Wednesday, 30 November 2016

चोप्प! भाजपा में कोई भ्रष्टाचारी नहीं

देशद्रोही--- सर जी, अगर कोई हो तो अपनी पार्टी की ख़ासियत बताएं.
भक्त----- अबे, हमारी पार्टी इकलौती पार्टी है, जो पाक-साफ़ है. यू क्नो, “पार्टी-विद-ए-डिफरेंस”.
देशद्रोही--- सर जी, सच में क्या?
भक्त---- और नहीं तो क्या? हम कोई आम-आदमी-पार्टी के नेताओं जैसे थोड़ा न है, जो रोज़ पकड़े जाते हैं.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, वो तो ज्यादातर तो ऐसे केस हैं जो पोकेट-मार पर भी न बने. और उनमें से ज्यादातर तो कोर्ट ने रद्द दिए हैं.
भक्त- अबे, तू मूर्ख है, तुझे समझ नहीं आएगी. सिर्फ हमारी पार्टी ही इमानदार है.
देशद्रोही- सर जी, लेकिन आपकी पार्टी के प्रमुख बंगारू लक्ष्मण तो सरे-आम रिश्वत लेते हुए पकडे गए थे.
भक्त- हाँ बे, लेकिन वो इक्का-दुक्का केस था.
देशद्रोही---- सर जी, लेकिन वो पार्टी प्रमुख थे. और फिर आपकी ही पार्टी के बड़े नेता राघव जी अपने नौकर के साथ सेक्स सम्बन्धों में पकड़े गए थे.
भक्त- अबे! उसे पार्टी से निकाल तो दिया गया था.
देशद्रोही--- सर जी, वो तो केजरीवाल भी कर रह है.
भक्त- फिर भी हमारी पार्टी ही “पार्टी-विद-ए-डिफरेंस” है. ये इक्का-दुक्का केस है.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, आपके मोदी जी भी कोई कम हैं क्या?
भक्त- अबे, क्या बक रहा है? उन्होंने आज तक एक पैसा रिश्वत नहीं ली.
देशद्रोही--- सर जी, भ्रष्टाचार सिर्फ रिश्वत लेना ही थोड़ा न होता है. इसका तो मतलब है आचार, व्यवहार भ्रष्ट होना. और उस परिभाषा से मोदी जी भी भ्रष्टाचारी हैं.
भक्त--- क्या बक रहा है बे? मोदी जी पर उंगली मत उठाना, वरना ऊंगली ही नहीं, हाथ काट देंगे. हाथ ही नहीं बाजु काट देंगे.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, मैं साबित कर सकता हूँ.
भक्त---कर, बक और न किया न तो देख लिओ तेरी खैर नहीं.
देशद्रोही--- सर जी, मोदी जी ने चुनावी भाषणों में हर भारतीय के खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख डलवाने का ऐलान किया था अगर उनकी सरकार बनेगी तो.
भक्त--- अबे, तो उससे वो भ्रष्टाचारी हो गए?
देशद्रोही--- सर जी, उससे नहीं हुए. जब अमित शाह ने कहा कि मोदी जी के बोल-बच्चन जुमला मात्र थे, तब हुए. झूठ बोल कर प्रजातंत्र को हैक करने से हुए. संसद की सीढियो पर सर टिकाने से कोई देश- भक्त नहीं होता, देश भक्त तब होता है जब भ्रष्टाचारी न हो, मतलब जब उसका आचार भ्रष्ट न हो, मतलब जब उसने वोट छीनने के लिए झूठ फरेब का सहारा न लिया हो.
भक्त—अबे चोप, देशद्रोही!

अबे चोप, देशद्रोही!

भक्त----- मोदी, मोदी, मोदी.
हर हर मोदी, घर घर मोदी.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, वो उमा भारती तो कहती हैं कि मोदी सिर्फ मीडिया द्वारा भरा गया गुब्बारा हैं.
भक्त---- अबे वो विरोधिओं की चाल है सब.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, उमा जी तो भाजपा से ही सम्बन्धित हैं. और वो रामजेठमलानी भी कहते हैं कि मोदी ने उनको उल्लू बनाया है.
भक्त-- अबे वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही-- सर जी, लेकिन वो भी तो आपकी पार्टी से ही सम्बन्धित रहे हैं. और सर जी, वो शत्रुघ्न सिन्हा भी नोट-बैन पर कुछ सवाल उठा रहे हैं.
भक्त--- हाँ बे, वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही--- लेकिन वो भी तो आपकी पार्टी से ही सम्बन्धित हैं.और सर जी,वो मीनाक्षी लेखी ने भी पीछे कहा था कि नोट-बंदी बहुत गलत कदम होगा.
भक्त--- हाँ बे, वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही---- सर जी, लेकिन वो भी तो आपकी ही पार्टी से हैं. और वो राज ठाकरे भी कहते हैं कि मोदी जी सरकारी पैसे से अपनी पार्टी की रैली करते हैं. रैली के लिए जिस हेलीकाप्टर में उड़ते हैं वो भी सरकारे पैसे से उड़ता है. न सिर्फ वो बल्कि 25 हेलीकाप्टर तब तक हवा में उड़ते हैं, जब तक मोदी जी रैली को सम्बोधित करते हैं, सब सरकारी पैसे से. सरकारी मतलब जनता के पैसे से. जनता के पैसे से मोदी जी अपनी पार्टी का प्रचार करते हैं.
भक्त-- अबे, राज ठाकरे हमारी पार्टी से नहीं है.
देश-द्रोही-- लेकिन सर जी, वो आपके विरोधी भी तो नहीं हैं.
और..........
भक्त--- अबे चोप, देशद्रोही!

अमित शाह बीजेपी नेताओं के बैंक अकाउंट चेक करेंगे--???

देशद्रोही--- सर जी, सुना है, अमित शाह बीजेपी नेताओं के बैंक अकाउंट चेक करेंगे.
भक्त----- मैं न कहता था शुरू से हमारी पार्टी सबसे ईमानदार है.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, फिर थे शायद आज़ादी से लेकर आज तक का सारा हिसाब राष्ट्र के आगे रख देंगे भाजपा नेताओं का. मल्ल्ब रोडपति से कैसे करोड़पति बने ज़रा ‘आम अमरुद आदमी’ को भी इतना जल्ली अमीर होने का नुस्खा मिल जाएगा. नहीं?
भक्त---- अबे क्या बकैती करता है, वो तो बस नोट-बंदी के दौर की ही चेकिंग होनी है.
देशद्रोही--- हम्म्म्म.......तो सर जी, भाजपा अपनी पार्टी का अकाउंट तो ज़ाहिर कर ही देगी कि उनके पास कितना पैसा आया, किस से आया? खास करके मोदी जी के चुनाव का खर्च किसने वहन किया वो तो पता लगा ही जाएगा. नहीं?
भक्त- अबे, चोप. वो तो बस नोट-बंदी के दौर की ही चेकिंग होनी है.

देशद्रोही--- चलिए सर जी, इतना भर तो बता ही देंगे अमित शाह कि जो 1100 करोड़ रुपये मोदी जी के कार्य-काल में advertisement पर खर्च किये हुए हैं, उनमें से कुछ भी पैसा उनकी पार्टी प्रचार में नहीं गया. नहीं?
भक्त—अबे चोप, देशद्रोही!

“मेक इन इंडिया”---???

