इडियट, तुम्हारा सब नकली क्यूँ है रे? मूर्खता को छोड़ कर.
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Monday, 26 December 2016
उम्रे छुट्टियाँ माँग के लाये थे चार दिन, दो जाने में कट गये, दो आने में.आधे दायें, आधे बायें, बाकी मेरे पीछे. आधा जाने में, आधा आने में, बाकी समय घूमने में. थकावट उतारने गए थे घूमने और दोगुने थक कर लौटे. लौट के बुद्धू घर को आए, अपना सा मुंह लेकर, वो भी उतरा हुआ. बाकी बोम मारने को अच्छा है कि घूम कर आए, और हाँ, बाद में सेल्फियां देख-दिखा कर नकली खुश होने को भी अच्छा है. इडियट, तुम्हारा सब नकली क्यूँ है रे? मूर्खता को छोड़ कर.
कोई ईसा परमात्मा का इकलौता पुत्र था. जैसे हम सब किसी छोटे खुदा के बच्चे हों?
कोई मूसा समन्दर दो-फाड़ कर देता है.
कोई पैगम्बर चाँद को दो-फाड़ कर देता है.
कोई बन्दर उड़ता है मीलों. पहाड़ उठा लाता है. सूरज निगल लेता है.
किसी के गुरु पंजे से पहाडी से लुड़कती चट्टान रोक देते हैं.
अब यह सब मानो तो आप धार्मिक हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
उल्लू की बे-इज़्ज़ती नहीं करनी चाहिए क्यूंकि वो ऐसी गपोड़ कहानियाँ मानते नहीं देखा गया. यूँ अंदर से तो इंसान भी जानता है कि यह सब बकवास है. इसीलिए ऐसी कहानियों के लिए शब्द है Gospels. जो Gossip शब्द से बना है. जिसका अर्थ है गप्पबाजी. और हिंदी में भी एक शब्द है 'मिथिहास', यानि कि मिथ्या इतिहास, झूठा इतिहास. पता सब को सब है लेकिन मानना किसी ने नहीं कि यह सब नहीं मानना चाहिए.
Saturday, 24 December 2016
Exposed Modi's Swachh Bharat Abhiyan-- पर्दा-फाश मोदी के स्वच्छ भारत अभि...
मार्किट में नया है. टेढ़ा है पर मेरा है. देखिये और टीका टिपण्णी भी टीपीए, हम न नहीं कहेंगे करीना के बापू की तरह.
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"नाम में क्या रखा है"
ग़लत कहा था शेक्सपियर ने कि नाम में क्या रखा है. अगर नहीं रखा, तो क्यूँ नहीं लोग अपना नाम 'कुत्ता' रख लेते? हाँ, कुत्ते का नाम 'टाइगर' ज़रूर रखते हैं.
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
Friday, 23 December 2016
"क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?"
संघ ने नब्बे साल पहले एक बीज डाला था. जो पेड़ बना चुका. यह पेड़ नब्बे साल बाद स-फल हो ही गया. इस पर मोदी नाम का फल लगा जिसे कॉर्पोरेट मनी की हवा से फुला कर कुप्पा कर दिया गया. अब क्या संघी और क्या कुसंगी, मोदी-मोदी भज रहे हैं. नारा ही दे दिया,"हर-हर मोदी, घर-घर मोदी".
भक्त क्या मोदी-मोदी भजने वाला ही है? वो तो है ही. लेकिन आप- हम झांके अपने अंदर कि क्या हम भी किसी के भक्त तो नहीं. अंध-भक्त.
क्या हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मात्र इसलिए तो नहीं कि माँ ने दूध के साथ धर्म का ज़हर भी पिला दिया था, बाप ने चेचक के टीके के साथ मज़हब का टीका भी लगवा दिया था? दादा ने प्यार-प्यार में ज़ेहन में मज़हब की ख़ाज-दाद डाल दी थी? नाना ने अक्ल के प्रयोग को ना-ना करना सिखा दिया था? बड़ों ने लकड़ी की काठी के घोड़े दौड़ाना तो सिखाया लेकिन अक्ल के घोड़े दौड़ाने पर रोक लगा दी?
क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?
असल में आप-हम सब भक्त हैं.
भक्त क्या, रोबोट हैं.
मशीन हैं.
भक्त सिर्फ मोदी के ही नहीं है. भक्ति असल में खून में है लोगों के. सुना था लोग भगवान के भक्त हुआ करते थे पहले, लेकिन आज तो सचिन तेंदुलकर को ही भगवान मानने लगे. अमिताभ बच्चन, रजनी कान्त और पता नहीं किस-किस के मंदिर बन चुके. सो सिर्फ मोदी-भक्त को ही दोष मत दो. थोड़ा समय पहले तक लोग कहते थे कि वो कांग्रेस को वोट इसलिए देते हैं, चूँकि वो कांग्रेस को वोट देते हैं, चूँकि उनके पिता कांग्रेस को वोट देते थे, चूँकि उनके पिता के पिता कांग्रेस को वोट देते थे. सो सवाल मोदी-भक्ति नहीं है, सवाल 'भक्ति' है. सवाल यह है कि व्यक्ति भक्ति में अपनी निजता को इतनी आसानी से खोने को उतावला क्यूँ है? जवाब है कि इन्सान को आज-तक अपने पैरों पर खड़ा होना ही नहीं आया, वो आज भी किसी चमत्कारी व्यक्ति के इन्तेज़ार में है, वो आज भी भक्तिरत है.
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खबर की कबर
एक ज़माना था सलमा सुलतान, शम्मी नारंग का. क्या शालीनता थी! तब खबर सिर्फ खबर हुआ करती थी. आज तो टीवी खबरनवीस बिना साँस लिए ऐसे बोलते हैं, जैसे खाज खाए हुए कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. खबर में मिर्च-मसाले डालते हैं, इतने ज़्यादा कि उसे बदमज़ा कर देते हैं. उसकी चटनी बना देंते हैं. उसे घोटे जायेंगे, पीसे जायेंगे, इतना कि जान ही निकाल देते हैं. आज के खबरनवीस कबरनवीस हैं. खबर को कबर तक पहुंचा कर दम लेते हैं और वक्त-बेवक्त ख़बर को कबर में से फिर-फिर उखाड़ लाते हैं.
whats-app ज्ञान- 4
न्यायालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
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मोदी सरकार
व्हाट्स- एप - ज्ञान-- 3
पार्टी को:-- 100% छूट।
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
पानी लिया - टैक्स दिया
राशन खरीदा - टैक्स दिया
कपड़े खरीदे - टैक्स दिया
जूते खरीदे - टैक्स दिया
किताबें ली - टैक्स दिया
टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
पानी लिया - टैक्स दिया
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कपड़े खरीदे - टैक्स दिया
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किताबें ली - टैक्स दिया
टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
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हमारे पैसे हमारे अपने हैं। उन्हें हम नगद खर्च करें या ऑनलाइन - यह हमारी मर्ज़ी है। देश की सरकार को अगर कैशलेस ऑनलाइन व्यवस्था लागू करने की जल्दबाजी है तो बेहतर होगा कि वह इसकी शुरूआत ख़ुद से करके हमारे आगे उदाहरण उपस्थित करे। काले धन की गोद में पली-बढ़ी पार्टियां जब देश को सदाचार का पाठ पढ़ाती है तो गुस्सा तो आएगा ही। हम भारत सरकार के कैशलेस लेन-देन के प्रस्ताव को तबतक के लिए खारिज करते हैं जबतक सरकार हमारी तीन मांगे नहीं मान लेती।
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
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प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साहब,
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
Thursday, 22 December 2016
चन्दू ने गलती से एक अच्छा सा कच्छा क्या ऑनलाइन आर्डर कर दिया, वो तो कल से लगे हैं उसे बताने कि आपकी शिपमेंट यहाँ पहुँच गयी, यहाँ तक पहुँच गयी, बस पहुँचने ही वाली है...बस पहुँची कि पहुँची. मैसेज बॉक्स भरता जा रहा है और चन्दू की घबड़ाहट बढ़ती जा रही है....कच्छा ही आर्डर किया था या कुछ और? यह शिप से क्या भेजा जा रहा है? शायद VIP का कच्छा आर्डर करो तो VIP हो जाता है इन्सान, सो कच्छा भी समुद्री जहाज़ से भेजा जाता हो? चन्दू बेहद दुविधा में है.
