Wednesday 11 May 2022

रोटी कपड़ा और मकान, जीवन की तीन पहली ज़रूरतें हैं~ सच में?

हम्म.......मैं असहमत हूँ. कुछ-कुछ.
"रोटी"
रोटी नहीं, फल हैं जीवन की ज़रूरत. कुदरती खाना. धो लो बस और खा लो. यह क्या है पहले गेहूं उगाओ, फिर पीसो, फिर गूंथों, फिर रोटी बनाओ, फिर घी लगाओ, फिर खाओ? इतना लम्बी प्रक्रिया! फिर ऐसे ही तो खा भी नहीं सकते. उसके लिए सब्ज़ी अलग से पकाओ. फिर साथ में अचार और पता नहीं क्या-क्या.....यह सब अप्राकृतिक है. खाना है ज़रूरत, लेकिन वो खाना रोटी ही है, इस से मैं असहमत हूँ. मेरे गणित से इन्सान न माँसाहारी है और न ही शाकाहारी. इन्सान फलाहारी है.
और इन्सान ने खेती कर कर ज़मीन चूस ली है. मैंने सुना है, पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में धरती की उपजाऊ शक्ति काफी घट गयी है.
इसीलिए ज़हरीली खाद डाल-डाल धरती को चूसा जाता है, धरती माता का रस निकाला जाता है, ठीक वैसे ही जैसे भैंस मौसी या गाय माता का अतिरिक्त दूध निकालने के लिए इंजेक्शन ठोके जाते हैं.
बेहतर यही था कि इन्सान धरती पर जंगल रहने देता. थोड़ी ज़मीन अपने रहने के लिए साफ़ करता बाकी जगह पेड़-पौधे रहते तो ज़मीन कहीं ज़्यादा खुश-हाल होती. पेड़-पौधों पर उगे, फल-फूल से काम चलाता तो कहीं स्वस्थ भी रहता.
"कपड़ा" कपड़ों की ज़रूरत है लेकिन उतनी नहीं जितनी समझी जा रही है. मुझे लगता है कि तमाम इंसानियत कपड़ों के प्रति बहुत आसक्त है, मोहित है, पग्गल है. कपड़ा तुम्हें सर्दी से बचा सकता है. धूल-धक्कड़ से बचा सकता है, तेज धूप से भी बचा सकता है. तुम्हारे मल-मूत्र विसर्जन के अंग-प्रत्यंग, तुम्हारे जनन अंग ढक सकता है. इस सब के लिए कपड़ों का प्रयोग किया जा सकता है. लेकिन तुम क्या करते हो? तुम हर वक्त कपड़ों में लिपटे रहते हो.

मैं पार्क में भयंकर किस्म की एक्सरसाइज करता हूँ. बस लोअर स्पोर्ट्स-वियर पहन कर. मुख्य वजह सूरज की रौशनी का सेवन. कहते हैं विटामिन-डी सिर्फ सूरज की रौशनी से ही मिलती है. मुझे नहीं पता? लेकिन मुझे यह ज़रूर पता है कि सूरज है तो हम हैं. मुझे यह पता है कि हम हर सर्दियों में रजाई-गद्दे धूप में रखते हैं ताकि वो dis-infected हो जाएँ. हम अचार धूप में रखते हैं ताकि वो लम्बे समय तक चलें. मुझे यह पता है कि जितना कुदरत के नज़दीक जायेंगे, उतना सेहत-मंद रहेंगे, उतना तन-मन प्रफुल्लित रहेगा.

मैंने सुना कि गोरों के मुल्कों में चूँकि धूप एक नियामत है सो उन्होंने एक दिन रखा हफ्ते में ताकि वो धूप सेक सके अपने तन पर. उस दिन का नाम रखा गया Sunday. और इस दिन को छुट्टी का दिन रखा गया, इस दिन को पवित्र दिन कहा गया. Sunday is the Holiday.

और यहाँ भारत में लोग लड़ने आ जायेंगे यदि बनियान उतार कर धूप में बैठ गए तो. यहाँ भारत में तो सामाजिक मर्यादा भंग हो जाएगी. यहाँ भारत में रंग काला हो जायेगा यदि धूप में बैठे तो. बैठेंगे भी तो पूरे कपड़े पहन कर और सूरज की तरफ़ पीठ कर के.

यह मुल्क तो गाता ही है,"गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा....."
न तो किसी को काली का गाँव प्यारा लगता और न ही काली लड़की.

"गोरी हैं कलाईयाँ, हरी-हरी चूड़ियाँ....."
यह तो गाया जा सकता है
लेकिन
क्या किसी ने गाया, "काली है कलाईयाँ, पीली-पीली चूड़ियाँ..?"