देशद्रोही--- सर जी, मोदीजी के कार्यकाल की कोई उपलब्धि और बताएं.
भक्त----- मोदी जी ने “मेक इन इंडिया” चलाया.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, सुना है वो ‘मेक इन इंडिया’ का शेर भी इंडिया से बाहर की कम्पनी ने बनाया है.
भक्त- उससे क्या होता है? तुम उनकी योजना का मतलब समझो.
देशद्रोही-----सर जी, लेकिन “मेड इन इंडिया” क्यूँ नहीं? या “मेड इन इंडिया बाय इंडियन” क्यूँ नहीं? मतलब हम भारतीयों के हाथ पैर, दिमाग कुछ कम है कि हमारे मुल्क में हम आमंत्रित करें दुनिया भर को कि आओ और यहाँ आकर उद्योग लगाओ. मतलब मोदी जी ने यह पहले से ही कैसे मान लिया कि हम खुद कुछ नहीं बना सकते?
भक्त---- अरे वो बाहर से टेक्नोलॉजी आयेगी, बाहर के तकनीशियन आयेंगे, बाहर की पूंजी आयेगी तो यहाँ रोज़गार पैदा होगा.
देशद्रोही--- मतलब न हम तकनीक पैदा कर सकते हैं, न सीख सकते हैं, न पूंजी पैदा कर सकते हैं. और न ढंग का रोज़गार. हम सिर्फ लेबर टाइप काम ही कर सकते हैं. यही न?
भक्त- अरे भाई, हमारे पास अपार युवा शक्ति है, इसे रोज़गार भी तो देना है कि नहीं.
देशद्रोही--- सर जी, उसके लिए “मेक-इन-इंडिया” क्यों? मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं? मैक-डोनाल्ड बेकार सा बर्गर हमारे मुल्क में बेच सकता है, डोमिनो पिज़्ज़ा बेच-बेच अमीर बन सकता है तो हम अपना डोसा, अपने छोले भटूरे, अपने परांठे वर्ल्ड लेवल पर क्यूँ नहीं ले जा सकते? रामदेव सौ-सौ साल पुराने कम्पनी को जड़ से उखाड़ सकते हैं तो मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं? श्री श्री रविशंकर भी बढ़िया प्रोडक्ट बना रहे हैं तो मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं?
भक्त—अबे कैसे कहूँ चोप, देशद्रोही? अबकी बार तो समझ ही नहीं आ रहा यार.

Sunday, 27 November 2016

मोदी जी इमानदार है-2

भक्त- मोदी जी इमानदार है. न खाने देते हैं और न खाते हैं.

देशद्रोही--- सर जी, इमानदार तो मनमोहन सिंह भी बहुत थे.

भक्त--- तो?

देशद्रोही--- मोदी जी की इमानदारी वैसी ही है जैसी मनमोहन सिंह की थी. क्या ज़रुरत है आपको खुद अपने हाथ काले करनी की? खुद करोगे तो पकडे जाओगे. मनमोहन सिंह के पीछे लोग घपले करते रहे और वो खुद सृष्टि के सबसे ईमानदार  व्यक्ति बने रहे. पर्दे पर मनमोहन सिंह थे पीछे नेतागण हेर-फेर करते रहे.


भक्त—तो? मोदी जी इमानदार है. न खाने देते हैं और न खाते हैं.


देशद्रोही----अब पर्दे पर मोदी हैं पीछे सबसे बड़े व्यापारी हैं. समझे साम्य.

भक्त--  चोप! देशद्रोही!!

मोदी जी इमानदार हैं?-1

भक्त— मोदी जी इमानदार हैं. न खाते हैं, न खाने देते हैं.
देशद्रोही- सर जी, वो तो अम्बानी परिवार के बहुत करीबी हैं.
भक्त-तो गुनाह है क्या?

देशद्रोही — नहीं सर जी, वो कह रहे थे कि बे-ईमानों का आजादी से लेकर आजतक का हिसाब-किताब निकाल लेंगे.
भक्त- तो ?
देशद्रोही - सुना तो हमने यह भी है कि अम्बानी बंधुओं के पिता जी श्री धीरू भाई ने सारा कारोबार ही मंत्री-संतरियो को रिश्वत देकर खड़ा किया था. तो फिर हम यह समझें कि आज़ादी से लेकर आज तक का अम्बानी बंधुओ का सारा चिटठा-पट्ठा जनता के सामने होगा.
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!

28 नवम्बर का बंद-- ट्रिक भाजपा की

भक्त- 28 नवम्बर को जो दूकान बंद मिले, उससे कभी ज़िंदगी में सामान नहीं लेंगे.
देशद्रोही- सर जी, आप तो चाहते हैं कि हिन्दू कभी मुसलमान को बिज़नस न दे.
भक्त—तो?
देशद्रोही-- पुरानी दिल्ली का करीम होटल देखा है, वहां हिन्दू, मुस्लिम, सिख सब जाते हैं खाने. मालूम है क्यूँ?
भक्त- क्यूँ बे?
देशद्रोही- चूँकि उनका मटन खाते हुए लोग अपने हाथ तक खा जाते हैं.
भक्त- अबे साबित क्या करना है तुझे?
देश-द्रोही-- मेरे इर्द-गिर्द सबने चीन से बनी लड़ियाँ ही लगा रखीं थी दीवाली पे. आप तो चाइना का सामान भी बंद करने की गुहार कर रहे थे.
भक्त- तो?
देशद्रोही-- बाज़ार अपने नियमों से चलती है, आपके इस हुक्का-पानी बंदी से नहीं. बहुत दूर तक नहीं जाएगी यह ट्रिक.
भक्त- अबे चोप, देशद्रोही!!

मोदी जी इसी माँ का ज़िक्र कर रहे थे जापान में

वो माँ मिल गई है, जो मोदी जी के नोट बैन के बाद बहुत खुश है, वही जिसके बेटा-बहु वैसे तो पूछते नहीं थे लेकिन नोट बैन के बाद उसके बैंक अकाउंट में अढाई लाख जमा करा गए थे. वही जिसका ज़िक्र मोदी जी जापान में कर रहे थे. वो माँ मिल गई है. आप भी देखें.

https://www.youtube.com/watch?v=bM34Xs2SSQo

कश्मीर में पत्थरबाजी और नोट-बंदी - 2

भक्त- कश्मीर में पत्थरबाजी बंद हो गई नोट-बंदी से.

देशद्रोही- सर जी, बंद तो सदर बाज़ार भी है तब से.


भक्त- अगर बंद होता तो केजरीवाल एंड कम्पनी कल काहे बंद करवा रही है बे.


देशद्रोही- सर जी, वो अमिताभ का डायलॉग याद आ रहा है, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू.


भक्त- अबे चोप, देशद्रोही!

भाजपा का पार्टी फंड- काला या गोरा धन

भक्त- मोदी साहेब ने नोट-बंदी काला धन खात्मे के लिए किया है.

देशद्रोही- सर जी, शायद मुझ से कोई चूक हो गई हो, उन्होंने तो अपनी पार्टी का फंड कहाँ से आता है, वो भी घोषित कर दिया होगा. नहीं?


भक्त- अबे चोप्प! वो पैसा नहीं बताया जा सकता चूँकि देने वाले का यदि पता चल जाए तो विरोधी पार्टी वाले उसके दुश्मन बन जाते है.


देशद्रोही- सच्ची सर जी, जब रीटा बहुगुणा कांग्रेस छोड़ आपकी पार्टी में आ सकती हैं, जब सिद्धू आपकी पार्टी से आउट हो सकते हैं, तो क्या फर्क पड़ता है कि पार्टी फंड देने वाले भी पाला बदलते रहें?


भक्त- बे चोप! देशद्रोही!!

मोदी जी ने नोट-बंदी की ठीक से तैयारी नहीं की या करने नहीं दी ?

देशद्रोही- मोदी जी ने नोट-बंदी की ठीक से तैयारी नहीं की. 