Wednesday, 21 December 2016
Tuesday, 20 December 2016
Sunday, 18 December 2016
Saturday, 17 December 2016
Thursday, 15 December 2016
“HOLYSHIT”
यह बहुत ही कीमती शब्द है. कई बार कोई एक शब्द ही ढोल की पोल खोल देता है. यह एक शब्द काफ़ी है, विभिन्न तथा-कथित संस्कृतियों को छिन्न-भिन्न करने को. इस शब्द का अर्थ है 'पवित्र टट्टी'. मतलब जो कुछ भी पवित्र समझा जाता है, धार्मिक माना जाता है, टट्टी है. वाह! इससे आसान और कैसे समझाया जा सकता है? वाह! HOLYSHIT!! #पवित्र#टट्टी!!!
"जो बीवी से करे प्यार, प्रेस्टीज से कैसे करे इनकार?"
#नास्तिक कोई हो ही नहीं सकता....नास्तिक में भी #आस्तिक है......#अस्तित्व से कैसे कोई इनकार कर सकता है? जो अस्तित्व से इनकार करे उसे खुद के होने से इनकार करना होगा. करता रहे. कोर्ट भी आपकी न को ऐसे ही नहीं मानती, उसका भी सबूत देना होता है. और यहाँ सबूत मांगने वाला खुद ही सबूत है.पहले इस्तेमाल करे फिर विश्वास करें. कर ही रहे खुद को बरसों से इस्तेमाल, फिर भी #विश्वास नहीं है तो कोई क्या करे?
Wednesday, 14 December 2016
#बेईमान कौन है, तुम या हम?#
नौकर पिछली तनख्वाह का हक़ तो अदा कर नहीं रहा और जिद्द कर रहा है, जबरदस्ती कर रहा है तनख्वाह बढ़वाने की.
जिस चीज़ के आगे सरकारी शब्द लग चुका है वो सब सड़ चुकी है. सरकारी अस्तपाल बदबू मारता है, सरकारी स्कूल में बच्चों से लेबर कराई जाती है. सरकारी न्याय लेने के लिए पीढियां घिस जाती हैं, दाढ़ी से मूंछे बड़ी हो जाती हैं. #सरकारी सड़क खड़क चुकी हैं. सरकारी बस की बस हो चुकी है. सरकारी पुलिस दोनों तरफ से रिश्वत लेती है. कौन सही, कौन गलत, उसे कोई मतलब नहीं. थाने गुंडागर्दी के अड्डे हैं और पुलिस मुल्क का सबसे बड़ा माफ़िया. हर सरकारी चीज़ बस सरक रही है किसी तरह से.
और सरकार को और टैक्स चाहिए. आप चाहे #कैशलेस हो जाओ, चाहे #लेसकैश लेकिन सरकार को और टैक्स चाहिए.
कौन समझाए कि सरकार इसलिए बकवास नहीं थी कि उसे जनता टैक्स कम दे रही थी? वो इसलिए बकवास थी चूँकि वो बकवास थी, वो बे-ईमान थी. अगर सरकारी कर्मचारी को कम पैसे मिलते होते तो काहे हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जा रहा है? अगर सरकार को पैसे कम पड़ रहे होते तो काहे हर कोई नेता बनने को जान देने को है? काहे रोज़ नेता अरबों रुपये के स्कैम में फंस रहे होते?
नहीं. अभी पिछले पैसों का हिसाब ही नहीं दिया और चले हैं और ज़्यादा मांगने. जनता को उठ खड़े होना चाहिए और उस नेता का कालर पकड़ पूछना चाहिए जो टैक्स न देने वालों को रोज़ बे-ईमान कह रहा है, पूछना चाहिए उसे कि बे-ईमान कौन है बे, तुम या हम?
उल्टा चोर कोतवाल को डांटे.
उल्टा बे-ईमान नौकर मालिक को मारे चांटेे.
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Tuesday, 13 December 2016
#फ़कीरी मेरी नज़र में#
पीछे मोदी जी ने खुद को फ़कीर क्या कह दिया सारा समाज फकीरी पर चर्चा करने लगा.
एक रहिन ईर, एक रहिन बीर, एक रहिन फत्ते, एक रहिन हम. ईर कहिन फकीरी, बीर कहिन फकीरी, फत्ते कहिन फकीरी. तो फिर हमहू कहिन फकीरी.
जिस फ़कीर को अपने #फक्कड़पन में ऐश्वर्य नज़र न आता हो, वो फ़कीर है ही नहीं. ऐश्वर्य का मतलब ऐश करना ही नहीं है, इसका मतलब ईश्वरीय होना भी है. हमारे यहाँ ‘महाराज’ शब्द राजा के लिए तो प्रयोग हुआ ही है, फकीर के लिए भी प्रयोग हुआ है. फ़कीर राजाओं का भी राजा है. वो महाराजा है. बुल्ले 'शाह' याद हैं.शाह शब्द पर गौर कीजिये. वो कोई बादशाह नहीं हैं, लेकिन फिर भी शाहों के शाह हैं. फकीरी का मतलब कोई झोला-वोला उठा कर, कटे-फटे कपड़े पहन कर जीना नहीं है. फकीरी का मतलब है, अलमस्त रहना. फकीरी का मतलब ‘अजीबो-गरीब’ होना नहीं है, फकीरी ‘अजीबो-अमीर’ होना है. दुनिया का सबसे अमीर आदमी भी फ़कीर हो सकता है. बिल गेट्स ने अपनी जायदाद का अधिकांश हिस्सा दान कर दिया, क्या यह फकीरी का लक्षण नहीं है? एक ऐश्वर्यशाली व्यक्ति ही फ़कीर हो सकता है.
Monday, 12 December 2016
करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?
अमिताभ उतरता है अन्नू कपूर के साथ माल-गाड़ी के डिब्बे से. अन्नू कपूर
कहता है कि ठंड बहुत लग रही है और भूख भी. अमिताभ उसे सुझाव देता है कि ठंड लगे तो
भूख को याद करो, ठंड नहीं लगेगी और भूख लगे तो ठण्ड को याद करो, भूख नहीं लगेगी.
एक आदमी सोया हो ठंड में और कद हो छह फ़ुट लेकिन कम्बल हो उसके पास पांच फ़ुट का. तो कैसे पूरा पड़ेगा उस पर? सर की तरफ खींचेगा तो पैरों की तरफ से नंगा हो जाएगा. पैरों की तरफ खींचेगा तो सर की तरफ से नंगा हो जाएगा.
एक फिल्म में डायलाग था कि भूखा चोरी करे तो उसे चोरी नहीं कहते, लेकिन भरे पेट का चोरी करे उसे चोरी नहीं, डकैती समझना चाहिए. मेरे ख्याल में तो भरे पेट वाला भी कहीं न कहीं भूख का शिकार है. भूख के डर का शिकार.
करप्शन कभी बंद नहीं हो सकता एक अभावग्रस्त समाज में. एक आर्थिक रूप से असुरक्षित समाज में. जयललिता के कपड़ों के अम्बार और जूतों की भरमार के पीछे क्या मानसिकता है? यही कि कल हो न हो.
करप्शन सिर्फ एक लक्षण जो एक बीमार समाज की खबर दे रहा है. हम बीमारी खत्म करने की बजाए उसके लक्षणों, सिमटोम पर टूट पड़े है.
बीमारी है समाज का असंतुलन. एक समाज जहाँ कोई कोठड़ी में है तो कोई कोठी में. कहीं किसी के पास दस कमरों का घर है तो कहीं दस आदमी एक कमरे में सोते हैं. ऐसे समाज में करप्शन खत्म होगा? होना भी चाहिए?
ऐसे समाज में करप्शन बंद कभी नहीं हो सकती. आप लाख कोशिश कर लें.
एक आदमी सोया हो ठंड में और कद हो छह फ़ुट लेकिन कम्बल हो उसके पास पांच फ़ुट का. तो कैसे पूरा पड़ेगा उस पर? सर की तरफ खींचेगा तो पैरों की तरफ से नंगा हो जाएगा. पैरों की तरफ खींचेगा तो सर की तरफ से नंगा हो जाएगा.
एक फिल्म में डायलाग था कि भूखा चोरी करे तो उसे चोरी नहीं कहते, लेकिन भरे पेट का चोरी करे उसे चोरी नहीं, डकैती समझना चाहिए. मेरे ख्याल में तो भरे पेट वाला भी कहीं न कहीं भूख का शिकार है. भूख के डर का शिकार.
