Thursday, 18 June 2015

तर्क है तपस्या



सबसे बड़ा महाभारत व्यक्ति के मन में चलने वाला तर्क युद्ध है.

तर्क है तपस्या ---1

असल में इंसानी मन तर्क को बहुत झेल नहीं पाता.....उसे तर्क  से तिलमिलाहट होने लगती है

वो बहुत जल्द किस्से कहानियों में खो जाता है, पश्चिम में हैरी पॉटर जैसी कहानियों की पूरा एक परम्परा है, शुद्ध फंतासी

उससे पीछे देखें तो हमें अलिफ़ लैला, अली बाबा जैसे किस्से पूरी दुनिया में बिखरे मिलेंगे

हमारी फिल्में, चाहे भारतीय हों या विदेशी, तर्कातीत हैं......हमें पता है कि रजनीकान्त मात्र भुलावा पेश करते हैं, अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख़ खान तक ओवर एक्टिंग करते हैं, फिर भी हम उन्हें पसंद करते हैं, सर आँखों पर बिठाते हैं

हमारा गायन, संगीत सब तर्क को पार कर जाता है....आप आम बातचीत  में कब कुछ  शब्दों को बहुत खींचते हैं...कब  किन्ही शब्दों को भींचते हैं...लेकिन  गायन में सब चलता है

हमारी कविता में हम चाँद तारों को अपनी महबूबा के बालों में गूंथ देते हैं....लेकिन सब चलता है

हमारे सपने......वो तो हैं ही सपने.....तर्क का गड्ड-मड्ड

कुल मिला कहना यह है कि मानव मन, तर्क से परेशान होता है....आपने नोट किया क्या कि इतिहास बच्चों को गणित से ज़्यादा आसान लगता है.....इतिहास में किस्से हैं, गणित में मात्र तर्क

और अब, आज कल बहुत  से अध्यात्मिक गुरु तर्क के खिलाफ तर्क देते दीखते हैं. वाह, वाह जनाब, और वाह मोहतरमा!

मेरा मानना यह है कि दुनिया में संघर्ष पूर्व पश्चिम का नहीं है, न स्त्री पुरुष का है....न हिन्दू , मुस्लिम का है, न गोरे काले का है

संघर्ष  तर्क और कुतर्क का है, संघर्ष  तर्क और जमी हुई मान्यताओं का है,   जो बहुत कुछ कुतर्क पर टिकी हैं

 तर्क ताकत है, तर्क विज्ञान है

सो आज ज़रुरत तर्क से बचने   की नहीं है...आज ज़रुरत है तर्क की आंधी की...ऐसी आंधी जिसमें  सब कचरा, सहास्त्रियों से जमा कूड़ा बह जाए

आज ज़रुरत है,  कुतर्क के खिलाफ तर्क खड़े करने की...आज ज़रुरत है, तर्क के पक्ष में तर्कों की

तर्क तपस्या है, तर्क ही सबसे बड़ा धर्म है.

ऐसा नहीं कि हमारे गायन, हमारे संगीत, हमारे नृत्य में तर्क नहीं है, तर्क है, सबका अपना तर्क है, तर्क से हटते हुए भी तर्क है

तभी तो हम कहते हैं कि कोई सुर में गाता है कोई बेसुरा....तभी तो हम किसी चुटकले को जानदार मानते हैं है किसी को बकवास.....तभी तो हम किसी के नृत्य को लय में मानते हैं , किसी को बेढब

और हमारे सपने, वो भी एक दम तर्क से हट के नहीं होते, वो अपना ही एक तर्क घड़ लेते हैं, हमने जो दिन में चाहा होता है, देखा होता, वो सब का एक अजीब मिश्रण............

हमारे दिवास्वपन, हमारी कल्पनाएँ सब हकीकत और गैर-हकीकत का जोड़.......सबका मोल है,   यदि किसी ने परिंदे को उड़ते देख उड़ने की कल्पना न की होती तो हवाई जहाज़ तक न पहुँचते....यदि किसी ने चाँद को देख कहानियाँ न घड़ी होती तो चाँद पर कदम न रखा होता इंसान ने

हमारे  चुटकले तर्क का शीर्षासन हैं, यदि चुटकले न हो तो इन्सान जीवन के बोझ में वैसे ही मर जाए

यदि  नृत्य न हो तो इन्सान अपंग हो जाए

यदि गीत, संगीत न हो तो आधी दुनिया तुरत पागल हो जाए, देख होगा आपने ट्रक ड्राईवर ट्रक चलाता जाता है, गाने सुनता जाता है, फैक्ट्री में मज़दूर काम करता जाता है, संगीत सुनता जाता है

लेकिन तर्क का, गणित का भी जीवन में फैलाव कम नहीं. यह जो इन्टरनेट प्रयोग करते हैं न हम और आप, कहते हैं यह सब गणित का खेल है. अभी मैंने देखा  एक फिल्म में नायक एक गणितज्ञ  है, वो कहता है कि सारा जगत ही गणित का खेल है, उसे सब जगह गणित का पसारा नज़र आता है. कहते हैं कि हेब्रू भाषा शुद्ध गणित है और कोई पुरातन धार्मिक किताब “तोराह” मे गणित के बहुत से रहस्य छुपे हैं

तो जब मैं यह कहता हूँ कि तर्क की आंधी चलनी चाहिए, मेरा मतलब यह नहीं कि आप गीत, संगीत, नृत्य, चुटकले, हँसी ठठा से हट जाएँ...सपने , कल्पनाएँ, दिवा स्वप्न न देखें

नहीं....आप नाचेंगे, गायेंगे, हंसेंगे, दिवा स्वप्न देखेंगे तभी  खुश रहेंगे

लेकिन   इस सब में   यह नज़र अंदाज़ न कर दें कि तर्क की, विज्ञान की अहमियत क्या है.

मैंने शुरू में ही कहा मानव मन तर्क को बहुत देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाता......वो खो जाना चाहता है गीत, संगीत में, वो हंसना चाहता है, वो सपने देखना चाहता है, वो किस्से कहानियां में यात्रा करना चाहता है......ठीक है.......वो सबके बिना जीना सम्भव नहीं

लेकिन यदि वो तर्क को नज़र अंदाज़ करेगा तो पिट जाएगा

आपने देखा भारत में बहुत ऊंचे दर्जे का गीत, संगीत, नृत्य और मूर्तिकला थी और भी बहुत कुछ....लेकिन कहीं समाजिक विज्ञान में पिछड़ गया, कहीं भौतिक विज्ञान में पिछड़ गया, कहीं खो गया बेतुकी बहसों में, कहीं पड़ गया मात्र आत्मा परमात्मा के चक्करों में.......और पिट गया, ऐसे लोगों से जो जीवन के किन्ही मामलों में बहुत पिछड़े थे.....जो बस बर्बर थे......जो बस मरना मारना, लूटना पीटना जानते थे और यहाँ व्यक्ति फंसा था जीवन के तमाम दर्शन शास्त्रों में.

कभी आप अक्सर सुनते हों कि यदि कहीं कोई और सभ्यताएं होंगी कायनात में तो हमसे हज़ारों साल उनका विज्ञान आगे होगा, हो सकता है .............यह जो पीछे सभ्यताओं का संघर्ष है, या जो आज भी है यह तर्क का ही संघर्ष है, यह सभ्यताओं के विज्ञान का ही संघर्ष है

यह विज्ञान कहाँ से आता है......तर्क से...... तर्क मतलब फैक्ट्स, तर्क मतलब एक्सपेरिमेंट, तर्क मतलब वैज्ञानिकता

तर्क का मामला बड़ा अजीब है, दूसरे का तर्क कुतर्क और खुद का तर्क तर्क लगता है, यह ऐसे ही है जैसे हमें अपना बच्चा दूसरे के बच्चे से हमेशा सुन्दर और बुद्धिमान लगता है......तर्क हमारी उपज है, हमारे दिमाग के बच्चे.....या इससे भी बढ़ कर तर्क हमारे जीवन का आधार होते हैं....यदि मानव जीवन को एक कार माना लिया जाए तो विचार इसके ड्राईवर हैं और ये विचार तर्कों पर ही तो आधारित होते हैं

अब यह बात दीगर है कि वो तर्क कितने तर्क हैं और कितने कुतर्क...अधिकाँश तो कुतर्क ही ही होते हैं....... उथले, छिछले तर्क ......पुरानी पीढ़ियों की बकवास, कूड़ा........धार्मिक राजनैतिक गुरुओं का फैलाया जाल, जंजाल

ज़रुरत है, तुरत ज़रुरत है, इससे बाहर आने की.....उसके लिए लम्बे संघर्ष की ज़रुरत होती है...अनेकों तर्कों की......जैसे कांटे से काँटा निकालते हैं......लम्बा संघर्ष, यह दूसरे अगर आपके साथ करेंगे तो आप को दुश्मन नज़र आयेंगे, खुद ही खुद के साथ करें तो बेहतर, दूसरे सिर्फ कुछ मदद कर सकते हैं, ज़्यादा मदद तो खुद ही को खुद की करनी होती है

तो कहना यह है मित्र, तर्क आपका मित्र है, तर्क आपके जीवन का गाइड है, तर्क भविष्य है, तर्क विज्ञान है, तर्क से दुश्मनी मत करें, तर्क से दुश्मनी अक्ल से दुश्मनी है..........तर्क का भी मज़ा लेना सीखें, तर्क को खेल बना लें, जैसे गणित से अधिकांश बच्चे घबराते हैं लेकिन एलन टुरिन और आइंस्टीन जैसे लोग गणित को खेल समझते हैं...तर्क को प्रेम करने वालों की बदौलत ही आज सब विज्ञान फैला है, तार्किकों की धुन की वजह से ही हम आज जहाँ हैं, हैं

आज भी जो समाज तर्क को पकड़े हुए हैं वो ही तरक्की कर रहे है और आगे भी जो समाज तर्क को प्रेम करेंगे वो ही बचेंगे, बाकी धीरे धीरे विलुप्त हो जायेंगे

नमन

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तर्क है तपस्या----2

बहुत तर्क दिए जाते हैं, तर्क के खिलाफ़.......पीछे एक मित्र ने दो मज़ेदार तर्क पेश किये तर्क के ख़िलाफ़, लीजिये पेशे-ए-खिदमत हैं.

पहला तर्क ---कल्पना करें कि आप अँधेरे कमरे में हैं, अचानक एक रस्सी का टुकड़ा आपके ऊपर आन गिरता है....एक दम आपको डर जकड़ लेता है कि आपके ऊपर सांप या कोई और ज़हरीला कीड़ा गिरा है ..आपकी धड़कन बढ़ जाती है ...और जब आप रोशनी on करते हैं तो देखते हैं कि वहां कोई सांप-वांप नहीं, बस एक रस्सी का टुकड़ा है...आप हंसने लग जाते हैं....आपका डर एक तार्किक निष्पत्ती थी ....आप एक काल्पनिक सांप से वास्तविक हृदयाघात के शिकार हो सकते थे .....जबकि वहां असल में कोई सांप नहीं था ..सो सत्य तर्क से अलग होता है... सत्य का तर्क से कोई लेना देना नहीं

मेरा उत्तर था इनको, "अँधेरे में रस्सी को सांप समझा जा सकता है.....बिलकुल समझा जा सकता है....सांप को भी रस्सी समझा जा सकता है ..यहाँ गलत समझ के पीछे का कारण अँधेरा है.......जिसकी वजह से गलत नतीज़ा निकाला जा सकता है......अगर किसी कंप्यूटर में गलत या आधा अधूरा डाटा डालेंगे तो सही नतीजा कैसे आएगा.......यहाँ गलती कंप्यूटर की नहीं है.....न ही उसके कम्प्यूटेशन की......अब यदि आपको यहाँ कंप्यूटर की कम्प्यूटेशन की गलती दिखती हो तो यह निश्चित ही आपकी खराब कम्प्यूटेशन है"

दूसरा तर्क--एक व्यक्ति जो तर्क शास्त्र में पी. एच. डी. करके अपने घर लौटा....और बड़ी अकड़ से अपने माँ बाप को कहने लगा-- मैं तर्क से कुछ भी कर सकता हूँ..उसके पेरेंट्स ने पूछा --कैसे? उसने कहा--जैसे इस प्लेट में दो सेब हैं ..मैं लॉजिक से साबित कर सकता हूँ कि ये तीन हैं. उसके पेरेंट्स ने पुछा --ये कैसे संभव है? उनके बेटे ने पहले सेब को छूया और कहा--- यह है एक सेब.....फिर दूसरे को छूया और कहा --ये दो सेब फिर कहा--एक और दो कितने होते हैं? पेरेंट्स ने कहा--तीन. बेटे ने हँसते हुए कहा--हो गए न तीन. लेकिन पेरेंट्स की भी समझ कुछ गहरी थी. उन्होनें बेटे को कहा--तू ठीक कहते हो, ये एक सेब मैं ले लेता हूँ और एक तेरी माँ खा लेती है और तीसरा तू खा ले. सो तर्क ऐसा है. दिखने में बहुत बड़ा....पर मात्र शब्दों का खेल

मेर उत्तर था इनको,"पहला सेब एक है और दूसरा सेब भी एक है...दोनों का जोड़ तीन बनता है......दूसरा मतलब ...जो गिनती में नंबर दो पे है....दूसरा मतलब दो नहीं होता.."

तर्क मात्र शब्दों का खेल समझ लिया गया .....

जबकि शब्द सिर्फ वाहन हैं, विचारों को, स्थितियों को, भावनायों को प्रकट करने के ......

तर्क शब्द मात्र कतई नहीं है........

तर्क है प्रश्न उठाना और प्रश्नों के सही उत्तर पाने का प्रयास...

तर्क है "प्रभाव" ( Effect) के पीछे "कारण" (Cause) ढूँढने का प्रयास....

तर्क है प्रयोग करना..तर्क है वैज्ञानिकता ....तर्क है ज्ञान विज्ञान का जन्म दाता....

एक उदहारण देता हूँ मैं.... एक कोर्ट केस था......एक वृद्धा के मकान पे किसी ने कब्ज़ा कर लिया था ........किरायेदार ने कहा कि वृद्धा दिल्ली में रहती नहीं, वो दिल्ली से बाहर वर्षों से सेटल हैं ...सो उन्हें मकान वापिस नहीं मिलना चाहिए.......अब वृद्धा का राशन कार्ड, वोटर कार्ड, गैस सिलिंडर की पर्चियां....और ऐसे कितने ही दस्तावेज़ पेश किये ...साथ ही विडियो और फोटो ( नेगेटिव सहित ) कोर्ट में पेश किये........सो अब इनकार न कर सका किरायेदार...फैसला वृद्धा के हक़ में गया...इसे कहते हैं तर्क....

भारत में विज्ञान का विकास अवरुद्ध हुआ...यहाँ तर्क को कुछ ऐसा मान लिया गया कि जिसे जिधर मर्ज़ी घुमा लो....

तर्क को वेश्या कहा गया, तर्क को वकील कहा गया जिसका रुख कहीं भी मोड़ा जा सकता है .....

जब कि ऐसा है नहीं...तर्क मात्र शब्द नहीं होते...उनके पीछे सॉलिड ग्राउंड पेश करनी होती हैं

तर्क तथ्यात्मक होने चाहियें .....और स्थितियात्मक भी....
ज़रा सी स्थति बदली ...तर्क बदल सकता है
ज़रा सा तथ्यों में अंतर आया ....तर्क बदल सकता है
और इन तर्कों के बदलते ही निष्कर्ष बदल जाते हैं.