भक्त- अबे तैयारी नहीं की या करने नहीं दी काले धन वालों?


देशद्रोही—सर जी, मेरा मतलब था कि वो जो नए नोट छपे हैं, वो अगर पुराने ही साइज़ के छाप लेते तो ATM भी लोगों की आत्मा को राहत देते. वैसे देखें तो ATM का असल मतलब आत्म ही है. जो आत्मा को सुकून दे.


भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!

नोट- बंदी या डिक्टेटरशिप

देशद्रोही--- ये नोट-बंदी बिलकुल ही डिक्टेटर-शिप हो गई भैया.
भक्त- नहीं ऐसा नहीं, मोदी जी ने लोगों की राय ली है, नमो app के ज़रिये.
देशद्रोही- अच्छा है भैया, लेकिन यह राय किसी ऐसे ढंग से लेते कि उसमें सब लोग शामिल हो पाते. मतलब मेरे गाँव का भैंस चराने वाला ललुआ. खेत में मजदूरी करने वाला भोंदू. गाय के गोबर से सारा दिन उपले घड़ने वाली बिमला. नहीं?
भक्त- अबे चोप, मौका दिया न. आज कल मोबाइल फ़ोन घर-घर है. हर- हर मोबाइल, घर-घर मोबाइल.
देशद्रोही--- सर जी, लेकिन राय काम करे से पहले लेते तो कोई मतलब था. काम करने के बाद ली गई राय का क्या मतलब? नहीं?
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!

चुनावी जुमला - असल मतलब

देशद्रोही- सर जी, वो मोदी जी ने चुनाव से पहले कहा था कि हर भारतीय के खाते में पन्द्रह- पन्द्रह लाख यूँ ही आ जाएंगे. उसका क्या?

भक्त- अबे हराम की खाने के बहुत शौक़ीन हो.

देशद्रोही- लेकिन सर जी, वो तो मुल्क का ही पैसा था न, जो वापिस आना था? मुल्क का, मतलब हमारा. तो हराम का कैसे हो गया?

भक्त- अबे, वो मोदी जी ने पन्द्रह- पन्द्रह लाख आप लोगों के खातों में डलवाने नहीं, निकलवाने की बात कही थी. सो वादा पूरा कर दिया है.

देशद्रोही—लेकिन सर जी, डलवाने की बात थी, हमने ठीक से सुना था.
भक्त- बे चोप! देशद्रोही!!

कशमीर में पत्थर-बाज़ी और नोट- बंदी-1

देशद्रोही- सर जी, नोट-बंदी से बहुत दिक्कत हो रही है लोगों को, कई तो मर भी गए लाइन में खड़े खड़े बैंकों के आगे.
भक्त- वक्त लगेगा अभी. बहुत अच्छे नतीजे आएंगे आगे. अभी से कुछ भी राय बनाना सही नहीं होगा.
देशद्रोही- लेकिन सर जी, आप तो कह रहे थे कि कश्मीर में पत्थर-बाज़ी नोट-बंदी से ही कम हुई है. आपने इतनी जल्दी कैसे नतीजा निकाल लिया?
भक्त- बे चोप! देशद्रोही!!

मीनाक्षी लेखी जी द्वारा नोट बैन की खिलाफत

देशद्रोही- सर जी, वो आपकी पार्टी की तेज़-तरार नेत्री मीनाक्षी लेखी जी का विडियो देखा. वो पीछे कह रही थी कि नोट बैन बहुत गलत होगी आम आदमी के लिए.

भक्त- वो उनकी अपनी राय रही होगी, पार्टी की नहीं.

देशद्रोही- लेकिन सर जी, वो तो पार्टी प्रवक्ता थीं तब.

भक्त- चोप !! वो उनकी अपनी ही राय थी. देशद्रोही!

जन-धन अकाउंट का औचित्य

देशद्रोही- सर जी, मोदी जी की कोई उपलब्धी बताएं प्रधान-मंत्री बनने के बाद.
भक्त- मोदी जी ने जन-धन योजना के तहत गरीब से गरीब लोगों को बैंक अकाउंट खुलवाए ही इसीलिए कि लोग अपना पैसा बैंक में रखें.
देशद्रोही- लेकिन सर जी, अकाउंट तो कोई भी पहले भी खोल सकता था.
भक्त- लेकिन उसके लिए हज़ार रुपये भी तो होने चाहिए थे?
देशद्रोही- सर जी, अगर हज़ार रुपये भी नहीं हैं तो फिर अकाउंट खोलना ही किस लिए?
भक्त- चोप!
देशद्रोही- और सर जी, उन जन धन खातों के रख रखाव में जो खर्चा आया, वो जनता ने ही भरा न? उसका फायदा क्या जब इनमें से बहुत लोग हज़ार रूपया भी जमा करके खाता नहीं खुलवा सकते?
भक्त- चोप! तुम्हें समझ नहीं आएगा, ये हाई इकोनोमिक्स की बातें हैं.
देशद्रोही- ठीक है सर जी, फिर तो मेरे से वोट भी नहीं माँगा जाना चाहिए, मुझे कहाँ कुछ समझ आएगा. नहीं?
भक्त- चोप! देशद्रोही!!

28 नवम्बर के भारत बंद पर टिप्पणी

भक्त-- भारत बंद कराने वालो को जरा पूछो,
सरहद बंद कराने जाना है
आओगे ????
देशद्रोही- सर जी, शुरुयात से ही शुरू करते हैं, यही सवाल मोदी जी से करते हैं. सवाल क्या करते हैं, उनको वहां खड़ा ही कर देते हैं.
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!

मोदी जी का त्याग

भक्त- मोदी जी ने घर-बार सब छोड़ा मुल्क के लिए, कहा भी था उन्होंने गोवा में.
देशद्रोही- सर जी, बीवी तो अपनाने से पहले ही छोड़ दी थी, फिर घर कब बनाया? और जब बनाया ही नहीं तो छोड़ा कब?
भक्त- अबे, माँ नहीं हैं क्या उनकी?
देशद्रोही- तो सर जी, क्या यह मानें कि जो भी अपनी माँ के साथ रहता है वो देश सेवा में अक्षम है.
भक्त- अबे चोप! देश द्रोही!!

केजरीवाल बकवास है - सच में क्या?

भक्त- केजरीवाल बकवास है. दिल्ली को उल्लू बना दिया.
देशद्रोही- सर जी, जब कोर्ट ने ही कह दिया कि दिल्ली का बॉस लेफ्टिनेंट गवर्नर है तो केजरीवाल को क्या दोष देना?
भक्त- तूने देखा, दिल्ली में चारों और गन्दगी है. उससे ही बीमारियाँ फ़ैली हैं.

देशद्रोही- पर सर जी, MCD तो भाजपा के पास है यानि राष्ट्र-वादी पार्टी के पास.
भक्त- केजरीवाल की ही वजह से दिल्ली में अपराध बढे हैं.
देशद्रोही- पर सर जी, दिल्ली पुलिस तो केंद्र के अधीन है, केजरीवाल क्या करेगा इसमें?
भक्त- DDA भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है, केजरीवाल ने किया कुछ?
देशद्रोही- पर सर जी, वो भी तो LG के अधीन है?
भक्त- तो फिर केजरीवाल दिल्ली का मुख्य-मंत्री बना ही क्यों?
देश-द्रोही- वोही तो फिर, केजरीवाल को दिल्ली का प्रधान-मंत्री बनने ही क्यूँ दिया गया. केंद्र को दिल्ली के चुनाव करवाने ही क्यूँ थे? या फिर दिल्ली को केजरीवाल को जितवाने की सज़ा दे रहे हैं मोदी जी?
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!! आपिये!!