करप्शन कभी बंद नहीं हो सकता एक अभावग्रस्त समाज में. एक आर्थिक रूप से असुरक्षित समाज में. जयललिता के कपड़ों के अम्बार और जूतों की भरमार के पीछे क्या मानसिकता है? यही कि कल हो न हो.
करप्शन सिर्फ एक लक्षण जो एक बीमार समाज की खबर दे रहा है. हम बीमारी खत्म करने की बजाए उसके लक्षणों, सिमटोम पर टूट पड़े है.
बीमारी है समाज का असंतुलन. एक समाज जहाँ कोई कोठड़ी में है तो कोई कोठी में. कहीं किसी के पास दस कमरों का घर है तो कहीं दस आदमी एक कमरे में सोते हैं. ऐसे समाज में करप्शन खत्म होगा? होना भी चाहिए?
ऐसे समाज में करप्शन बंद कभी नहीं हो सकती. आप लाख कोशिश कर लें.
लाओत्से की ख्याति बहुत थी कि पंहुचा हुआ फ़कीर है. राजा ने उसे जबरन न्याय-मंत्री बना दिया गया. अब एक सेठ आया कि चोर ने उसका गल्ला चुरा लिया. लाओत्से ने चोर को स्कूल में पढने की सज़ा दी, स्टेट के खर्चे पर, तब तक जब तक वो अच्छा कमाने लायक न हो जाए. और बीस कोड़े की सज़ा दी सेठ को. राजा हैरान! लाओत्से को कारण बताने को कहा. लाओत्से कहते हैं कि इस सेठ ने मजबूर किया कि चोर चोरी करे. इसने अभाव क्रिएट किया. राजा कुछ कह पाता उससे पहले ही लाओत्से ने तीस कोड़े वित्त-मंत्री को भी मारने को कहा. राजा ने कारण पूछा? लाओत्से ने कहा, “चूँकि यह मंत्री ऐसी वित्तीय प्रणाली पैदा ही नहीं कर सकता कि किसी को चोरी न करनी पड़े. इसलिए यह गुनाह-गार है.” राजा हैरान! अब लाओत्से ने चालीस कोड़े राजा को मारने का हुक्म दिया. अब राजा की हिम्मत नहीं हुई आगे पूछने की. वो समझ गया कि लाओत्से का जवाब क्या होना था.
राजा तो समझ गया आप समझे कि नहीं? ये जो राजा है, वही ज़िम्मेदार है. चोर चोरी करता है और उस पर ध्यान न जाए इसलिए वही सबसे ज़्यादा चिल्लाता है, “चोर, चोर, पकड़ो पकड़ो.” लोग समझते हैं कि कम से कम ये बेचारा तो चोर नहीं हो सकता.
हमारा नेता ही ज़िम्मेदार है, ऐसा बे-हिसाब समाज पैदा करने के लिए. और वो ही चिल्ला-चिल्ली कर रहा है कि करप्शन खत्म करेगा. कोई नोट बंद कर रहा है, तो कोई लोक-पाल कानून लाने को आमदा है. जड़ में कोई नहीं जाना चाहता कि एक करप्ट समाज में करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?
लक्षणों से उलझे हैं सब, डायग्नोसिस ही नहीं करना चाहते, इलाज क्या ख़ाक करेंगे?
नमन....तुषार कॉस्मिक. कॉपी राईट लेखन
मैं आठवीं जमात तक अंग्रेज़ी सीख चुका था...लेकिन शेक्सपियर का लेखन मुझे समझ नहीं आता था........ भाषा समझ लेने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि हमने जो पढ़ा, वो हमें समझ आ ही गया.....हम कुछ का कुछ समझ सकते हैं....अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं...व्यर्थ कर सकते हैं......मतलब आदमी अपने हिसाब से निकालता है जनाब. ऐसे मतलब जिनका लेखक के मतलब से कोई मतलब ही नहीं होता.
Friday, 9 December 2016
अरुण जेटली हैं वित्त-मंत्री. वैसे सुना था कि अमृतसर में जो इलेक्शन फाइट किया था इनने, तो रिकॉर्ड बनाया था. हारने
का जी. अजीब है हमारे यहाँ के कानून. जिसकी काबलियत पर जनता को यकीन पहले ही नहीं
था उसे सरकार ने मंत्री बना दिया. अब मंत्री ने मंत्र मार दिया है. देखते जाईये,
भारत की इकॉनमी बीस दिन बाद ही आसमान छूने लगेगी. ठीक वैसे ही जैसे जादूगर का
ज़मूरा बिना सहारे की रस्सी पर चढ़ आसमान छूने लगता है.
"शेख-चिल्ली और कैश-लेस भारत"
शेख-चिल्ली की मशहूर कहानी है. सर में टोकरी रखी है उसके और कुछ अंडे हैं उसमें वो लगा है कल्पना के घोड़े दौडाने. इन अण्डों में से मुर्गे-मुर्गियां निकलेगीं. फिर उनके बच्चे होंगे. फिर उनके बच्चों के बच्चे होंगे और इस तरह से एक बड़ा पोल्ट्री फार्म होगा. और कुछ ही समय में वो अमीर हो जाएगा.
लेस-कैश वाला भारत कुछ ही दिन में कैश-लेस ले-दे करेगा और सरकार को कई गुणा टैक्स देगा और बदले में सरकार इस पैसे से हर भारतीय को कई गुणा अमीर कर देगी. मालामाल.
शेख-चिल्ली को ठोकर लगी थी और सर पे रखी अंडे की टोकरी ज़मीन पर और अण्डों का क्या हुआ होगा ...आप खुददे बहुत समझदार हैं, सोच सकते हैं.
"मोदी की खतरनाक राजनीति"
मोदी अपना वोट बैंक बदल रहा है, वो भिखमंगे और जिनके पल्ले कुछ नहीं था, उनको टारगेट कर रहा है. उसे पता है, कि ये लोग jealous थे अमीरों से, और ये निहायत खुश हैं.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.
साम्भा--- आखिर कितने दिन और जनता का पैसा बैंकों में ही रोके रखना है सरदार, मतलब सरकार?
सरदार मतलब सरकार--- ऐसे तो हम जनता को जीने लायक कैश दे ही रहे हैं....और थोड़े दिन में अधिकांश लोग कैश-लेस ले-दे करने लगेंगे.
साम्भा-- सरदार मतलब सरकार, और थोड़े दिन में तो बहुत लोग वैसे ही कैश-लेस हो जायेंगे. न रहेगा बांस, न बजेगी बंसरी. दंगा ही न हो जाए?
सरदार मतलब सरकार---- ऐसा कुछ नहीं होगा, जब पचास-पचास कोस तक कोई हमें कोस रहा होता है तो समझदार लोग कहते हैं ,"चुप हो जा पगले नहीं तो सरदार, मतलब सरकार आ जाएगी."
Thursday, 8 December 2016
"सरकार की समझ सरकारी है, सो राम-लीला ज़ारी है"
भारत की आबादी—1.25 करोड़
ग़रीबी रेखा के नीचे—22 करोड़
एडल्ट- 60 प्रतिशत
ग़रीबी रेखा के नीचे तकरीबन 13 करोड़ लोग एडल्ट होंगे. अगर इनमें से आधे लोगों के कैसे भी खाते हों तो हुई 6.5 करोड़ और अगर हरेक के खाते में एक लाख भी जमा हुआ तो कुल हुआ 6.5 लाख करोड़ रुपैया.
और यह सिर्फ ग़रीबी रेखा से नीचे के लोग हैं. ग़रीबी रेखा के आस-पास के लोगों को भी मिला लें तो यह संख्या सहज ही सरकार के चौदह-पन्द्रह लाख करोड़ रुपियों को पार कर जानी है.
मतलब यह कि काश सरकते हुए आर्थिक रूप से निचले तबके के खातों में कई दिशाओं तक पहुंचा है, जैसे एडवांस सैलरी दी जा रही है साल भर की. मतलब यह कि निचला तबका कहीं तो काम-धंधा करता है न तो उसको काम देने वाले लोग उसके ज़रिये काश अकाउंट तक पहुंचाएंगे कि नहीं.
ज़रा सी समझ नहीं आई सरकार को. काश रातों-रात बदला नहीं जा सकता था. उसके लिए समय चाहिए ही था और उसी समय में यह सब हो जाएगा, इसे सरकार समझ ही नहीं पाई. जो रास्ते देने ही पड़ने थे, उन्ही रास्तों से यह सब होगा ही सरकार समझ ही नै पाई. चूँकि सरकार की समझ सरकारी है. सरक सरक कर चलती है.