सो सावधान रहें....मिसालें धोखा दे सकती हैं.

बहुत प्रयास किया जाता है कि उठाये गए मुद्दों की दिशा और दशा बदल दी जाए, तमाम हथकंडे प्रयोग किये जाते हैं, और ऐसा आम तौर पे तभी किया जाता है जब उनकी पवित्र पावन धार्मिक भावनाएं आहत हो जाती हैं, जब उन्हें भीतर से कहीं पता होता है कि वो तर्कों से जवाब नहीं दे सकते

और यह पवित्र भावनाएं भी क्या कमाल है, शायद संसार की सबसे ज़्यादा भँगुर चीज़ें..........इनकी बुनियाद ही इतनी कमज़ोर होती हैं कि ज़रा सी चोट, और आहत हो जाती हैं...ज़रा तेज़ हवा तक बर्दाश्त नहीं कर पातीं....

यदि आपकी चलती कार में से इंजन आयल लीक हो रहा हो और आपको यह न पता हो और कोई आपको यह बता दे तो आप उसे दुश्मन मानेंगें या धन्यवाद करेंगें

लेकिन यहाँ तो दोस्त लोगों द्वारा हर सम्भव कोशिश की जाती है कि स्टेटस का बंटाधार किया जा सके

 मुख्य मुद्दे को छोड़ कर कुछ भी बात उठाई जाती हैं...

व्यक्तिगत हमले किये जाते हैं, अक्ल पे तो छींटाकशी की ही जाती है, शक्ल तक को नहीं बक्शा जाता, जैसे कोई मात्र सुन्दर होने से कोई सही साबित होता हो

गाली गलौच की जाती है, अपशब्दों को ही तर्क माना जाता है

हर कोशिश की जाती है कि किसी तरह से सामने वाले को भी मजबूर कर दें ऊट पटांग बातों में उलझने को, ताकि देखने वालों को मात्र दो लड़ते हुए लोग दिखें...असल मुद्दा गौण हो जाए......

और कुछ मित्र तो इतने महान हैं कि बिना किसी तर्क को पेश किये लिख देंगें कि उन्हें लेख पसंद नहीं, वो असहमत हैं, लेख गलत है, लेख की विषयवस्तु परिपक्व नहीं...आदि आदि...

अब इन्हें कितना ही समझायो कि भाई जी, मात्र इतना लिखना काफी नहीं, कुछ तर्क भी पेश करें अपने कथनों के समर्थन में, लेकिन बहुत कम ही समझ आती है यह बात ...

तर्क पेश करना ही तो मुश्किल है...तर्क में पड़ना ही तो झंझट है....तर्क की आंधी को झेलना ही तो सबसे बड़ी तपस्या है...

चोट खुद पे पड़ती हैं...यह ऐसे है जैसे खुद की ही मूर्ती घड़ना....

जो हिम्मत दिखायेंगें, वो ही एक सुन्दर आकृति बन पायेंगें, वरना पड़े रहें अनघड पत्थरों की तरह, मर्ज़ी उनकी.

किसी भी मुद्दे पे, या किसी भी मौके पे, कोई बहुत बुद्धिमान व्यक्ति मूर्खतापूर्ण बात कर सकता है और कोई बहुत मूर्ख बहुत बुद्धिमत्ता पूर्ण बात .......इसलिए बात होनी चाहिए वक़्त दर वक़्त, मुद्दा दर मुद्दा.....और मुद्दों के आधार पे ही हमेशा विरोध और समर्थन होना चाहिए.......और कुतर्क की बात करें तो सब विरोधी तर्क शुरू में कुतर्क ही महसूस होते हैं और बहुधा अंत तक......बस स्वयं को express करने का बेहतर से बेहतर प्रयास ही किया जाना चाहिए

मात्र जानकारियाँ होना काफी नहीं..आप क्या चुनते हैं उनमें से वो महत्वपूर्ण है ...

मात्र सब तरह के तर्क जानना ज़रूरी नहीं, आप एक जज की तरह क्या चुनते हैं, किस बात की हिमायत करते हैं, वो महत्वपूर्ण है...

सवाल सिर्फ जानकारी होने का नहीं होता है भाई जी, जानकारी को समझने का होता है.......आप किसी जानकारी से क्या निष्कर्ष निकालते हैं.....वो महत्वपूर्ण है .....

Sherlock Holmes अवश्य पता होगा आपको.....कैसे सामने दिखने वाली जानकारियों से महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं....या फिर NEWTON का उदाहरण लें....सेब क्या पहले न गिरता था....या सेब का गिरना क्या बहुत बड़ी घटना है........एक दम आम घटना, लेकिन निष्कर्ष आम नहीं....

इसे कहते हैं दिमाग.......और इस तरह का दिमाग ही चाहिए भारत को, इसी तरह से विज्ञान पनपता है ....

जब तक तर्क से न जूझेगी दुनिया.....दुनिया ज़हालत से भरी रहेगी
युद्ध चाहिए तर्क का ....गली गली ......
नुक्कड़ नुक्कड़

तर्कयुद्ध बहुत युद्धों को टाल सकता है.....
यहाँ तो सब बचते हैं तर्क से......

पॉजिटिव टॉक करो....
तर्क करो तो नेगेटिव.....हा!

डर है, कहीं ग़लत साबित न हो जाएँ, डर है कहीं जीवन भर की जमापूंजी बिखर न जाए, जिसे जीवन भर सीने से लगाये रखा अलंकार समझ वो ही सीने की बीमारी साबित न हो जाए.....जैसे व्यक्ति धन इकट्ठा करता है, वैसे ही धारणाएं इकट्ठी करता है.....ग़लत ठीक बहुतेरी .......और उन बहुतेरियों में से बहुतेरी ग़लत......

अब तर्क करें तो जुआ हो गया, तर्क युद्ध हार भी सकते हैं.......दूसरे क्या सोचेंगे? कैसा मूर्ख है! सो तर्क में भाग ही नहीं लेना.....तर्क से भाग लेना है....... चाहे जीवन भर मूर्ख बने रहें, वो मंज़ूर है.....

लेकिन तर्क युद्ध में हिस्सा लेकर मूर्ख साबित होना कहीं बेहतर है तर्क से बच कर जीवन भर मूर्ख बने रहने से ...

और यह जो तथाकथित गुरु लोग तर्क के विरुद्ध तर्क देते हैं, वो मात्र बुद्धि के विरोधी हैं...वो मात्र चाहते हैं कि आप अपनी बुद्धि उनके पास हमेशा के लिए गिरवी रख दो.....वो शायद कहना चाहते हैं कि कुदरत बेवकूफ है जो सब को बुद्धि देती है, कुदरत ने गलती की जो सबको बुद्धि दी, वो गलती गुरु के पास अपनी बुद्धि त्याग कर सुधारी जा सकती है.....

बकवास!

असल में से जो किताबें पढ़ने का विरोध करते हैं, बुधि का विरोध करते हैं, मूर्ख हैं, अक्ल के दुश्मन .....
ध्यान को कुछ ऐसा मान बैठे हो जैसे ध्यान का बुधि से विरोध हो ...
कैसे हो सकता है?
वो कुदरत कोई पागल है ..जो अक्ल देती है.......
असल में विवेक का प्रयोग ही ध्यान है.............
ध्यान से जीना ही ध्यान है ......
और ये कतई एसा कुछ नहीं जो बुधि के विपरीत हो...

कोई सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती जो तर्क से परहेज़ करे....
लेकिन तर्क के लिए सर खपाना पड़ता है, मेहनत करनी होती है, खुद को ग़लत साबित होने की हिम्मत जुटानी पड़ती है, तर्क तपस्या है, तर्क श्रम है, तर्क दुनिया का महानतम कर्म है ....
हम जितना जल्दी समझें, उतना अच्छा ...
अब तो हमें समझाना चाहिए कि इसी तर्क के सहारे दुनिया कहाँ कि कहाँ पहुँच गयी, अब तो हमें तर्क की तार्किकता को समझाना चाहिए

कॉपी राईट मैटर
तुषार कॉस्मिक

भारतीय प्रजातंत्र/ छद्म राज्यतंत्र

एक मुल्क था.....नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा.......वहां का निज़ाम डेमोक्रेसी कहलाता था......मतलब कोई भी जन साधारण में से ...जो भी काबिल हो संतरी, मंत्री बन जाए......लेकिन काबिल आदमी तो आगे आ ही नहीं पाता था...क्योंकि क़ाबलियत आम लोगों के वोट से तय होती थी...... और वोट बहुत हद तक चुनाव प्रचार और चुनाव धांधलियों से तय होते थे ...खरीदे बेचे जाते थे......

अब इस सब के लिए तो अनाप शनाप पैसा चाहिए होता था, सो निजाम आम आदमी कीक़ाबलियत पर नहीं, पूंजीपतियों की दौलत से तय होने लगा......
पूंजीपति समझ चुके थे कि प्रचार से हर कूड़ा कबाड़ा बेचा जा सकता है.... बेस्वाद बर्गर बेचे जा सकते थे, सेहत को नुक्सान पहुंचाएं वाले पिज्ज़े और कोला बेचे जा सकते थे.... प्रचार और दुष्प्रचार से सरकारे बनाई और गिराई जा सकती थी
सब चतुर सुजान इस फार्मूला को समझ चुके थे

संतरी, मंत्री, प्रधान मंत्री इसी तरह से बनाये जाते थे
लेकिन फिर भी इसे लोकतंत्र कहा जाता था
लोकतंत्र, ऐसा तंत्र जहाँ आम लोगों की कभी पहुँच ही नहीं थी

फिर एक आदमी उठा..............नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा............ उसने कहा कि भाई, ये तो गलत है..भला एक अरबों-खरबोंपति द्वारा प्रचारित बंदा (वैसे उसका भी नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा) आम आदमी का नुमाइंदा कैसे हो सकता है ..एक गरीब, एक पूरे सूरे आम आदमी की नुमाइंदागी इस तरह का बन्दा थोड़ा कर सकता है जो पॉवर में आएगा ही, बड़े पूंजीपतियों की मदद से

अब दिक्कत यह थी कि उस आम आदमी की बात भी पब्लिक तक पहुंचाने वाला कोई नहीं था.....सारा मीडिया था ही पूंजीपतियों का....अखबार, टीवी सब पूंजीपतियों का था

अब ऐसे बंदे की आवाज़ कौन सुने, कैसे सुने?

वो कहता रहा कि भाई अगर हमें सेहत-मंत्री चाहिए तो कोई ऐसे बंदे जिन्होंने इस क्षेत्र में कोई काम किए हो, जिनके पास इस क्षेत्र को सुधारने का कोई जज्बा हो, कोई योजना हो, उनको सामने आने दो.........सबको बराबर टाइम दे दो... सरकारी रेडियो, टीवी पर.......पब्लिक को सुनाएँ , समझायें अपनी योजना, अपनी काबिलयत ......चेहरा भी मत आने दो, आवाज़ भी मत सामने आने दो.........मात्र क़ाबलियत, योजना सामने लाने दो....लोग वोट योजना को दें...काबिलियत को दें बस

वो कहता रहा ऐसी ही बहुत सी बातें
अभी तक तो उस बंदे की सुनी नहीं गयी
अभी तक तो पुराने ढर्रे का लोकतंत्र ही चल रहा है जिसमें आम लोगों वोट देते नहीं हैं, वोट उनसे लिए जाते हैं
अभी तक तो कुछ बदलने वाला दिख नहीं रहा उस मुल्क में, वो मुल्क, जिसका नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा..

किताबों में लिखा है, बच्चों को स्कूलों में पढ़ाते हैं, प्रजा का तन्त्र, प्रजा द्वारा, प्रजा के लिए...

लेकिन झूठ है, सफेद झूठ..लेकिन इस झूठ में इतना कालापन है कि मैं इसे "काला झूठ" कहना ज़्यादा पसंद करूंगा....."काला धुत्त झूठ" या फिर "काला धूर्त झूठ"

कौन सी प्रजा का राज्य......आधी प्रजा तो तुम्हारी भूखी, नंगी है, सर पर ठीक से छप्पर नहीं...इस प्रजा का तन्त्र?

इस प्रजा को तो आप अपने इस तथा कथित तन्त्र में पास भी फटकने नहीं देते, इसका तन्त्र?

बकवास!

बाकी आधी प्रजा अधिकांश मध्यमवर्गीय है, जो न इधर की न उधर की, वो तो अपने ही दाल दलिए से ऊपर नहीं उठ पाती, वो क्या सोचे मुल्क के बारे में और यदि कोई उनमें से सोच भी ले तो कैसे आगे आए, कैसे मगरमच्छों से करे मुकाबला?

मैंने कुछ ही दिन पहले लिखा था तुम्हारा प्रजातंत्र धनाढ्य वर्ग का विलास मात्र है.......इस प्रजातंत्र का प्रजातंत्र की परिभाषा से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है

तुम्हारे प्रजातंत्र में सरकार में सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट के खिलाड़ी पहुँचते हैं, गाने वाली लता मंगेशकर पहुँच जाती हैं, धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन जैसे एक्टर पहुँच जाते हैं सरकार में......ये सब लोग अपने अपने क्षेत्रों में बढ़िया हैं, रहे हैं....लेकिन इनका क्या सरोकार निज़ाम चलाने से?

अमिताभ एम पी बन भी गए तो बाद में तौबा कर ली राजनीति से....अरे भाई आपने जनता को क्या सोच के कहा था कि वोट दें.....पहले सीखना था, खुद को तौलना था, समझना था कि आप जनता के कुछ काम आ भी सकते हैं या नहीं, बस राजनीति को भी कहानी समझ लिया जिसे अपने हिसाब से मोड़-तोड़ लिया, जब दिल चाहा कूद गए अन्दर, जब दिल चाहा कूद के हो गए बाहर......और ऐसा ही हाल लगभग बाकी सब कलाकारों और खिलाड़ियों का है.....राजनीति मात्र एक व्यसन.

अभी पीछे एक विडियो दिख रहा था कि हेमा मालिनी चुनाव प्रचार में छोटी गाड़ी में चलने से खुश नहीं थी. अब ऐसे लोगों की नुमाइंदगी को आप लोकतंत्र कहते हैं, तो ज़रूर कहें, मैं न कहूँगा

तुम्हारे इस जंजाल में. प्रजातंत्रजाल में मनी/money बाई (जी हाँ, आपने ठीक पढ़ा , मैंने मुन्नी बाई नहीं, मनी बाई लिखा है ) मुजरा करती है और सेठ लोग, व्यापरी लोग और धन्धेबाज़ राजनेता लोग ताली पीटते हैं, मज़ा लेते हैं...........

सही प्रजातंत्र में तो पैसे का खेल होना ही नहीं चाहिए और जब तक पैसे का खेल है, कोई प्रजा तन्त्र कैसे खुद को प्रजातंत्र कहलाये जाने का हकदार है?

मैं हज़ार लानत भेजता हूँ उन पर जो यह कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है

नहीं, भारत में प्रजातंत्र के नाम पर दुनिया का सबसे बड़ा पाखंड है, जिसका हर पांच साल बाद नवीनीकरण होता है, जो पांच साल तक पहुँचते पहुँचते ज़र्ज़र हो चुका होता है, लेकिन फिर से जवान हो जाता है......काया कल्प ....

हर पांच साल बाद भारत प्रजातंत्र की हत्या करता है, प्रजातंत्र का जनाज़ा निकालता है...

आपको कहना है इसे प्रजातंत्र शौक से कहिये...लेकिन प्रजा से पूछ लीजिये ज़रा तो बेहतर होगा. कितने गरीब लोग संसद पहुँचते हैं, कितने मध्यम वर्गीय, आम लोग?