Saturday, 26 November 2016

"मोदी की खतरनाक राजनीति"

मोदी अपना वोट बैंक बदल रहा है, वो भिखमंगे और जिनके पल्ले कुछ नहीं था, उनको टारगेट कर रहा है. उसे पता है, कि ये लोग jealous थे अमीरों से, और ये निहायत खुश हैं.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.

मोदी कैसे बना प्रधान-मंत्री

मोदी ने प्रजातंत्र को किडनैप किया था, हाईजैक किया था.

अन्ना आन्दोलन की वजह से एक vaccum क्रिएट हो गया था राजनीति में
कांग्रेस की जगह छिन्न चुकी थी
जिसे अन्ना ग्रुप नहीं भर पाया
 वो तितर-बितर हो गया
विकल्प नहीं दे पाया
वरना भाजपा पहले भी थी
ऐसा क्या हो गया था कि मोदी मोदी हो गई
लोग तो अन्ना के साथ थे फिर मोदी कहाँ से आ गया
चूँकि विकल्प नहीं दे पाए अन्ना के साथी


भौतिक विज्ञानं का नियम है vaccum को उसके इर्द गिर्द जो भी हो वो भरने का प्रयास करता है
सो भर गया, भरा गया...मोदी मोदी हो गेया

छद्म प्रजातंत्र से

काला धन --गोरा धन

1. कोई धन ‘काला धन’ नहीं होता जब तक सरकार टैक्स आटे में नमक जैसा न लेती हो.
2. कोई व्यक्ति चोर नहीं होता जब तक सरकार टैक्स चोरों जैसे न लेती हो.
3. कोई व्यक्ति बे-ईमान नहीं होता जब तक सरकार खुद इमानदार न हो.
4. कोई टैक्स ही सही नहीं होता जब तक उसमें सबकी भागीदारी न हो. मतलब जो लोग टैक्स देने के काबिल न हों उनको इस मुल्क में बच्चे पैदा करने का हक़ भी क्यूँ हो? क्या आप पड़ोसी के बच्चे को पालने के लिए ज़िम्मेदार हैं. अगर नहीं तो फिर जो टैक्स नहीं भर सकते उनके बच्चे आप क्यूँ पालें?
5. इन बिन्दुओं पर सोचें, समझ आ जायेगी, देशद्रोह के, बेईमान के ठप्पे लगाने से कुछ नहीं होगा, दिमाग पर जोर देने से होगा.

प्रजातंत्र या अर्थतन्त्र का षड्यन्त्र

मोदी भक्त-जन, बस इतना जवाब दें कि कोई धन काला कैसे हो गया? सरकार  नौकर है. जनता मालिक है. है कि नहीं? फिर आज तक कभी कोई सर्वे हुआ कि जनता (मालिक) कितना टैक्स देकर सरकार चलवाना चाहती हैं?

अँधा-धुंध टैक्स लगाओ और फिर कोई न दे तो उसे चोर घोषित करो. 

ऐसी सरकारों की ऐसी की तैसी.

भाजपा के अपना खाता बताया कि करोड़ों रुपये जो मोदी खर्च करके PM बना , वो कहाँ से आए थे?

हमें कॉर्पोरेट धन से हमारे नेता बने लोगों का विरोध करना चाहिए.
हमें छदम प्रजातंत्र का विरोध करना चाहिए.


तभी हम प्रजातंत्र के असली मतलब को जी पायेंगे.वरना हम सिर्फ अर्थ-तन्त्र आधारित छद्म-तन्त्र षड्यन्त्र में पड़े रहेंगे.


असल प्रजातंत्र तब होगा जब आप और मुझ में से कोई भी प्रधान-मंत्री बन सके. बन सके अपनी मन्त्रणा की क्षमता की वजह से. न कि इसलिए कि वो किसी संस्था में जीवन भर रहा, न कि इसलिए कि उसे कोई अंध-धुंध पैसे से देवता बना गया.


उम्मीद है समझ आए.


तुषार कॉस्मिक

Friday, 25 November 2016

मोदी को कैसे गिराएं

 चोर को नहीं, चोर की मां को मारो. मोदी को गिराना है तो मोदी-भक्त के हर कुतर्क को बेरहमी से काटो. उससे उलझो मत, कोई फायदा नहीं होगा. उसके फैलाए हर कुतर्क के  जवाब में तर्क फैलाओ. मोदी अपने आप गिर जाएगा. जिस हथियार का प्रयोग करके वो प्रधान-मंत्री बना है, वही उसके खिलाफ प्रयोग करो. पंजाबी में इसे ही कहते हैं, “तेरी जुत्ती, तेरे सर.”

"मोदी कहाँ गलत है, देखें--गुलाम मालिक बन गया"

आप सब्ज़ी खरीदते हो तो मोल भाव करते हो....बेचने वाला अपना रेट बताता है...आप अपना.

चौक से लेबर भी लेते हो तो मोल भाव करते हो, मज़दूर चार सौ मांगता है, आप तीन सौ कहते हो, करते-कराते बीच में कहीं सौदा पट जाता है.

आप ड्राईवर रखते हो, वप अपनी डिमांड रखता है, आप अपनी तरफ से काम बताते हो और अपनी तरफ से क्या दे सकते हो अह बताते हो, सौदा जमता है तो आप उसे hire कर लेते हो.

अब आओ सरकार पर. सरकार जनता की नौकर है. PM/ CM/ सरकारी नौकर सब पब्लिक के सर्वेंट हैं, नौकर.  

पब्लिक को मौका दिया क्या कि वो मोल भाव कर सके कि सरकार को कितनी तनख्वाह (टैक्स) देना चाहती है?

नहीं दिया न.
बस.यही फेर है.


नौकर मालिक बन बैठा है. जनतंत्र तानाशाही बन बैठी है.

एक कहानी सुनाता हूँ, बात समझ में आ जाएगी. 
बादशाह एक गुलाम से बहुत खुश रहता था. गुलाम भी बहुत सेवा करता, बादशाह मुंह से निकाले और फरमाईश पूरी. एक बार बादशाह ने भरे दरबार में कह दिया कि मांग क्या मांगता है. वो कहे, "नहीं साहेब, कुछ नहीं चाहिए". बादशाह ने फिर जिद्द की. "मांग, कुछ तो मांग". सारा दरबार हाज़िर.

आखिर गुलाम ने मांग ही लिया. जानते हैं,क्या? उसने कहा, "जिल्ले-इलाही मुझे एक दिन के लिए बादशाह बना दीजिये, बस." बादशाह हक्का बक्का.लेकिन जुबां दे चुका था, भरे दरबार में. सो हाँ, कर दी. 


जैसे ही गुलाम बादशाह की जगह बैठा तख़्त पर. उसने हुक्म दिया, "बादशाह को कैद कर लिया जाए और उसका सर कलम कर दिया जाए." बादशाह चिल्लाता रहा, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी.


यही होता है, हमारे प्रजातन्त्र में. हर पांच साल में  ये नेता लोग हाथ बाँध आ जाते है. गुलाम की तरह. और फिर सीट मिलते ही, गर्दन पर सवार हो जाते हैं जनता की. पांच साल की डिक्टेटर-शिप.


गुलाम ने हुकम कर दिया कि पब्लिक का पैसा मिट्टी. अब पब्लिक खड़ी है लाइन में. वो पूछती ही नहीं कि जिल्ले-इलाही मालिक तो हम हैं. जिल्ले-इलाही आपने जो पैसा चुनाव में खर्च किया था, वो कहाँ से आया था. जिल्ले-इलाही, हमने आपको नौकरी दी है,लेकिन हम अपनी जेब काटने का हक़ आपको नहीं दिया है, हम आटे में नमक आपको तनख्वाह में दे सकते हैं लेकिन आप हमारा आटा ही छीन लो, यह हम नहीं होने देंगे. "


वो इसलिए नहीं पूछती चूँकि नौकर बहत शक्तिशाली हो चुका. वो बात भी करता है तो जैसे रामलीला का रावण. वो बात भी करता है तो खुद को 'मैं' नहीं कहता, खुद को 'मोदी' कहता है.