अब लगे हैं, विभिन्न तरह से ज़बरन लोगों को कैश के बिना लेन-देन करवाने. सब उल्टा गिरेगा इन्ही की उलटी खोपड़ियों परम जिनमें भेजे को कुदरत ने भेजा ही नहीं.
देखते जाइए, राम-लीला ज़ारी है.
"टाइटैनिक और नोट-बंदी"
टाइटैनिक फिल्म देखी सुनी होगी आपने. वो जो जहाज़ जिसका नाम टाइटैनिक था, वो कहते हैं कि किसी आइस-बर्ग से ही टकराया था.
आइस-बर्ग समझते ही होंगे आप कि क्या होता है. बर्फ की ये बड़े बड़ी चट्टान. आइस-बर्ग सिर्फ दस प्रतिशत ही नज़र आता है. नब्बे प्रतिशत नीचे समुद्र में होता है.
आपको ये जो कतार दिख रही हैं न नोट-बंदी की वजह से बैंक और एटीएम के आगे, और ये जो समस्याओं का आपको हमें सामना करना पड़ रहा है रोज़-मर्रा के जीवन में, डे-टू-डे लाइफ की प्रॉब्लम, ये आइस-बर्ग का वो हिस्सा है जो ऊपर से नज़र आता है, दस प्रतिशत. ये नज़र आ रहा है , इसलिए सब ऊपर से नीचे तक के लोग, पक्ष विपक्ष के लोग इसी पर जद्दो-जहद करने में जुटे हैं. इससे उपजी और उपजने वाली समस्याओं नब्बे प्रतिशत हिस्सा है वो है जो अभी लोगों को ठीक से नज़र नहीं आ रहा. वो है कि आप से सरकार टैक्स लेना चाहती है. वो भी डैकैतों जैसा. हर मोड़ पर, हर चौराहे पर, तिराहे पर. हर transaction पर. वो दो तो आप काम कर पाओगे, धंधा कर पाओगे, वरना आप अपराधी.
जब तक आप इस आइस-बर्ग नब्बे प्रतिशत हिस्सा जो ओझल है, उसे नहीं देख पाएंगे, उसे मुद्दा नहीं बनायेंगे, आपका टाइटैनिक इस आइस-बर्ग से टकराना ही है.
Tuesday, 6 December 2016
“चोर कौन – हम या सरकार?”
मास्टर जी- फर्स्ट अप्रैल को मुर्ख दिवस क्यों कहते है?
पप्पू- हिंदुस्तान की सबसे समझदार जनता,पूरे साल गधो की तरह कमा कर थर्टी फर्स्ट मार्च को अपना सारा पैसा टैक्स मे सरकार को दे देती है।
और फर्स्ट अप्रैल से फिर से गधो की तरह सरकार के लिए पैसा कमाना शुरू कर देती है। इस लिए फर्स्ट अप्रैल को मुर्ख दिवस कहते है।
बहुत पहले कभी यह 20 पॉइंट का आर्टिकल पढ़ा था. लेखक का नाम नहीं पता, उनको धन्यवाद देते हुए पेश कर रहा हूँ.
1) सवाल-- आप क्या करते हैं?
जवाब – व्यापार
टैक्स- प्रोफेशनल टैक्स भरो
2) सवाल-- आप क्या व्यापार करते हैं?
जवाब – सामान बेचता हूँ
टैक्स- सेल टैक्स भरो
3) सवाल-- सामान खरीदते कहाँ से हो?
जवाब –देश के दूसरे प्रदेशों से और विदेश से
टैक्स- केन्द्रीय सेल टैक्स भरो, कस्टम ड्यूटी भरो, चुंगी भरो
4) सवाल-- आपको क्या मिल रहा है ?
जवाब – लाभ
टैक्स- इनकम टैक्स भरो
5) सवाल-- लाभ बांटते कैसे हैं?
जवाब –डिविडेंड द्वारा
टैक्स- डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स भरो
6) सवाल-- सामान बनाते कहाँ हो?
जवाब – फैक्ट्री में
टैक्स- एक्साइज ड्यूटी भरो
7) सवाल-- स्टाफ भी है क्या?
जवाब –हाँ
टैक्स- स्टाफ प्रोफेशनल टैक्स दो
8) सवाल-- करोड़ो में व्यापार करते हो क्या?
जवाब –हाँ
टैक्स- टर्नओवर टैक्स भरो
9) सवाल-- बैंक से ज़्यादा काश निकालते हो क्या?
जवाब –जी, तनख्वाह के लिए
टैक्स- काश हैंडलिंग टैक्स भरो
10) सवाल-- अपने क्लाइंट को डिनर और लंच के लिए कहाँ ले जा रहे हो?
जवाब –होटल
टैक्स- फ़ूड और एंटरटेनमेंट टैक्स भरो
11) सवाल-- व्यापार के लिए शहर से बाहर जाते हो?
जवाब – हाँ
टैक्स- फ्रिंज बेनिफिट टैक्स भरो
12) सवाल-- क्या किसी को कोई सेवा दी है?
जवाब – हाँ
टैक्स- सर्विस टैक्स भरो
13) सवाल-- इतनी बड़ी रकम कैसे आई आपके पास?
जवाब – जनम दिन पर गिफ्ट मिली
टैक्स- गिफ्ट टैक्स भरो
14) सवाल-- कोई जायदाद है आपके पास?
जवाब – हाँ
टैक्स- वेल्थ टैक्स भरो
15) सवाल-- टेंशन कम करने को, मनोरंजन को कहाँ जाते हो?
जवाब – सिनेमा
टैक्स- एंटरटेनमेंट टैक्स दो
16) सवाल-- घर खरीदा है क्या?
जवाब – हाँ
टैक्स- स्टाम्प ड्यूटी भरो और रजिस्ट्रेशन फीस भरो
17) सवाल-- सफर कैसे करते हो?
जवाब – बस से
टैक्स- सरचार्ज भरो
18) सवाल-- अभी और भी हैं टैक्स?
जवाब – क्या
टैक्स- शिक्षा टैक्स, शिक्षा टैक्स और सभी केन्द्रीय टैक्सोन पर अतिरिक्त टैक्स और सरचार्ज
19) सवाल-- टैक्स भरने में कभी डेरी भी की है क्या?
जवाब –हाँ
टैक्स- ब्याज़ और जुर्माना भरो
20) भारतीय का सवाल-- क्या मैं मर सकता हूँ अब?
जवाब – नहीं, इंतज़ार करो, हम अभी अंतिम संस्कार टैक्स शुरू करने ही वाले हैं.”
आप सब्ज़ी खरीदते हो तो मोल भाव करते हो....बेचने वाला अपना रेट बताता है...आप अपना.
चौक से लेबर भी लेते हो तो मोल भाव करते हो, मज़दूर चार सौ मांगता है, आप तीन सौ कहते हो, करते-कराते बीच में कहीं सौदा पट जाता है.
आप ड्राईवर रखते हो, वप अपनी डिमांड रखता है, आप अपनी तरफ से काम बताते हो और अपनी तरफ से क्या दे सकते हो अह बताते हो, सौदा जमता है तो आप उसे hire कर लेते हो.
अब आओ सरकार पर. सरकार जनता की नौकर है. PM/ CM/ सरकारी नौकर सब पब्लिक के सर्वेंट हैं, नौकर.
पब्लिक को मौका दिया क्या कि वो मोल भाव कर सके कि सरकार को कितनी तनख्वाह (टैक्स) देना चाहती है?
नहीं दिया न.
बस.यही फेर है.
नौकर मालिक बन बैठा है. जनतंत्र तानाशाही बन बैठी है.
एक कहानी सुनाता हूँ, बात समझ में आ जाएगी.
बादशाह एक गुलाम से बहुत खुश रहता था. गुलाम भी बहुत सेवा करता, बादशाह मुंह से निकाले और फरमाईश पूरी. एक बार बादशाह ने भरे दरबार में कह दिया कि मांग क्या मांगता है. वो कहे, "नहीं साहेब, कुछ नहीं चाहिए". बादशाह ने फिर जिद्द की. "मांग, कुछ तो मांग". सारा दरबार हाज़िर.
आखिर गुलाम ने मांग ही लिया. जानते हैं,क्या? उसने कहा, "जिल्ले-इलाही मुझे एक दिन के लिए बादशाह बना दीजिये, बस." बादशाह हक्का बक्का.लेकिन जुबां दे चुका था, भरे दरबार में. सो हाँ, कर दी.
