सबसे पहले हमें समझना होगा कि प्रजातंत्र क्या
है. ठीक है. ठीक है. आप जानते हैं, “हमारी सरकार, हमारे लिए,
हमारे
द्वारा.” यानि दूसरे शब्दों में सरकार और कुछ नहीं, ‘हम’ ही
हैं. सरकारी तन्त्र, निजाम ‘हम’ ही हैं.
आगे समझिए कि पैसा क्या है. पैसा असल में चंद
कागज़ के या धातु के टुकड़े नहीं हैं. पैसा एक व्यक्ति की शारीरिक और दिमागी मेहनत
है, जिसे हमने कागज़ या धातु के टुकड़ों के रूप में स्वीकृत किया.
अब जैसे घर चलाने के लिए पैसा चाहिए, वैसे
ही सरकारी तन्त्र चलाने के लिए पैसा चाहिए. बिलकुल सही बात है.
सरकार को हम ने हक़ दिया है कि वो हम से टैक्स
के रूप में वो पैसा ले सकती है. और जो व्यक्ति टैक्स दे वो इमानदार, जो
न दे वो बे-ईमान. सही है न.
लेकिन एक पेच है! सरकार हमने बनाई. बल्कि
परिभाषा के हिसाब से सरकार हम ही हैं. सरकारी अमले में जो भी लोग हैं, चाहे वो
चुने गए नेता हों, चाहे सरकारी नौकर वो हमारी ही सेवा के लिए हैं. कहते भी है
पब्लिक सर्वेंट. यानि पब्लिक का नौकर. फिर
से समझ लीजिये सिद्धान्त: मालिक जनता है और नौकर ये नेतागण हैं ये सरकारी लोग हैं.
लेकिन असल में ऐसा है नहीं. सरकार अपने आप में
आम आदमी से बहुत ऊपर की एक शक्ति बन चुकी है, जिसका आम आदमी
से नाता बस किताबी ही है. असल में जो नौकर है वो मालिक बन चुका है और जो मालिक है
वो नौकर है.
सरकार हक़ से आम आदमी से पूछती है कि क्या कमाया, क्या खाया,
क्या
पीया, क्या बचाया? लेकिन खुद अपना हिसाब कभी पब्लिक को
नहीं देती, इस तरह से नहीं देती कि पब्लिक समझ सके कि
सरकार कहाँ फ़िज़ूल खर्ची कर रही है और कहाँ ज़रूरत के बावजूद भी खर्चा नहीं कर रही.
मिसाल के लिए हमारा न्याय-तन्त्र सड़ा हुआ है,
मुकदमें
सालों बल्कि दशकों लटकते रहते हैं और जज की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते रहते हैं.
हल है. जजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, हर कोर्ट में CCTV लगाए
जा सकते हैं. लेकिन वहां खर्चा नहीं किया जा रहा.
हर छह महीने बाद ये जो 'स्वतंत्र-दिवस' 'गणतन्त्र-दिवस' मनाया जाता है, जन से, गण से कभी नहीं पूछा गया कि इसका खर्च बचाया जाए या नहीं.
बहुत जगह सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाहें बांटी जा रही हैं, जबकि
उनसे आधी तनख्वाह पर उनसे बेहतर लोग भर्ती किये जा सकते हैं. मेरी गली में जो झाडू
मारने वाली है उसे लगभग तीस हज़ार तनख्वाह मिलती है, उसने आगे दस
हज़ार का लड़का रखा है जो उसकी जगह सारा काम करता है, मतलब जो काम दस
हज़ार तक में करने वाले लोग मौजूद हैं, उनको तीस हज़ार सैलरी दी जा रही है.
वहां खर्चा घटाया जा सकता है, वो नहीं घटाया जा रहा है बल्कि और
बढाया जा रहा है. ये पे-कमीशन, वो पे-कमीशन. ये भत्ता, वो
भत्ता.
कभी पब्लिक की राय भी ले लो भाई. आखिर पैसा तो
उसी ने देना है. आखिर मालिक तो वही है. किताबी तौर पर.
क्या पब्लिक को मौका दिया कि वो समझ सके कि
कहाँ-कहाँ कितना खर्च सरकार कर रही है और क्या पब्लिक के सुझाव लिए कि कहाँ-कहाँ
वो कितना खर्च घटाना या बढ़ाना चाहेगी? क्या मौका दिया जनता-जनार्दन को कि वो
समझ सके कि वो कैसे खुद पर टैक्स का बोझ घटा सकती है?