और उसका जनतंत्र में कोई यकीन है ही नहीं. जनतंत्र को तो हाईजैक करके ही वो PM बना और फिर से जनतंत्र को हाईजैक करने के लिए whats-app और फेसबुक और तमाम तरह के मीडिया पर उसने लोग छोड़ रखे हैं, जो भूखे कुत्तों की तरह जूते हैं, हर विरोधी आवाज़ को दबाने.


सावधान रहिए. अँधेरे गड्डों में गिरने वाले हैं हम सब.

Thursday, 24 November 2016

"नोट-बंदी/ गन्दी-बंदी"

प्रजातंत्र में सरकार नौकर है और जनता मालिक.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक बढवाने की जिद्द नहीं कर सकता जब तक कि पहले सी दी जा रही तनख्वाह का हक़ ठीक से अदा न कर रहा हो.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक नहीं बढवा सकता, जब तक मालिक राज़ी न हो. नौकर कौन होता है जबरदस्ती करने वाला?
जनता की मर्ज़ी भई, अगर उसे कम तनख्वाह वाला नौकर पसंद हो तो वो वही रखेगी.
जनता को विकास चाहिए लेकिन इस शर्त पर नहीं कि उसकी जेब में पड़े एक रुपये की चवन्नी रह जाए.
नहीं यकीन तो पूछ के देख लो.
और बेहतर था यह सब गंदी-बंदी करने से पहले पूछते. और गाँव, गाँव, कस्बे-कस्बे पूछते.
यह क्या ड्रामा है? जो करना था, वो कर दिया. बाद में पूछते हो, वो भी मोबाइल app बना कर. जहाँ पचास प्रतिशत लोगों को वो app की abcd ही नहीं पता होगी. और अगर पता भी होगी तो कौन दुश्मन बनाए सरकार को अपनी असल राय ज़ाहिर करके .
सो साहेबान, ज़्यादा सयाने मत बनिए. अक्सर ज़्यादा सयाने लोग बेवकूफ ही बनते हैं, सयाना कव्वा गू पर गिरता है.

Tuesday, 15 November 2016

“नोट-बंदी -- मोदी की अक्लमंदी या अक्ल-बंदी”

सबसे पहले हमें समझना होगा कि प्रजातंत्र क्या है. ठीक है. ठीक है. आप जानते हैं, “हमारी सरकार, हमारे लिए, हमारे द्वारा.यानि दूसरे शब्दों में सरकार और कुछ नहीं, ‘हमही हैं. सरकारी तन्त्र, निजाम हमही हैं.

आगे समझिए कि पैसा क्या है. पैसा असल में चंद कागज़ के या धातु के टुकड़े नहीं हैं. पैसा एक व्यक्ति की शारीरिक और दिमागी मेहनत है, जिसे हमने कागज़ या धातु के टुकड़ों के रूप में स्वीकृत किया.


अब जैसे घर चलाने के लिए पैसा चाहिए, वैसे ही सरकारी तन्त्र चलाने के लिए पैसा चाहिए. बिलकुल सही बात है.
सरकार को हम ने हक़ दिया है कि वो हम से टैक्स के रूप में वो पैसा ले सकती है. और जो व्यक्ति टैक्स दे वो इमानदार, जो न दे वो बे-ईमान. सही है न.

लेकिन एक पेच है! सरकार हमने बनाई. बल्कि परिभाषा के हिसाब से सरकार हम ही हैं. सरकारी अमले में जो भी लोग हैं, चाहे वो चुने गए नेता हों, चाहे सरकारी नौकर वो हमारी ही सेवा के लिए हैं. कहते भी है पब्लिक सर्वेंट. यानि पब्लिक का नौकर.  फिर से समझ लीजिये सिद्धान्त: मालिक जनता है और नौकर ये नेतागण हैं ये सरकारी लोग हैं.
लेकिन असल में ऐसा है नहीं. सरकार अपने आप में आम आदमी से बहुत ऊपर की एक शक्ति बन चुकी है, जिसका आम आदमी से नाता बस किताबी ही है. असल में जो नौकर है वो मालिक बन चुका है और जो मालिक है वो नौकर है.


सरकार हक़ से आम आदमी से पूछती है कि क्या कमाया
, क्या खाया, क्या पीया, क्या बचाया? लेकिन खुद अपना हिसाब कभी पब्लिक को नहीं देती, इस तरह से नहीं देती कि पब्लिक समझ सके कि सरकार कहाँ फ़िज़ूल खर्ची कर रही है और कहाँ ज़रूरत के बावजूद भी खर्चा नहीं कर रही.

मिसाल के लिए हमारा न्याय-तन्त्र सड़ा हुआ है, मुकदमें सालों बल्कि दशकों लटकते रहते हैं और जज की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते रहते हैं. हल है. जजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, हर कोर्ट में CCTV लगाए जा सकते हैं. लेकिन वहां खर्चा नहीं किया जा रहा.

हर छह महीने बाद ये जो 'स्वतंत्र-दिवस' 'गणतन्त्र-दिवस' मनाया जाता है, जन से, गण से कभी नहीं पूछा गया  कि इसका खर्च बचाया जाए या नहीं. 

बहुत जगह सरकारी नौकरों  को अंधी तनख्वाहें बांटी जा रही हैं, जबकि उनसे आधी तनख्वाह पर उनसे बेहतर लोग भर्ती किये जा सकते हैं. मेरी गली में जो झाडू मारने वाली है उसे लगभग तीस हज़ार तनख्वाह मिलती है, उसने आगे दस हज़ार का लड़का रखा है जो उसकी जगह सारा काम करता है, मतलब जो काम दस हज़ार तक में करने वाले लोग मौजूद हैं, उनको तीस हज़ार सैलरी दी जा रही है. वहां खर्चा घटाया जा सकता है, वो नहीं घटाया जा रहा है बल्कि और बढाया जा रहा है. ये पे-कमीशन, वो पे-कमीशन. ये भत्ता, वो भत्ता.

कभी पब्लिक की राय भी ले लो भाई. आखिर पैसा तो उसी ने देना है. आखिर मालिक तो वही है. किताबी तौर पर.


क्या पब्लिक को मौका दिया कि वो समझ सके कि कहाँ-कहाँ कितना खर्च सरकार कर रही है और क्या पब्लिक के सुझाव लिए कि कहाँ-कहाँ वो कितना खर्च घटाना या बढ़ाना चाहेगी? क्या मौका दिया जनता-जनार्दन को कि वो समझ सके कि वो कैसे खुद पर टैक्स का बोझ घटा सकती है?

जैसे कोई व्यक्ति अपने ऊपर टैक्स का बोझ घटाने के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट के पास जाता है. अपना सब जमा-घटा, खाया-कमाया-बचाया बताता है और फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट उसे सलाह देता है ठीक उसी तरह से सरकार को जनता को मौका देना चाहिए कि जनता सरकारी खर्च घटाने या बढाने के लिए सरकार को सलाह दे. आखिर पता तो लगे कि ये जो अनाप-शनाप टैक्स थोपे जाते हैं इनमें से कितने घटाए जा सकते हैं, हटाये जा सकते हैं. पता तो लगे कि क्या एक सीमा के बाद हर व्यक्ति यदि अपनी कमाई का 10/15 परसेंट यदि टैक्स में दे तो उससे सरकार का काम चल सकता है या नहीं.