जैसे ही गुलाम बादशाह की जगह बैठा तख़्त पर. उसने हुक्म दिया, "बादशाह को कैद कर लिया जाए और उसका सर कलम कर दिया जाए." बादशाह चिल्लाता रहा, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी.
यही होता है, हमारे प्रजातन्त्र में. हर पांच साल में ये नेता लोग हाथ बाँध आ जाते है. गुलाम की तरह. और फिर सीट मिलते ही, गर्दन पर सवार हो जाते हैं जनता की. पांच साल की डिक्टेटर-शिप.
गुलाम ने हुकम कर दिया कि पब्लिक का पैसा मिट्टी. अब पब्लिक खड़ी है लाइन में. वो पूछती ही नहीं कि जिल्ले-इलाही मालिक तो हम हैं. जिल्ले-इलाही आपने जो पैसा चुनाव में खर्च किया था, वो कहाँ से आया था. जिल्ले-इलाही, हमने आपको नौकरी दी है,लेकिन हम अपनी जेब काटने का हक़ आपको नहीं दिया है, हम आटे में नमक आपको तनख्वाह में दे सकते हैं लेकिन आप हमारा आटा ही छीन लो, यह हम नहीं होने देंगे."
वो इसलिए नहीं पूछती चूँकि नौकर बहत शक्तिशाली हो चुका. वो बात भी करता है तो जैसे रामलीला का रावण. वो बात भी करता है तो खुद को 'मैं' नहीं कहता, खुद को 'मोदी' कहता है.
और उसका जनतंत्र में कोई यकीन है ही नहीं. जनतंत्र को तो हाईजैक करके ही वो PM बना और फिर से जनतंत्र को हाईजैक करने के लिए whats-app और फेसबुक और तमाम तरह के मीडिया पर उसने लोग छोड़ रखे हैं, जो भूखे कुत्तों की तरह जुटे हैं, हर विरोधी आवाज़ को दबाने.
सावधान रहिए. अँधेरे गड्डों में गिरने वाले हैं हम सब.
प्रजातंत्र में सरकार नौकर है और जनता मालिक.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक बढवाने की जिद्द नहीं कर सकता जब तक कि पहले सी दी जा रही तनख्वाह का हक़ ठीक से अदा न कर रहा हो.
नौकर अपनी तनख्वाह तब तक नहीं बढवा सकता, जब तक मालिक राज़ी न हो. नौकर कौन होता है जबरदस्ती करने वाला?
जनता की मर्ज़ी भई, अगर उसे कम तनख्वाह वाला नौकर पसंद हो तो वो वही रखेगी.
जनता को विकास चाहिए लेकिन इस शर्त पर नहीं कि उसकी जेब में पड़े एक रुपये की चवन्नी रह जाए.
नहीं यकीन तो पूछ के देख लो.
और बेहतर था यह सब गंदी-बंदी करने से पहले पूछते. और गाँव, गाँव, कस्बे-कस्बे पूछते.
यह क्या ड्रामा है? जो करना था, वो कर दिया. बाद में पूछते हो, वो भी मोबाइल app बना कर. जहाँ पचास प्रतिशत लोगों को वो app की abcd ही नहीं पता होगी. और अगर पता भी होगी तो कौन दुश्मन बनाए सरकार को अपनी असल राय ज़ाहिर करके.
देशद्रोही--- ये नोट-बंदी बिलकुल ही डिक्टेटर-शिप हो गई भैया.
भक्त- नहीं ऐसा नहीं, मोदी जी ने लोगों की राय ली है, नमो app के ज़रिये.
देशद्रोही- अच्छा है भैया, लेकिन यह राय किसी ऐसे ढंग से लेते कि उसमें सब लोग शामिल हो पाते. मतलब मेरे गाँव का भैंस चराने वाला ललुआ. खेत में मजदूरी करने वाला भोंदू. गाय के गोबर से सारा दिन उपले घड़ने वाली बिमला. नहीं?
भक्त- अबे चोप, मौका दिया न. आज कल मोबाइल फ़ोन घर-घर है. हर- हर मोबाइल, घर-घर मोबाइल.
देशद्रोही--- सर जी, लेकिन राय काम करे से पहले लेते तो कोई मतलब था. काम करने के बाद ली गई राय का क्या मतलब? नहीं?
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!
ठीक है, जैसे घर चलाने के लिए पैसा चाहिए, वैसे ही सरकारी तन्त्र चलाने के लिए पैसा चाहिए. सरकार को हम ने हक़ दिया है कि वो हम से टैक्स के रूप में पैसा ले सकती है. और जो व्यक्ति टैक्स दे वो इमानदार, जो न दे वो बे-ईमान. सही है न.
सरकार हक़ से आम आदमी से पूछती है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या पीया, क्या बचाया? लेकिन खुद अपना हिसाब कभी पब्लिक को नहीं देती, इस तरह से नहीं देती कि पब्लिक समझ सके कि सरकार कहाँ फ़िज़ूल खर्ची कर रही है और कहाँ ज़रूरत के बावजूद भी खर्चा नहीं कर रही.
मिसाल के लिए हमारा न्याय-तन्त्र सड़ा हुआ है, मुकदमें सालों बल्कि दशकों लटकते रहते हैं और जज की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते रहते हैं. हल है. जजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, हर कोर्ट में CCTV लगाए जा सकते हैं. लेकिन वहां खर्चा नहीं किया जा रहा.
हर छह महीने बाद ये जो 'स्वतंत्र-दिवस' 'गणतन्त्र-दिवस' मनाया जाता है, जन से, गण से कभी नहीं पूछा गया कि इसका खर्च बचाया जाए या नहीं.
बहुत जगह सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाहें बांटी जा रही हैं, जबकि उनसे आधी तनख्वाह पर उनसे बेहतर लोग भर्ती किये जा सकते हैं. मेरी गली में जो झाडू मारने वाली है उसे लगभग तीस हज़ार तनख्वाह मिलती है, उसने आगे दस हज़ार का लड़का रखा है जो उसकी जगह सारा काम करता है, मतलब जो काम दस हज़ार तक में करने वाले लोग मौजूद हैं, उनको तीस हज़ार सैलरी दी जा रही है. वहां खर्चा घटाया जा सकता है, वो नहीं घटाया जा रहा है बल्कि और बढाया जा रहा है. ये पे-कमीशन, वो पे-कमीशन. ये भत्ता, वो भत्ता.
कभी पब्लिक की राय भी ले लो भाई. आखिर पैसा तो उसी ने देना है. आखिर मालिक तो वही है. किताबी तौर पर.
क्या पब्लिक को मौका दिया कि वो समझ सके कि कहाँ-कहाँ कितना खर्च सरकार कर रही है और क्या पब्लिक के सुझाव लिए कि कहाँ-कहाँ वो कितना खर्च घटाना या बढ़ाना चाहेगी? क्या मौका दिया जनता-जनार्दन को कि वो समझ सके कि वो कैसे खुद पर टैक्स का बोझ घटा सकती है?
जैसे कोई व्यक्ति अपने ऊपर टैक्स का बोझ घटाने के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट के पास जाता है. अपना सब जमा-घटा, खाया-कमाया-बचाया बताता है और फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट उसे सलाह देता है ठीक उसी तरह से सरकार को जनता को मौका देना चाहिए कि जनता सरकारी खर्च घटाने या बढाने के लिए सरकार को सलाह दे. आखिर पता तो लगे कि ये जो अनाप-शनाप टैक्स थोपे जाते हैं इनमें से कितने घटाए जा सकते हैं, हटाये जा सकते हैं. पता तो लगे कि क्या एक सीमा के बाद हर व्यक्ति यदि अपनी कमाई का 10/15 परसेंट यदि टैक्स में दे तो उससे सरकार का काम चल सकता है या नहीं.
और यदि कोई सरकार ऐसा नहीं करती, और जनता पर बस टैक्स ठोके जाती है और टैक्स न देने वाले को बे-ईमान घोषित करती है तो वो सरकार खुद बे-ईमान है.
अब मोदी जी के आसमानी निर्णय की बात. क्या उन्होंने यह निर्णय जनता पर थोपने से पहले जनता को मुल्क के खर्चे का हिसाब किताब बताया? जब वोट लेने थे तो घर-घर मोदी, हर-हर मोदी किया जा रहा था, लेकिन नोट छीनने से पहले घर-घर सरकारी खर्चे का हिसाब-किताब क्यों नहीं पहुँचाया? क्यूँ नहीं जनता से सलाह ली कि समाज में, निजाम में ऐसे क्या परिवर्तन किये जाएं कि लोगों को टैक्स आटे में नमक जैसा लगे?
