सहन करना, बर्दाश्त करना, tolerate करना ये सब शब्द सहिष्णुता की पोल खोल देते है.
आप कब कहते हैं कि मैं सहन कर रहा हूँ, बर्दाश्त करता हूँ, tolerate कर रहा हूँ?
जब आपको कुछ ऐसा करना हो जो करना आपकी मर्ज़ी के खिलाफ हो, कुछ ऐसा जो आपको ज़बरदस्ती करना पड़ रहा हो, ऐसा जो आपको पसंद नहीं है, आपको प्रिय नहीं है.
कुल मतलब यह है कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के क्रिया कलापों को असल में तो नापंसद करते हैं, फिर भी जैसे-तैसे बर्दाश्त करते हैं.
यह कैसी दुनिया है? हम क्यों ऐसी जीवन शैली नहीं घड़ पा रहे कि जिसमें एक दूजे के प्रति गहन में नापसन्दगी न हो?
क्यूँ हम सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित जीवन पद्धति विकसित नहीं कर पा रहे?
पेप्सी सारी दुनिया पी सकती है, पिज़्ज़ा सारी दुनिया खा सकती, कम्पनी लोकल से Multi- national हो सकती हैं, लेकिन हम जीवन शैली सार्वभौमिक विकसित नहीं कर पा रहे.
हम ऐसी दुनिया में क्यूँ रहें जहाँ हमें एक दूजे को बर्दाश्त कर कर जीना पड़े?
जहाँ सहिष्णुता को बड़ा गुण माना जाता हो, ऐसे दुनिया के ताने बाने में निश्चित ही कुछ तो गड़बड़ है.
है कि नहीं?
वैसे हमारे समाज का ताना बाना ही ऐसा है कि यहाँ बहुत सहिष्णुता है नहीं, जो दीखती भी है वो बहुत ऊपरी है. ज़रा सी तपिश लगते ही सारी कलई धुल जाती है. कुछ बहुत ही आम जुमले पेश करता हूँ.
"छोटी जात अपनी औकात दिखा ही देती है"
"अन्धा , लूला, लंगड़ा इनकी एक रग फ़ालतू होती है"
"ये मुसलमान साले हर काम हमसे उल्टा ही करते हैं"
"बनिया पुत्रम, कबहु न मित्रम"
"सुनारे किसी के सगे नहीं होते"
"पुलिसवाले की दोस्ती भी बुरी और दुश्मनी भी"
इन कुछ जुमलों से आपको यह अहसास होगा कि हमारा मज़हब, समाज, जात, औकात को लेकर अंदर ही अंदर कितना सहिष्णु है.
मुल्क आजादी के बाद से कितना सहिष्णु है नमूने हाज़िर हैं. छुट-पुट दंगों को छोड़ दीजिये. 47 में हिन्दू मुस्लिम नर-संहार हुआ, 80-84 में हिन्दू सिक्ख नर-संहार हुआ, 2002 में गुजरात के मुस्लिम हिन्दू मारकाट हुई. और कश्मीर के हिन्दू नरसंहार को यदि जोड़ ले. हमें पता लग जाएगा कि धर्म, मज़हब कितने सहिष्णु हो सकते हैं. नहीं, नहीं हो सकते. इतिहास हाज़िर नाज़िर है.
शांतिकाल मात्र युद्ध के बाद का वो समय जो अगले युद्ध की तैयारी के लिए प्रयोग होता है.
सब तथा-कथित धर्म बारूद का ढेर हैं.
आप आज रामायण के खिलाफ कुछ पोस्ट कर देखो, चाहे कुरान के खिलाफ, आपको थोक में, ठोक के गालियाँ और धमकियां मिलेंगी. यह है सहिष्णुता.
हमें हमारे अंध-विश्वासों के साथ जीने दें, बस यही है धार्मिक सहिष्णुता, सेकुलरिज्म.
सहिष्णुता है कहाँ?
एक किताब आई थी, "वैनिटी इनकारनेशन". यह कुछ गुरु गोबिंद के खिलाफ थी. आज आपको इस किताब का न तो पता है, न इसके लेखक का.
तसलीमा नसरीन को यहीं भारत में गन्दी गालियाँ दी गई, कहाँ गई सहिष्णुता?
ओवेसी पन्द्रह मिनट में हिन्दू साफ़ करने का एलान करता है, कहाँ गई सहिष्णुता?
दंगों के आरोपी सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा दिए के बाद भी हीरो माने जाते हैं, कहाँ गई सहिष्णुता?
एक मुस्लिम बाप अपनी बेटी को इसलिए जान से मार देता है कि खाना खाते हुए उसने सर नहीं ढका था, कहाँ गई सहिष्णुता?