मैंने तो यह तक सुना कि Sunscreen भी बकवास सी चीज़ है. सूरज की रोशनी से तो सारा जीवन है, वो क्या नुक्सान करेगी? ज़्यादा धूप लगे, गर्मी लगे तो सहज सुलभ ही प्राणी छाया में चला जाता है, चले ही जाना चाहिए.

खैर, आशंका थी मुझे, कोई न कोई एतराज़ करेगा. और बहुत ही ज़बरदस्त एतराज़ किया गया, आर-एस-एस की शाखा लगाने वालों द्वारा. मैं खुद यह शाखा लगाता रहा हूँ. बहुत ही बेसिक किस्म का फलसफा है आर-एस-एस का. भारतीय संस्कृति ही महानतम है. आर-एस-एस इस्लाम की प्रतिछाया है कुछ अर्थों में. इस्लाम तो बहुत-बहुत हिंसक है. आर-एस-एस उस तरह से हिंसक तो कतई नहीं है लेकिन इसे कुछ भी नया स्वीकार नहीं है. नवीनता, वैज्ञानिकता के नाम पर इन के पास ऋषि-मुनि ही है. इन्हें भारतीय कूड़े की भी आलोचना पसंद नहीं है.

खैर, बाबा रामदेव हजारों लोगों के सामने अर्ध-नग्न हो कर एक्सरसाइज कर लें, टी.वी. के माध्यम से घर-घर आ जाएँ तो ठीक है, लेकिन मैं ऐसा कर लूं तो वो बर्दाश्त नहीं है. एक अर्ध-नग्न आदमी जिस्म पर चाबुक मारता हुआ, गली-गली घूम भीख मांगे, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. इन की लड़कियां और औरतें शिव-लिंग, गौर करें 'लिंग' की पूजा करें, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. ये लोग अपनी शाखाओं में "सूर्य नमस्कार" सिखाते हैं. जिस का अर्थ ही है सूर्य को नमन करते हुए योगासन करना. सूर्य को भी नहीं पता होगा कि उस के और इन्सान के बीच कपड़ों का आना ज़रूरी है. काश कुदरत नंगे-पुंगे बच्चे न पैदा कर के कपड़ों में लिपटे बच्चे पैदा करती. कम से कम निकर बनियान तो पहना के ही भेजती बच्चों को. यह बहुत ही गलत है. नंग-धड़ंग बच्चे. मर्यादा भंग होती है ऐसे समाज की.

खैर, मेरा मानना यह है कि आप जितना बिना कपड़ों के रहेंगे, उतना तन और मन से स्वस्थ रहेंगे. कुछ दशक पहले की बात है, हम लोग छत्तों पर सोते थे रात को. तारे गिनते हुए. खुली हवा में. जैसे सूर्य स्नान है, वैसे ही वायु स्नान है. शरीर को खुली हवा भी लगनी चाहिए. लेकिन उस के लिए भी नग्न होना चाहिए तन.