और कितने लोग पहुँचते हैं मात्र इस दम पर कि उनके पास कोई योजना है, कोई नक्शा, कोई रोड मैप है मुल्क की बेहतरी का?

इस लोकतंत्र में आज भी राजे महाराजे भरे पड़े हैं, और अमीर कलाकार और प्रोफेशनल राजनेता



ऐसे में कैसे बिन पैसे कोई प्रजा को समझाए कि वो इन चोट्टों, इन मोटों की अपेक्षा कहीं एक बेहतर तन्त्र दे सकता है, बेहतर समाज दे सकता है......मात्र बात पहुंचाने के लिए करोड़ों या शायद अरबों रुपये चाहिए.....न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी.

कॉर्पोरेट विज्ञापन से वोटर का बुद्धिहरण, इसे लोकतंत्र नहीं, लोकतंत्र की चोरी कहते हैं , भाई जी.....और आपको इस लिए यह सब करने का अधिकार नहीं मिल गया था कि अमुक पार्टी आज तक ऐसा करते आ रही थी.....बेहतर होता कि आप इस व्यवस्था का विरोध भी करते नज़र आते......काश कि आप यह कहते कि कांटे को निकलने के लिए काँटा प्रयोग किया जा रह है......बस उसके बाद काँटा फेंक दिया जाएगा...काश, असल लोकतंत्र की तरफ आपके कुछ कदम बढ़ते नज़र आते

अभी कोसों दूर हैं हम और तुम असल प्रजातंत्र के
इसे छद्म राजतन्त्र कह सकते हैं, आधुनिक राजतन्त्र.

आज का राजा कॉर्पोरेट है, और जैसे वो किसी भी बिज़नस में फाइनेंस करता है वैसे ही वो राजनीति में निवेश करता है, उसे मार्केटिंग के सब हथकंडे पता हैं, उसे पता है कि कैसे इश्तिहार-बाज़ी से कूड़ा प्रोडक्ट भी बेचा जा सकता है, उसे पता है पब्लिक चमक दमक से प्रभावित होती है, सो वो और धन्धेबाज़ राजनेता मिल कर यह छदम प्रजातंत्र का खेल खेलते हैं

राजा का बेटा राजा बनता था, अब राजनेता का बेटा राजनेता बनता है
न आम आदमी की पहले कोई औकात थी, न अब है
दुनिया चंद लोगों की मुट्ठी में थी, दुनिया आज भी चंद लोगों की मुट्ठी में है

सिर्फ नाम बदल दिया गया है, सिर्फ ऊपरी चौखटा बदल दिया गया है, पहले एक ही राज-परिवार हावी रहता था, फिर कोई हमला करता था, खून खराबा होता था और कई बार तख्ता पलट जाता था

आज भी लड़ाई होती है, चुनाव की लड़ाई, आज भी खून खराबा होता है और कई बार तख्ता पलट जाता है

इस सारे खेल में आम इंसान की औकात शतरंज के सबसे छोटे मोहरे, प्यादे से बढ़ कर नहीं होती

अब आप इस खेल का नाम यदि प्यादे के नाम पर रख दें तो प्यादे को बड़ी आसानी से भुलावा दिया जा सकता है, उसे गुमराह किया जा सकता है, उसे लगेगा कि उसकी अहमियत है, उसी की अहमियत है, खेल उसी के लिए खेला जा रहा है, मात्र नाम देने से भुलावा पैदा किया जा सकता है, जैसे आँख के अंधे का नाम नयनसुख रख दो और वो अंधे होने को ही नयन सुख समझने लगे, फिर आप लाख समझाओ कि नहीं अँधा होना नयनसुख नहीं है, लेकिन उसे जल्द समझ न आएगा

भुलावे पैदा किये जा सकते हैं, गरीब के, दलित के असंतोष को दबाने के लिए संतोषी माता खड़ी की जा सकती है

ठीक वैसे ही प्रजा के, गरीब के, दलित के, वंचित के, मध्यम वर्गीय के जोश को, गुस्से को, असंतोष को काबू में रखने को, भ्रमित करने को इस छदम राजतन्त्र को प्रजातंत्र का नाम दिया गया है, यह तथा कथित प्रजातंत्र असल प्रजातंत्र के ठीक विपरीत है, ठीक वैसे ही जैसे नयनसुख नाम असल नयन सुख के ठीक विपरीत है

यह षड्यंत्र है, प्रजा के शोषण का यंत्र है, यह भयंकर है, तंत्र मन्त्र छू उड़नतर है. यह जो कुछ भी है लेकिन हरगिज़ प्रजातंत्र नहीं है

कॉपी राईट ---चुराएं न----समझें, सांझा करें

कश्मीर

बहुत तो जानकारी नहीं  है, फिर भी जब तब कश्मीर के बारे में कुछ कुछ लिखा है मैंने........चलिए मेरे साथ कश्मीर----

(1) "कश्मीर बनेगा पाकिस्तान"

पाकिस्तान खुद तो पाकिस्तान बन नही सका, कश्मीर को पाकिस्तान बनाएगा

सिर्फ़ नाम का पाकिस्तान है, वहां कुछ भी पाक नहीं, साफ़ नहीं......न हवा, न खाना, न पानी, न सियासत, न व्यापार

ऐसा नहीं कि यह सब समस्याएं भारत में नहीं है लेकिन वो भारत से कहीं गया बीता मुल्क है

पाकिस्तानी लीडर पाकिस्तान को तो ठीक से सम्भाल नहीं पाए, कश्मीर को सम्भालने की पड़ी है

कश्मीर सिर्फ सियासत का शिकार बना है आज तक..........पाकिस्तानी सियासत का, कश्मीरी  सियासत का

चालाक लोगों ने कश्मीरियों  को अलग मुल्क का सपना दिखाया, पाकिस्तान में मिल जाने का सपना दिखाया

कभी यह नहीं समझने दिया कि पाकिस्तानियों का क्या हाल है......हिंदुस्तान से बदतर हालात हैं वहां पर..........गरीबी है, जहालत है, आतंकवाद है

और  कश्मीरियों को यह समझने नहीं दिया गया कि एक आज़ाद मुल्क को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए तमाम तरह का सुरक्षा तंत्र खड़ा करना पड़ता है........परमाणु शक्ति तक बनना पड़ सकता है

पुरानी समय में दुनिया को देश, प्रदेश जैसे टुकड़ों में बांटना मजबूरी थी....दूरी बहुत माने रखती थी......आपको ध्यान हो कि मैराथन कैसे शुरू हुई......युद्ध के मैदान से कोई संदेश भेजने के लिए एक व्यक्ति दौड़ाया गया मीलों.......तब से मैराथन शुरू हुई...........ऐसे समय में प्रशासन को गाँव, प्रदेश, देश के स्तर पर रखना मजबूरी थी......विज्ञान के उत्थान के साथ साथ बड़ी राजनैतिक इकाईओं को जोड़े रखना आसन होता चला गया है

अंग्रेज़ों से पहले भारत में राजा लोगों के पास छोटे छोटे राज्य थे.......एक वजह यह भी थी कि बड़े राज्यों को एक सूत्र में पिरोये रखना तकनीकी तौर पर बहुत मुश्किल था.......अंग्रेज़ भारत को एक सूत्र में पिरो सके चूँकि उनके पास बेहतर तकनीक थी

आज दुनिया में व्यापार सार्वभौमिक है, समस्याएँ सार्वभौमिक है, हल सार्वभौमिक हैं

दिन-ब-दिन ग्लोबल कल्चर का उत्थान होता जा रहा है

आज तकनीक की वजह से दुनिया एक हुई ही हुई......कल तक आप विदेश फ़ोन करना एक बड़ा मुद्दा समझते थे...आज आप स्काइप पर दिन भर विडियो कॉल कर सकते हैं....वो भी बिना कोई अतिरक्त खर्चा किये....... दूरियां सिमटती जा रही हैं..........ऐसे में मुल्कों का अस्तित्व वैसे भी बहुत देर तक बचने वाला नहीं है

वैसे न तो अधिकाँश कश्मीरी पाकिस्तान में जाना चाहते हैं और न ही पाकिस्तानी कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने को मरे जाते हैं.......दोनों को पता है कि इससे कोई आलू सस्ते नहीं हो जायेंग, इससे कोई सरकारी कर्मचारी तमीजदार, इमानदार नहीं हो जायेंगे, इससे उनकी कोई भी दुश्वारियाँ कम नहीं हो जायेंगी

जैसे बंगला देशी भारत आ जाता है काम के लिए, जैसे  पूरबी भारतीय पश्चिम भारत आ जाता है काम के लिए, वैसे ही कश्मीरी काम के लिए पाकिस्तान जाने का सपना नहीं देखते, पाकिस्तान की असलियत वो भी जानते हैं, पाकिस्तानी भी पश्चिम के मुल्कों में स्थापित होने का सपना देखते हैं न कि कश्मीर में.....

यह कश्मीर का अलाव तो पाकिस्तान की सरकारें जलाए रखती हैं, वहां के सियासी लीडर, जो वहां की समस्या हल नहीं कर पाते, वो अपने मुल्क का ध्यान असल समस्याओं से हटा कश्मीर पर अटका देते  हैं, देशभक्ति को कुल जमा कश्मीर पर समेट देते हैं ....

लेकिन सियासी साजिशों की वजह से जन मानस उलझ तो जाता ही है, मज़हबी उन्माद और नकली देशभक्ति की ऐसी नशीली चाश्नी पिलाई जाती है कि असलियत दीखते हुए भी नहीं दीखती

कश्मीरी जनता को ही समझदार बनना होगा उसे समझना होगा कि कश्मीर की भारत  से अलग  होने  की डिमांड अहमकाना है, समझना होगा कि आतंकवाद से  कश्मीरी टूरिज्म तबाह हो गया, फिल्मों का छायांकन खत्म हो गया , उन्हें समझना होगा कि आतंक वाद से वहां समृधि आई या ग़रीबी, समझना होगा कि उनका भारत के साथ रहने में ही मंगल है....

कश्मीरी पब्लिक को यह समझाना ज़रूरी है कि उनका न तो पाकिस्तान जैसे खस्ताहाल मुल्क के साथ मिलने में कोई भला है और न ही अलग देश के तौर पर खड़े होना सम्भव है, सो बेहतरी भारत के साथ मिले रहने में है , लेकिन एक अलग तरह के राज्य बने रहना भी गलत है, इतिहास से ही वर्तमान तय नहीं होते रहना चाहिए, वर्तमान को फौसले अपने हाथ में लेने होंगे

भारत से हर तरह की सुविधा लेना लेकिन दूसरें राज्यों से अलग दर्जा बनाये रखने का कहीं कोई औचित्य नहीं, यदि ऐसा रहेगा तो कश्मीर जैसा है वैसा ही बना रहेगा ......भारतीय क्यों कश्मीर को झेले?

कश्मीर को पूर्णतया भारत का एक आम राज्य बन जाना चाहिए और भारतीय सरकार से हर हक़ माँगना चाहिए और भारतीय सरकार को कश्मीर की हर ज़रुरत का हर सम्भव ख्याल रखना चाहिए

कश्मीरी मुसलमान की  जो भी समस्या हो वो भारत की सरकार, भारत के निजाम से हक़ से कहनी  चाहिए, हल माँगना चाहिए लेकिन  कश्मीरी ब्राह्मण को दुबारा वहां बसने में भी पूरी मदद करनी चाहिए और "कश्मीर बनेगा   पाकिस्तान"   कहने वालों के, आतंकवाद को हवा देने वालों के पिछवाड़े पर पुरजोर लात मारनी चाहिए......

शायद कुछ मित्रों को यह कोई बड़ा काम दिखाई देता हो, मुझे नहीं दीखता, मैंने पंजाब का आतंकवाद देखा है, जब खत्म किया जाए तो दिनों में खत्म हो सकता है, फिलहाल मुझे कश्मीर का इससे बढ़िया हल नहीं सूझता

जो मित्र कश्मीर में सेना के अत्याचार का ज़िक्र करते हैं, उनको बस इतना ही कहना चाहता  हूँ, लहू  चाहे आतंकवादी  बहायें या सेना के जवान, बेक़सूर लहू लहू है

लेकिन  जब कश्मीरी मुसलमान सेना के अत्याचार का ज़िक्र करता है तो उसे मुस्लिम आतंकियों का ज़िक्र भी करना चाहिए, उसे कश्मीर से भगाए गए ब्रहामणों का ज़िक्र भी करना चाहिए, उसे यह भी देखना चाहिए कि हल क्या है

हल  कश्मीर बनेगा पाकिस्तान नहीं है, हल है, ब्रहामणों को वापिस स्थापित किया जाए, हल है आतंकवाद को दफा किया जाए, हल है सेना के जवानों बेकसूरों पर अत्याचार न कर पाएं, इसके लिए पुरजोर आवाज़ उठाई जाए....

लेकिन मेरा मानना है कि आतंकवाद का सफाया बिन ताकत के होगा नहीं, और गेहूं के साथ घुन पिसेगा ..पंजाब का इतिहास गवाह है

घुन न पिसे, इसके लिए सरकार को ज़्यादा से ज़्यादा इतेज़ाम करना चाहिए, कोशिश होनी चाहिए

क्या कश्मीर का भारत का एक आम राज्य बन जाने से उसकी सब समस्याएं खत्म हो जायेंगी? नहीं. बिलकुल नहीं. क्या भारत में सब सही है? सही होता तो यह जो रोज़ रोना हम रोते हैं उसकी क्या ज़रुरत?

जो सुझाया वो कश्मीर के हालात जो आज हैं, उससे बेहतर हो सकते हैं यह समझ कर सुझाया है......

कश्मीर आम राज्य बने तो टूरिज्म खुल जाएगा, बहुत से रोज़गार भी खुल पायेंगे तथा और भी बहुत सी विधायक सम्भावनाएं बन सकती हैं.

असल में सब राजनैतिक लकीरें झूठी हैं. जो कुछ मैंने सुझाया वो हालात, और वक्त को मद्दे नज़र रख कर सुझाया, वो यह खयाल में रख कर सुझाया जिसमें फिलहाल पाकिस्तान, भारत और कश्मीर सबका भला मुझे नज़र आता है.........

(2)  !!!! हैदर, यक तरफ़ा फिल्म !!!!

देखी पिछली रात, कुछ रिव्यु भी पढ़े, सब के सब प्रशंसा से भरे, विशाल भरद्वाज की प्रशंसा, गुलज़ार की प्रशंसा.....

लेकिन मुझे तो इस फ़िल्म में प्रशंसा लायक कुछ दिखा नहीं.....दिखा इस लिए नहीं कि इसे मात्र एक कहानी के तौर पे, एक ऐसी कहानी के तौर पे पेश किया जाता जो शेक्सपियर के नाटक पर आधारित है तो बात अलग थी

लेकिन इसे तो कश्मीर के आतंकवाद, कश्मीर के दर्द से जोड़ा गया

जोड़ो भाई जोड़ो ..... जोड़ो क्या, सीधा साफ़ दिखाओ...

बिल्कुल दिखाओ कि हिन्दू लोगों को कश्मीर से भगाने के लिए, उन्हें क़त्ल किया जाता रहा, उन को निशाना बनाया जाता रहा, कुछ वैसे ही जैसे पंजाब में हिन्दुओं को खालिस्तानियों द्वारा

आज तक पंजाब के लहुलुहान आतंकित दौर पर जितनी फिल्में बनी हैं, किसी ने सही तस्वीर नहीं दिखाई......हिन्दू पर कोई अत्याचार होता या तो दिखाया ही नही और दिखाया भी तो न के बराबर , अभी एक पंजाबी फिल्म देखी "साडा हक़" , बड़ा रौला रप्पा पड़ता रहा है, ...अधूरी फिल्म है, :माचिस" की तरह और इस विषय पर बनी बाक़ी फिल्मों की तरह ....