टैक्स की चोरी होती क्यूँ है? चूँकि वो नमक ही नहीं, आधे से ज़्यादा आटा भी छीन लेता है.
आज अगर कोई झुग्गी वाला बच्चा पैदा करता है तो उसका खर्चा भी सरकार पर पड़ता है, उसे कहीं न कहीं सरकारी दवा, सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल, सरकारी सुविधा की ज़रुरत पड़ती है. वो खर्चा हमारी आपकी जेब से निकालती है सरकार. और सिधांतत: सरकार हम ही हैं याद रहे. तो क्या हम ऐसी इजाज़त देते रहना चाहते हैं कि समाज में कोई भी बच्चों का अम्बार लगाता जाए और हम उसके लिए टैक्स भरते रहें. यानि करे कोई और भरे कोई, यह व्यवस्था है या कुव्यवस्था?
तो यह जो मोदी जी या कोई भी नेता कहता है कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है, उसका मतलब यही है कि जितने मर्ज़ी बच्चे पैदा करो, उनका खर्चा टैक्स के रूप में पैसे वालों की जेबों से निकाला जाएगा. और गरीब ताली बजाएगा. उसे पता नहीं ऐसा नेता उसका शुभ-चिन्तक नहीं है, उसका छुपा दुश्मन है. ऐसा नेता उसे समृधि नहीं, अनंत ग़रीबी की और धकेल रहा है और ऐसा नेता बाकी समाज को मजबूर कर रहा है अपनी मेहनत की कमाई इन गरीबों पर खर्च करने के लिए.
जब मोदी जी जैसे नेतागण कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है तो उसका मतलब साफ़ है, गरीब बने रहो, ज़रा से अमीर बनने का प्रयास भी किया तो सरकार हाथ-पैर धो कर तुम्हारे पीछे पड़ जायेगी. अमेरिका के बारे में एक बात प्रसिद्ध है कि America is a land of Opportunities. People in America can have a Great American Dream. यानि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी बुलंदियों पर पहुँच सकता है, लेकिन हमारे यहाँ के नेता कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार है. वो भूल ही जाते हैं कि हर गरीब के अंतर-मन में अमीर होने की इच्छा है. वो भूल जाते हैं कि लोग साफ़ समझ रहे हैं कि ये नेतागण उनके अमीर होने में बाधक है. वो भूल जाते हैं कि हर सरकार को अमीर और गरीब दोनों का होना चाहिए, हर सरकार को हर गरीब को अमीर होने का मौका देना चाहिए. हर नेता को यह घोषित करना चाहिए कि उसके शासन में अमीर होना कोई गुनाह नहीं है.
भाई मेरे, नेता कोई भी हो, भीड़ के सम्मोहन में फंस कर तालियाँ पीटने से समाज की समस्याएं हल नहीं होंगी. समस्या हल होती हैं उन पर गहरे में सोचने से.
मोदी जी का नोट-बंदी का निर्णय मोदी जी और भाजपा के अस्तित्व के लिए निर्णायक सिद्ध होगा. चूँकि जब तक सरकार खुद बे-ईमान हो, निजाम खुद बे-ईमान हो, जब तक टैक्स आटे में नमक जैसे न हों, जब तक टैक्स का पैसा कहाँ कितना खर्च हो रहा है उसका जन-जन को हिसाब न दिया जाए, कहाँ कितना खर्च बढाया, जाए, घटाया जाए जन-जन से पूछा न जाए, तब तक किसी के पैसे को काला पैसा घोषित करने का किसी भी सरकार को कोई हक़ नहीं है. तब तक किसी को भी बे-ईमान घोषित करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है. और जनता जो भी पैसा कमाती है, यदि वो चोरी-डकैती का नहीं है, किसी से धोखा-धड़ी करके नहीं इकट्ठा किया गया, किसी भी और किस्म के अपराध से हासिल नहीं किया गया तो वो सब सफेद है.
और याद रखिये सरकार हमारी है. सरकार हम खुद हैं. प्रजातंत्र इसे ही कहते हैं.
आज सभी विपक्षी राजनितिक दलों के पास मौका है, सुनहरा मौका. एक जुट हो जाएं और जनता को गहरे में समझाएं कि यह नीति कहाँ गलत है. जनता की दस-बीस दिन की दिक्कतों को गिनवाने मात्र से कुछ नहीं होगा, वो तो आज नहीं कल कम हो ही जानी हैं. वो मुद्दा कोई बहुत दूर तक फायदा नहीं देगा इन दलों को. फायदा तब मिलेगा जब मोदी-नीति गहरे में कहाँ गलत है, यह समझा और समझाया जाए. समाज-शास्त्र को बीच में लाया जाए. मुल्क की इकोनोमिक्स को बिलकुल आसान करके जनता को समझाये जाने का आग्रह किया जाए. जनता को उसका हक़ याद कराया जाए. जनता को जनतंत्र की परिभाषा समझाई जाए. मालिक को उसका हक़ दिया जाए और नौकर को उसकी जगह दिखाई जाए. और जनता को हक़ दिया जाए कि वो खुद फैसला कर सके कि क्या वो आटे में नमक से ज़्यादा टैक्स सरकार को देना चाहती है या नहीं, जनता को उसके मालिक होने का हक़ लौटाया जाए, उसे हक़ दिया जाए कि वो खुद तय कर सके कि सरकारी कामों के लिए कितना पैसा खर्च किया जाए, कहाँ खर्च बढ़ाया जाए, कहाँ घटाया जाए.
जो दल ऐसा करने की हिम्मत करेंगे, वो अप्रत्याशित रूप से फायदे में रहेंगे. और जनता भी.
और एक बात. मोदी-भक्ति ही देश-भक्ति नहीं है. और आरएसएस ही मात्र देश-भक्त नहीं है. और सरकार का विरोध देश-विरोध नहीं है, देश-द्रोह नहीं है. अपने वक्त की सरकारों का अक्सर लोग विरोध करते हैं और यह सबका प्रजातांत्रिक अधिकार है. और बहुत से लोग जो अपने समय की सरकारों का विरोध करते थे, उस वक्त जेलों में डाल दिए गए, फांसियों पर चढ़ा दिए गए और बाद में जन-गण को समझ आया कि उनसे बड़ा शुभ-चिन्तक कोई नहीं था. देशभक्ति की परिभाषा भी नेतागण ने अपने हिसाब से बना रखी है.
वैसे यह जो सब कुछ मैंने लिखा २०१४ में भाजपा भी यही सब कहती थी. यकीन न हो तो भाजपा की spokes-person मीनाक्षी लेखी के विडियो youtube पर देख लीजिये. और भाजपा भी उन दलों में से एक है जिसने आज तक RTI के तले खुद को लाए जाने का विरोध ही किया है.
कहानी आपने पढ़ी सुनी होगी. एक फ़कीर के पास कोई औरत गई कि “मेरे बच्चे को समझा दीजिए, बहुत ज़्यादा गुड़ खाता है.” फ़कीर ने कहा, “हफ्ते बाद आना.” औरत फिर आई. फ़कीर ने कहा,”चार दिन बाद आना.” वो चार दिन बाद आई. फ़कीर ने कहा, “दस दिन बाद आना.” वो दस दिन बाद आई. अब फ़कीर ने कहा, “लाओ बच्चे को.” बच्चा लाया गया. फ़कीर ने उसे समझाया, “गुड़ छोड़ दे बेटा. कभी-कभार ठीक है खाना, लेकिन हर वक्त खाना सही नहीं.” अब औरत हैरान! बोली, “भगवान, पहले दिन ही क्यूँ नहीं समझाया?” फ़कीर ने कहा, “बेटा तब मैं खुद खाता था बहुत ज़्यादा, इत्ते दिन मुझे लगे छोड़ने में और जो गलत काम खुद करता हो, बेहतर है वो खुद्द उसे छोड़े पहले तभी दूसरों को उपदेश दे.” अब पुरानी कहानी है. लेकिन हमारी राजीनीतिक पार्टियाँ समझती नहीं और भाजपा भी उनमें शामिल है. अपना काला-गोरा धन पब्लिक के सामने लाना नहीं चाहती और पब्लिक के अढाई लाख के पीछे पड़ी है. खैर, इलेक्शन में इनके गुड़ को गोबर कीजिये, तब्बे समझ आएगा इन्नो.