और यदि कोई सरकार ऐसा नहीं करती, और जनता पर बस टैक्स ठोके जाती है और टैक्स न देने वाले को बे-ईमान घोषित करती है तो वो सरकार खुद बे-ईमान है.

अब मोदी जी के आसमानी निर्णय की बात. क्या उन्होंने यह निर्णय जनता पर थोपने से पहले जनता को मुल्क के खर्चे का हिसाब किताब बताया? जब वोट लेने थे तो घर-घर मोदी, हर-हर मोदी किया जा रहा था, लेकिन नोट छीनने से पहले घर-घर सरकारी खर्चे का हिसाब-किताब क्यों नहीं पहुँचाया? क्यूँ नहीं जनता से सलाह ली कि समाज में, निजाम में ऐसे क्या परिवर्तन किये जाएं कि लोगों को टैक्स आटे में नमक जैसा लगे?

टैक्स की चोरी होती क्यूँ है? चूँकि वो नमक ही नहीं, आधे से ज़्यादा आटा भी छीन लेता है.

आज अगर कोई झुग्गी वाला बच्चा पैदा करता है तो उसका खर्चा भी सरकार पर पड़ता है, उसे कहीं न कहीं सरकारी दवा, सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल, सरकारी सुविधा की ज़रुरत पड़ती है. वो खर्चा हमारी आपकी जेब से निकालती है सरकार. और सिधांतत: सरकार हम ही हैं याद रहे. तो क्या हम ऐसी इजाज़त देते रहना चाहते हैं कि समाज में कोई भी बच्चों का अम्बार लगाता जाए और हम उसके लिए टैक्स भरते रहें. यानि करे कोई और भरे कोई, यह व्यवस्था है या कुव्यवस्था?

तो यह जो मोदी जी या कोई भी नेता कहता है कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है, उसका मतलब यही है कि जितने मर्ज़ी बच्चे पैदा करो, उनका खर्चा टैक्स के रूप में पैसे वालों की जेबों से निकाला जाएगा. और गरीब ताली बजाएगा. उसे पता नहीं ऐसा नेता उसका शुभ-चिन्तक नहीं है, उसका छुपा दुश्मन है. ऐसा नेता उसे समृधि नहीं, अनंत ग़रीबी की और धकेल रहा है और ऐसा नेता बाकी समाज को मजबूर कर रहा है अपनी मेहनत की कमाई इन गरीबों पर खर्च करने के लिए.

जब मोदी  जी जैसे नेतागण कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है तो उसका मतलब साफ़ है, गरीब बने रहो, ज़रा से अमीर बनने का प्रयास भी किया तो सरकार हाथ-पैर धो कर तुम्हारे पीछे पड़ जायेगी. अमेरिका के बारे में एक बात प्रसिद्ध है कि
America is a land of Opportunities. People in America can have a Great American Dream. यानि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी बुलंदियों पर पहुँच सकता है, लेकिन हमारे यहाँ के नेता कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार है. वो भूल ही जाते हैं कि हर गरीब के अंतर-मन में अमीर होने की इच्छा है. वो भूल जाते हैं कि लोग साफ़ समझ रहे हैं कि ये नेतागण उनके अमीर होने में बाधक है. वो भूल जाते हैं कि हर सरकार को अमीर और गरीब दोनों का होना चाहिए, हर सरकार को हर गरीब को अमीर होने का मौका देना चाहिए. हर नेता को यह घोषित करना चाहिए कि उसके शासन में अमीर होना कोई गुनाह नहीं है.

भाई मेरे, नेता कोई भी हो, भीड़ के सम्मोहन में फंस कर तालियाँ पीटने से समाज की समस्याएं हल नहीं होंगी. समस्या हल होती हैं उन पर गहरे में सोचने से.


मोदी जी का नोट-बंदी का निर्णय मोदी जी और भाजपा के अस्तित्व के लिए निर्णायक सिद्ध होगा. चूँकि जब तक सरकार खुद बे-ईमान हो, निजाम खुद बे-ईमान हो, जब तक टैक्स आटे में नमक जैसे न हों, जब तक टैक्स का पैसा कहाँ कितना खर्च हो रहा है उसका जन-जन को हिसाब न दिया जाए, कहाँ कितना खर्च बढाया, जाए, घटाया जाए जन-जन से पूछा न जाए, तब तक किसी के पैसे को काला पैसा घोषित करने का किसी भी सरकार को कोई हक़ नहीं है. तब तक किसी को भी बे-ईमान घोषित करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है. और जनता जो भी पैसा कमाती है, यदि वो चोरी-डकैती का नहीं है, किसी से धोखा-धड़ी करके नहीं इकट्ठा किया गया, किसी भी और किस्म के अपराध से हासिल नहीं किया गया तो वो सब सफेद है.
और याद रखिये सरकार हमारी है. सरकार हम खुद हैं. प्रजातंत्र इसे ही कहते हैं.


आज सभी विपक्षी राजनितिक दलों के पास मौका है, सुनहरा मौका. एक जुट हो जाएं और जनता को गहरे में समझाएं कि यह नीति कहाँ गलत है. जनता की दस-बीस दिन की दिक्कतों को गिनवाने मात्र से कुछ नहीं होगा, वो तो आज नहीं कल कम हो ही जानी हैं. वो मुद्दा कोई बहुत दूर तक फायदा नहीं देगा इन दलों को. फायदा तब मिलेगा जब मोदी-नीति गहरे में कहाँ गलत है, यह समझा और समझाया जाए. समाज-शास्त्र को बीच में लाया जाए. मुल्क की इकोनोमिक्स को बिलकुल आसान करके जनता को समझाये जाने का आग्रह किया जाए. जनता को उसका हक़ याद कराया जाए. जनता को जनतंत्र की परिभाषा समझाई जाए. मालिक को उसका हक़ दिया जाए और नौकर को उसकी जगह दिखाई जाए. और जनता को हक़ दिया जाए कि वो खुद फैसला कर सके कि क्या वो आटे में नमक से ज़्यादा टैक्स सरकार को देना चाहती है या नहीं, जनता को उसके मालिक होने का हक़ लौटाया जाए, उसे हक़ दिया जाए कि वो खुद तय कर सके कि सरकारी कामों के लिए कितना पैसा खर्च किया जाए, कहाँ खर्च बढ़ाया जाए, कहाँ घटाया जाए.

जो दल ऐसा करने की हिम्मत करेंगे, वो अप्रत्याशित रूप से फायदे में रहेंगे. और जनता भी.

अन्यथा भुगतते रहो इमोशनल नारे और मोदी भक्तों की गालियों की बौछार.


और आखिरी बात. मोदी-भक्ति ही देश-भक्ति नहीं है. और आरएसएस ही मात्र देश-भक्त नहीं है. और सरकार का विरोध देश-विरोध नहीं है, देश-द्रोह नहीं है. अपने वक्त की सरकारों का अक्सर लोग विरोध करते हैं और यह सबका प्रजातांत्रिक अधिकार है. और बहुत से लोग जो अपने समय की सरकारों का विरोध करते थे, उस वक्त जेलों में डाल दिए गए, फांसियों पर चढ़ा दिए गए और बाद में जन-गण को समझ आया कि उनसे बड़ा शुभ-चिन्तक कोई नहीं था.  देशभक्ति की परिभाषा भी नेतागण ने अपने हिसाब से बना रखी है.

वैसे यह जो सब कुछ मैंने लिखा २०१४ में भाजपा भी यही सब कहती थी. यकीन न हो तो भाजपा की spokes-person मीनाक्षी लेखी के विडियो youtube पर देख लीजिये. और भाजपा भी उन दलों में से एक है जिसने आज तक RTI के तले खुद को लाए जाने का विरोध ही किया है.