आज अवार्ड लौटाने वाले सब साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक राजनीति प्रेरित हैं, यह कहना अतिश्योक्ति होगी, हाँ, इनके अवार्ड लौटाने के समय को लेकर संशय उत्पन्न होता है. अभी ही क्यूँ.यह अवार्ड वापिसी की बाढ़ अभी ही क्यूँ? शायद इसलिए कि चोट खुद पर लगी. साहित्यकार खुद क़त्ल कर दिए गए. ऐसा होता है, स्वाभाविक भी है.लोग अपने पेशे, अपने हितों पर चोट पड़ती देख सड़कों पर आ जाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वो बाकी मुद्दों पर अपनी अभिव्यक्ति ज़ाहिर नहीं करते.करते हैं, लेकिन अपना मामला तो सर्वोपरि होता ही है. यह कुतर्क है कि साहित्यकार अपने ऊपर चोट को लेकर ही सबसे ज़्यादा उद्विग्न क्यूँ हैं. न, यह गलत बात है.
मुझे लगता है कि पुरस्कार लौटाने वाले इस मुद्दे पर गलत हैं कि असहिष्णुता बढ़ी है, लेखकों पर एक दम बढ़ी है यह बात सत्य है. आम नजरिये से यदि देखें तो यह हमेशा से मौजूद रही है. और जो भी घटनाएं अभी हुई हैं फिलहाल उसमें संघी सोच का योगदान है, यह बात सही है.
दोनों तरफ के लोग सही हैं कहीं, तो गलत भी हैं कहीं.
इख़लाक़ का मारा जाना गलत है
बिलकुल
लेकिन मेरे देखते पंजाब में हजारों निर्दोष हिन्दू मारे गए
फिर कश्मीर में हिन्दू
वो सब भी गलत है
वो ज़्यादा बड़े नर-संहार थे, मुझे याद है खुशवंत सिंह ने अपना पुरस्कार लौटाया था, गोल्डन टेम्पल पर फ़ौज द्वारा हस्तक्षेप किये जाने के विरोध में.
इसी तरह हिन्दुओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार के खिलाफ भी काश कोई पुरस्कार लौटे होते!
आज मोदी सरकार की वजह से ही मुद्दा 'बना' जा रहा है क्या? शायद हाँ.
आज मोदी सरकार की वजह से ही मुद्दा 'बनाया' जा रहा है क्या? कुछ हद तक हाँ.
लेकिन फिर भी बहु-संख्यक हिन्दू के साथ ना-इंसाफी हुई है.
ऐसा मुझे लगता है
आज शाहरुख़ खान को लगता है कि मुस्लिम के खिलाफ असहिष्णुता बढ़ रही है
लेकिन मुझे कुछ और लगता है
सिक्खों को मुआवजा मिलता रहता है....चौरासी पीडित
हिन्दुओं को भी मिला है, लेकिन उनके मुकाबले कम
उनका तो कोई नामलेवा भी नहीं, उनके लिये तो मैं पढ़ता हूँ कि हिन्दू पंजाब में मारे ही नहीं गए, या मारे भी गए तो इक्का-दुक्का. वाह!
कश्मीरी पंडितों का तो बहुत बुरा हुआ है, उन्हें तो बहुत कम इमदाद मिली है
मुस्लिम हज सब्सिडी का फायदा भी उठाते हैं.
अल्प-संख्यक न होते हुए भी माइनॉरिटी बने हैं व माइनॉरिटी होने का फायदा उठाते हैं
भारत में मुस्लिम अपने लिए अलग सिविल लॉ चलवाए हैं
जबकि दुनिया के कई मुल्कों में, वहां के सिविल कानून मानते हैं
फिर यहाँ भी तो क्रीमिनल कानून अलग अलग हैं ही, कौन सा शरियत के हिसाब से हाथ पैर काट दिए जाते हैं? वहां तो कॉमन क्रिमिनल कोड माने हैं, ताकि सज़ा कठोर न मिल जाए कहीं
लेकिन सिविल कोड में चूँकि एकाधिक शादियाँ करने की छूट है, जल्द तलाक की सुविधा है.....बच्चे पैदा किये जाने की सुविधा है सो वहां कॉमन सिविल कोड मानने को तैयार नहीं
लोकतंत्र की दुहाई देते हैं, सेकुलरिज्म की दुहाई देते हैं लेकिन अपने लिए खास सुविधा भी चाहते हैं
इस मामले में संघी सोच कुछ हद तक सही प्रतीत होती है
फिर कुरान पढ़ी, थोड़ी बहुत मैंने
उसमें अपने मज़हब को फैलाने के लिए लड़ते रहने के आदेश हैं
युद्ध में लूटी गई औरतों से बलात्कार तक का हक़ है...और भी बहुत कुछ है
औरतों के साथ ना-इंसाफी है
किसे नहीं पता कि हिन्दू मंदिर गिरा मसीतें बनाई गई
अजमेर में आज भी अढाई दिन का झोंपड़ा नाम से एक अधूरी से मस्ज़िद है. इसके परिसर में ही मंदिर के अवशेष रखे हैं
इसे अढाई दिन में मंदिर से मस्ज़िद में तब्दील किया गया
मंदिर तोड़ कर
क्यूँ हिन्दू, बौध मूर्तियों के मुंह नाक टूटे मिलते हैं
सब मुस्लिम के काम हैं
आज मुस्लिम को बहुत दुःख है कि बाबरी मस्ज़िद गिरा दी गई. मेरा मानना तो यह है कि मंदिर, मसीद गिराना, बनाना सब नासमझियां हैं लेकिन सामाजिक दृष्टिकोण से देखूं तो कहीं बेहतर होता कि मुस्लिम लीडर हिन्दुओं की बात मान लेते, मस्ज़िद खुद शिफ्ट करते. हिन्दू लोग अपने हाथ से एक मसीत की जगह शायद दस मसीत बना देते उनको. लेकिन कहाँ से लायें ऐसी सहिष्णुता?