आमिर खान की लगान फिल्म याद हो शायद आपको, सारा संघर्ष टैक्स कोलेकर था. आप-हम आज परवाह ही नहीं करते, कब-कहाँ से सरकार हमारे जेब काटती रहती है. शायद हमने मान लिया है कि सरकारें जब चाहें, जितना चाहें, जहाँ चाहे हम से पैसा वसूल सकती हैं. दफा कीजिये इस मिथ्या धारणा को और आज से यह देखना शुरू कीजिये कि आपकी सरकारें पैसा वसूल सरकारें हैं या नहीं...ठीकऐसे ही जैसे आप देखते हैं कि कोई फिल्म पैसा वसूल फिल्म है या नहीं
निचोड़ यह है - - -
1. कोई धन ‘काला धन’ नहीं होता जब तक सरकार टैक्स आटे में नमक जैसा न लेती हो.
2. कोई व्यक्ति चोर नहीं होता जब तक सरकार टैक्स चोरों जैसे न लेती हो.
3. कोई व्यक्ति बे-ईमान नहीं होता जब तक सरकार खुद इमानदार न हो.
4. कोई टैक्स ही सही नहीं होता जब तक उसमें सबकी भागीदारी न हो. मतलब जो लोग टैक्स देने के काबिल न हों उनको इस मुल्क में बच्चे पैदा करने का हक़ भी क्यूँ हो? क्या आप पड़ोसी के बच्चे को पालने के लिए ज़िम्मेदार हैं. अगर नहीं तो फिर जो टैक्स नहीं भर सकते उनके बच्चे आप क्यूँ पालें?
5. कोई राजनितिक दल जब तक खुद काले -गोर चंदे के दल-दल में फंसा हो, धंसा हो, rti में आना न चाहता हो, कोई हक़ नहीं उसे जनता के साथ आँख मिला कर काला काल धन चिल्लाने का.
6. आपने दुकानदार देखें होंगे, ऐसे जो बस एक ही ग्राहक आ जाए तो उसे लूट लें. और ऐसे भी देखे होंगे जो होलसेल टाइप से काम करते हैं, बहुत कम कमाते हैं हर आइटम पर, लेकिन कुल मिला कर बहुत ज़्यादा कमाते हैं. बस यही समझना था हमारी सरकार को. इन बिन्दुओं पर सोचें, समझ आ जायेगी, देशद्रोह के, बेईमान के ठप्पे लगाने से कुछ नहीं होगा, दिमाग पर जोर देने से होगा.
“नया समाज”
मैं लिख रहा हूँ अक्सर कि एक सीमा के बाद निजी सम्पति अगली पीढी को नहीं जानी चाहिए.......बहुत मित्र तो इसे वामपंथ/ कम्युनिस्ट सोच कह कर ही खारिज कर रहे हैं.....आपको एक मिसाल देता हूँ......भारत में ज़मींदारी खत्म हुई कोई साठ साल पहले......पहले जो भी ज़मीन का मालिक था वोही रहता था...लेकिन कानून बदला गया....अब जो खेती कर रहा था उसे मालिक जैसे हक़ दिए गए.....उसे “भुमीदार” कहा जाने लगा...यहएक बड़ा बदलाव आया...."ज़मींदार से भुमिदार".
भुमिदार ज़रूरी नहीं मालिक हो... वो खेती मज़दूर भी हो सकता था....वो बस खेती करता होना चाहिए किसी भूभाग पर....उसे हटा नहीं सकते....वो लगान देगा...किराया देगा...लेकिन उसकी अगली पीढी भी यदि चाहे तो खेती करेगी वहीं.
कल अगर ज़मीन को सरकार छीन ले, अधिग्रहित कर ले तो उसका मुआवज़ा भी भुमिदार को मिलेगा
यह था बड़ा फर्क
यही फर्क मैं चाहता हूँ बाकी प्रॉपर्टी में आये......पूँजी पीढी दर पीढी ही सफर न करती रहे...चंद खानदानों की मल्कियत ही न बनी रहे ...एक सीमा के बाद पूंजी पब्लिक डोमेन में जानी चाहिए
इसे दूसरे ढंग से समझें....आप कोई इजाद करते हैं...आपको पेटेंट मिल सकता है...लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि आप या आपकी आने वाली पीढ़ियों को हमेशा हमेशा के लिए उस पेटेंट पर एकाधिकार रहेगा..नहीं, एक समय सीमा के बाद वो खत्म हो जायेगा...फिर उस इजाद पर पब्लिक का हक़ होगा.....आप देखते हैं पुरानी क्लासिक रचनाएँ इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध हैं.
धन भी एक तरह की इजाद है, एक सीमा तक आप रखें, उसके बाद पब्लिक डोमेन में जाना चाहिए
एक और ढंग से समझें.....पैसे की क्रय शक्ति की सीमा तय की जा सकती है..और की जानी चाहिए यदि समाज में वो असंतुलन पैदा करता हो........आप कुछ दशक पीछे देखें राजा लोगों की एक से ज़्यादा बीवियां होती थीं....लेकिन आज बड़े से बड़ा राजनेता एक से ज़्यादा बीवी नहीं रख सकता ....रखैल रखे, चोरी छुपे रखे वो अलग बात है...खुले आम नहीं रख सकता....क्यूँ? चूँकि यदि आप पैसे वालों को एक से ज़्यादा स्त्री रखने का हक़ खुले आम दे देंगे तो समाज में असंतुलन पैदा होगा.....हडकम्प मच जायेगा...सो पैसे की सीमा तय की गयी
एक और ढंग से समझें, आप घी तेल, चीनी जमा नहीं कर सकते...काला बाज़ारी माना जाएगा..लेकिन आप मकान जमा कर सकते हैं.....वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है.....वो सम्मानित क्यूँ है? निवेश क्यूँ है? वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है? बिलकुल है. जब आप घी, तेल, चीनी आदि जमा करते हैं तो समाज में हाय तौबा मच जाते है..आप बाकी लोगों को उनकी बेसिक ज़रूरत से मरहूम करते हैं.....आप जब मकान जमा करते हैं तब क्या होता है? आप को खुद तो ज़रुरत है नहीं. आप ज़रूरतमंद को लेने नहीं देते. आप बाज़ार पर कब्जा कर लेते हैं. आप निवेश के नाम पर हर बिकाऊ सौदा खरीद लेते हैं और उसे असल ज़रूरतमंद को अपनी मर्ज़ी के हिसाब से बेचते हैं. यह काला बाज़ारी नहीं तो और क्या है?
एक निश्चित सीमा तक किसी भी व्यक्ति का कमाया धन उसके पास रहना चाहिए, उसकी अगली पीढ़ियों तक जाना चाहिए....इतना कि वो सब सम्मान से जी सकें.....बाकी पब्लिक डोमेन में ...
आपको यह ना-इंसाफी लग सकती है ..लेकिन नहीं है... यह इन्साफ है....मिसाल लीजिये, आपके पास आज अरबों रुपैये हों..आप घर सोने का बना लें लेकिन बाहर सड़क खराब हो सकती है, हाईवे सिंगल लाइन हैं, दुतरफा ट्रैफिक वाले.....आपको इन पर सफर करना पड़ सकता है , एक्सीडेंट में मारे जा सकते हैं आप....साहिब सिंह वर्मा, जसपाल भट्टी और कितने ही जाने माने लोग सड़क एक्सीडेंट में मारे गए हैं ....
दूसरी मिसाल लीजिये, समाज में यदि बहुत असंतुलन होगा, तो हो सकता है कि आपके बच्चे का कोई अपहरण कर ले, क़त्ल कर दे....अक्सर सुनते हैं कि बड़े अमीर लोगों के बच्चे अपहरण कर लिए जाते हैं और फिर फिरौती के चक्कर में मार भी दिए जाते हैं ....