आतंकवादी इसलिए पैदा नहीं हुए कि उन पर अत्याचार हो रहे थे...न, न.......उन पर अत्याचार इसलिए हुए क्योंकि वो अत्याचार कर रहे थे........पैदा तो वो अपनी ही भ्रष्ट सोच समझ की वजह से हुए थे

और यहाँ भी "हैदर" फिल्म में, हैदर अपने पिता का बदला लेना चाहता है लेकिन देखने लायक बात यह थी कि उसके पिता आतंकियों के साथी थे, लेकिन पिता को हीरो दिखाया गया है और हैदर के चाचा को विलन, चाचा जिसकी मुखबिरी से हैदर का पिता पकड़ा जाता है, चूँकि उसने अपने घर में आतंकी छुपाया होता है ....पता नहीं, फिल्म बनाने वाले क्या साबित करना चाहते हैं?

और बड़ा मुद्दा दिखाया गया कि कश्मीरी मुसलमान गायब हो गये, निश्चित ही फ़ौज द्वारा मारे गये , टार्चर किये गये ...लेकिन क्या ये लोग आतंकी नहीं थे, या उनके साथी नहीं थे ? थे, फिल्म में दिखाया गया कि थे ....यहाँ लगता है कि फिल्म ठीक है

मेरा मानना है कि यदि कश्मीर का आतंक से भरा काल-खंड दिखाना है तो पूरा दिखाओ, दिखाओ कि हिन्दू क़त्ल किया गया मुस्लिम आतंकी द्वारा, बेघर किया गया.....दिखाओ कि फ़ौज ने आतंकी को पकड़ा और टॉर्चर किया और मारा, दिखाओ कि बहुत से गलत काम फ़ौज से भी हुए....पॉवर का बेजा इस्तेमाल दोनों तरफ से

दिखाओ कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति , चाहे खालिस्तानी हो चाहे कश्मीरी आतंकी , किसी को हक़ नहीं किसी को मारने का और यह दुनिया रही है रंग बिरंगे धर्म मानाने वाले लोगों से भरी.......

इस तरह बहुसंख्यक अगर अल्पसंख्यक लोगों को मारेंगे तो आधी दुनिया क़त्ल करने पड़ेगी

दिखाओ कश्मीरी ब्राह्मण का दर्द, कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े काल-खंड का मुख्य किरदार

दिखाओ....नहीं दिखाते लेकिन .....दिखाते हैं "हैदर", बकवास हैदर..........वैसे ही जैसे "माचिस", जैसे "साड्डा हक़"

(3)  वाह भाई वाह, मोदी जी ने करोड़ों रूपया दे दिया कश्मीर बाढ़ राहत के लिए, जवान लगा दिए लोगों को बचाने के लिए......वाह!

इडियट्स, कमी नहीं है तुम्हारी.

मोदी जी ने करोड़ों दिए हैं अपने घर से दिए हैं, मेरा तेरा पैसा है.....

और

जो जवान लगाये हैं, उनको भी सैलरी मिलती है, और जिस पैसे से मिलती है, वो भी मेरा तेरा पैसा है.


यदि आज हमारे फ़ौज द्वारा कश्मीर में लोगों की जान बचाए जाने का श्रेय श्री मान मोदी भाई गुजराती को जाता है तो फिर गुजरात में उनके कार्यकाल में हुए क़त्ल-ए-आम का श्रेय भी उनको जाना चाहिए.

नहीं?

कॉपी राईट मैटर, सुझाव सादर आमंत्रित, सप्रेम नमन

Wednesday, 17 June 2015

MOVIES

Movies are not only great entertainers but trainers also. Enter my movie world, to be entertained and trained. Welcome.

(1) I wonder as in "O My God" movie Akshay Kumar is shown as Krisna in suit boot, similarly can Durga Mata be shown in a new form. The concept of Sheran wali Mata is a creation of the old world. The new Mata should ride a bike more advance than Harley Davidson Motorcycle instead of Lion, wear bullet-bomb-proof, atom bomb proof very decorative helmet, wear high class bullet-bomb-proof jeans jacket instead of Sari, carry AK-56 or even advance super-gun in one hand instead of Sword, in another hand super rocket launcher instead of Bow-Arrow, in another hand Atom Bomb instead of Sudarshan Chakra.

As we progress, our deities too should progress, in fact, they should always be ahead of us. No?

(2) New Concept of a Scary movie-- Some ones killed Sarabjeet in a Pakistani Jail, for revenging some killed Sanaulla in an Indian Jail, now some more Indian jail-mates get killed in Pakistani jails, then the virus comes out of the jails and start turning the people of the both the countries into zombies.

A few scenes of a New Horror movie, co-sponsored by India & Pakistan.
Howzzdatt?

(3) Cocktail Movie--Foolish Thought----The world is moving from marriages to Live-in to Group Live-in AND in this movie they are showing the Fun Girls turning Bhartiya Sati Savitri, that is called devolution, impossible reality. Though the both the girls, looked, acted so great, songs also great, and Saif Ali's 'second hand jawani' is lucky not only in his practical life but in this movie too.

(4) "7 khoon Maaf" an interesting movie's 3 interesting dialogues---

"Every wife thinks of killing his husband once a while", I feel the vice-versa is also true.
"The plenty is never enough, it is always scarce".
"Marriage is the worst thing happened to mankind".

(5) Rockstar or Reckless-star:----Watched "Rockstar" Hindi movie--Hero Heroine both reckless, want "Sadda Haq--ethe Rakh" but the Hero who was desperate for audience never cared for them after being successful, heroine gets married willingly but never cares for the feelings of his caring husband , what is this, recklessness, I support utter freedom but not recklessness. With freedom, comes responsibility too. One who does not care for others is no Good.

Many times people name their selfishness as freedom.

(6) WATER--- Randi=Raand= Widow= Prostitute. Have you understood what I am trying to point out? In India, for a widow and a prostitute same words (Randi/Raand) have been used which indicate that widows had been treated like prostitutes.

Much ado was created at the time of "WATER", a great Hindi movie depicting poor conditions of widows living in Mathura, Vrindavan etc.

Had not been better if something been done to reform the condition of these widows considered/treated like prostitutes?

(7) "Kai Po che"(Gujrati) i.e."I bo kata"(Hindi/ Punjabi) i.e."I cut your kite"--The movie is based on a novel by Mr. Chetan Bhagat namely "Three mistakes of my life". Excellent work, must be watched by everyone, based on the back ground of Earth Quake in Gujrat & then Godhra Train Scandal, shows us simply that human love each but their religions, so called fucking religions are the walls, invisible walls, which keep them separate & the shrewd people know this and make them thirsty of each other's blood anytime making small, cheap mischief, consequently we see riots, killings, rapes of humanity.

Identify the real culprit dear ones, your ornaments are your handcuffs and fetters. Beware, Beware, Beware!

(8) 26/11, by Ram Gopal Verma--------

i) RGV, he is a Genius, who commits stupid mistakes, has made stupid most movies and the great ones too like this one.

ii) The movie is a live example that how humans can be easily turned into lethal robots, killing machines. The easiest way is the use of Holy Books, Holy words. Holy shit.

iii) This movie also shows, why India lost all the wars, always using substandard outdated weapons, the terrorist who attacked Mumbai on 26/11 were well equipped with the latest hand guns and Bombs, well trained and the Cops were carrying outdated rifles or even Baton only/ DANDA.

iv) A scene similar as shown in 26/11, a movie based on Mumbai Attacks by Kasab and others, in Ramayan.

Kumbhkarana was killing Vanars, they were fleeing for their lives, see how Angad is alluring them to die,""If our longevity is short, we shall lie down, being killed by the enemies, on the earth and reach the realm of Brahma (residence of pious spirits), which is difficult to be attained by bad warriors."
"O monkeys! We shall obtain glory by killing our enemies in battle or if killed on the other hand, we shall enjoy the heaven, attained by the warriors."

You will be surprised the same logic were given to Kasab and other Mumbai attackers, I watched in the movie 26/11.

Great movie showing sad, very sad, very bad incident, an accident. Must watch.

(9) Oye Lucky Oye :-----The story is based on real life super thief, Bunti. He seems to me so innocent, a raw kinda small time thief in the society of big white collared thieves.

One dialogue of "Oye Lucky Oye Lucky" Movie:---Aakhir Kutte bhi to insaan hi hotien hain, after-all dogs too are humans, hahahahahaa...........................so great.

(10) Special 26, a Bad thriller---I have read thrillers of Agatha Christie, Sir Arthur Conan Doyle; they gave immortal character like Hercule Poirot & Sherlock Holmes.

The stories which untangle the suspense in the end with the facts which had NEVER been shown to the reader/audience already are FOOLISH stories.
In real thrillers, every fact is in front of the eyes of reader or audience but the reader/ audience could never catch the clues & when the author opens the secrets with every possible reasoning then reader/audience get amazed & says/ thinks, "O My My, all the time murderer was in front of my eyes, but how on earth could I not recognize HIM/HER!"

That is the way of REAL THRILLERS.

And Special 26, a latest Hindi movie is a bad thriller, considering this point, no where, it was told that the Police party, consisting Jimmy Shergill and Divya Dutta was partner with the Con gang of Akshya and Anupam Kher, on the opposite, they were shown always opponents and in the end, it is revealed that they were alliance, nowhere any hint was given in the whole movie, what the fuck, the ways of a poor thrillers”

(11) Jolly LLB----Is a great satire on legal system, but many things shown are wrong basically.

"Tarikh pe tarikh is liye nahi padti ki, evidence aane mein der hoti hai", as the Judge says in the movie, "I know the truth but can act upon evidence only, and go on waiting evidence ayega ayega ayega, that is why matter go on lingering."

No it is not the fact, the number of judges have been kept low knowingly, they are over loaded, that is the reason. Politician wanna keep legal system dysfunctional to save themselves , that is the reason, only reason.

Another thing, only a few days back I posted---
SLEEPING PEOPLE CRUSHED UNDER SPEEDING VEHICLES-Who is responsible? As the case of Salman/ Suhail Khan, we get frequent news of some people, who were sleeping on
the road sides and dividers of the roads, got crushed to death under speeding vehicles.

Immediately the whole world goes against the persons, who were behind the steering wheel. The media, the public, the law and the police, all accept the drivers as the culprit but why can not we see that roadsides and the dividers are not meant for sleeping. Sleeping there itself is inviting accidents. So it is the duty of our Government to make some arrangements, so that nobody sleeps on dividers and sides of the roads. Only then such accidents can be avoided.

This is the basic, such an accident, is the basic theme of this movie. And in the end the guy responsible for such an accident gets convicted, all clap. I strongly oppose it, footpaths are not for sleeping accepted, footpaths are not for running the cars either that too accepted but who is responsible for such an accidents, the car driver, or the footpath sleepers or the social system that create beggars, labors, penniless pauper people who are forced to sleep nowhere else except footpaths or even on the road dividers, inviting deaths.

I feel it is the social system, hence no need to give any harsh punishment to the car drivers, seeing the situation, if the driver is a hard-core-mistake-maker, then the matter is different, other wise light punishment and heavy road sense training is what that is needed.

(12) Wrong Oscar to Movie "Life of PIE"--- -- The story is based on a novel which won "Man Booker Prize for Fiction" but it is so plain that I can write better than it everyday, the computerized fantasy land shown were far better, finer in Avtar, Narnia, Harry Potter etc.I feel given Oscar only because the movie tried to prove the existence of God indirectly, appeasement for the Theists.Even Barack Obama described "Life of Pi" as an elegant proof of God and the power of storytelling.

(13) "Mohan Joshi Hazir Ho", is a great 1984 art movie, a satire on Indian Legal System, which is still the same or worse. One dialogue of the movie "Mohan Joshi hazir Ho"," Mr. Joshi, the case against you has been dismissed, not dead, we will appeal till the Supreme Court, u know the life of a court case is very long, very very long."

(14) I love this 2006 Movie, "Zindaggi Rocks", Sushmita Sen a rock-star, dies to save the life of her ADOPTED son. A must watch for everyone to understand what love is.

(15) Zindagi na Milegi Dobara-----Right, the movie's theme is Great. In a book written about India, writer wrote on the first page, India is a Rich Country, where poor ppl live, m in real estate in Delhi & see that people are multi-millionaire due to property but they are such FOOLS that they are living lives of paupers.

And this is the movie, which teaches, how to LIVE life fully, Hence Salute.

(16) Ek Din Achanak, 1989, Hindi Movie:---Watched last night, a retired professor, leaves his easy living happy family forever, consisting wife & 3 marriageable caring kids, his last words to his wife, " It is pathetic that we have only one life to live".

Do not we all feel the same that it is pathetic that we have only one life to live and do not we all feel like leaving our families forever?

(17) In 2 movies of Aamir Khan, "Delhi Belly" & "Talaash", I perceived one common thing that amidst the whole chaos, in the end, under privileged people get the booty, in Delhi Belly 90 Lakhs in Talaash 20 Lakhs, are not most of us awaiting that booty for ourselves?

(18) In "Talassh", Aamir & Kareena say to each other that they are at wrong place in Life, I felt the same for me but then I also felt that many of us would be feeling the same & this is because in the name of society, we have created a Chaos.

(19) "Garam Hawa", 1973, showing plight of Muslims just after the times of 1947 partition. Watched on recommendation of my friend Bobby Sing, a film critic, what a movie! Balraj Sahney, what an actor! A complete natural actor, in fact, a non-actor.

(20) To understand the power of subconscious mind just watch Great Hindi movie "Kartik Callling Kartik", great & deep & enlightening story line, great performance by Farhan Akhtar & my most favorite gorgeous actress Deepika Padukone.

(21) "Right Ya Wrong", a Good Court Room movie, starring Sunny Deol, Irfaan Khan and Isha Kopikkar and Konkana Sen.
Great Court room scenes.
A lot can be learnt for Advocacy.

(22) "Kinsey 2004", A movie on Sexologist Dr. Kinsey, wonderful, really, never seen such a thing, must watch by everyone.

(23) Hollywood flick "Jerry Maguire" an Old Movie featuring Tom Cruise, Cuba Gooding Jr. & Renee Zellwegger, What a Movie, what an acting, full body acting, must be seen by all, esp. by the aspiring actors to learn what great acting is.

(24) Gangs of Wasseypur---made by Foolish & made hit by foolish--- Old wine in Old bottle--just the location & Lingo changed from Metros to villages, Stupids.

(25) Aisha, 2010, the movie:----This Sonam Kapoor movie is a modern day adaptation of the 1815 British novel, Emma by Jane Austen, a 'comedy of manners' set in the upper class society of Delhi, India. , Nothing new, Nothing to learn, nothing appreciable, AVOIDABLE.

(26) Makkhi, the movie:--- Just finished watching. This 2012 movie was made in Telugu as Eega, in Tamil as Nan se and in Hindi as Makhhi. Good animation but old story of revenge, AVOIDABLE.

(27)  "Teesri Azaadi", the one, who has not seen this Movie, does not understand Indian history appropriately, highly recommendable, plz watch the full movie available @ youtube.

(28)  "English Vinglish" at Vishal, Rajouri Garden...........A great movie worth watching, never miss.

