-दराज़ हैं, हर साल दिल्ली के रिज रोड़ पर कांवड़ियों के लिए बड़ा इन्तेजाम करते हैं. हमें बुलाते रहे हैं और हम जाते भी रहे हैं. अब यह क्या है? एक तरफ विरोध, दूजी तरफ हाज़िरी. यह तो गोरख-धंधा हो गया. लेकिन याद रखें, जेम्स बांड हूँ मैं. दुश्मन देस. ...