आमिर खान की लगान फिल्म याद हो शायद आपको, सारा संघर्ष टैक्स कोलेकर थाआप-हम आज परवाह ही नहीं करतेकब-कहाँ से सरकार हमारे जेब काटती रहती हैशायद हमने  मान लिया है कि सरकारें जब चाहें, जितना चाहें, जहाँ चाहे हम से पैसा वसूल सकती हैंदफा कीजिये इस मिथ्या धारणा को और आज से यह देखना शुरू कीजिये कि आपकी सरकारें पैसा वसूल सरकारें हैं या नहीं...ठीकऐसे ही जैसे आप देखते हैं कि कोई फिल्म पैसा वसूल फिल्म है या नहीं

तुषार कॉस्मिक

Sunday, 16 October 2016

खतरनाक इस्लाम

इस्लाम का खतरा समझने के लिए आपको बहुत दूर जाने की ज़रुरत नहीं है. बस सिक्ख इतिहास पर नज़र मारें.
गुरु गोबिंद साहेब को खालसा सृजन क्यों करना पड़ा? क्यों कहना पड़ा, सवा लाख से एक लड़ाऊँ? क्यों कहना पड़ा, चिड़ियां नाल बाज़ लड़ाऊँ? क्यों गुरु साहेब और उनके बच्चों को बलिदान देना पड़ा?
उनके पिता गुरु तेग बहादुर को दिल्ली के चांदनी चौक में शहीद कर दिया गया. किस लिए? मात्र इसलिए कि वो इस्लाम स्वीकार नहीं कर रहे थे. गुरु साहेब को समझ आ गया कि यह सीधा अत्याचार है, अनाचार है. तो लड़ा क्यों न जाए? संघर्ष क्यों न किया जाए?
और खालसा अस्तित्व में आया.
गुरु साहेब इस्लाम या हिन्दू के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे, वो अत्याचार के खिलाफ लड़ रहे थे, ठीक बात है, लेकिन सवाल यह है कि अत्याचार कर कौन रहा था और क्यों कर रहा था?
वो अत्याचार करने वाले सब मुसलमान थे, आक्रमण करने वाले सब मुसलमान थे. और ऐसा वो कर इसलिए रहे थे कि इस्लाम को फैलाना उनका धार्मिक कर्तव्य था. चाहे जैसे भी.
क्या आज मुसलमान बदल गया? क्या आज इस्लाम बदल गया? नहीं. न तो कुरान बदली है और न बदलेगी.
अभी कुछ ही माह पहले जब औरंगज़ेब रोड का नाम बदलने का मुद्दा उछला था तो बहुत से मुस्लिम बंधु सख्त विरोध कर रहे थे. वही औरंगज़ेब जिसने तेग बहादुर जी को शहीद किया था. इस्लाम में कुछ नहीं बदलता मित्रवर.
दुनिया अगर नहीं समझी तो आज तक जो भी दुनिया ने कमाया है, अंधेरों में खो जाएगा, क्यों कि इस्लाम कोई नमाज़ पढने और रोज़े रखने और बकरीद पर बकरे काटने का ही नाम नहीं है, यह पूरा जीवन दर्शन है, इसमें शरिया है, इसमें जेहाद है. इसमें जीवन के बाद के लालच हैं और डर हैं. यह अपने आप में पूरा कल्चर है. और जब इस्लाम फैलता है तो यह सब तरह के कल्चर को खत्म कर देता है.
और फिर जो समाज पैदा होता है, वो एक अंधेरी दुनिया है, नहीं यकीन तो इस्लामी मुल्कों के हाल देख लीजिये. अगर तेल की ज़रुरत आज दुनिया में बंद हो जाए तो इन इस्लामी मुल्कों के पल्ले सिवा जहालत के कुछ भी नहीं दिखेगा.
खैर, ट्रम्प जीते या न जीते, लेकिन अमेरिका और बाकी दुनिया कुछ हद तक इस्लाम के खतरों को समझने लगी है. आप भी समझिये.

नमस्कार.

Tuesday, 13 September 2016

गणेश विसर्जन का मतलब

कुछ साल पहले मैंने एक आर्टिकल लिखा था-- “गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू मुड़ न आ”, वो विरोध था अंध-विश्वास का, अंधे हो कर विश्वास करने का. बिना क्रिया-कारण समझे. इस तरह का विश्वास खतरनाक है. यूँ तो कोई भी, कैसे भी हांक लेगा और आप हंक जायेंगे. सो उसका तो आज भी विरोध है.

और आज  भी अधिकांश लोग तो यह सब ‘गणेश स्थापना’ और फिर ‘विसर्जना’ अंधे होकर ही करते हैं. बिना कोई क्रिया-कारण/ कॉज एंड इफ़ेक्ट समझे.

मैंने कुछ मतलब निकलने की कोशिश की है, इस सारे क्रिया-कलाप का.  अलग-अलग धारणाएं हैं इस विषय में, कुछ कहते हैं कि यह व्यर्थ है, कुछ कहते हैं, इसमें गहन अर्थ है. पोंगा पंडताई से जुड़ा है मामला. पंडितों के हांके किस्सा-कहानियों के समर्थन में खड़ा होता एक फ़िज़ूल का करतब. है भी. हम वाकई बचकानी कहानियों में यकीन कर रहे हैं. शायद हमारा मानसिक विकास बंदरों और हाथियों से ऊपर नहीं उठा है. तभी तो हम उन्हें पूज रहे हैं. किसी बन्दर या हाथी को देखा आपने कि वो इन्सान को पूज रहा हो? वो हमसे ज़्यादा समझदार है, उसे पता है कि हम पूजे जाने के काबिल ही नहीं हैं.



खैर, अगर किस्सागोई और पोंगा-पंडताई को ओझल कर प्रतिमा विसर्जन को कुछ अर्थ दिया जाए तो वो ऐसा हो सकता है :----


एक मान्यता है प्रभु की और दूसरी है स्वयम्भू की. पहली में स्रष्टि स्रष्टा से अलग है. दोनों में एक अंतर है. दूसरी मान्यता में दोनों गड-मड्ड हैं. कला में कलाकार शामिल है. नृत्य में नृत्यकार शामिल है. एक्टिंग में एक्टर शामिल है. तभी तो कहते हैं कि संसार प्रभु की लीला है. प्रभु अपनी लीला में शामिल है, वो स्वयभू है. बनने वाला, बनाने वाला, मिटाने वाला एक ही है. ब्रह्म, विष्णु, महेश.
GOD. G. O. D. Generator, Operator, Destructor.  जो त्रिमूर्ति की परिकल्पना है, यह कोई वास्तविकता नहीं है, यह बस समझने को है. प्रभु स्वयम्भु है.