(29) Satya-jit Ray's "Apu triology---Satyajit Ray: Pather Panchali (1955), Aparajito (1956) and Apur Sansar (1959)."

It had been considered a legend, but I found nothing in the story-line, a very simple life story of a man Apu. We can find that story everywhere.
The only thing, I liked cinematography, very realistic.
Still after watching, these three movies, I feel that Ray has been over-rated.

(30) "Udaan", a 2010 Hindi Movie----- How kids are tortured by parents, slaved almost killed, their every wish, every will, every happiness---- a fine example.

(31) "3 IDIOTS" propounded a Wrong Theory--- Be what you want to be/ Do what you wan to be"

There is a theory that we all, almost all are in wrong professions.
That is why, we are performing poor.
Actually we wanted to be something else but became something else.
Someone wanted to be a singer but became a doctor.
Someone could be good poet but became a bad engineer because the one actually never wanted to be an engineer.
Osho too have talked a lot regarding this.
Even the movie "3 IDIOTS" had this concept.
"Be the one, you wanted to be.
Want to be footballer, be a footballer.
Want to be painter, be a painter."
NO, STRONGLY DENYING THIS CONCEPT.

Just do a random survey, rarely you will find someone who want to be a doctor/engineer/chartered account.....people want to dance, sing, play, eat, do sex....who want to indulge in some boring jobs? Such jobs are not passions of human beings, rarely are. Such jobs are just compulsions.
But society needs mathematicians, engineers, doctors, lawyers, judges, chartered accountants.
Got the points?
Here is the catch.

So, be a professional but do not get consumed by your profession if your profession is not your passion. Devote yourself to your passions also.
And never get consumed by the idea, that I did wanted to be this, did wanted to do this because it was never my passion still I am compelled to do all this.
No, you never wanted to be anything, you perhaps wanted to eat, drink and make marry but see what we have to do we have to do...that is life...life is so.

Hope my point is gotten.

(32) Just like Hindu Sadhvi, me too say Movies of Muslims like Salmaan, Aamir and Shahrukh Khan must not be seen.......but only the idiotic movies.
And the movies like PK, Chak De must be seen.
And this attitude be adopted not only towards Muslims but Hindu film
makers too.
Howzdatt?

(33) Challa ki labda fire, a song of "Jab Tak Hai Jaan", it is Jhalla (Eccentric, weird) not Challa (ring).

ii) Hollywood Movies:----Mostly very Kiddish, great entertainment for most of us, the grown up kids.

iii) Multiplex are overrated, smaller screens, expensive tickets, worn out halls............Shit!!! Single Screen are far far better, cheaper tickets, so big halls, so bigger screens, Maza aa Jata hai!!!

iv) They have started playing National Anthem, "Jan Gan Man" before starting the movie in Cinema Halls, and people stand up to pay the respect, I never do, I am no nationalist, I hate nationalism, I am Cosmic.

(34) "Skyfall", a James Bond movie------Watched last night, what a waste, no story, no good action, worst Bond movie, I saw and I have seen all perhaps, this was the worst Bond movie. Daniel Craig played Bond, looks so worn out, so torn out. The best bond is I feel is Pierce Brosnan, then Sean Connery, then Roger Moore.

(35) Just finished watching "Imitation Game", an English movie, based on the life of Alan Turing, considered father of computers.
You and me are using computers most probably because of him.
Just Google and if possible watch the movie also.
He died at 41 years of age.Most probably a suicide.
Good. We kill our Geniuses often.

(36) Escape from Sobibor ----- I watched this movie, 3 years back, this is one of the BEST English movie, I ever watched.
This movie shows us how HITLER was killing Jews.
A live show, this is a movie, which will haunt you again and again.

(37) FULL METAL JACKET, 1987, Hollywood movie,a must watch, great actors, great story line, very interesting, shows mental plight of army men.
Humans are equal everywhere, similar emotions, borders are foolish.

(38) DIAL M FOR MURDER, a 1954 Alfred Hitchcock movie, a classic, it seems as if we are reading a book, everything great!
Hitchcock was really a Genius of thriller movies.

(39) After Bruce-Lee, Jackie Chan turned martial arts movies into comedy movies.

And then the other ones showed in their movies that martial arts is something which could give humans power to fly.
What a fall!
Idiots.
Bruce- Lee was the only one.

(40) Another movie, which I would recommend is LAST HOUSE ON THE LEFT.
This is a great movie, not something easy to be digested, a tough one.
You may not sleep easily after watching this movie.
It had been remade. This also shows that American society is no different than ours. They too are facing similar challenges.
Everything great, a must watch.

(41)  Joan of Arc...a Hollywood flick...based on legendary peasant girl ..burnt alive by church almost 500 years ago.....lately declared a saint by church itself.
Salute to her, she lived well, she led well, she died well.
Watch this movie on my recommendation..you will not have to regret.

(42) "Picture of Dorian Gray" --a movie based on the famous writing of Oscar Wilde with the same name.
What a movie!

Oscar Wilde is always Genius. I love him.

(43) Gravity, a Sandra Bullock & George Clooney, Hollywood flick----I watched, yester-night.
What a great movie!
Both of these leading characters are astronauts, stuck in space, about to die any time.
They know death may come any moment.
How human they are!
How much they miss day to day life, common life, family!!
Sandra, she somehow hears sound of a dog bark on a radio, then some sounds of a small baby, she just gets enthralled.
And how much happy she is , when she touches the ground, earth again!
Gravity!
We really do not understand the value of little, small happiness, just scattered around us, everywhere.
A movie, must be watched by everyone to understand ourselves better.

(44) Manoj Night Shyamlan, a South Indian Hollywood film maker, watched a few of his movies, did not like much, seemed much over-rated.
Lady in Water---what a waste--how can someone make such a stupid movie?
Devil---no plot, no clarity, only scenes---another disaster.

(45) MURDER ON THE ORIENT EXPRESS
This is perhaps the most famous novel of great mystery writer Agatha Christie.
I read this years back, recently watched the movie based on it.
What a story!
Agatha is called a genius and I understand that she actually was.
In a train, a man gets murdered.
Hercule Poirot, a round headed Belgian detective, Agatha's Sherlock Holmes version, is also traveling in the same train.
Initially it becomes somewhat difficult for him to find the truth but not for very long time.
He understands that when everyone has a perfect alibi, all are involved.
As they showed in "No one killed Jessica", none is found as the culprit. But a crime has happened, none is caught that means all are involved somehow.
As no politician comes under the noose of law, why? Because all are involved.
I recommend this novel, this movie to all of my friends.

(46) "GOD IS DEAD Vs. GOD'S NOT DEAD"
Just watched English movie, "GOD'S NOT DEAD"
So now churches, Mosques, temples were not enough.
Preaching of thousand years, preaching of day and night was not enough.
They had to make movies to prove that God's not dead.
If there are movies like PK to laugh at churches, temples etc, there are movies like GOD'S NOT DEAD to promote Jesus and church.
GOOD, but still the match is not between the equals, let us have temples to preach. GOD IS DEAD, same as Temples, churches, Gurudwars are preaching all the times, that there is some GOD, alive...let us have same kinda propaganda against GOD, against his existence.
And then let us have an equal match between GOD IS DEAD & GOD'S NOT DEAD.
Let us enjoy the match.
Cheers!



(47) DYSTOPIAN MOVIES, WHY THEY ARE SO IMPORTANT

Recently watched 2 Hollywood movies, "Divergent" & "Hunger Games", in these movies, the basic theme is that the whole society is being run under a faulty system, which is for a few people only and most of other people are living lives of slaves, their lives are, in-fact valueless, worthless, lifeless.
Then I came to know that these movies are called dystopian movies, showing society living under a condition just opposite to a utopia, a very dehumanizing one, in which everything and everyone is for a few ones only and the rest live just like slaves.
Now why I am talking about these movies?
Simply because I feel that the story-lines of dystopian movies are not just imaginary, it has solid ground, it is a reality.
Since the very birth of human society, it has never been civilized, it has just developed a system in which some powerful, some shrewd people could keep their money and power intact and live peacefully. All the other human, in-fact sub-humans may go on serving them, may go on living a lifeless life, may not stand against these a few rich & powerful people, may not participate in an uprising against this so-called-fucking-civilization.
But now, I see, with the advent of easy real-time communicative methods, that uprising is also going to become a reality as shown in these movies.

(48)  !!!PORNOGRAPHY, A REDEFINITION!!!

Let us define what is porn......generally if male female found in sexual conditions might be assumed crude, rude, horn or porn.

But I think it is quite natural, nature, pure nature, nature at its best.

Porn is killing some innocent.
Porn is looting some honest people.
Penetrating a body with a tongue or a penis is not porn.
Porn is penetrating with daggers or bullets

PORN

There is nothing wrong in it. As one can learn things watching videos at YouTube, one can learn similarly from Pornhub. Nothing wrong.

The only thing to be taken care of is SEX is not physiology alone, not merely physical motions, it is also emotions.

And you see, only a few years back, a film actress's career used to get dim as she got married.

Now even a porn star like Sunny Leone is getting the lead roles in Hindi Cinema.

Society is changing.
Society has started taking sex somewhat easily.
But baby steps.
Giant steps still needed.


COPY RIGHT MATTER....STEALING NOT ALLOWED......SHARING WELCOME.....TUSHAR COSMIC

Tuesday, 16 June 2015

बच्चे-- बेहतरीन गुरु

बच्चे को  न सर दर्द पता है, न थकावट और न ही पागलपन और न ही मूर्खता.....आपको शायद ही कभी कोई बच्चा मूर्ख दिखे, पागल दिखे ...यह सब बड़ों की बीमारियाँ हैं, न ही बच्चे को कभी सर दर्द होता है....न ही उसे थकावट होती है...जीवन उसके लिए नित नया है, बच्चा कभी थकता ही नहीं.........उस तरह से कभी नहीं जैसे बड़े लोग थकते हैं, उचाट कभी नहीं, ऐसे कभी नहीं जैसे जीवन चूका जा रहा हो, रीता जा रहा हो, ऐसे कभी नहीं.....

अभी पड़ोस में ही एक मृत्यु हो गई.....लगभग चालीस साल का व्यक्ति...ब्लड कैंसर......उनकी तकरीबन पांच साल की बेटी से यदाकदा मैं खेलता था....उसका नाम है 'विधि'.....प्यार मैं उसे मैं मेथड......'ओ मेथड' बुलाता हूँ......बहुत चंचल...बहुत तेज़ भागती दौडती है........उनके घर के बाहर भीड़ थी.......औरते और आदमी सब.....कहीं से भागती आयी सबके सामने, मुझसे लिपट गई...हंसती हुई.....अंकल अंकल मुझे गोदी उठाओ, मैंने उठा लिया. "अंकल , आपको पता है, ऊपर मेरे पापा मरे पड़े हैं."

मैं फक्क. सब मुझे और उसे देख रहे.....मैं कुछ बोल ही न सका. उसके लिए जैसे यह कुछ हुआ ही न हो. आप इस घटना को कैसे भी देख सकते हैं. जैसे बच्चे को अभी पता नहीं कि पापा का मरना क्या होता है, उसके जीवन पर इसका क्या असर होने वाला है.....मेरे भी मन में बहुत कुछ आया. फिर मैं सोच रहा था कि यदि हमारा समाज ऐसा हो कि बच्चे के आगामी जीवन का उसके पापा की मृत्यु का कोई बहुत असर न पड़ता हो तो शायद बच्ची अपनी जगह सही है, इसके लिए आज का दिन भी भागने दौड़ने का है, मस्ती भरा है. दरियाँ बिछी हैं......बड़े पंखे चल रहे  हैं, खुली  जगह है.

बहुत कुछ है जो हमें बच्चों  से सीखना  है,  शायद  हमें अंदर अंदर से यह पता भी है...तभी तो हम 'वो बारिश का पानी और कागज़ की कश्ती' को याद करते रहते हैं, वो बचपन की गलियां नहीं भूलते, तभी हम गाते भी हैं 'बच्चे मन के सच्चे'.......तभी हैरी पॉटर, नार्निया और लार्ड ऑफ़ दी रिंग्स जैसी कहानियाँ न सिर्फ बच्चों में बल्कि बड़ों को भी प्रिय हैं......  तभी हम बच्चों के साथ थोड़ी देर खेल कर ही तरोताजा हो जाते हैं.

तमाम दुनिया की किताबें एक तरफ हैं और बच्चे का जीवन एक तरफ़.....वो पुलकित, वो कुसुमित.......असल में बहुत किताबें तो लिखनी ही इसलिए पड़ी कि मनुष्य बचपना खो चुका........बचपन की सुगंध खो चुका....मनुष्य ऐसी जीवन पद्धति विकसित ही नहीं कर पाया कि वो बच्चों की तरह उछलता, कूदता, चहकता जीवन व्यतीत कर सके.....जैसे जैसे वो बड़ा होता है, उसका जीवन कोल्हू के बैल जैसा हो जाता है, धोबी के गधे जैसा हो जाता है.........नीरस.

लाख कहते रहो कि हमारी संस्कृति बहुत विकसित है...नहीं, अभी तो हम प्राकृतिक भी नहीं हुए, संस्कृत होना, सुसंस्कृत होना तो दूर की बात है...अभी तो विकृत हुए हैं.

प्रकृति देखनी है तो बच्चों में देखिये........विकृत देखनी है तो बड़ों को देखिये.

दो बिटिया हैं मेरी.......यकीन जानिये दोनों नहीं होती इस पृथ्वी पर यदि मेरी चलती......दोनों बार बहुत कलेश किया मैंने....मैं चाहता ही नहीं था कि हमारे बच्चे हों..."बहुत जनसंख्या है पृथ्वी पर.......फिर हमारे बच्चे हमारे ही शरीर से हों यह भी क्या ज़रूरी"......लेकिन मेरी कहाँ चलती? सब परिवार वाले दोनों बार श्रीमतीजी की तरफ़........छोटी वाली की बारी तो बहुत ही ज़्यादा कलेश किया मैंने कि उसे ड्राप कर दिया जाए....लेकिन हारना पड़ा मुझे......आप मानेंगे, वो ही सबसे प्रिय है मुझे.

अभी मेरी पीठ को बोर्ड बना कर पेन से पेंटिंग कर रही थी.......सारा दिन घर उसकी चिल्ल-पों से गूंजता रहता है.....उसके उठते ही घर जैसे जाग जाता है.....अलसाने तक का मौका नहीं मिलता........सबको छोटी उंगली पर नचा के रखती है...उसे हर चीज़ समझनी हैं, हर चीज़ जाननी है, हर काम खुद करना है......हम खाना खिलाएं तो नहीं खाना, अपने हाथ से खायेगी, आधा गिरा देगी लेकिन अपने हाथ से खायेगी.....कुत्तु को पूँछ पकड़ के घुमा देगी, वो भी उसे कुछ नहीं कहता जैसे जन्मों का नाता हो.....कार की पिछली सीट  पर कभी नहीं टिकती, दोनों अगली सीटों के बीच खड़ी हो मुझे आवाजें मारेगी........हर तीसरे दिन हैप्पी बर्थडे करना होता है.....केक काटा  जाए, मोमबत्ती लगाई जाए........सब तालियाँ बजाएं.....बहुत खुश होती है........केक को "हैप्पी टू यू" बोलती है.........आजकल विडियो देखने का शौक है....दीदा (बड़ी बेटी) का डेस्कटॉप और  मेरा लैप टॉप घेरे रहती है.......अभी तीन चार दिन पहले  ही कह रही थी......"पापा  मेला  मोबाइल...मेला मोबाइल".....यानि मुझे अलग से मोबाइल ले के दो, ताकि मैं निर्विरोध  विडियो देख सकूं........अपनी ज़िद मनवाने को पुच्चियों की रिश्वत देगी, उसे पता है, उसकी पुच्चियों से पहाड़ भी पिघल जाते हैं, वो भी तुरंत......ब्रह्मास्त्र......सो जो बात मनवानी हो, तुरत मनवा लेती है....यदि लगे कि माँ, डांट रही हैं, गुस्सा हैं, पुच्चियों की बारिश, माँ बर्फ़......मेरी बच्ची.