और यह जो सलमान, शाहरुख खान कहते हैं कि वो मूर्तिपूजा में शामिल होते हैं, नहीं हो सकते, इस्लाम इजाज़त ही नहीं देता. या तो ये मुस्लिम नहीं हैं, या बस दिखावा करते हैं,
असल में मेरे लिए हिन्दू मुस्लिम सब बकवास हैं लेकिन लोग आज ही तो कोई यह सब छोड़ मेरी समझ अपना नहीं लेंगे
सो तब तक हम इंसानी नज़रिए से यह तो देख सकते हैं कि कोई एक तबका दूसरे का नाजायज़ फायदा न उठा ले. यह तो समझ सकते हैं कि किसी भी एक तबके के साथ ना-इंसाफी न हो, चाहे कोई खुद को अल्प-संख्यक मानता हो, चाहे बहु-संख्यक.
जैसे पंजाब में सिक्ख खतरनाक राजनीति खेल रहे हैं
हिन्दुओं को भगाना चाहते हैं
कुल मतलब यह है कि सिवा सिक्ख के कोई न रहे वहां
सिवा गुरुद्वारे के कोई पूजा न जाए, बस
सो मैं इनका विरोध करता हूँ, चूँकि यह हिन्दू के प्रति ना-इंसाफी होगी
मै कश्मीरी पंडितों के पलायन पर विरोध करता हूँ
मैं विरोध गुजरात में मुस्लिम मारने का भी करता हूँ
मैं विरोध पंजाब और दिल्ली में सिक्खों के मारे जाने का भी करता हूँ
लेकिन कुल मिला यह देखना ज़रूरी है कि
कोई एक तबका दूसरे को दबा तो नहीं रहा
और मुझे लगता है कि सिक्ख ने हिन्दू को दबाया है
मुस्लिम ने भी नाजायज़ फायदा उठाया है
और अब ये दोनों रौला डाल रहे हैं
और कांग्रेसी राजनीति और बाकी संघ विरोधी राजनीति इनका साथ दे रही हैं
सो दोनों तरफ राजनीति तो है.
और जब मैं राजनीति शब्द लिखता हूँ तो उसका मतलब राज्य चलाने की नीति से नहीं है बल्कि चालाकी से है, चाल बाज़ी से है.
दाभोलकर, पनसारे, कलबुरगी आदि लेखकों का मारा जाना निश्चित ही संघी सोच का नतीजा हैं
हिन्दू महासभा के ही किसी व्यक्ति ने तो ओशो पर भी हमला किया था
सो इनका विरोध तो होना ही चाहिए
मैं नहीं कहता कि असहिष्णुता नहीं है, है, हमेशा रही है, लेकिन इस बार हिन्दू असहिष्णुता है और विरोधी स्वरों का गला घोंटने के लिए गले तक घोंट दिए गए साहित्यकारों के, सो ज़्यादा शोर शराबा है, राजनीति भी मुखर है
संघी कसूरवार हैं, लेकिन कांग्रेसी, मुस्लिम और सिक्ख भी सही नही हैं
सब कहीं सही हैं तो कहीं गलत
वाइट ब्लैक कुछ भी नहीं
सब ग्रे
बस कौन कितना ग्रे, कहाँ ग्रे, वो समझना ज़रूरी है
एक प्रयास
सप्रेम नमन/ कॉपी राईट/ तुषार कॉस्मिक