जिन के पास निजी स्थान की सुविधा हो उन को तो कतई निर्वस्त्र हो कर धूप ग्रहण करनी चाहिए. बिना अंडर वियर के. उन को बाकयदा एक Sun Room (सूर्य कक्ष) बनाना चाहिए. जिस का फ्रंट सूर्य की तरफ खुला हो और जिस पर छत न हो. हैरान मत होईये, जब "खाना कक्ष", "पाखाना कक्ष" हो सकता है तो सूर्य कक्ष भी हो सकता है.
आप को ध्यान है, महाभारत की कथा? दुर्योधन जा रहा था माँ के सामने निर्वस्त्र चूँकि माँ गांधारी ने ता-उम्र जो आँख पर पट्टी बंधी थी, वो खोलने जा रही थी और उन की आँख के तेज से दुर्योधन का जिस्म वज्र जैसा मज़बूत होने जा रहा था. लेकिन रास्ते में कृष्ण बहका देते हैं, "अरे, माँ के सामने ऐसे जाओगे? बच्चे थोड़ा न हो? कम से कम यौन अंग ही ढक लो." और दुर्योधन यौन अंग ढक लेता है. और युद्ध में यौन अंग पर जब भीम वार करता है तो दुर्योधन मारा जाता है. Beaches पर भी जो लोग धूप लेने जाते 100% नंगे तो वो भी नहीं होते. जननांग तो वो भी ढके रहते हैं. हमारे यौन अंग तो ता-उम्र धूप देख ही नहीं पाते. तो यह जो Sun Room का कांसेप्ट दिया न मैंने, इस से यौन अंग भी धूप पा लेंगे और वज्र तो न भी हों लेकिन स्वस्थ ज़रूर हो जायेंगे. आप देखते हो, जंघा और यौन अंग के बीच की चमड़ी पसीना मरते रहने की वजह से गल-गली सी हो जाती है. यदि Sun Room का प्रयोग करेंगे तो इस तरह की कोई भी दिक्कत नहीं होगी. प्रॉपर्टी डीलर हूँ. Sun-facing प्रॉपर्टी की डिमांड सब से ज़्यादा रहती है. आप जानते हैं, घरों में, दुकानों में, गोदामों में धूप,अगरबत्ती, हवन करने का क्या कारण है? आप शब्द देख रहे हैं? "धूप अगरबत्ती". सूर्य की धूप की कमी को इस तरह से "धूप अगरबत्ती" पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है. नहीं? खैर, मेरा नजरिया यह है कि ये Closed Premises के अंदर की बासी,अशुद्ध हवा को शुद्ध करने का प्रयास होता है. तो फिर इस धूप से क्या बचना?
उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. तुम्हें पता ही नहीं, तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ. हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज. कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'. अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं. "धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में. खैर, स्वयंभू ने मुझे बताया है:- "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई जाओ, निकलो बाहर मकानों से जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से."
"जादू" याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें. मैं पैदाईश हूँ वीडियो गेम के पहले की.
हम पतंग उड़ाते थे, गलियों में कंचे खेलते थे, कभी ताश भी, कभी गुल्ली डंडा. धूप, गर्मी, हवा में. और कभी बारिश में भी.
आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है. आँखें और हाड-गोड्डों के जोड़ ही नहीं बुद्धि भी खराब कर लेंगे.
कल आप को रोबोट मिल जायेंगे सेक्स तक करने के लिए. लेकिन याद रखना नकली खेल, नकली सेक्स, नकली प्रेम नकली ही रहेगा.
विडियो गेम से यदि ड्राइविंग सीखने में मदद मिलती हो तो ठीक है लेकिन इसे असल ड्राइविंग समझने की भूल करेंगे तो मारे जायेंगे.
खुली हवा में, धूप रहिये, खेलिए, नकली को असली की जगह मत लेने दीजिये.
"मकान" इन्सान को मकान चाहिए, चाहिए भी या नहीं, इस पर मेरे अपने कुछ तर्क हैं.

प्रॉपर्टी के कांसेप्ट को दुनिया का निकृष्टतम कांसेप्ट मानता हूँ. धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री आज तक की नहीं है. इन्सान आते-जाते रहते हैं. धरती वहीं रहती है. यदि इन्सान निजी सम्पति का कांसेप्ट छोड़ दे तो सारी धरती सब इंसानों के लिए available रहेगी. यह धरती सब की है और सब इस धरती के हैं. सिवा इन्सान के कोई भी प्राणी इस धरती पर रहने के लिए किराया नहीं देता. इन्सान को छोड़ किसी भी प्राणी के घर वैध-अवैध नहीं होते.

मकान हमें गर्मी-सर्दी से बचाते हैं. मल-मूत्र विसर्जन की निजता देते हैं. सम्भोग करने की निजता देते हैं. सो मकानों की ज़रूरत तो है लेकिन वो मकान निजी सम्पतियाँ हों, यहाँ मैं सहमत नहीं हूँ. आप देखते हैं, अनेक मकान खाली पड़े रहते हैं, और उधर लाखों लोग सड़क पर होते हैं. आधे से ज्यादा अपराध और मुकदमे तो प्रॉपर्टी से ही जुड़े होते हैं.

और निजी प्रॉपर्टी के कांसेप्ट की वजह से ही इन्सान अधिकांशत: घरों के अंदर ही अंदर घुसा रहता है. यह घर-घुस्सापन अपने आप में ही बीमारयों की जड़ है. जब मेरे जैसे लोग निजी सम्पति के कांसेप्ट के खिलाफ लिखते-बोलते हैं तो हमें वामपंथी बोला जाता है, कम्युनिस्ट (कौम-नष्ट) लिखा जाता है. हमें कहा जाता है कि पहले अपनी सम्पत्तियों की बली हम दें. ठप्पा मात्र इस लिए लगाया जाता है ताकि हमारी विश्वसनीयता ही खत्म की जा सके. दूसरी बात, जब तक आप किसी को वर्तमान व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था में डालने का विश्वास नहीं दिला पायेंगे कौन अपनी वर्तमान व्यवस्था छोड़ेगा? हम आप को एक कांसेप्ट दे रहे हैं. उस कांसेप्ट पर काम कीजिये. उस पर प्रयोग कीजिये. जब प्रयोग सफल होने लगेंगे तो निश्चित ही बड़े स्तर पर उन प्रयोगों को उतार दीजिये.

तो निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो .....किस से? अब आगे यह आप खुद तय कर लीजिये.

तुषार कॉस्मिक

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