छोटे बच्चे के साथ बैट बॉल खेलने में जो मज़ा है, वो क्रिकेट वर्ल्ड कप मैच देखने में कहाँ?

जो मज़ा  बच्चे से कुश्ती हारने में है वो शायद दुनिया का सबसे बड़ी जंग जीतने में भी नहीं है ...असल में जंग जीतने का मज़ा तो कोई रुग्ण व्यक्ति ही ले सकता है.

नमकीन में से निकाली गई मूंगफली, बिस्कुट के ऊपर से उतारा गया काजू और बच्चे से ली गई आइसक्रीम ज़्यादा ही स्वाद होते हैं


छोटी  के लिए लिखा था, कोई साल भर पहले

"मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है
तू ही प्रभु है या फिर तुझे स्वयम्भू कहूं
तू कौन है
तू क्या है
तू कितनी अच्छी है
तू कितनी प्यारी है
तुझे कुदरत ने कितनी उम्मीदों से भेजा है
सोचता हूँ, मैं इस काबिल भी हूँ, तेरे काबिल भी हूँ
फिर सोचता हूँ, कुदरत ने भेजा है तो सोच कर ही भेजा होगा
तेरी किलकारियों के साथ ही घर जैसे रोशनी से भर जाता है
तेरे उठते ही जीवन जाग जाता है
तेरे सोते ही रात घिर आती है
मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है"

कभी सोचता हूँ, कितनी प्यारी है यह, क्या दुनिया इसके लायक है......बड़ी होगी, कैसी बकवास दुनिया का सामना करेगी.....जहाँ इंसान इंसान पे कभी भरोसा नहीं कर सकता...हर वक्त यही डर लगा रहता है कि कोई हमें मूर्ख न बना ले, लूट न ले, मार न दे.

हमारी आधी से ज़्यादा समझदारी तो बस यह है कि दूसरे हमें बेवकूफ़ न बना दें, दूसरों से खुद को कैसे सुरक्षित करना है, बचा के रखना है......ऐसी दुनिया विकसित की है हमने और इसे हम संस्कृति कहते हैं, इस पर गर्व करते हैं.....

छोटी बड़ी तेज़ी से बड़ी होती जा रही है, अभी कल पैदा हुई थी, अब सवा दो साल की हो गई है, कब बराबर की हो जायेगी पता  भी न चलेगा......सोचते हैं हम सब कितना अच्छा हो यह छोटी  ही रहे, हम सब यूँ ही इसके साथ हँसते खेलते रहें, मस्ती करते रहें......उसके साथ हम सब भी छोटे हो जाते हैं और हममें से कोई  भी बड़ा नहीं होना चाहता...हम अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय उसके साथ ही बिताना चाहते हैं.....अभी तो बिता भी पाते हैं....मैं सोचता हूँ, कैसे अभागे हैं, वो माँ बाप  जो अपने बच्चों  को समय  ही नहीं दे पाते...कितनों को तो यह पता ही नहीं लगता कि उनके बच्चे कब बड़े हो गए.

आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो.
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.

मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, बैरे नंगे पैर घूमते थे, आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो  माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब सागर रत्न रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.

खैर, आज भी डबल ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे

बड़ी वाली बिटिया  को मैं आज भी वैसे ही चूमता हूँ, गले लगता हूँ......उसे कहता हूँ, "बेटा तू जितनी भी बड़ी हो जा, तेरा बाप ऐसा ही रहेगा, ये बड़ा नहीं होगा".....वो भी कहती  है,"पापा बड़ा कौन होना चाहता है? बड़े हो के क्या मिलना है सिवा सर दर्द के, पागलपन के, बीमारियों के?"

जब मैं यह कहता हूँ कि माँ बाप को समय बिताना चाहिए बच्चों के साथ तो मेरा मतलब यह कि माँ बाप को बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत हैं, बच्चों से. असल में बच्चों के पास सिखाने को बहुत कुछ है, बहुत कुछ कीमती. सिखाने के लिए तो बड़ों के पास भी है लेकिन उसमें बहुत कुछ कचरा तो है, घातक  है.

जीवन कैसे जीया जाए.....यहाँ 'आर्ट ऑफ़ लाइफ' सिखाया जाता है....यहाँ 'नींद कैसे  ली  जाए' सम्मोहन से  सिखाया जाता है...उसके हज़ारों रुपैये लिए जाते हैं......नाचना, खुल के हँसना, चीखना चिल्लाना सिखाया जाता है......ध्यान  की विधियाँ.

सब सिखावन इसलिए है कि बचपन से नाता टूट गया है....होशियार होना पड़ा...हम ऐसी दुनिया नहीं बना सके कि मस्त रह सकें...हमें हर वक्त चौकन्ने रहना पड़ता है........सब्ज़ी भी लेते हैं तो उल्ट पुलट देखनी पड़ती है...कहीं हमारा बेवकूफ न बनाया जा रहा हो.

बच्चों  को देख लो, वो आपके लम्बी  दाढ़ी, लम्बे बालों वाले  गुरुओं के गुरु हैं.  बेहतरीन गुरु. लेकिन सबसे बड़े गुरु से भी आप नहीं सीख सकते, यदि आपने न सीखना हो. कहते हैं कि शिष्य तैयार हो तो गुरु हाज़िर हो  जाता है. असल में गुरु तो हर वक्त हाज़िर ही होता है. पूरी कायनात गुरु है. और कायनात हर वक्त नए बच्चे भेजती है, नए गुरु, ताकि आप और हम सीख सकें लेकिन हम अटके रहते हैं, सदियों पुराने, बीत चुके, रीत चुके मुर्दों के साथ.

और   जैसे सब  बेह्तरीन गुरुओं के साथ इन्सान ने ना-इन्साफ़ी की है, वैसे ही बच्चों के साथ भी बेहूदगी ही की है आज तक. ज़्यादातर. उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया है...बच्चों के साथ पेश आने की तमीज़ ही नहीं है, बड़ों को. जैसे बच्चा इज्ज़त के काबिल ही नहीं...जैसे बीस तीस बरस पहले इस पृथ्वी पर आने से बड़ों में कोई सुरखाब के पर लग गए....बेहूदे

कहते हैं कि बड़े असल में बच्चे ही होते हैं, बड़े बच्चे ....Grown-up Kids.......लेकिन मुझे लगता है कि बड़े बड़े नहीं होते बिगड़े होते हैं....बिगड़े बच्चे ....या कहें कि बिगाड़े गए बच्चे.....Spoilt Kids.

वो कहते हैं .....कुछ  दिन  तो  गुज़ारिये  गुजरात   में.....मैं कहता हूँ....सारा नहीं, लेकिन कुछ समय   तो गुज़ारिये बच्चों  में.....और सिर्फ सिखाने  की नहीं, सीखने  की कोशिश करिए  उनसे.
आपके   बहुत   से गुरु   बौने लगेंगे, अद्धे-पौने लगेंगे और बच्चे  आपको नोने लगेंगे, सोने लगेंगे

नमन...कॉपी राईट  मैटर..... चुराएं न..... साँझा  कर सकते हैं

फिल्में और फ़िल्मकार

मैंने यदा कदा फिल्मों और फिल्मों से जुड़े सजन सजनियों के विषय में लिखा है. पेशे-ए-ख़िदमत है.......पेशा नहीं है बस ख़िदमत है और सजन सजनियों से मतलब सज्जन  सज्जनियाँ नहीं है, सजे और सजी हुईं  है .....अब कहीं  की बात, कहीं  पर  लात......हो सकता  है, ऐसा  बिलकुल हो सकता है...  ...खैर, चलिए मेरे साथ एक बार फ़िर---

(1) !! सौ करोड़ी फिल्म की जीवन गाथा !!

बीसेक बढ़िया बढ़िया अंग्रेज़ी फिल्म एक कमरे में बिठा कर दिखाई जाती हैं....लेखक लोग उनमें से बढ़िया सीन छांटते हैं.......फिर उनको जोड़ एक कहानीनुमा चीज़ बनाई जाती हैं........

उधर से गीत संगीत देने वालों की टीम कुछ गाने तैयार कर लेती है....इन गानों को उस कहानीनुमा चीज़ में फिट फाट किया जाता है....और कुछ समझ न आये तो फिर शुरू में और अंत में गाने डाले जाते हैं........

अब लीडिंग एक्टर को भारी फीस देकर फिल्म शूट कर ली जाती है.....
फिर एक्टर, डायरेक्टर, गीत संगीत देने वाले....सब मिल मिला कर टीवी के हर चैनल पर आन खड़े होते हैं.....रेडियो पर भी और असल में तो मीडिया के हर चैनेल पर.....

और कुछ ही दिन में जनता फिल्म देख ही लेती है... फिल्म सौ करोड़ी हो चुकी होती है

(2) अगली पीढी पिछली से बेहतर होनी चाहिए, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता
फिल्म इंडस्ट्री इसका अच्छा उदाहरण है.......नितिन मुकेश अपने पिता मुकेश का मुकाबला नहीं कर पाए और न ही अमित कुमार अपने पिता किशोर कुमार का, धर्मेन्द्र का कोई बेटा उनके बराबर नहीं पहुँच सका, और न हेमा मालिनी की बेटियां माँ का मुकाबला कर पाई, अभिषेक अमिताभ का मुकाबला नहीं कर पाए, कुमार गौरव राजेन्द्र कुमार के आस-पास भी न आ पाए

वजह क्या है?
वजह है जीवन का संघर्ष
संघर्ष निखार लाता है

सो पिछली पीढी का फर्ज़ है कि अगली पीढी संघर्ष करे, मतलब यह नहीं कि अगली पीढी खेल वहीं से शुरू करे जहाँ से पिछली पीढी ने शुरू किया था, अगर उसने फाके काटे, ठोकरें खाई , बे-इज़्ज़ती सही तो ऐसा ही नई पीढी के साथ भी हो...नहीं, यह मतलब नहीं है, लेकिन संघर्ष ज़रूर करे, अपने स्तर का संघर्ष करे.......अपने बापों के बेटे बेटियां ही न बने रहें सारी उम्र

(3) सुना है स्वच्छता नाम का भी कोई ब्रांड है , जिसके ब्रांड Ambassdor कोई बड़े फिल्म स्टार हैं, अब ये स्टार साब अपने फ़िल्मी काम धाम में से समय निकाल हर रोज़ सडक, नाली और सीवर साफ़ करने वाले हैं, आखिर उनका ब्रांड जो है स्वच्छता ....सच है क्या?

(4) कुछ मित्रगण कहते हैं कि मोदी को गोधरा या गुजरात दंगों के लिए बिलकुल भी दोष नहीं दिया जाना चाहिए, कोर्ट तक ने उनको दोषी नहीं पाया...

अब यही तर्क क्या दिल्ली के दंगों पर भी लागू करेंगे? कोर्ट ने तो आज तक सज्जन कुमार और जगदीश Titler या किसी भी बड़े नेता को इसमें दोषी नहीं पाया.....तो शायद कोई दोषी है ही नहीं, या शायद सिखों के विरुद्ध कुछ हुआ ही नहीं....वो फिल्म नहीं बनी थी...No One Killed Jessica.

(5) सुना है आमिर खान PK फिल्म का मर्म समझ गए हैं और अब खुद को खान नहीं कहलायेंगे....और न ही हज को जायेंगे......मुस्लिम नहीं, अब इंसान बन गए हैं...कौनो ठप्पा थोड़ा लगा है ...............अरे सही सुना है का...........बतावा भई.....या कि आमिरवा फिरकी लयेबो???????

और सुना है अनुष्का शर्मा भी PK फिल्म का मर्म समझ गयी हैं.....उन्हें समझ आ गया है कि कौवा अगर टाई पहन लेगा तो भद्दा लगेगा, उन्हें समझ आ गया है कि प्रकृति को विकृति की तरफ़ नहीं ले जाना चाहिए ....इसलिए अब वो नग्न तो खैर नहीं घूमेंगी लेकिन अगली फिल्म में बोटॉक्स के इंजेक्शन लगवा अपने होंठ भी खराब नहीं करेंगी.

(6)  वैसे मैं बहुत कम चुटकले सुनाता हूँ...लेकिन आज तो एक और सुना ही देता हूँ......आप बताना काबिले तारीफ़ है कि नहीं......
एक गाना है, फिल्म चेन्नई express का, लुंगी डांस, लुँगी डांस.......शाहरुख़ और दीपिका पादुकोण नाचे हैं गाने पे......अब हैरत यह है कि पूरे गाने में लुँगी दोनों ने नहीं पहनी...

(7) !!! फुकरे , हिंदी फिल्म !!!

यह एक फुकरी सी फिल्म है, हल्की फुल्की......
एक बात तो यह समझ आती है कि ज़्यादातर नए चेहरे भी बहुत अच्छी एक्टिंग कर सकते हैं.....
दूसरी यह कि हमने एक बकवास समाज बनाया है जहाँ लगभग हर व्यक्ति किसी लाटरी खुलने का इंतज़ार कर रहा है

(8) !!!! हैदर, यक तरफ़ा फिल्म !!!!

देखी पिछली रात, कुछ रिव्यु भी पढ़े, सब के सब प्रशंसा से भरे, विशाल भरद्वाज की प्रशंसा, गुलज़ार की प्रशंसा.....

लेकिन मुझे तो इस फ़िल्म में प्रशंसा लायक कुछ दिखा नहीं.....दिखा इस लिए नहीं कि इसे मात्र एक कहानी के तौर पे, एक ऐसी कहानी के तौर पे पेश किया जाता जो शेक्सपियर के नाटक पर आधारित है तो बात अलग थी

लेकिन इसे तो कश्मीर के आतंकवाद, कश्मीर के दर्द से जोड़ा गया
जोड़ो भाई जोड़ो ..... जोड़ो क्या, सीधा साफ़ दिखाओ...

बिल्कुल दिखाओ कि हिन्दू लोगों को कश्मीर से भगाने के लिए, उन्हें क़त्ल किया जाता रहा, उन को निशाना बनाया जाता रहा, कुछ वैसे ही जैसे पंजाब में हिन्दुओं को खालिस्तानियों द्वारा

आज तक पंजाब के लहुलुहान आतंकित दौर पर जितनी फिल्में बनी हैं, किसी ने सही तस्वीर नहीं दिखाई......हिन्दू पर कोई अत्याचार होता या तो दिखाया ही नही और दिखाया भी तो न के बराबर , अभी एक पंजाबी फिल्म देखी "साडा हक़" , बड़ा रौला रप्पा पड़ता रहा है, ...अधूरी फिल्म है, :माचिस" की तरह और इस विषय पर बनी बाक़ी फिल्मों की तरह ....