जैसे कोई व्यक्ति अपने ऊपर टैक्स का बोझ घटाने
के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट के पास जाता है. अपना सब जमा-घटा, खाया-कमाया-बचाया
बताता है और फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट उसे सलाह देता है ठीक उसी तरह से सरकार को
जनता को मौका देना चाहिए कि जनता सरकारी खर्च घटाने या बढाने के लिए सरकार को सलाह
दे. आखिर पता तो लगे कि ये जो अनाप-शनाप टैक्स थोपे जाते हैं इनमें से कितने घटाए
जा सकते हैं, हटाये जा सकते हैं. पता तो लगे कि क्या एक सीमा
के बाद हर व्यक्ति यदि अपनी कमाई का 10/15 परसेंट यदि टैक्स में दे तो उससे
सरकार का काम चल सकता है या नहीं.
और यदि कोई सरकार ऐसा नहीं करती, और
जनता पर बस टैक्स ठोके जाती है और टैक्स न देने वाले को बे-ईमान घोषित करती है तो
वो सरकार खुद बे-ईमान है.
अब मोदी जी के आसमानी निर्णय की बात. क्या
उन्होंने यह निर्णय जनता पर थोपने से पहले जनता को मुल्क के खर्चे का हिसाब किताब
बताया? जब वोट लेने थे तो घर-घर मोदी, हर-हर मोदी किया
जा रहा था, लेकिन नोट छीनने से पहले घर-घर सरकारी खर्चे का
हिसाब-किताब क्यों नहीं पहुँचाया? क्यूँ नहीं जनता से सलाह ली कि समाज
में, निजाम में ऐसे क्या परिवर्तन किये जाएं कि लोगों को टैक्स आटे में
नमक जैसा लगे?
टैक्स की चोरी होती क्यूँ है? चूँकि
वो नमक ही नहीं, आधे से ज़्यादा आटा भी छीन लेता है.
आज अगर कोई झुग्गी वाला बच्चा पैदा करता है तो
उसका खर्चा भी सरकार पर पड़ता है, उसे कहीं न कहीं सरकारी दवा, सरकारी
अस्पताल, सरकारी स्कूल, सरकारी सुविधा की ज़रुरत पड़ती है. वो
खर्चा हमारी आपकी जेब से निकालती है सरकार. और सिधांतत: सरकार हम ही हैं याद रहे.
तो क्या हम ऐसी इजाज़त देते रहना चाहते हैं कि समाज में कोई भी बच्चों का अम्बार
लगाता जाए और हम उसके लिए टैक्स भरते रहें. यानि करे कोई और भरे कोई, यह
व्यवस्था है या कुव्यवस्था?
तो यह जो मोदी जी या कोई भी नेता कहता है कि उनकी सरकार गरीबों के
लिए है, उसका मतलब यही है कि जितने मर्ज़ी बच्चे पैदा करो, उनका
खर्चा टैक्स के रूप में पैसे वालों की जेबों से निकाला जाएगा. और गरीब ताली
बजाएगा. उसे पता नहीं ऐसा नेता उसका शुभ-चिन्तक नहीं है, उसका छुपा
दुश्मन है. ऐसा नेता उसे समृधि नहीं, अनंत ग़रीबी की और धकेल रहा है और ऐसा
नेता बाकी समाज को मजबूर कर रहा है अपनी मेहनत की कमाई इन गरीबों पर खर्च करने के
लिए.
जब मोदी जी जैसे नेतागण कहते हैं कि उनकी
सरकार गरीबों के लिए है तो उसका मतलब साफ़ है, गरीब बने रहो, ज़रा से अमीर बनने का प्रयास
भी किया तो सरकार हाथ-पैर धो कर तुम्हारे पीछे पड़ जायेगी. अमेरिका के बारे में एक बात
प्रसिद्ध है कि America is a
land of Opportunities. People in America can have a Great American Dream. यानि एक गरीब
से गरीब व्यक्ति भी बुलंदियों पर पहुँच सकता है, लेकिन हमारे यहाँ के नेता कहते
हैं कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार है. वो भूल ही जाते हैं कि हर गरीब के अंतर-मन
में अमीर होने की इच्छा है. वो भूल जाते हैं कि लोग साफ़ समझ रहे हैं कि ये नेतागण
उनके अमीर होने में बाधक है. वो भूल जाते हैं कि हर सरकार को अमीर और गरीब दोनों
का होना चाहिए, हर सरकार को हर गरीब को अमीर होने का मौका देना चाहिए. हर नेता को
यह घोषित करना चाहिए कि उसके शासन में अमीर होना कोई गुनाह नहीं है.
भाई मेरे, नेता कोई भी हो,
भीड़
के सम्मोहन में फंस कर तालियाँ पीटने से समाज की समस्याएं हल नहीं होंगी. समस्या
हल होती हैं उन पर गहरे में सोचने से.