तो आप समझ लीजिये कि हम ही गणेश की मूर्ती बनाते हैं, हम  ही उसे स्थापित करते हैं, और हम  ही पूजा करते हैं और हम ही विसर्जित करते हैं. यही सब चक्र तो चल रहा है सारे अस्तित्व में. पूरा अस्तित्व स्वनिर्मित है और स्वचालित है और स्वभंगुर है. यह प्रतिमा विसर्जन हमारे  जीवन दर्शन को परिलक्षित करता है. ईद गयी ही है. मुस्लिम सृष्टि और सृष्टा को अलग मानते हैं. अब सूअर जैसा गंदा, गलीज़ जानवर कैसे अल्लाह का रूप हो सकता है? हिन्दू कह सकता है कि यह भी स्वयंभू है. विराट-रूप में अच्छा बुरा सब रूप दिखाते हैं कृष्ण, असल में तो समझाते हैं कृष्ण. सब उन्ही में शामिल है. लेकिन मुसलमान की तो धारणा ही यही है कि  खालक अलग है और उसकी खलकत अलग. वो बकरीद पर जानवर काट कर अल्लाह को खुश करता है. पहले उस जानवर को प्यार से पालता, पोसता है, फिर काट देता है. है न कुछ कुछ प्रतिमा विसर्जन जैसा. हिन्दू  भी तो प्रतिमा बनाते हैं, सजाते हैं, सवारते हैं, पूजते हैं और फिर नदी में बहा देते हैं. लेकिन जीवन दर्शन बिलकुल अलग हैं. हिंदुत्व में “स्वयम्भू” का दर्शन है और इस्लाम में “स्रष्टा-सृष्टि” का. गणेश विसर्जन और बकरीद दोनों अवसर साथ-साथ पड़ते हैं, मौका है थोड़ा सोच-विचार लीजिये.


अब दूसरा पहलू लेते हैं कि हम प्रतिमा पूजन  करें ही क्यूँ, जब हमें पता है कि यह बस प्रतिमा ही है, हमारी बनाई हुई है? प्रतिमा एक साधन है. हमें  भी पता है कि वो बस प्रतिमा ही है. आपने बचपन में गणित के सवाल हल  किये होंगे. खास करके ब्याज से सम्बन्धित, जिनमें टीचर सिखाते थे, “मान लो मूलधन रुपये सौ”. और आप सवाल हल कर जाते थे. आपको पता था कि मूलधन सौ नहीं है लेकिन आप मान लेते थे, सिर्फ इसलिए कि आपको सवाल को हल करना होता था. अब कोई अड़ जाए कि नहीं, जब मूलधन सौ है ही नहीं तो मानूं क्यूँ? बिलकुल. तर्क के हिसाब से सही भी लग सकता है. मुसलमान का तर्क यही है. जब उस निराकर का, उस प्रभु का कोई रूप है ही नहीं तो उसे किसी भी रूप, किसी भी आकार  में कैसे ढाला जा सकता है? लेकिन यह तर्क सही है नहीं, चूँकि मूलधन सौ सिर्फ माना गया है, उससे मूलधन सौ हो नहीं गया. इसी तरह से प्रतिमा को प्रभु माना गया है लेकिन प्रतिमा प्रभु नहीं हो गई. वो प्रतिमा ही है. प्रतिमा सिर्फ एक माध्यम है, मानव के लिए उस विराट से, उस अनंत से, उस अनादि से सम्पर्क बनाने का. प्रभु निराकार है. वो निर्लेप है. वो निष्पक्ष है. प्रतिमा के ज़रिये आप उस निराकार का स्वाद ले सकते हैं. गहन ध्यान में उतर सकते हैं.



अब अगला पहलु लेते हैं कि लोग गणेश की मूर्ती विसर्जित करते हुए उसके कान में अपनी इच्छाएं बुदबुदाते हैं, इसका क्या मतलब? क्या वाकई इसका कोई मतलब होता होगा? देखिये एक तो मनोवैज्ञानिक पहलू है, मानव मन को एक सम्बल मिलता है कि कोई तो है उसका सहारा जो उसकी मुश्किलात को हल करने में मदद देगा. वो मानसिक सम्बल बहुत काम आता है. उस विश्वास के सहारे मानव खुद भी प्रयासरत रहता है और समय के साथ बहुत कुछ हल होता जाता है. एक और पहलु है. वो यह कि पूरा अस्तित्व तो जुड़ा है. अस्तित्व के अलग-अलग रूपों का एक दूसरे पर प्रभाव भी होता है. स्थूल रूप से समझें कि दो आदमी लड़ रहे हैं तो अस्तित्व ही अतित्व से लड़ रहा है. थोड़ा और सूक्ष्म समझें तो कहते हैं कि आप एक पेड़ को गाली दो और दूसरे को प्यार दो, जिसे गाली दी होगी वो मुरझा जाएगा जिसे प्यार दिया होगा वो फल–फूल जाएगा. जिन लोगों ने पानी पर प्रयोग किये है वो कहते हैं कि पानी पर भी ऐसा ही प्रभाव होता है. मेरा मानना है कि कायनात में कुछ भी मुर्दा नहीं. जीवन के अलग-अलग रूप हैं, डिग्री हैं. सो मिटटी भी जिंदा है. उसे भी महसूस होता है, आज आपके यंत्र न पकड़ पाएं लेकिन वो भी प्यार, दुलार और मार को महसूस करती है. कल तक आप पेड़ों को जिंदा नहीं कह सकते थी लेकिन आज उन्हें जिंदा कहना आपकी मज़बूरी है. दिल थाम बैठिये, जल्द ही आपको मिटटी को भी जिंदा कहना होगा. सो प्रतिमा भी जिंदा है. जब आप उसे अपनी कुछ मदद करने को कह रहे हैं तो आप उसके ज़रिये अस्तित्व तक एक पहुँच बना रहे हैं, आपकी मदद हो भी सकती है. अब अस्तित्व में और भी बहुत सी शक्तियाँ काम कर रही हो सकती हैं. जैसे आज मोबाइल फ़ोन के लिए एयरटेल का सिग्नल भी आपके कमरे में हो सकता है,  वोडाफोन का भी और रिलायंस का भी. हो सकता है सिर्फ एयरटेल काम करे, बाकी न करें. इसी तरह से अस्तित्व में कौन सी शक्ति कैसे काम करेगी, इसका तो अभी कुछ पक्का नहीं किया जा सकता लेकिन अस्तित्व को अपनी मदद करने के लिए प्रतिमा को एक जरिया बनाया जा सकता है.   


देखिये ‘प्रभु’ और ‘अस्तित्व’ हालाँकि एक ही है. एक सूक्षम है, सूक्ष्मतम  है और दूसरा स्थूल है, उसी का स्थूल रूप है. लेकिन प्रभु जो है न, आप लाख सर पटकते रहो, वो आपकी सुनने वाला है नहीं. वो आपके बच्चे को परीक्षा में प्रथम स्थान पर लाने  वाला नहीं है. चूँकि बाकी बच्चे  भी उसी के हैं. वो आपको मुकदमा जितवाने वाला नहीं है, चूँकि आपका विरोधी भी उसी का बच्चा है.   
  

लेकिन ‘अस्तित्व’ जो है, वो आपकी मदद कर सकता है. भविष्य में विज्ञान साबित कर देगा कि आप हवा, पानी, धूप, मिटटी सब को प्रभावित कर सकते हैं और सब आपको प्रभावित कर सकते हैं, तब शायद प्रतिमा का महत्व इन अर्थों में साबित हो सके. तब तक आप अपनी प्रार्थनाएं हवाओं से कह सकते हैं, सीधे न कह पाएं तो वायुदेव की प्रतिमा बना लें. धूप को कह सकते हैं, सीधे न कह सकें तो सूर्यदेव की प्रतिमा बना सकते हैं. मिटटी के  लिए धरती माता हैं. पानी के लिए वरुणदेव हैं.

अगली बार जब गणेश या किसी भी प्रतिमा के सामने नत-मस्तक हों तो पोंगा-पंडताई और किस्सागोई को तो एक तरफ रख दें और थोड़ा तार्किक और वैज्ञानिक पहलु सोच-समझ कर करें, जो भी करें.

और याद रखिये मास्टर  जी ने कहा था. “मान लीजिये मूल धन सौ रुपये”, उन्होनें यह नहीं कहा था कि मूलधन सौ रुपैये ही है, वो तो बस हल तक पहुँचने का जरिया है.

नमन....तुषार कॉस्मिक