आतंकवादी इसलिए पैदा नहीं हुए कि उन पर अत्याचार हो रहे थे...न, न.......उन पर अत्याचार इसलिए हुए क्योंकि वो अत्याचार कर रहे थे........पैदा तो वो अपनी ही भ्रष्ट सोच समझ की वजह से हुए थे

और यहाँ भी "हैदर" फिल्म में, हैदर अपने पिता का बदला लेना चाहता है लेकिन देखने लायक बात यह थी कि उसके पिता आतंकियों के साथी थे, लेकिन पिता को हीरो दिखाया गया है और हैदर के चाचा को विलन, चाचा जिसकी मुखबिरी से हैदर का पिता पकड़ा जाता है, चूँकि उसने अपने घर में आतंकी छुपाया होता है ....पता नहीं, फिल्म बनाने वाले क्या साबित करना चाहते हैं?

और बड़ा मुद्दा दिखाया गया कि कश्मीरी मुसलमान गायब हो गये, निश्चित ही फ़ौज द्वारा मारे गये , टार्चर किये गये ...लेकिन क्या ये लोग आतंकी नहीं थे, या उनके साथी नहीं थे ? थे, फिल्म में दिखाया गया कि थे ....यहाँ लगता है कि फिल्म ठीक है

मेरा मानना है कि यदि कश्मीर का आतंक से भरा काल-खंड दिखाना है तो पूरा दिखाओ, दिखाओ कि हिन्दू क़त्ल किया गया मुस्लिम आतंकी द्वारा, बेघर किया गया.....दिखाओ कि फ़ौज ने आतंकी को पकड़ा और टॉर्चर किया और मारा, दिखाओ कि बहुत से गलत काम फ़ौज से भी हुए....पॉवर का बेजा इस्तेमाल दोनों तरफ से

दिखाओ कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति , चाहे खालिस्तानी हो चाहे कश्मीरी आतंकी , किसी को हक़ नहीं किसी को मारने का और यह दुनिया रही है रंग बिरंगे धर्म मानाने वाले लोगों से भरी.......

इस तरह बहुसंख्यक अगर अल्पसंख्यक लोगों को मारेंगे तो आधी दुनिया क़त्ल करने पड़ेगी

दिखाओ कश्मीरी ब्राह्मण का दर्द, कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े काल-खंड का मुख्य किरदार

दिखाओ....नहीं दिखाते लेकिन .....दिखाते हैं "हैदर", बकवास हैदर..........वैसे ही जैसे "माचिस", जैसे "साड्डा हक़"

(9) !!!! पंजाब का आतंकवाद, एक और नज़र !!!!!!

एक फिल्म बनी थी माचिस, गाना याद होगा आपको "चप्पा चप्पा चरखा चले", पंजाब में आतंकवाद पर आधारित, इस फिल्म को निर्देशित किया था गुलज़ार ने.......

बहुत अच्छी चली थी यह फिल्म.......

लेकिन इस फिल्म ने सच बिलकुल भी नहीं दिखाया, उल्टा झूठ फैलाया

दिखाया यह गया कि सिख जो उग्रवादी बने, वो इसलिए कि पुलिस ने, प्रशासन ने उन पर ज़ुल्म किये.....एक दम झूठ बात है

ज़ुल्म शुरू ही सिख उग्रवादियों ने किये थे.......भिंडरावाला शुरू से इस सब के पीछे था और कांग्रेस शुरू से उसके पीछे थी

लेकिन आज तक शायद ही किसी फिल्म ने, पूरी तस्वीर दिखाई हो..........

खालिस्तान की डिमांड पर हिन्दुओं को पंजाब से खदेड़ने के लिए ही उनको चुन चुन कर , कतार बना कर गोलियों से भून दिया जाता था.

पंजाब केसरी अखबार इसके विरुद्ध आवाज़ उठाता था, उनके बन्दे मार दिए गए

जो सिख इस के खिलाफ आवाज़ उठाता था, उसे भी मार दिया गया

और पंजाब में बिलकुल भी हिन्दू सिख का कोई फर्क नहीं था, हिन्दू को विशेष अधिकार न थे, ऐसे जो सिख को नहीं थे....न...न..

लेकिन फिर भी खालिस्तान का कांसेप्ट खड़ा किया गया, दिखाया गया कि चूँकि सिख अलग हैं सो उनका अलग मुल्क होना चाहिए.......मानस की जात सबे एको पहचानबो....सब भुला दिया गया...

भुला दिया गया कि गुरुओं ने तो मज़लूम की रक्षा के लिए अपने वंश तक कुर्बान कर दिए थे......

फिर एक आम आदमी को मार कर कौन सा आदर्श घड़ा जा रहा था?

गुरुद्वारों को आतंकवादियों ने अपनी पनाहगाह बना लिया था......आज अक्सर सिख कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने हरमंदर साब की बेअदबी की, वहां अन्दर फ़ौज भेज दी...... अरे भाई, ठीक है वहां पुलिस, फ़ौज नहीं जानी चाहिए, लेकिन इसी बात का फ़ायदा उठा कर तो गुरूद्वारे को एक सेफ-हाउस की तरह प्रयोग किया जाता था आतंकवादियों द्वारा, क़त्ल करते थे गुरुद्वारों में छुप जाते थे, गुरुद्वारा इन कामों के लिए बनाया जाता है क्या, बेअदबी तो आतंकवादियों ने की गुरुद्वारों की ...लेकिन वो शायद ही किसी सिख को नज़र आता हो

गुलज़ार जैसे कलाकार को नज़र नहीं आयी पूरी तस्वीर, और ये हमारे बुद्धीजीवी हैं, अरे जब तक नज़र साफ़ न हो, कुछ साफ़ नहीं दिखता, चाहे गुलज़ार हो चाहे कोई भी हो

उम्मीद है कि कोई फिल्म, कोई नाटक बनेगा, जो पंजाब में हिन्दू सिक्खों के कत्लों से लेकर दिल्ली में सिखों के कत्ले-आम की पूरी तस्वीर सही से दिखायेगा, और दिखायेगा कि सब कड़ियाँ जुड़ी थीं, और दिखायेगा कि कैसे जुड़ी थीं

(10) मनोज कुमार, कौन.....अरे वोही अपने भारत कुमार जी........उन्होंने ने अपनी छवि हनुमान यंत्र बेच कर खराब की है और किरण बेदी ने बीजेपी में आकर
सारी उम्र की कमाई गवा दी
उम्र के साथ अक्ल घट जाती है क्या?
घिस जाती है

(11) क्या अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं?------लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के  महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जा रहा है ----

a) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता.....कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं.

b) जिन्होंने ने पैसों की खातिर अंट शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है

 कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया

http://www dot  youtube dot  com/watch?v=x9VmK0L5vrk

Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).

http://www  dot  youtube dot com/watch?v=ww8o0aCNDR0

c) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे  मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेतायों की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.

d) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो

e) लानत है..... इस देश को  सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न  दिखे...

ऐसे लोग न दिखे जो  समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है

जन जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.

f) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.........

g) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान संस्कृति.....

h) जिस दिन इस  देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.

वैसे   कीमत तो कोई मिलेगी नहीं,  लेकिन  फिर  भी अपनी कीमती   राय ज़रूर दीजिये

नमन.......कॉपी राईट मैटर........चुराएं न....शेयर करें

Friday, 12 June 2015

!!! प्राइवेट स्कूलनामा !!!

एक  मित्र ने फ़ोन पर कुछ बात  की प्राइवेट स्कूलों के बारे में, कुछ शिकायत, बस जैसे  अन्दर कुछ  दबा  था फूट पड़ा, क्या दबा  था?   आईये देखिये,   शायद   आप  के भीतर वैसा ही
कुछ   वैसा ही विस्फोटक सामान दबा  हो, स्वागत है---

"भाग- 1"
पब्लिक स्कूल मतलब पब्लिक की ज़मीन पर बना पब्लिक के बच्चों के लिए स्कूल.....कितनी कारगर है यह परिभाषा? यदि नहीं, तो मेरे साथ आइये, छीन लें इन डकैतों सब कुछ

"भाग- 2"
"अरे ओ साम्भा........सुना है ई रामगढ़ के पब्लिक स्कूल वाले पुरानी किताबें फिर से प्रयोग नहीं करते?"
"जी सरदार, यदि पुरानी किताबें प्रयोग करेंगे तो फिर नई किताबों की खरीद से कमीशन कैसे खायेंगे ?"

"भाग- 3"
जज पब्लिक स्कूल के मालिक से, "तुमने ट्रैफिक का नियम तोडा है, सो तुमसे दस हज़ार जुर्माना लिया जाएगा, और अगले साल पन्द्रह हज़ार, और अगले साल बीस हज़ार, इस तरह हर साल पांच हज्जार बढ़ के जुर्माना वसूला जाएगा"

"मी लार्ड, यह तो नाइंसाफी है, एक जुर्म के लिए हर साल ज़ुर्माना, वो भी बढ़ा बढ़ा कर"

"अबे चोप्प, श्याणे, जब तू अपने स्कूल में दाख़िल बच्चों से हर साल दाखिला फीस वसूलता है, तब नहीं तुझे यही तर्क समझ में आता, हरामखोर, अभी तो तुझ से वो सब भी ब्याज समेत वसूलना है "

"भाग- 4"

"पापा पापा, दान तो मर्ज़ी से दिया जाता है और वो भी अपनी गुंजाइश के मुताबिक, नहीं?"

"बिलकुल बिटिया"

"फिर पापा हमारे स्कूल वाले तो डोनेशन हर नए दाखिल होने वाले बच्चे से लेते हैं, हम से भी लिया था और वो भी अपने हिसाब से, आपने कितना मुश्किल दिया था , मुझे आज भी याद है, फिर यह कैसा दान है?"

"बेटा, नियम से वो लोग दाखिले के लिए कोई पैसे ले नहीं सकते, इसीलिए इस वसूली का नाम उन्होंने 'दान' रखा है"

"तो हम कुछ नहीं कर सकते क्या इस नाइंसाफी के खिलाफ?"

"कौन लड़ाई करे बेटा इन मगरमच्छों से"

"नहीं पापा, यह गलत है, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी"

"भाग- 5"

संता," यार बंता, अपना सोहन सिंह पिछले दस साल से पुल के नीचे झुग्गी बस्ती के बच्चों को पढ़ा रहा है, सुना है कुछ बच्चे तो बहुत आगे तक निकल गए उसके पढाये......."

बंता,"हाँ, यार, सोहन तो वाकई सोहन है, सोहना मेरा वीर"
संता," यार, अपने ये जो पब्लिक स्कूल हैं, ये अगर सोहन जैसे वीर चलायें तो?"

बंता," ओये, पागल हो गया, सोहन जैसे लोगों को तो ऐसे स्कूल वाले पास भी न फटकने दें"

संता," फेर यार, नाले कहंदे ने, पब्लिक स्कूल, पब्लिक वास्ते, पब्लिक की ज़मीन पर?"

बंता," छड्ड यार, वड्डे लोकां दे खेड ने प्यारियो"

संता," यार , मेरी अक्ल मोटी है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है..........."

"भाग- 6"

पब्लिक स्कूल मालिक," देखो जी, बिल्डिंग फण्ड तो देना ही पड़ेगा, आखिर आपका बच्चा इसी बिल्डिंग में तो पढ़ेगा न जी"

बच्चे की माँ," वो तो ठीक है सर, पर जब बच्चा स्कूल छोड़ेगा तब बिल्डिंग तो यहीं रह जायेगी, आप कोई तो वापिसी भी करो न जी उस फण्ड की?"

"देखो जी, साथ तो कुछ भी नहीं जाता, हम मरते हैं साथ कुछ ले जाते हैं, सब यहीं रह जाता है जी"

"भूतनी दिया, खड़ा हो सीट से, स्कूल तेरे बाप का है, ज़मीन पब्लिक की, बिल्डिंग का पैसा पब्लिक का, तू मामा लगता है इस स्कूल का? तेरे से बेहतर और कम फीस लेकर चलाने वाले मिल जायेंगे हमें अभी के अभी .....ऐसी की तैसी तेरी......निकल खाली हाथ, वैसे भी साथ थोड़ा किसी ने कुछ ले जाना होता है, निकल "

"भाग- 7"

"माँ, वो आज पानीपत का दूसरा युद्ध पढाया गया हमें, यह सब आपने भी पढ़ा था क्या?"

"हाँ, बेटा"

"कुछ याद है मां जो पढ़ा था"
"न, बेटा वो तो परीक्षा कक्ष से बाहर आते ही लगभग साफ़ हो गया था"

"माँ, यह सब पढ़ा कहीं काम आया आपके"

"नहीं बेटा, फिर कभी ज़िक्र तक न हुआ, आज कर रही है तू बस"

"माँ, ये तो शायद मेरे भी कोई काम न आएगा, नहीं?"

"मोइआ दा सर, स्वाह ते मिट्टी, यह सब का कोई मतलब ही नहीं होता ज़िंदगी में"

"माँ, फिर मैं क्यों पढूं?"

"पढ़ ले बेटा, नहीं पढेगी, डिग्री नहीं मिलेगी , वो भी तो ज़रूरी है"

अब बेटी पढ़ तो रही है, पर सोच रही है अपनी तीन साल की छोटी बहन को देख, "मैं कुछ करूंगी, मेरी बहन को यह सब बकवास न पढनी पढ़े"

"भाग- 8"

सेठ दौलत हराम," भाई जी, कोई ऐसा तरीका बताओ न कि अपने पैसे खप जाएँ, पूंजी बढ़ती भी रहे और मासिक आमदनी भी चोखी हो"

हरामखोर प्रॉपर्टीज,"सेठ जी, ऐसा है, आपको एक चलता हुआ पब्लिक स्कूल दिलवा देता हूँ"

"पर सुना है, उसकी कोई रजिस्ट्री नहीं होती"

"वो तो ठीक है सेठ जी, माल तो पब्लिक का होता है न, किसी का मालिकाना हक़ तो होता नहीं, सो रजिस्ट्री तो नहीं होती लेकिन फिर भी कोई रिस्क नहीं"

"कैसे भाया?"

"सेठ जी, खरीद बेच सब होगी, इधर आप तय रकम अदा करोगे और उधर स्कूल की मैनेजमेंट इस्तीफ़ा देगी, नई मैनेजमेंट आप अपने परिवार को बना सकते हैं"

"और मासिक आमदनी?"

"वो तो बल्ले बल्ले, सेठ जी, हर जगह कमाई....देखिये, हर साल एडमिशन फीस, बिल्डिंग फण्ड, डोनेशन, मासिक फीस तथा और भी बहुत कुछ"

"और बहुत कुछ क्या?"

"सेठ जी, जब मर्ज़ी यूनिफार्म बदल दो उसमें कमीशन, हर साल नई किताबें उसमें कमीशन, सालाना फंक्शन उसमें कमाई, बच्चों को लाने ले जाने वाली बसों में कमाई, सेठ जी कमाई ही कमाई....इसके अलावा सेठ जी एक सबसे बड़ा फायदा तो मैं बताना ही भूल गया"

"वो क्या?"

"सेठ जी, आपको सारा पैसा नकद देना है, किसी को कानों कान खबर नहीं कि कोई डील हुई भी, है न बढ़िया......सेठ जी इससे बढ़िया क्या ढंग होगा कि आप अपना पैसा खपा दो, क्या ज़रुरत स्विस बैंक की, जब हमारे पास यहीं भारत में ही उससे बढ़िया स्विस बैंक मौजूद हैं?"

"हम्म....बात तो ठीक है, ठीक है फिर दिखाओ कोई डील"

"बस सेठ जी, कल तक सारी डील कन्फर्म करके वापिस आता हूँ"

"बिलकुल,लेकिन कल क्यों, आज ही चलो"

"ठीक सेठ जी, फिर आज ही "

"बिलकुल "

"भाग- 9"

माँ , "अजी सुनते हो, आज बिटिया के स्कूल वालों ने फिर से पर्चियां सी दी हैं, चंदा इकट्ठा करके लाने को, कोई 'फेट' नाम से प्रोग्राम करना है"

बाप "सब कमाई के धंधे इनके......बच्चों से भीख मंगवाते हैं....."