मोदी जी का नोट-बंदी का निर्णय मोदी जी और
भाजपा के अस्तित्व के लिए निर्णायक सिद्ध होगा. चूँकि जब तक सरकार खुद बे-ईमान हो,
निजाम
खुद बे-ईमान हो, जब तक टैक्स आटे में नमक जैसे न हों, जब
तक टैक्स का पैसा कहाँ कितना खर्च हो रहा है उसका जन-जन को हिसाब न दिया जाए,
कहाँ
कितना खर्च बढाया, जाए, घटाया जाए जन-जन से पूछा न जाए,
तब
तक किसी के पैसे को काला पैसा घोषित करने का किसी भी सरकार को कोई हक़ नहीं है. तब
तक किसी को भी बे-ईमान घोषित करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है. और जनता जो भी पैसा
कमाती है, यदि वो चोरी-डकैती का नहीं है, किसी से धोखा-धड़ी करके नहीं इकट्ठा किया
गया, किसी भी और किस्म के अपराध से हासिल नहीं किया गया तो वो सब सफेद है.
और याद रखिये सरकार हमारी है. सरकार हम खुद
हैं. प्रजातंत्र इसे ही कहते हैं.
आज सभी विपक्षी राजनितिक दलों के पास मौका है,
सुनहरा
मौका. एक जुट हो जाएं और जनता को गहरे में समझाएं कि यह नीति कहाँ गलत है. जनता की
दस-बीस दिन की दिक्कतों को गिनवाने मात्र से कुछ नहीं होगा, वो तो आज नहीं
कल कम हो ही जानी हैं. वो मुद्दा कोई बहुत दूर तक फायदा नहीं देगा इन दलों को.
फायदा तब मिलेगा जब मोदी-नीति गहरे में कहाँ गलत है, यह समझा और
समझाया जाए. समाज-शास्त्र को बीच में लाया जाए. मुल्क की इकोनोमिक्स को बिलकुल
आसान करके जनता को समझाये जाने का आग्रह किया जाए. जनता को उसका हक़ याद कराया जाए.
जनता को जनतंत्र की परिभाषा समझाई जाए. मालिक को उसका हक़ दिया जाए और नौकर को उसकी
जगह दिखाई जाए. और जनता को हक़ दिया जाए कि वो खुद फैसला कर सके कि क्या वो आटे में
नमक से ज़्यादा टैक्स सरकार को देना चाहती है या नहीं, जनता को उसके मालिक होने का
हक़ लौटाया जाए, उसे हक़ दिया जाए कि वो खुद तय कर सके कि सरकारी कामों के लिए कितना
पैसा खर्च किया जाए, कहाँ खर्च बढ़ाया जाए, कहाँ घटाया जाए.
जो दल ऐसा करने की हिम्मत करेंगे, वो
अप्रत्याशित रूप से फायदे में रहेंगे. और जनता भी.
अन्यथा भुगतते रहो इमोशनल नारे और मोदी भक्तों
की गालियों की बौछार.
और
आखिरी बात. मोदी-भक्ति ही देश-भक्ति नहीं है. और आरएसएस ही मात्र देश-भक्त नहीं
है. और सरकार का विरोध देश-विरोध नहीं है, देश-द्रोह नहीं है. अपने वक्त की
सरकारों का अक्सर लोग विरोध करते हैं और यह सबका प्रजातांत्रिक अधिकार है. और बहुत
से लोग जो अपने समय की सरकारों का विरोध करते थे, उस वक्त जेलों में
डाल दिए गए, फांसियों पर चढ़ा दिए गए और बाद में जन-गण को समझ आया कि उनसे बड़ा
शुभ-चिन्तक कोई नहीं था. देशभक्ति की परिभाषा भी नेतागण ने अपने हिसाब से बना रखी है.
वैसे यह जो सब कुछ मैंने लिखा २०१४ में भाजपा भी यही सब कहती थी. यकीन न हो तो
भाजपा की spokes-person मीनाक्षी लेखी के विडियो youtube पर देख लीजिये. और भाजपा
भी उन दलों में से एक है जिसने आज तक RTI के तले खुद को लाए जाने का विरोध ही किया
है.
आमिर खान की लगान फिल्म याद हो शायद आपको, सारा संघर्ष टैक्स कोलेकर था. आप-हम आज परवाह ही नहीं करते, कब-कहाँ से सरकार हमारे जेब काटती रहती है. शायद हमने मान लिया है कि सरकारें जब चाहें, जितना चाहें, जहाँ चाहे हम से पैसा वसूल सकती हैं. दफा कीजिये इस मिथ्या धारणा को और आज से यह देखना शुरू कीजिये कि आपकी सरकारें पैसा वसूल सरकारें हैं या नहीं...ठीकऐसे ही जैसे आप देखते हैं कि कोई फिल्म पैसा वसूल फिल्म है या नहीं
तुषार
कॉस्मिक