सो समाज में यदि पैसा बहेगा, सही ढंग से पैसा प्रयोग होगा तो व्यवस्था बेहतर होगी, संतुलन होगा, सभी सम्मानपूर्वक जी पायेंगे यदि तो उसका फायदा सबको होगा..अब मैं आज की व्यवस्था की बात नहीं कर रहा हूँ जिसमें व्यवस्थापक सबसे बड़ा चोर है......यह तब होना चाहिए जब व्यवस्था शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो...और ऐसा जल्द ही हो सकता है...व्यवस्थापक को CCTV तले रखें, इतना भर काफी है
और निजी पूँजी सीधे भी पब्लिक खाते में डाली जा सकती है, सीधे कोई भी व्यक्ति लाइब्रेरी, सस्ते अस्पताल, मुफ्त स्कूल बनवा सकता है और कुछ भी जिससे सब जन को फायदा मिलता हो
मेरे हिसाब से यह पूंजीवाद और समाजवाद का मिश्रण है, ऐसा हम अभी भी करते हैं...तमाम तरह के अनाप शनाप टैक्स लगा कर जनता से पैसा छीनते हैं और जनता के फायदे में लगाने का ड्रामा करते हैं, कर ही रहे हैं. लेकिन यदि यह व्यवस्था सही होती तो आज अधिकांश लोग फटे-हाल नहीं, खुश-हाल होते.
सो ज़रुरत है, बदलाव की. व्यवस्था शीशे जैसे ट्रांसपेरेंट हो....टैक्स बहुत कम लिया जाए..आटे में नमक जैसा. अभी तो सुनता हूँ कि यदि सब टैक्स जोड़ लिया जाए तो सौ में पचास पैसा टैक्स में चला जाता है...यह चोर बाज़ारी नहीं तो और क्या है? कोई टैक्स न दे तो उसका पैसा दो नम्बर का हो गया, काला हो गया. इडियट. कभी ध्यान दिया सरकार चलाने को, निजाम चलाने को, ताम-झाम चलाने को जो पैसा खर्च किया जाता है, यदि ढंग से उसका लेखा-जोखा किया जाए तो मेरे हिसाब से आधा पैसा खराब होता होगा..आधे में ही काम चल जाएगा....फ़िज़ूल की विदेश यात्रा, फ़िज़ूल के राष्ट्रीय उत्सव, शपथ ग्रहण समारोह, और सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाह.....किसके सर से मुंडते हैं?...सब जनता से न. जनता से हिसाब लेते है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या हगा, क्या मूता, कभी जनता को हिसाब दिया, कभी बताया कि कहाँ कहाँ पैसा खराब किया, कहाँ कहाँ बचाया जा सकता था, कभी जनता की राय ली कि क्या क्या काम बंद करें/ चालू करें तो जनता पर टैक्स का बोझ कम पड़े.
व्यवस्था बेहतर होगी तो आपको वैसे भी बहुत कम पुलिस, वकील, जज, अकाउंटेंट, डॉक्टर, आदि की ज़रुरत पड़ने वाली है ..सरकारी खर्चे और घट जायेंगे.
व्यवस्था शीशे की तरह हो, व्यवस्थापक अपने खर्चे का जनता को हिसाब दें, जनता से अपने खर्च कम ज़्यादा करने की राय लें...जहाँ खर्च घटाए जा सकते हैं, वहां घटाएं...टैक्स कम से कम हों.......निजी पूंजी को एक सीमा के बाद पब्लिक के खाते में लायें.....यह होगा ढंग गरीब और अमीर के बीच फासले को कम करने का....समाज को आर्थिक चक्रव्यूह से निकालने का
अब इसमें यह भी जोड़ लीजिये कि जब निजी पूँजी पर अंकुश लगाया जाना है तो निजी बच्चे पर भी अंकुश लगाना ज़रूरी है....सब बच्चे समाज के हैं.....निजी होने के बाद भी...यदि अँधा-धुंध बच्चे पैदा करेंगे तो समाज पर बोझ पड़ेगा....सिर्फ खाने, पीने, रहने, बसने, चलने फिरने का ही नहीं, उनकी जहालत का भी. एक जाहिल इंसान पूरे समाज के लिए खतरा है, उसे बड़ी आसानी से गुमराह किया जा सकता है. भला कौन समझदार व्यक्ति अपने तन पर बम बाँध कर खुद भी मरेगा और दूसरे आम जन को भी मारेगा? जाहिल है, इसलिए दुष्प्रयोग किया हा सकता है. बड़ी आसानी से कहीं भी उससे जिंदाबाद मुर्दाबाद करवाया जा सकता है. असल में समाज की बदहाली का ज़िम्मेदार ही यह जाहिल तबका है. उसके पास वोट की ताकत और थमा दी गयी है. सो यह दुश्चक्र चलता रहता है. एक बच्चे को शिक्षित करने में सालों लगते हैं, पैसा लगता है, मेहनत लगती है......आज बच्चा पैदा करने का हक़ निजी है लेकिन अस्पताल सरकारी चाहिए, स्कूल सरकारी चाहिए..नहीं, यह ऐसे नहीं चलना चाहिए, यदि आपको सरकार से हर मदद चाहिए, सार्वजानिक मदद चाहिए तो आपको बच्चा भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर ही पैदा करने की इजाज़त मिलेगी. आप स्वस्थ हैं, नहीं है, शिक्षित हैं नहीं है, कमाते हैं या नहीं..और भी बहुत कुछ. बच्चा पैदा करने का हक़ कमाना होगा. वो हक़ जन्मजात नहीं दिया जा सकता.
उसके लिए यह भी देखना होगा कि एक भू भाग आसानी से कितनी जनसंख्या झेल सकता है, उसके लिए सब तरह के वैज्ञानिकों से राय ली जा सकती है, आंकड़े देखे जा सकते हैं, उसके बाद तय किया जा सकता है. जैसे मानो आज आप तय करते हैं कि अमरनाथ यात्रा पर एक समय में एक निश्चित संख्या में ही लोग भेजे जाने चाहिए..ठीक वैसे ही
बस फिर क्या है, समाज आपका खुश-हाल होगा, जन्नत के आपको ख्वाब देखने की ज़रुरत नहीं होगी, ज़िंदगी पैसे कमाने मात्र के लिए नहीं होगी, आप सूर्य की गर्मी और चाँद की नरमी को महसूस कर पायेंगे, फूलों के खिलने को और दोस्तों के गले मिलने का अहसास अपने अंदर तक समा पायेंगे
अभी आप हम, जीते थोड़ा न हैं, बस जीने का भ्रम पाले हैं
जीवन कमाने के लिए है जैसे, जब कोई मुझ से यह पूछता है कि मैं क्या करता हूँ और जवाब में यदि मैं कहूं कि लेखक हूँ, वक्ता हूँ, वो समझेगा बेरोजगार हूँ, ठाली हूँ...कहूं कि विवादित सम्पत्तियों का कारोबारी हूँ तो समझेगा कि ज़रूर कोई बड़ा तीर मारता होवूँगा
कुछ मैंने कहा, बाकी आप कहें, स्वागत है
नमन.....कॉपी राईट लेखन.......तुषार कॉस्मिक.
Sunday, 4 December 2016
देशद्रोही-- सर जी, मेरे एक दोस्त को अधरंग था.
भक्त--- दुःख की बात है लेकिन मुझे क्यों बता रहा है?
भक्त--- दुःख की बात है लेकिन मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- सर जी, उसका एक दोस्त एथलेटिक का कोच था.
भक्त--- तो मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- सर जी, सुनो तो, वो कोच दोस्त उसे अंतर-राष्ट्रीय एथलेटिक प्रतियोगिता में जबरदस्ती ले गया.
भक्त--- बढ़िया है.
देशद्रोही-- और न सिर्फ ले गया, बल्कि वहां सौ मीटर की दौड़ में दौड़ा भी दिया.
भक्त--- हम्म...... लेकिन मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- वो मर गया सर जी.
भक्त--- दुःख की बात है यार यह तो.
देशद्रोही-- सर जी, क्या बेहतर नहीं था कि पहले उसे ठीक हो जाने देते. ताकि उसके अंग-प्रत्यंग ठीक से काम कर सकें? फिर उसे वर्ल्ड क्लास ट्रेनिंग दी जाती, फिर दौड़ा लेते. प्रतियोगिता ठीक से फाइट तो करता वो, और क्या पता कोई मैडल भी जीत लेता?
भक्त— बात तो ठीक है यार तेरी.
देशद्रोही-- सर जी, वो दोस्त और कोई नहीं मेरा भारत है, जिसकी आधी आबादी की इकॉनमी को अधरंग हो रखा है, पहले ही कैश-लेस थी, उसके पास ठीक से रहने, खाने तक का कैश नहीं था, उसे मोदी जी जबरन कैशलेस करने लगे हैं. वो मर जाएगा सर जी.
भक्त—अबे चोप्प!देशद्रोही!!
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