माँ "सो तो है जी, कोई भी पर्ची कटवाता नहीं है, किसे पड़ी है ऐसे प्रोग्राम देखने की, वो तो माँ बाप को मजबूरी में देखना पड़ता है"

बाप "छोड़ भागवाने, हम खुद ही दे देंगे जितने पैसे चाहिए इन कमीनों को.....एक रुपैया खर्च होगा तो दस रुपये वसूलते हैं, दे देंगे....बच्चे पढ़ाने जो हैं ...लेकिन यह है ग़लत.....बहुत ग़लत"

"भाग- 10"

मैं खुद हैरान हूँ, मैं "पब्लिक स्कूल" लिखता लिखता "प्राइवेट स्कूल" क्यों लिख गया......असल में इन स्कूल वालों ने हम सब को समझा रखा है कि ये स्कूल इनके हैं,निजी हैं, प्राइवेट हैं, इनकी सम्पत्ति हैं ...."पब्लिक स्कूल" माने पब्लिक को लूटने के यंत्र

"भाग- 11"

शादी में चार यार बकिया मतलब बतिया रहे हैं

एक --"यार, आज कल ये प्राइवेट स्कूल वाले बहुत लूटन लाग रहे हैं......अब बच्चा दसवीं तक पढ़ रहा है, ग्याहरवी में फिर से दाखिला फीस मांग रहे हैं'

दूसरा," छोड़ यार, काहे नशा उतार रहा है? अबे, अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, तुझे क्या लगता है, हमें नहीं पता यह सब, साले रोज़ किसी न किसी बहाने से जेब काटते हैं, पर अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, उनके पास होते हैं आधा दिन, हम कुछ कदम उठायेंगे तो हमारे बच्चों को नुक्सान पहुंचा सकते हैं, सो ज़्यादा दिमाग लगाने का कोई फायदा नहीं, मूड खराब मत कर, कोई और बात कर"

तीसरा,"यार, बात तो दोनों ठीक कह रहे हो, कुछ हो नहीं सकता क्या, इन चोरों की ऐसी तैसी नहीं की जा सकती?

चौथा,"आईडिया! हम खुद सामने आकर कुछ नहीं कर सकते, क्यों न हम एक दूसरे के बच्चों के स्कूलों पर हमला करें?"

"हाँ, यह सोचा जा सकता है" सबके स्वर और सर सहमति में मिलने और हिलने लगे और वो सब अगले दिन वकील से मिलने का पक्का कर लिए

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Thursday, 11 June 2015

!!!लेखन चोरी!!!

अक्सर मेरे लेखन की चोरी तो मैंने पकड़ी ही है, उस के अलावा मैंने कई पोस्ट एक से अधिक लोगों के द्वारा प्रेषित देखी हैं ... फेसबुक पे लोग अक्सर दूसरों का लिखा चेप कर वाहवाही लूटने को बहादुरी समझते हैं....
.
बहुत कम लोगों को समझ आता है " "Intellectual property Rights" ......समझायो तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनका हक़ मार लिया किसी ने....हक़ चोरी का...हक़ सीना जोरी का

मैंने हमेशा लेखन चोरी का विरोध किया है, विभिन्न समयों पर मेरे लिखे कुछ नोट्स हैं, इक्कठे कर पेश कर रहा हूँ.कानूनी, गैर कानूनी जानकारी और राय दे रहा हूँ, स्वागत है ---

(1) वहां मौद्रिक चोरी करते हैं
यहाँ बौधिक चोरी करते हैं

न वहां साध है
न यहाँ साध है

वहां भी घाघ हैं
यहाँ भी घाघ हैं

दूसरों को अक्ल देते फिरते हैं,
खुद को अक्ल है नहीं

अक्ल तो नकली है ही,
शक्ल भी असली है नहीं

मूर्ख हैं और चोर हैं
बेईमान घनघोर हैं

चोरी, चोरी है
चाहे मौद्रिक हो, चाहे बौधिक
चोर, चोर है
चाहे मौद्रिक हो, चाहे बौधिक

बड़े मज़े से चोरी करते हैं
पकडे जाने पे सीना जोरी करते हैं

पर जान लें, ये दंडनीय अपराध हैं
ऐसे लोग भीतर से चोर, ऊपर से साध हैं


(2) वैसे जिनको  भी  कॉपी राईट पर बहुत एतराज़ है, उन्हें ऑस्कर वाइल्ड का Picture of Dorian Gray, मैक्सिम गोर्की का Mother, तुर्गनेव का Father and sons, शेक्सपियर का Macbeth, मुंशी प्रेम चंद का गोदान, अमृता प्रीतम का रसीदी टिकेट , Balwant Gargi का  Naked Triangle और खुशवंत सिंह, टॉलस्टॉय, आदि का लेखन हुबहू अपने नाम से प्रकाशित करवा लेना चाहिए
कॉपी राईट, यह क्या होता है?
हुंह!


(3) चोरी की पोस्ट से करप्शन दूर करने का सन्देश देने वालो तुम्हारी जय हो ..जी मैंने तुम्हारी क्षय हो नहीं लिखा है....जय हो लिखा है


(4) भारत जहाँ बैंक में पेन को धागे से बाँध कर रखना पड़ता है, जहाँ प्याऊ के लोटे पर चैन लगाने पड़ती है, जहाँ अपने हर लेख के साथ पाठकों को चोरी न करने के लिए आगाह करना पड़ता है, वहां भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को साकार करना असम्भव न हो चाहे लेकिन मुश्किल ज़रूर है


(5) फेसबुक पर जो लोग दूसरों का लिखा चुराना सही  समझते हैं, मेरे  तेरे  में यकीन   नहीं करते  उनको अपना अकाउंट नंबर देता हूँ अपना सारा धन मेरे अकाउंट में ट्रान्सफर कर दें......क्या मेरा तेरा, नहीं?


(6) ये जो लोग दूजों का लेखन चोरी करके विचार फैलाने का तर्क देते हैं, इन बेवकूफों को कोई समझाओ यारो कि शेयर का बटन भी देता है फेसबुक
ज़्यादा समझदार!
चवन्नी किलो भी नहीं बिकती ऐसी समझदारी


(7) क्या आपने नोट किया कि मित्र मंडली में पोस्ट चोर वो होते हैं, जो लगभग अदृश्य और निर्लेप रहते हैं आपके प्रति.............न कभी लाइक, न कभी डिसलाइक, न कभी कैसा भी कमेंट.......लेकिन ये चोट्टे, मन के खोटे.......अक्ल के अंधे, गंदे बंदे......आपका लेखन उड़ाने में सबसे आगे.......मेरी सबसे गुज़ारिश, जिस भी मित्र को ज़रा भी शंका हो कि लेखन चोरी का है.....तो यदि जानते हों तो ओरिजिनल लेखक को सूचित करें

जब मैं कोई बढ़िया सी पोस्ट एक से ज़्यादा मित्रों द्वारा अपने खाते में डाली गई देखता हूँ...तो सोचता हूँ, शायद कहीं किसी गरीब का दिल जला होगा..


खैर मैं तो तुरत नाम रोशन करने में यकीन रखता हूँ चोरों का........नहीं, मानते, मैं क्या करूं........फिर अंत में ब्लोकास्त्र


(8) पता नहीं भाई लोग चोरी क्यों करते हैं
अपुन तो अपने कमेंट में से स्टेटस बना लेते हैं
और अपने स्टेटस में से कमेंट


(9) अब पता लगा कहाँ से स्टेटस लाते हैं,
शक्ल से ही बाखुदा चोर नज़र आते हैं


(10) "स्टेटस चोरी"

पहली  बात --लेखन एक कला है, विज्ञान है.....हर कलाकार को, वैज्ञानिक को उसका श्रेय मिलना चाहिए, नाम दाम मिलना चाहिए .........कोई न लेना चाहे उसकी मर्ज़ी

दूसरी बात------जैसे ही व्यक्ति लिखता है, यदि सच में ही खुद का लिखा हो, तो पटल पर आते ही लेखन कॉपी राईट होता है......लेखन के लिए पेटेंट नहीं, कॉपी राईट कराया जाता है....पेटेंट, कॉपी राईट, ट्रेडमार्क आदि इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स माने जाते हैं, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी को प्रॉपर्टी इसलिए कहा गया है कि इसे पैदा करने में समय लगता है, मेहनत लगती है.......इसे पैदा करने वाले से, यदि वो बेचना चाहे तो धन देकर खरीदा जा सकता.....यह  निजी सम्पति है, जिसे चुराना दंडनीय अपराध है, आपको नहीं यकीन, मेरा लेखन चोरी कीजिये, मुझे अपना एड्रेस दीजिये, आपको दो चार दिन में मेरा नोटिस मिलेगा, फिर चक्कर काटना कचहरी के.

तीसरा बात----- किसी की पोस्ट चोरी कर आप सिर्फ यह साबित करते हैं कि आप अक्ल से बाँझ है, नपुंसक है......और यदि आप चोरी के हिमायती हैं तो चोर तो हैं ही सीना जोर भी हैं....अजीब तर्क देते हैं..."क्या मेरा क्या तेरा"........इनको कहता हूँ कि अपनी प्रॉपर्टी मेरे नाम कर दो, "क्या मेरा क्या तेरा", फिर उस पॉइंट पर जवाब नहीं देते....इनको कहता हूँ कि आप अपने घर खुले छोड़ते होंगे शायद.....क्या मेरा क्या तेरा.......फिर उस पॉइंट पर जवाब नहीं देते

चौथी बात----यदि आप अच्छा लिखते हैं तो चोरी होती है, यह निश्चित है,  लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चोर सही हैं, कोई भी लेखक यदि चाहे तो अपने कॉपी राईट अधिकार प्रयोग कर सकता है, यह कानूनी भी है और नैतिक भी है

पांचवी बात----- लोग शेक्सपियर को अपने नाम से क्यों नहीं छापते? चूँकि वो प्रसिद्ध है. सो बेहतर है कि अपना लेखन, फेसबुक के साथ साथ, E-mail पर डालें, ब्लॉग पर डालें अपनी वेबसाइट पर डालें, विभिन्न आर्टिकल साईट पर डालें, इसके मल्टीप्ल फायदे हैं, आपको बहुत लोग पढेंगे और जल्दी से चोरी की कोई हिम्मत ही नाही करेगा, और यदि करेगा भी तो झगड़े में आपका मुकाबला नहीं कर पायेगा

चोरी पकड़ने के लिए आप अपने लेखन के हिस्से सीधे गूगल कर सकते हैं.....खुली साईट पर गूगल वैसे ही पकड़ दिखा देगा...."गूगल अलर्ट" भी काम आ सकता है

और फेसबुक जैसी बंद साईट के अंदर भी विभिन्न अकाउंट बना आप अपने लेखन को इसी तरह पकड़ सकते हैं, वैसे  फेसबुक पागल नहीं है जो शेयर का आप्शन देता है, उसे  चोरी और शेयर  करने  का फर्क पता है .......और यदि आपका स्टेटस कोई चोरी करता है और कहने के बावजूद नहीं हटाता है तो आप फेसबुक को रिपोर्ट भी कर सकते हैं.........बहुत लोग फेस बुक पर होने का मतलब समझते हैं दूसरों का लेखन  चुरा कर  छापना, "कौन सा कोई देख रहा है",.....गलतफहमी में हैं.....अब शायद समझ में आये कि फेसबुक पर होने का मतलब यह नहीं है कि दूसरों के लेखन उठा उठा अपने नाम से छापते फिरो

कुल मतलब यह है कि यदि आप अच्छा लिखते हैं और नहीं चाहते कि आपका लेखन कोई चुराए तो यह आपका अधिकार है. जिसे आप थोड़ी जानकारी और प्रयासों से काफी कुछ सुरक्षित कर सकते हैं

आखिरी बात----- सब मित्रों के लिए, कुतर्क   मत कीजिये कि   चोरी  करके  आप   दूसरों  के अच्छे   विचारों   को फैलाने   का शुभ  काम कर रहे  हैं, नहीं , आप कोई शुभ  कार्य  नहीं कर रहे हैं, चोरी मत कीजिये, दूसरों  के अच्छे  विचारों  को फ़ैलाने  का सही  तरीका   चोरी नहीं, शेयर करना है, शेयर कीजिए और अपना लिखिए, जैसा भी. एक वक्त आएगा कि आप देखेंगे कि आप इतना कुछ लिख सकते हैं जिसके लिए एक जीवन कम है ......सो अपने आप को काहे क्षुद्र करते हैं, जब आप में रचनात्मकता का सागर हिलोरें मार रहा है ...



(11) "INTELLECTUAL PROPERTY LAWS, WHAT IS IT, WHEN HURT AND WHEN NOT"

Whatever you write, as you write you get the copy right.
Whatever you steal, as you steal, you are noway right.

The ones, who do not respect my copy right, I m NOT SORRY to say that I can not respect them, on this particular issue.

Simply I do not support copying other's writings or any thing, it is a theft on one's intellectual property.

You learn something from someone's writing, if it is somehow useful for you, that is great, all writing are for that purpose but it does not mean that U are allowed to copy paste other's words....

U can do it differently, use your wisdom, experience and re-write according to your understanding, that is okay.

Now, how much has been just copied or how much is re-used like a re-use of wheel in a car, that is a different story and that is why in the whole world court cases are fought over this issue.

And I am amazed, how difficult it is to make clear to my friends!

Patents, copy rights and trade marks are protected under intellectual property rights.

As a theft of any kinda physical property is considered a crime so is considered theft of intellectual property.

A few vital things are to be understood regarding these laws.

There is saying, "There is nothing new under the sun", which is right and but partially only.

Just take an example of a motor cycle, the technique of cycle, motor, wheel & iron casting etc is used in it, all already invented, still the appropriate use, aggregate of all these already invented things gives birth to a new thing, motor cycle, an invention.

Similarly, if you just copy paste something, without adding any value to the original text, you are infringing intellectual property law but if you give a twist to the original meaning, it is not a theft. An example, there is saying, beauty lies in the eyes of the beholder, then someone changed it as beauty lies in the eyes of the beer holder, see, the one, who twisted the first statement can not be called a thief, as the one has changed the whole concept.

Indian Flag and Flag of Congress party of India has much similarity but still as the central emblem is different, it is not considered intellectual property infringement.

So next time, my dear friends, if you steal or allege someone for stealing, kindly keep my words in mind.


(12) Intellectual Property Rights--- 


Simply I do not support copying other's writings or any thing, it is a theft on one's intellectual property.

You learn something from someone's writing, if it is somehow useful for you, that is great, all writing are for that purpose but it does not mean that U are allowed to copy paste other's words....

U can do it differently, use your wisdom, experience and re-write according to your understanding, that is okay.

Now, how much has been just copied or how much is re-used like a re-use of wheel in a car, that is a different story and that is why in the whole world court cases are fought over this issue.

And I am amazed, how difficult it is to make clear to my friends!

What is originality, it is not re-inventing the wheel......it is making a new use of the wheel....fitting it in a cycle, car, aero-plane.....

Computer was an invention, of-course, but was it altogether something new, were not previous inventions used in inventing it?

Hope my dear friends will understand.....

Statutory Warning---- I am no advocate, kindly cross check my words.

COPY RIGHT MATTER